tag:blogger.com,1999:blog-58269081658408300902024-03-12T18:33:37.185-07:00बतकहीअपना चलभाष: 09868419453
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यारो किसी माहौल में ढलता नहीं हूँ मैं,
ठोकर लगे तो राह बदलता नहीं हूँ मैं !
रख दूँ जहाँ कदम नए रास्ते बनें,
खीचीं हुई लकीर पर चलता नहीं हूँ मैं !!आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.comBlogger363125tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-86587675174981355262017-09-08T13:07:00.001-07:002017-09-08T13:07:35.670-07:00संवाद 'अच्छे लोगों' से...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
<br /><b><i>डांडी (नवसारी) गुजरात से चम्पारण (बिहार)<br />यात्रा की दूरी : 1700 किमी<br />यात्रा का समय: 02 अक्टूबर 2017 से 15 अक्टूबर 2017 तक</i></b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
<b><i><br /></i></b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
वर्ष 2017 गांधी सत्याग्रह के 100 साल पूरे होने का साल है। यह सही समय होगा गांधी को थोड़ा ठहर कर याद करने का। प्रयासपूर्वक गांधी के अनुकरण का। गांधी के लिखे को पढ़ने का। गांधी की तरफ दो कदम लौटने का। सड़क से लेकर मीडिया तक हम जिस शोर से इन दिनों गुजर रहे हैं, हमें पता ही नहीं कि इस शोर से गुजरना एक 'हिंसा' से गुजरने की तरह है। बहरहाल हम बात वर्तमान पत्रकारिता की करें तो यही वजह है कि आज अखबार और टेलीविजन की पत्रकारिता के प्रति समाज में निराशा व्याप्त है। एक आम आदमी के लिए उम्मीद की किरण कहां है, सुबह—सुबह अंधेरे को चिरती धरती पर पसरती वह सूरज की रोशनी कहां है? पुलिस थाने की छवि आज लूट के अडडे की बन गर्इ् है, न्यायालयों की ईंट—ईंट मानों पीड़ितों के शोषण की गवाही दे रही हों, राजनीति से आम आदमी का विश्वास पहले ही हिला हुआ है। शिक्षकों की छवि देश भर में शिक्षा मित्रों ने अनपढ़ों की बना दी है। मानों इस समय पूरी सृष्टि ही मिलकर देश को निराशा में धकेलने के लिए कोई षडयंत्र कर रही हो।<br />ऐसे समय में लगा कि समाज को इस तपती धूप से बचाने वाला कोई गांधीजी जैसा वटवृक्ष ही हो सकता है और फिर गांधी मार्ग पर डांडी से चंपारण तक एक यात्रा की योजना ऐसे बनी। चम्पारण सत्याग्रह के 100 साल पर यह यात्रा होगी 100 'अच्छे लोग' की पहचान के लिए। अच्छे लोग से मेरा तात्पर्य सिर्फ इतना है कि जिस व्यक्ति के जिम्मे जो काम था, वह काम उसने पूरी शिददत से किया। दिल्ली के हिन्दू कॉलेज के प्राध्यापक डॉ रतन लाल दशरथ माझी के नाम पर एक पुरस्कार देते हैं। इस पुरस्कार को पाने वाले एक अच्छे लोग से मैं मिला। वे एक कॉलेज में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे लेकिन जब तक उन्होंने नौकरी की, एक दिन भी कॉलेज एक मिनट देरी से नहीं पहुंचे। उनका काम कॉलेज का दरवाजा खोलना था, उनके लिए एक शिकायत नहीं थी कि कोई प्राध्यापक या छात्र कॉलेज के दरवाजे पर आया हो और दरवाजा खुला ना मिला हो। मेरी यात्रा के अच्छे लोग वे हैं, जिन्होंने वकालत की तो इस पेशे का मान बढ़ाया, शिक्षक हुए तो छात्रों में पढ़ने के प्रति लगाव बढ़ा, पुलिस वाले हुए तो अपराधियों में खौफ की वजह बने और आम आदमी के मन में विधि व्यवस्था के प्रति विश्वास बढ़ा। पत्रकार हुए तो समाज के अंतिम आदमी को लगा कि अब उसकी बात भी सुनी जाएगी। नेता हुए तो उसके दरवाजे पर जाते हुए जनता ने समय नहीं देखा। वे पहुंच गए और जनता की सेवा के लिए नेताजी ने भी कभी घड़ी की तरफ नहीं देखा।<br />डांडी से चंपारण की राह आप सबके साथ इस उददेश्य के साथ कर रहा हूं कि इस राह में आप किसी 'अच्छे लोग' को जानते हैं तो उनका परिचय हमसे जरूर कराएं। उनका परिचय और कॉन्टेक्ट नंबर हमें वाटसएप करें। या हमें फोन कीजिए। इन दो कामों के लिए एक ही नंबर है— 91 9971598416<br /><br /><br /><br /><b>जिस रास्ते पर चल कर होगी डांडी से चंपारण की यात्रा पूरी</b><br />नवसारी— सूरत — अंकलेश्वर — भरूच — बड़ोदरा— गोधरा — दाहोद — मेघनगर — रतलाम— नागदा — उज्जैन — शाजापुर — सारंगपुर — कुम्भराज— विजयपुर — गुना — अशोक नगर — मुगौली— बीना — ललितपुर — बबिना — झांसी — उरई — काल्पी — पोखरिया — कानपुर — उन्नाव — लखनऊ— बाराबंकी— रूदौली— फैजाबाद— अयोध्या — अकबरपुर— शाहगंज — सरायमिर — आजमगढ़ — मोहम्मदबाद— मऊ— इन्द्रा जंक्शन — बलिया — छपरा — सोनपुर — हाजीपुर — मुजफ्फरपुर — बापूधाम<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-44o4_QUzPAQ/WbL4dPaprTI/AAAAAAAAGxs/vbi74h2Wb4YjZq3YjZRkRYlw251jYKqOwCLcBGAs/s1600/ANSHU.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="889" data-original-width="893" height="318" src="https://3.bp.blogspot.com/-44o4_QUzPAQ/WbL4dPaprTI/AAAAAAAAGxs/vbi74h2Wb4YjZq3YjZRkRYlw251jYKqOwCLcBGAs/s320/ANSHU.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आप इस यात्रा में कैसे जुड़ सकते हैं—</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
<b><i>— इस यात्रा के संबंध में अपने सुझाव देकर<br />— सोशल मीडिया पर इस संबंध में जानकारी साझा करके<br />— यात्रा के मार्ग में कुछ अच्छे लोगों का परिचय साझा करके<br />— जिन व्यक्ति के संबंध में आप जानकारी साझा कर रहे हैं, आपसे अपेक्षा होगी कि आप उनका कॉन्टेक्ट नंबर और उनका संक्षिप्त परिचय साझा करेंगे<br />— यदि आप इस रास्ते में कहीं मिल सकते हैं, तो वास्तव में आपसे मिलकर प्रसन्नता होगी<br />— अच्छे लोग की पहचान यात्रा में करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा। इस काम में आप हमारी मदद कर सकते हैं।<br />— इस यात्रा को पूरा करने के लिए धन की आवश्यकता भी होगी। आप <a href="https://eazypay.icicibank.com/eazypayLink?P1=Odf%20nUa0w8Hy6JJJEVuoxA%3D%3D">ईजी पेय</a> के माध्यम से यात्रा को आर्थिक सहयोग दे सकते हैंं।<br />— सहयोग की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए आर्थिक सहयोग करने वाले मित्रों की सूचि इस यात्रा के पश्चात प्रकाशित पुस्तिका में करेंगे। इसलिए सहयोग करने वाले मित्रों से निवेदन होगा कि सहयोग के पश्चात अपना नाम और सहयोग की राशि 91 9971598416 पर जरूर एसएमएस कीजिए।</i></b></div>
</div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-72021936045075006862016-08-21T03:53:00.003-07:002016-08-21T03:53:28.871-07:00शौहर, बेगम और दूसरी पत्नी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
'‘बांग्लादेशी भारत में घुस रहे हैं और आदिवासी महिलाओं से शादी कर रहे हैं। केन्द्र और राज्य दोनों के लिए यह चिन्ता का विषय है। खासकर बांग्लादेश से सटे झारखंड के पाकुर, साहबगंज आदि जिलों में ऐसा चलन बढ़ रहा है। पिछले कुछ समय से ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं। इसलिए राज्य सरकार और पुलिस को अपना खुफिया तंत्र अधिक मजबूत करना होगा। जिससे बांग्लादेशी घुसपैठियों को रोक कर उनकी मंशा पर लगाम लगाया जा सके।’'<br /><b><i>सुदर्शन भगत</i>, केन्द्रिय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री, भारत सरकार</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
झारखंड की आदिवासी महिलाएं राज्य की ताकत हैं। उन्हें अधिकार प्राप्त है। उनका समाज में सम्मान भी है। इन लड़कियों को गैर आदिवासी समाज जो दूसरी और तीसरी पत्नी के तौर पर अपने पास रखता है, उनके हाथों इनका शोषण भी हुआ है। ये गैर आदिवासी वे हैं, जो बाहर से आकर झारखंड में बसना चाहते हैं। झारखंड की सम्पदा पर कब्जा चाहते हैं। एक खास धर्म के लोगों को इस देश में एक से अधिक बेगम रखने की इजाजत है। उन लोगों ने अपने धर्म की इस कमजोरी का लाभ उठाकर एक एक पुरुष ने कई-कई स्त्रियों से शादी की। इस शादी की आड़ लेकर उन्होंने झारखंड की संपत्ति और संपदा पर कब्जा किया। साथ में आदिवासी लड़कियों का शारीरिक और आर्थिक शोषण भी किया। रांची के माडर से लेकर लोहरदगा तक बांग्लादेशी घुसपैठियों ने बड़ी संख्या में इस तरह की शादी की है। इतना ही नहीं इन शादियों में क्रिश्चियन बनी आदिवासी लड़कियों ने दूसरी और तीसरी पत्नी बनकर गैर आदिवासी पुरुषों से अधिक संख्या में शादी की है लेकिन किसी फादर या कॉर्डिनल ने इस संबंध में छोटा सा बयान भी नहीं दिया। लेकिन अब आदिवासी समाज जग रहा है और बेगम जमात की चालाकियों को खूब समझ रहा है। वह इस बदमाशी को अधिक समय तक आने वाले दिनों में बर्दाश्त करने वाला नहीं है।<br /><b><i>पद्मश्री अशोक भगत</i>, विकास भारती</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
समाज किसी का हो, दो पत्नी रखना सही नहीं ठहराया जा सकता। क्या तीन पत्नी रखने वाले अपनी तीनों पत्नियों को दो-दो और पत्नी रखने की इजाजत देंगे?<br /><b><i>अमिता मुंडा</i>, आदिम जाति सेवा मंडल</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
झारखंड में दूसरी या तीसरी पत्नी बनकर गैर आदिवासियांे के परिवार में जो लड़कियां जा रहीं हैं, उनमें ध्यान देने वाली बात यह है कि उन लड़कियों में अधिकांश कामकाजी लड़कियां हैं। वह अपनी आमदनी से अपने पति को भी मदद करती हैं। इन कामकाजी लड़कियों में आदिवासी क्रिश्चियन लड़कियों की संख्या अधिक है। जो दूसरी या तीसरी पत्नी बनकर जा रहीं हैं।<br /><b><i>दिवाकर मिंज</i>, प्राध्यापक, रांची विवि</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-top: 6px;">
</div>
<div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-top: 6px;">
<br /></div>
</div>
<i>रांची राजमार्ग </i>से तीन किलोमीटर अंदर की तरफ जाने पर इटकी प्रखंड आता है। मुख्य सड़क से अंदर जाने का रास्ता कच्चा-पक्का है। जब आप इटकी में दाखिल होते हैं, बायीं तरफ लड़कियों का एक मदरसा है। इस मदरसे को देखकर आप अनुमान करते हैं कि यह प्रखंड स्त्रियों के अधिकार को लेकर जागरूक प्रखंड होगा। इसी प्रखंड में एक घर है परवेज आलम (काल्पनिक नाम) का। परवेज शादी शुदा पुरुष हैं लेकिन शादी इन्होंने एक बार नहीं तीन बार की है। इनके घर में पत्नी के तौर पर तीन औरतें रहती हैं। पहली शकीना खातून (काल्पनिक नाम) और बाकि दो औरतें आदिवासी हैं। दूसरी रंजना टोप्पो (काल्पनिक नाम) और तीसरी मीनाक्षी लाकड़ा (काल्पनिक नाम)। इटकी के आस-पास के लोगों से बातचीत करते हुए यह अनुमान लगाना आसान था कि परवेज का मामला अकेला नहीं है, इटकी प्रखंड में। इस तरह के कई दर्जन मामले हैं, जिसमें एक से अधिक शादी हुई है और गैर आदिवासी समाज से आने वाले पुरुष ने एक से अधिक शादी में कम से कम एक पत्नी आदिवासी स्त्री को रखा है। अपने अध्ययन में यह बात साफ तौर पर नजर आई कि दूसरी और तीसरी आदिवासी पत्नी चुनते हुए गैर आदिवासी पुरुष ने इस बात को प्राथमिकता दी है कि आदिवासी लड़की कामकाजी होनी चाहिए। आदिवासी युवति नर्स या शिक्षिका हो तो वह वह गैर आदिवासी पुरुष की पहली पसंद होती है।<br />झारखंड की सामाजिक कार्यकर्ता वासवी कीरो जो लम्बे समय से आदिवासी मुद्दों पर काम कर रहीं हैं, बताती हैं कि इस तरह की कामकाजी आदिवासी लड़कियों के लिए गैर आदिवासी युवकों के बीच एक शब्द इस्तेमाल होता है, बियरर चेक। वास्तव में कामकाजी महिलाएं उनके लिए बियरर चेक ही तो होती है, जो दूसरी या तीसरी पत्नी बनकर सेक्स की भूख मिटाती हैं और साथ-साथ हर महीने पैसे देकर पेट की भी।<br />वासवी पन्द्रह साल पहले अपने एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहती हैं- 15 साल पहले हम लोगों ने एक अध्ययन किया था लेकिन चीजें अब भी प्रासंगिक हैं। जिन परिवारों में आदिवासी लड़की थी, दूसरी, तीसरी पत्नी बनकर, हमने पाया कि उन परिवारों में आदिवासी लड़की को वह महत्व नहीं मिल पा रहा है, जो परिवार में मौजूद गैर आदिवासी पत्नी को हासिल था। वासवी के अनुसार सीमडेगा, लोहरदगा और गुमला में बड़ी संख्या में इस तरह के मामले उन्हें देखने को मिले।<br />इस तरह की घटनाओं को सुनकर कम से कम झारखंड के सामाजिक कार्यकर्ता नहीं चौंकते क्योंकि समाज के बीच में काम करते हुए उनका सामना प्रति दिन ऐसे मामलों से होता है, जिसमें एक से अधिक शादियां हों और गैर आदिवासी परिवार में एक से अधिक शादियों में कम से कम एक आदिवासी लड़की हो। आम तौर पर इन आदिवासी लड़कियों की स्थिति परिवार में दोयम दर्जे की ही होती है।<br />नफीस से मेरी मुलाकात इटकी प्रखंड में हुई थी। नफीस मानते हैं कि इटकी में इस तरह की शादियां बड़ी संख्या में हुई है। नफीस इस तरह की शादियों को सही नहीं ठहराते। नफीस के मित्र हैं, अभय पांडेय। पांडेय के अनुसार - गैर आदिवासी युवकों द्वारा आदिवासी लड़कियों को दूसरी अथवा तीसरी पत्नी बनाने की घटनाएं बड़ी संख्या में है। लेकिन यह बताना भी नहीं भूलते कि इस मामले में इटकी में कोई बात करने को तैयार नहीं होगा।<br />जब उनसे पूछा कि ऐसा क्यों है? कोई बात करने को क्यों तैयार नहीं होगा? तो पांडेय इशारों-इशारों में बताते हैं कि जहां हमारी बातचीत हो रही है, वह मुस्लिम मोहल्ला है। यहां इस तरह की संवेदनशील बातचीत से खतरा हो सकता है। पांडेय यह सलाह देना नहीं भूलते कि प्रखंड कार्यालय से दो किलोमीटर दूर एक पिछड़ी जाति से ताल्लूक रखने वाले व्यक्ति से मिलना सही होगा। जिन्होंने दो आदिवासी महिलाओं से शादी की है। पांडेय दो किलोमीटर दूर वाले परिवार से मिलवाने की जिम्मेवारी नफीस साहब को देकर किसी जरूरी मीटिंग का बहाना बनाकर निकल लेते हैं।<br />यदि एक पुरुष और एक स्त्री धर्म जाति की परवाह किए बिना आपस में प्रेम करते हैं और शादी का निर्णय लेते हैं तो समाज को उसे स्वीकार करना ही चाहिए। लेकिन यदि यही प्रेम एक से अधिक स्त्रियों के साथ हो और इन सभी स्त्रियों को कोई एक व्यक्ति पत्नी बनाने की ख्वाहिश रखे तो क्या इसे प्रेम माना जाएगा? यह हवश है या कोई बड़ा गोरखधंधा। बताया जाता है कि इस्लाम में एक से अधिक शादी की इजाजत है लेकिन इस इजाजत के साथ जिन शर्तों का जिक्र है, उस पर कभी समाज में चर्चा नहीं हो पाती। ना उस पर अमल एक से अधिक शादी करने वाला शौहर कभी करता है। अब सवाल यह है कि फिर इस तरह के कानून की समाज में जरूरत ही क्या है? एक-एक पुरुष को शादी के लिए एक से अधिक स्त्री क्यों चाहिए?<br />अमिता मुंडा आदिम जाति सेवा मंडल से जुड़ी हुई हैं। अमिता के अनुसार- समाज में कोई भी धर्म हो, दो पत्नी रखना उचित नहीं है। दो पत्नियों के साथ बराबर का रिश्ता नहीं रखा जा सकता। क्या तीन पत्नी रखने वालों की तीनो ंपत्नियां दो-दो पति और रखने की इजाजत मांगे तो क्या तीन पत्नी रखने वाला पति तैयार होगा?<br />अमिता रांची स्थित हिंद पीढ़ी का जिक्र करते हुए कहती हैं कि आप वहां चले जाइए, इस तरह का बहुत सा मामला आपको देखने को मिलेगा।<br />एक से अधिक विवाह के संबंध में अपने अध्ययन के दौरान इंडिया फाउंडेशन फॉर रूरल डेवलपमेन्ट स्टडिज ने पाया कि रांची के आसपास के जिलों को मिलाकर ऐसे एक हजार से अधिक मामले इस क्षेत्र में मौजूद हैं। इस स्टोरी पर काम करते हुए ऐसे रिश्तों की जानकारी मिली जिसमें आदिवासी लड़की को दूसरी या तीसरी पत्नी बनाकर घर में रखा गया है। परिवार में साथ रहने के बावजूद स्त्री को पत्नी का दर्जा हासिल नहीं है। समाज इन्हें पत्नी के तौर पर जानता है लेकिन उन्हें पत्नी का कानूनी अधिकार हासिल नहीं है। कई मामलों में उन्हें मां बनने से रोका गया। आदिवासी लड़की, गैर आदिवासी परिवार में सिर्फ सेक्स की गुड़िया की हैसियत से रह रही है। यदि एक पुरुष एक स्त्री के साथ बिना शादी किए एक घर में रहता है और उसके साथ शारीरिक संबंध भी बनाता है तो इसे आप लिव इन रिलेशन कह सकते हैं लेकिन दो शादियों के बाद घर में तीसरी औरत को रखना और उसे पत्नी का कानूनी अधिकार भी ना देने को आप क्या नाम देना चाहेंगे? इस रिश्ते का कोई तो नाम होगा?<br />झारखंड के आदिवासी समाज में अशोक भगत लंबे समय से काम कर रहे हैं। उनकी संस्था विकास भारती आदिवासियों के बीच एक जाना पहचाना नाम है। अशोक भगत शोषण की बात स्वीकार करते हुए कहते हैं- एक खास धर्म के लोगों को एक से अधिक बेगम रखने की इजाजत है। उन लोगों ने अपने धर्म की इस कमजोरी का लाभ उठाकर एक-एक पुरुष ने झारखंड में कई-कई शादियां की हैं। आम तौर पर ये लोग झारखंड के बाहर से आए हैं और आदिवासी लड़कियों को दूसरी, तीसरी पत्नी बनाने के पिछे इनका मकसद झारखंड के संसाधनों पर कब्जा और इनके माध्यम से झारखंड में राजनीतिक शक्ति हासिल करना भी है। पंचायत से लेकर जिला परिषद तक के चुनावों में आरक्षित सीटों पर इस तरह वे आदिवासी लड़कियों को आगे करके अपने मोहरे सेट करते हैं। वास्तव में आदिवासी समाज की लड़कियों का इस तरह शोषण आदिवासी समाज के खिलाफ अन्याय है। अशोक भगत बताते हैं- रांची के मांडर से लेकर लोहरदग्गा तक और बांग्लादेशी घुसपैठियों ने पाकुड़ और साहेब गंज में बड़ी संख्या में इस तरह की शादियां की हैं।<br />श्री भगत इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि जब इतनी बड़ी संख्या में क्रिश्चियन आदिवासी लड़कियां दूसरी और तीसरी पत्नी बनकर गैर आदिवासियों के पास गई हैं लेकिन कभी चर्च ने या फिर कॉर्डिनल ने इस तरह की नाजायज शादी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। श्री भगत उम्मीद जताते हुए कहते हैं- आदिवासी समाज बेगम-जमात की चालाकियों को समझ रहा है। मुझे यकिन है कि आदिवासी समाज इन मुद्दों पर जागेगा। आने वाले दिनों में विरोध का स्वर उनके बीच से ही मखर होगा।<br />गैर आदिवासी पति के नाम को छुपाने का मामला भी झारखंड में छुप नहीं सका है। ऐसी आदिवासी महिलाएं जिनका इस्तेमाल आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ाने में गैर आदिवासी करते हैं, अच्छी संख्या में हैं। इन महिलाओं से चुनाव का फॉर्म भरवाते समय इस बात का विशेष ख्याल रखा जाता है कि वह अपने पति का नाम फॉर्म में ना भरे। इस तरह आदिवासी पिता का नाम आरक्षित सीट पर चुनाव लड़ने वाली यह आदिवासी महिलाएं लिखती हैं। पति का नाम फॉर्म में नहीं लिखा जाता है। ऐसा एक मामला इन दिनों रांची में चर्चा में है। जिसमें एक विधायक प्रत्याशी ने आरक्षित सीट पर चुनाव लड़ा जबकि उसका पति मुस्लिम समाज से आता है।<br />आदिवासी विषय के अध्ययेता रांची विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दिवाकर मिंज मानते हैं कि दूसरी या तीसरी पत्नी बनकर शादी में जाने वाली आदिवासी लड़कियां आम तौर पर, पढ़ी-लिखी, कामकाजी और क्रिश्चियन होती हैं।<br />झारखंड में एक दर्जन से अधिक सामाजिक संगठनों ने माना कि इस तरह की घटनाएं झारखंड में हैं, जिसमें एक से अधिक शादियां हुई हैं और इस तरह की शादियों में शोषण आदिवासी लड़कियों का हुआ है। सभी सामाजिक संगठनों ने इस तरह की शादियों को सामाजिक बुराई बताया। एक से अधिक शादी को आप चाहे जो नाम दे दें लेकिन इस तरह की शादियों को आप प्रेम विवाह नहीं कह सकते। अब समय आ गया है जब इस तरह की शादियों पर पाबंदी की मांग समाज से उठे और एक से अधिक शादियों पर कानूनी तौर पर पूरी तरह प्रतिबंध लगे। धर्म, जाति और क्षेत्र की परवाह किए बिना। यह सही समय है, जब हम सब समाज से इस बुराई को खत्म करने के लिए आवाज बुलन्द करें।</div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-65967025289248410532015-11-08T01:49:00.000-08:002015-11-08T01:49:42.203-08:00जीता महागठबंधन - क्यों ‘हारा’ बिहार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b><i>सीता की जन्मभूमि ये बिहार, गांधी की कर्मभूमि ये बिहार, </i></b><br />
<b><i>सम्राट अशोक की शक्तिभूमि-धर्मभूमि ये बिहार-ये बिहार।</i></b><br />
<b><i>वाल्मिकी ने रची रामायण, लव कूश को जाने संसार</i></b><br />
<b><i>ये है मेरा बिहार हां ये मेरा बिहार</i></b><br />
<br />
<span style="font-size: large;">ई टीवी के दर्शक इस बिहार गीत से जरूर परिचित होंगे। यह गीत किसी भी बिहारी को गौरवान्वित करता है। लेकिन क्या 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के जो परिणाम आए हैं, उसके बाद ऐसा नहीं लग रहा है कि यह जीत महागठबंधन की है लेकिन बिहार हार गया।</span><br />
<span style="font-size: large;">लालू प्रसाद के जंगलराज की वजह से ही बिहार से पलायन बढ़ा। बिहारी संबोधन को गाली बना देना लालूराज की एक बड़ी देन है बिहार को। उसी जंगलराज के खिलाफ नीतीश कुमार को बिहार की जनता ने चुना। उनके काम काज की वजह से ही उन्हें पूरे देश ने सुशासन बाबू के तौर पर स्वीकार किया। लेकिन यह कॉकटेल किसकी समझ में आ सकता था कि सुशासन बाबू और जंगलराज के मुखिया सत्ता के लिए मिल सकते हैं। यह राजनीति है यहां ना कोई परमानेन्ट दुश्मन है और ना दोस्त। यदि कल को नीतीश और भारतीय जनता पार्टी फिर मिल जाएं तो आश्चर्य ना कीजिएगा। </span><br />
<span style="font-size: large;">वास्तव में यह सब इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि बिहार में नई सरकार की जीत को सभी सेलीब्रेट कर रहे हैं। ऐसे समय में हमें बिहार की हुई हार को नहीं भूलना चाहिए। इस चुनाव के बाद बीजेपी गठबंधन की जीत भी होती तो भी बिहार की हार होती। </span><br />
<span style="font-size: large;">यह पूरा चुनाव लड़ा किन मुद्दों पर गया है? गाय, अखलाक जैसे मुद्दे। शिक्षा, रोजगार, सुरक्षा जैसे मुद्दों की मानों किसी को सुध ही नहीं थी। भारतीय जनता पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण के मास्टर इस देश में </span><span style="font-size: large;">धर्म निरपेक्षता के पैरोकार हैं। उन्होंने पिछले साठ से अधिक सालों में देश में हिन्दू विरोधी माहौल ही बनाया है। तस्लीमा भी कहती है कि भारत में धर्म निरपेक्षता का अर्थ मुस्लिम तुष्टीकरण है। देश में सरकार किसी भी पार्टी की बनती हो, ध्रूव दो ही हैं। एक भारतीय जनता पार्टी और दूसरी भारतीय जनता पार्टी विरोधी। यह स्थिति उस समय भी थी जब पार्टी के खाते में गिनती के सांसद होते थे। </span><br />
<span style="font-size: large;">नरेन्द्र मोदी की जीत की बड़ी वजह 2014 में यही थी कि उन्होंने धर्म और जाति को चुनाव का मुद्दा नहीं बनने दिया। बिहार चुनाव में अखलाक की मौत और असहिष्णुता के नाम पर जो माहौल देश में बनाया गया और उससे जिस तरह महागठबंधन को फायदा मिला, उससे संदेह यही होता है कि कथित हिन्दू संगठन को पैसे देकर खड़ा तो नहीं किया गया था। पैसों के दम पर यह कर पाना बहुत मुश्किल काम नहीं है आज के समय में।</span><br />
<span style="font-size: large;">जगत झा ने सही लिखा है बिहार के चुनाव का विश्लेषण करते हुए कि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय नेता नरेन्द्र मोदी के चुनावी सभाओं की तैयारी में लगे रहे। जमीनी कार्यकर्ताओं की बात नेतृत्व तक पहुंच ही नहीं पाई। वास्तव में केन्द्रिय नेतृत्व के भरोसे विधायकी का चुनाव नहीं जीता जाता। क्षेत्रीय नेतृत्व को उभरने नहीं दिया गया। </span><br />
<span style="font-size: large;">कहा यह भी जा रहा है कि अमित शाह ने गुजरात के चुनाव की तरह बिहार के चुनाव को लड़ा। चुनाव की नीति में स्थानीय नेताओं से समन्वय पर अध्यक्षजी का प्रबंधन हावी रहा। वास्तव में यह चुनाव अपने रंग रूप से भारतीय जनता पार्टी गठबंधन के राष्ट्रीय नेता बनाम महागठबंधन के क्षेत्रीय नेता हो गया था। अमित शाह बिहार को और बिहार की राजनीति को सही प्रकार से नहीं समझते और लालू प्रसाद-नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के पुराने उस्ताद हैं। </span><br />
<span style="font-size: large;">बिहार के स्थानीय नेताओं को हासिए पर डाल कर बिहार फतह कैसे किया जा सकता है? सिन्हा साहब और सिंह साहब की नाराजगी चुनाव प्रचार के दौरान ही मीडिया में आ गई थी। उसके बाद भी इसे गम्भीरता से नही लिया गया। </span><br />
<span style="font-size: large;">बिहार चुनाव 2015 एक ऐसी हारी हुई बाजी बनती गई अन्तिम चरण के चुनाव तक, जिसमें जीत की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी।</span><br />
<span style="font-size: large;">वैसे नीतीश-लालू गठबंधन के सामने चुनौतीयां कई है। आने वाले पांच साल आसान नहीं है। खबर यह भी आ रही है कि नीतीश और लालू मिलकर नई पार्टी बनाएंगे। आने वाले सालों में नीतीश केन्द्र की राजनीति के लिए तैयार किए जाएंगे और लालूजी के दोनों लाल बिहार पर राज करने की तैयारी करेंगे।</span></div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-36538363867031366732015-11-05T03:57:00.001-08:002015-11-05T03:57:49.011-08:00किताब वापसी अभियानः ‘विरोध’ के स्वर को कौन दबा रहा है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
देश में इस तरह का माहौल बनाने की कोशिश की गई मानो इस वक्त देश में कानून का शासन ना रह गया हो। असहिष्णुता जैसा एक शब्द उन लोगों द्वारा चुन कर लाया गया जो सरकार पर दबाव बनाना चाहते थे। ये सभी वह लोग हैं जो नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले ही यह घोषणा कर चुके थे कि यदि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो देश की सहिष्णुता खतरे में पड़ जाएगी। उनके इस विरोध को जनता ने अधिक तवज्जो नहीं दिया।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-Sget_oF1dpo/VjtD1VjfinI/AAAAAAAAEWE/Ju7JGrg_1nA/s1600/kitab.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="http://2.bp.blogspot.com/-Sget_oF1dpo/VjtD1VjfinI/AAAAAAAAEWE/Ju7JGrg_1nA/s320/kitab.jpg" width="320" /></a></div>
इस वक्त मीडिया में इन मुट्ठी भर लोगों ने ऐसा माहौल बना दिया है, मानों पूरा देश वास्तव में किसी असहिष्णुता शिकार है। यहां हम उन लेखकों और बुद्धिजीवियों के नाम आपके साथ साझा कर रहे हैं, जो इस बात से सहमत नहीं हैं कि देश में साम्प्रदायिक सद्भाव कम हुआ है। समाज में किसी तरह की दूरी है। आप मित्रो से अपील है कि समाज को तोड़ने वालों के साथ नहीं बल्कि उन लोगों के साथ जुड़िए जो समाज को जोड़ना चाहते हैं। (यहां दिए गए नाम वरियता के क्रम में नहीं हैं) -<br />
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01. अनुपम खेर<br />
02. गोपाल दास नीरज,<br />
03. विवेकी राय<br />
04. मनु शर्मा<br />
05. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी<br />
06. डॉ नामवर सिंह<br />
06. नरेन्द्र कोहली<br />
07. गोविन्द मिश्र<br />
08. विनोद शुक्ल<br />
09. चित्रा मुद्गल<br />
10. नरेन्द्र कोहली<br />
11.कमल किशोर गोयनका<br />
12. मृदुला गर्ग<br />
13. तेजेन्द्र शर्मा<br />
14. गिरीश पंकज<br />
15. अशोक चक्रधर<br />
16. सुधीश पचौरी<br />
17. तेजेन्द्र शर्मा<br />
18. आशीष कुमार ‘अंशु’<br />
19. वेद प्रताप वैदिक<br />
20. तवलीन सिंह<br />
21. मनमोहन शर्मा<br />
22. राजीव रंजन प्रसाद<br />
23. डा दिलीप अग्निहोत्री<br />
24. मृत्युंजय दीक्षित<br />
25. डॉ मयंक चतुर्वेदी<br />
26. संदीप देव<br />
27. सुरेश चिपलूनकर<br />
28. डा. अरूण भगत<br />
29. सुधांशु त्रिवेदी<br />
30. संजीव सिन्हा<br />
31.तरुण विजय<br />
32. हितेश शंकर<br />
33. बलबीर पूंज<br />
34. अरुण जेटली<br />
35. अनिल पांडेय<br />
36. चेतन भगत<br />
37. हर्षवर्द्धन त्रिपाठी<br />
38. प्रसून जोशी<br />
39. व्यालोक पाठक<br />
40. शिवानंद द्विवेदी सहर<br />
41. डॉ सौरभ मालवीय<br />
42. हरीश चंद्र वर्णवाल<br />
42. हरगोविंद विश्वकर्मा<br />
43. शिवशक्ति बख्शी<br />
44. आभा खन्ना<br />
45. पवन श्रीवास्तव<br />
46. स्वामी आदित्य चैतन्य<br />
47. अनुज अग्रवाल<br />
48. डॉ प्रवीण तिवारी<br />
49. कुलदीपचंद अग्निहोत्री<br />
50. पश्यंति शुक्ला<br />
51. राजीव सचान<br />
52. प्रभु जोशी<br />
53. डॉ जयकृष्ण गौड़<br />
54. प्रमोद भार्गव<br />
55. संजय द्विवेदी<br />
56. अवधेश कुमार<br />
57. अकांक्षा पारे<br />
58. दिनेश मिश्र<br />
59. संजय बेंगानी<br />
60. आदर्श तिवारी<br />
61. समन्वय नंद<br />
62. पंकज झा<br />
63. अकांक्षा अनन्या<br />
64. अरुण कुमार जैमिनी<br />
65. सुबोध के श्रीवास्तव<br />
66. विक्की सैनी<br />
67. संजीव कुमार<br />
68. सुभाष चंद्र<br />
69. निशांत नवीन<br />
70. सुभाष शुक्ला<br />
71. मनुकांत दीक्षित<br />
72. मदन मोहन समर<br />
73. आलोक राज<br />
74. रामजी बाली<br />
75. डॉ अविनाश सिंह<br />
76. तारिक अनवर<br />
77. नरेश कुमार चतुर्वेदी<br />
78. वीनू कुमार वर्मा<br />
79. प्रदीप अरोड़ा<br />
80. दीपक झा<br />
81. धीरज कुमार झा<br />
82. अभय कुमार गुप्ता<br />
83. कुणाल श्रीवास्तव<br />
84. श्वेतांक रतनाम्बर<br />
85. नागेन्द्र कौशिक<br />
86. विवेक श्रीवास्तव<br />
87. अशोक एस उपध्याय<br />
88. गोपाल कुमार झा<br />
89. विशाल भटनागर<br />
90. सविता राज हिरेमठ<br />
91. पंडित हरी प्रसाद चौरसिया<br />
92. मधुर भंडारकर<br />
93. विवेक अग्निहोत्री<br />
94. विद्या बालन<br />
95. एस एल भयरप्पा<br />
96. श्याम बेनेगल<br />
94 कमल हसन<br />
95. अनूप जलोटा<br />
96. मनिष मुन्द्रा<br />
97. पंडित चेतन जोशी<br />
98. दया प्रकाश सिन्हा<br />
99. नरेश शांडिल्य<br />
100. अमिष त्रिपाठी<br />
101. चिदानंद मूर्ति<br />
102. पाटिल पूतप्पा<br />
103. पी वलसारा<br />
104. यूए खादर<br />
105. पी नारायण कुरुप<br />
106. रवीना टंडन<br />
107. विकास सिन्हा<br />
108. सुदर्शन पटनायक<br />
109. जी माधव नायर<br />
110. हरीश चन्द्र वर्मा<br />
111. प्रियदर्शन<br />
112. अक्कीतम<br />
113. एस रमेशन नायर<br />
114. जी श्रीदत नायर<br />
115. पी परमेश्वरन<br />
116. थुरावूर विश्वम्बरन<br />
117. प्रो मेलाथू चन्द्रशेखरन<br />
118. के बी श्रीदेवी<br />
119. सुरेशगोपी<br />
120. मेजर रवि<br />
121. अलप्पा रंगनाथ<br />
122. जया विजया<br />
123. विशेष गुप्ता<br />
124. फिरोज बख्त अहमद<br />
125. सुधांशु रंजन<br />
126. उमेश चतुर्वेदी<br />
127. भवदीप कांग<br />
128. अनंत विजय<br />
129. शोबरी गांगूली<br />
130. हरीश कुमार<br />
131. चन्द्रकांत प्रसाद सिंह<br />
132. अशोक ज्योति<br />
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आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-82140816949614353902015-09-25T01:57:00.000-07:002015-09-25T01:57:48.010-07:00कोई यह खत रवीश कुमार तक पहुंचा दे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-tj-GhcD6qMw/VgUMB2xezGI/AAAAAAAAEO0/0N8PEir6CZc/s1600/ravishhqdefault.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="http://2.bp.blogspot.com/-tj-GhcD6qMw/VgUMB2xezGI/AAAAAAAAEO0/0N8PEir6CZc/s640/ravishhqdefault.jpg" width="640" /></a></div>
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रवीशजी कुमार,</div>
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आपको यह पत्र लिखने का आयडिया आपके पत्रों को पढ़कर आया। यह सोचकर लिख रहा हूं कि पत्र लिखने वाले को पत्र की कद्र होगी। आपको अपने लिखे किसी खत का जवाब नहीं मिला, लेकिन आप इस खत का जवाब देंगे। ऐसा मैं सोच रहा हूं।</div>
<div>
मुझे याद है कि रवीश की रिपोर्ट का किस तरह एक समय इंतजार रहता था। रवीश की रिपोर्ट के साथ बड़े हो रहे पत्रकारिता के छात्रों के समूह में एक विद्यार्थी मैं भी था। आपकी रिपोर्ट की वजह से उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे और दलितों/ वंचितों के पक्ष में हमेशा खड़े रहे रिंकू राही से मिला और महाराष्ट्र में डिक्की वाले मिलिन्द काम्बले से। आपकी रिपोर्ट ने मुझे इनसे मिलने के लिए प्रेरित किया।</div>
<div>
अचानक एक दिन एनडीटीवी का एक होर्डिंग नजर आया। यह होर्डिंग दिल्ली में चिड़िया घर और लोदी रोड़ के आस-पास कहीं लगा था, जिसका दावा यह था कि रवीश कुमार हिन्दी के नम्बर वन पत्रकार हैं। जबकि इस तरह का दावा यह होर्डिंग किस आधार पर कर रही थी, इसका उल्लेख पूरे होर्डिंग में कहीं नहीं था। जबकि मेरी जानकारी में रवीश की रिपोर्ट की टीआरपी भी अच्छी नहीं थी। जिसका रोना गाहे बगाहे आप भी रोते ही रहे हैं। </div>
<div>
हमे नम्बर से इतना प्रेम क्यों हैं रवीशजी? मैने जब आपको गांव और दलितों की कहानी करते देखा था तो सोचा था कि आपको नम्बर से प्रेम नहीं है। आप नम्बर के खेल से बाहर हैं। इसलिए आप प्रिय रहे हैं लेकिन आप भी नम्बर से प्रेम करने लगे। मेरा अपना अनुभव इस नम्बर गेम को लेकर अच्छा नहीं है। रवीश अगर एक ब्रांड है, जिसे एनडीटीवी बेच रहा है अच्छे पैकेजिंग के साथ तो यह उसकी मार्केटिंग पॉलिसी है, लेकिन रवीश कुमार इस सबके बावजूद अपने अंदर के रवीश कुमार को बचाए रखें, यह तो रवीश की जरूरत थी। लेकिन महानता के इस खेल के शिकार होते हुए आप प्राइम टाइम एंकर की नई भूमिका में नजर आए। जहां आप एंकर कम अपने पैनल के ‘पापा’ की भूमिका में अधिक थे। </div>
<div>
रवीशजी जबसे आपको मैने टीवी चैनल पर देखा है, आप सिर्फ सवाल पूछते हुए नजर आए हैं। कभी यह नहीं सोचा जो आपको देख रहे हैं, उनके अंदर भी बहुत से सवाल हैं। यही लोग जब आपसे सवाल पूछते हैं, आप झट से उन्हें गुंडा कह देते हैं। जब आप कहते हैं कि आपको मां बहन के नाम पर अपशब्द लिखा जा रहा है और यह हिन्दूवादी ताकतें या नरेन्द्र मोदी के पेड एजेन्ट कर रहे हैं तो एक पत्रकार होने के नाते आपको इस बात का प्रमाण भी देना चाहिए था। ना कि अन्ना हजारे के अभियान की तरह अभियान पर सवाल उठाने वाले हर एक शख्स को भ्रष्टाचारियों के पाले में डाल देना चाहिए। आप फेसबुक पर रहें या ना रहें लेकिन बुश की तरह यह घोषणा तो करते हुए विदा ना हों कि जो हमारे खिलाफ है वह आतंकवाद के साथ है। </div>
<div>
इंदिरा गांधी के समय भारत के लोग कहते थे कि इंदिरा नहीं रहेंगी तो यह देश कैसे चलेगा? आप भी कहीं इसी तरह के किसी भ्रम के साथ फेसबुक और ट्यूटर पर मौजूद तो नहीं थे?</div>
<div>
एक साहित्यकार ने यह किस्सा मुझे सुनाया था कि जब उसकी जान खतरे में थी, उसने आपको फोन किया था। यह वह समय था, जब दिल्ली निर्भया मामले की वजह महिला सुरक्षा के अलग-अलग सवालों से जुझ रही थी, ऐसे समय में एक पत्रकार के नाते और इंसान के नाते जब आपको उसकी मदद करनी चाहिए थी, आपने कहा कि आप इस तरह की खबरों का लोड नहीं लेते। रवीशजी कुमार यही बात फोन पर एक पीड़िता को विजयजी गोयल, विजयजी जॉली या विजयकुमरजी मल्होत्रा ने कही होती तो आप उनसे किस किस्म के सवाल पूछते? एक बार उन्हीं संभावित सवालों के जवाब आप देना पसंद करेंगे? या -जवाब देने की सारी जिम्मेवारी राजनेताओं की है और पत्रकार सिर्फ सवाल पूछने के लिए पैदा होते हैं- इस तरह की राय में आप यकिन रखते हैं। </div>
<div>
रवीश बंगाल में एक चर्च में एक बुजूर्ग महिला के साथ बलात्कार की खबर आई थी। आपके मित्र और जनसत्ता के पूर्व संपादक ओमजी थानवी ने खुर्शीद अनवर कथित बलात्कार मामले में कहा था कि जब तक बलात्कारी के नाम की पुष्टी ना हो, आप मामले में कथित लगाइए। जबकि रवीशजी कुमार बंगाल चर्च की उन बुजूर्ग महिला के मेडिकल रिपोर्ट को पढ़े बिना आपने मामले को बलात्कार का मामला बताया। दूसरी बात आपने उस मामले के लिए दोषी हिन्दूवादी संगठनों को बताया। बाद में बंगाल में हुई उस घटना में कुछ मुस्लिम युवक गिरफ्तार हुए और आपकी माफी आज तक नहीं आई। </div>
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प्राइम टाइम में दिखने वाला आपका अहंकार ही है जो आपकी आलोचना करने वाले हर एक व्यक्ति को आपकी नजर में ‘गुंडा’ बना देता है। इसी वजह से इन दिनों आपकी रिपोर्ट में वह धार भी नजर नहीं आती जो पुराने रिपोर्ट में हुआ करती थी। मुझपे यकिन ना कीजिए, अपनी ही रिपोर्ट की पुरानी फूटेज देखिए। </div>
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जब एक राजनीतिक दल में हुई किसी घटना के लिए पूरी पार्टी जिम्मेवार होती है, ठीक इसी प्रकार एनडीटीवी पर उठ रहे सवालों से आप यह कहकर नहीं बच सकते कि आप वहां नौकरी करते हैं। चाहे वह कोका कोला के साथ मिलकर चलाया जा रहा कार्यक्रम हो या फिर बरखा दत्त से जुड़े सवाल। या फिर वेदांता से चैनला की मित्रता या फिर आपके द्वारा खुद को इस तरह पेश किया जाना मानों पूरी पत्रकारिता को आपने ही बचा कर रखा हो। इन सवालों के जवाब सार्वजनिक मंच पर आकर देने से आप क्यों बच रहे हैं? मीडिया स्कैन के मंच पर मैं आपको न्योता देता हूं। आइए। यकिन दिलाता हूं, पूरी बातचीत में कोई आपके लिए अपशब्द का इस्तेमाल नहीं करेंगा। वर्ना रोज रोज सवाल पूछते पूछते कहीं आपके साथ ऐसा ना हो कि आप जवाब देना ही भूल जाएं। </div>
<div>
बहरहाल रवीशजी, हिन्दी की पत्रकारिता की आप चिन्ता ना कीजिए। आप नहंी होंगे, कोई और होगा। आपके ही चैनल में रवीश रंजन ने बुंदेलखंड से और हृदयेश जोशी ने असम से बेहतरीन रिपोर्ट की। आपने भी देखी ही होगी। उनके मुकाबले पिछले दिनों आई आपकी रिपोर्ट कमजोर थी। बिना होमवर्क किए एक मोहल्ले में एक व्यक्ति को साथ लेकर जाना। वहां से फूटेज इकट्ठा करके आधा घंटे का प्रोग्राम बना देना। पिछले दिनों अपने रिपोर्ट में यही आपने किया। शायद आपको लगता है कि आप सेलिब्रिटी एंकर हैं और आप जो भी पड़ोस देंगे देखने वाले उसे वाह वाह करके देख लेंगे। रवीशजी आप गलत सोचते हैं, देखने वाले आपको पहले इसलिए पसंद करते थे क्योंकि पहले आप अपनी रिपोर्ट पर होमवर्क करते थे। </div>
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अंत में फेसबुक और ट्वीटर से जाना किसी समस्या का समाधान नहीं है। इसलिए लौट आइए और सवाल पूछते हैं तो जवाब देने का भी हौसला रखिए। बाकि जो है सो हइए है...</div>
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<br /> आपके रवीश की रिपोर्ट का नियमित दर्शक</div>
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आशीष कुमार ‘अंशु’</div>
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आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-50937597609326646992015-06-21T01:51:00.001-07:002015-06-21T01:51:22.146-07:00नई सरकार में क्यों हैं पावरफूल ‘गर्भस्थ स्वयंसवेक’?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">नई सरकार बनने के बाद कई सारी कहानियां भी एक के बाद एक करके बन रहीं हैं। खबर तो अखबार और पत्रिकाओं में छप जाती है लेकिन कहानियां, इसे तो कोई भी नहीं छापता और यह कहानियां ना छपती हैं और ना दर्ज हो पाती हैं। वैसे इन कहानियांे को भी दर्ज होना चाहिए, जिसके बाद आने वाले समय में विचारधारा के साथ खड़े होने वाले नए रंगरुटों को उस धूर्तता का भी पता चले जो उसके पूर्ववर्ती करके गए हैं।</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">यूं तो यह कहानी नई सरकार और एक व्यक्ति के पुरानी वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रति बरते जाने वाली धूर्तता की है। लेकिन सच तो यह है कि यह व्यक्ति की नहीं, प्रवृति की कहानी है। </span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">नरेन्द्र कई दिनों से नए वाले गृहमंत्री के घर और दफ्तर के चक्कर लगा रहे हैं। सुनने वाले बता रहे थे कि नई सरकार में उनकी कोई बात पक्की होनी है। नरेन्द्र की कहानी से पहले उनका थोड़ा सा परिचय। नरेन्द्र आईसा के साथ कॉलेज राजनीति में सक्रिय थे। बाद के दिनों में प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रमों में भी देखे जाते रहे हैं। स्वभाव से कवि हैं। बाबरी मस्जिद के गिरने को वे यूपीए की सरकार में विश्व इतिहास का सबसे काला दिन मानते थे। एनडीए सरकार के आन के बाद वह बाबरी मस्जिद को राम जन्मभूमि कहना पसंद करते हैं, चूंकि अब तक इस बयान का दस्तावेजीकरण नहीं हुआ है, इसलिए प्रमाण के अभाव में उस संज्ञा के जिक्र को प्रामाणिक ना माना जाए। देश में किसी भी प्रकार के साम्प्रदायिक तनाव के पीछे यूपीए काल में वे आरएसएस का हाथ देखते थे। एनडीए सरकार में उनका नजरिया बदल चुका है, जिसका जिक्र यहां नहीं किया जा रहा, कारण- ऊपर बताया गया है। उनकी एक कविता है, </span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">‘कौव्वा उड़ा मंदिर से और जा कर बैठा मस्जिद पर, ब्राम्हणवादी ताकतों ने कह कर धर्मान्तरण,</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">पूरे शहर में करा दिया दंगा। </span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">नीक्कर पहन के आ गए दंगाई, पुलिस वाला भी ना ले सका जिनसे पंगा।’</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">नरेन्द्र के परिचय के साथ अंिभ का परिचय कराना भी जरूरी है। जिनका इन्काउंटर गृहमंत्री के घर पर नरेन्द्र से हुआ और यह पूरी कहानी बनी। अंिभ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक हैं। दिल्ली में रहकर विद्यार्थी परिषद की राजनीति की। विश्व हिन्दू परिषद का दायित्व दो साल पहले तक उनके पास था। नई सरकार में ‘जायजा मंत्रालय’ उनके पास है। वे एक के बाद एक मंत्रालय का जायजा लेते रहते हैं। इस महती जिम्मेवारी को उठाने का संकल्प उन्होंने खुद अपने ऊपर ले रखा है। दिल्ली के हर एक मंत्रालय की छोटी बड़ी खबर आप उनसे पा सकते हैं। अंिभ को एक बार खबर मिल जाए इसका सीधा सा अर्थ है कि वह खबर आठ पहर में वायरल होने वाली है। </span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">गृहमंत्री के घर पर कॉमरेड नरेन्द्र ने जैसे ही स्वयंसेवक अंिभ को देखा, उससे नजरे चुराने लगे लेकिन कब तक? पकड़े गए। अंिभ जानते थे कि कॉमरेड नरेन्द्र कई दिनों से सरकार की एक सलाहकार समिति में जगह बनाने के लिए मंत्रीजी के घर और दफ्तर के चक्कर काट रहे हैं।</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">जब स्वयंसेवक अंिभ से नजर मिल गई तो कॉमरेड नरेन्द्र मुस्कुराते हुए उनसे मिले और उनके दोनों हाथों को अपने हाथ में लेकर झुलाने लगे। </span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">‘जानते हैं अंिभजी हमरा परिवार तो बाल्यकाल से ही स्वयंसेवक रहा है। मेरे चाचाजी, मेरे पिताजी सभी स्वयंसेवक हैं। मैं भी बचपन में शाखा जाता था। बाल्यकाल से स्वयंसेवक हूं। इस देश का ऐसा कौन सा हिन्दू बालक होगा जो बचपन में शाखा ना जाता हो?’</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">कॉमरेड नरेन्द्र की यह भाषा स्वयंसेवक अंिभ के लिए चौंकाने वाली थी। अंिभ मसखरी के मूड में थे, अंिभ ने कहा-</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">आप बाल्यकाल स्वयंसेवक हैं, यह अच्छी बात है लेकिन संघ में गर्भस्थ स्वयंसेवक की बात अधिक सुनी जाती है। यदि आप गर्भस्थ स्वयंसेवक होते तो यहां आने की जरूरत ही नहीं पड़ती। प्रचारक ही एक चिट्ठी लिख देते और घर बैठे-बैठे आपका काम हो जाता।’</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">कॉमरेड नरेन्द्र ने पहली बार गर्भस्थ स्वयंसेवक का जिक्र सुना था। उनकी रूचि जगी कि यह गर्भस्थ स्वयंसेवक क्या होता है और एनडीए सरकार में यह इतना पावरफूल क्यों है?</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">स्वयंसेवक अंिभ ने समझाया -</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">गर्भस्थ स्वयंसेवक उन संतानों को कहते हैं, जिनके मां-बाप दोनों स्वयंसेवक परिवार से आते हों। मतलब दादा और नाना दोनों संघी हों। </span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">कॉमरेड नरेन्द्र समझ गए थे कि गर्भस्थ स्वयंसेवक होना नई सरकार में बहुत काम की चीज है। लेकिन वे समझ नहीं पा रहे थे, कि खुद को गर्भस्थ स्वयंसेवक साबित कैसे किया जाए?</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">रास्ता स्वयंसेवक अंिभ ने सुझाया- संघ के इतने संगठन देश भर में चलते हैं कि संघ वालों को ही पता नहीं है। आगे से बता दिया कीजिए कि मैं गर्भस्थ स्वयंसेवक हूं और मेरे नाना जी ‘प्रगतिशील हिन्दू महासभा’ के संयोजक थे उज्जैन में। किसे पता चलेगा?</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">स्वयंसेवक अभि ने गर्भस्थ स्वयंसेवकों का महिमागान करते हुए फूसफूसा के कहा, मानों कोई अति राज की बात कर रहे हों- आप जानते हैं, प्रधानमंत्री के पीछे छह गर्भस्थ स्वयंसेवकों को लगाया गया है। प्रधानमंत्री कब मुतने जाते हैं, यह बात चाहे एसपीजी को पता ना हो लेकिन गर्भस्थ स्वयंसेवकों को उन्हें यहां तक की जानकारी रिपोर्ट करनी पड़ती है। गर्भस्थ स्वयंसेवकों का इस राज में कोई काम नहीं रूक रहा।</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">कॉमरेड नरेन्द्र को यह बात जम गई लेकिन इस तरह की बात स्वयंसेवक अंिभ से करते हुए वे झंेप गए थे। अपनी झेंप मिटाने का प्रयास करते हुए उन्होंने कहा- ‘वैसे मैने संघ का फर्स्ट ईयर किया है?’</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">स्वयंसेवक अंिभ ने पूछ लिया- पास हुए थे कि फेल?</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">एक बार पुनः कॉमरेड नरेन्द्र फंस गए। उन्होंने पूछा- ‘मतलब?’</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">‘आपने फर्स्ट ईयर किया है संघ का तो बताइए, एक गांव में एक सौ मुस्लिम परिवार रहता है और आपका परिवार अकेला हिन्दू परिवार है। ऐसे में एक संघ फर्स्ट ईयर पास स्टूडेन्ट होने के नाते आपका कर्तव्य क्या है?’</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">कॉमरेड नरेन्द्र ने सोचा भी नहीं था कि फर्स्ट ईयर पास करने के लिए ये संघ वाले इतना कम्यूनल किस्म का सवाल पूछते हैं।</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">स्वयंसेवक अंिभ ने मुस्कुराते हुए कहा- इसका मतलब आप फेल हुए थे, फर्स्ट ईयर में। </span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">कॉमरेड नरेन्द्र ने सिर झुकाकर कहा, बहुत पुरानी बात है, अब याद नहीं।</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">स्वयंसेवक अंिभ ने कहा- यह बात कोई संघ वाला नहीं भूल सकता क्योंकि उन्हें बताया जाता है कि अपना नाम भूल जाना लेकिन यह लेसन नहीं भूलना।</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">कॉमरेड नरेन्द्र से कुछ कहते नहीं बन रहा था। अंिभ ने उन्हें समझाया- नरेन्द्रजी इस तरह जब आप संघ वाला होने का झूठा दावा करेंगे तो यूं ही पकड़े जाएंगे। अच्छा होगा कि आप संघ की शाखा जाइए, वहां देखिए और जो देखिए वह लिखिए। </span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">कॉमरेड नरेन्द्र समझ गए थे कि उनका झूठ पकड़ा गया है। वैसे आज एक सरकार है और कल एक नई सरकार आज जाएगी। सरकार आज है कल बदल जाएगी लेकिन आपका बोला हुआ झूठ नहीं बदलेगा और किसी भी तरह के समझौते के लिए बोला गया झूठ आपको हमेशा झूठा बनाए रखेगा। यदि वैचारिक प्रतिबद्धता को निभाने का दम नहीं है तो बेवजह के झूठे दावों से बचना ही बेहतर है।</span><br style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;" /><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 17.5636348724365px;">(उंगलबाज.कॉम, हमारी विश्वसनीयता संदिग्ध)</span></div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-40307883897924944112014-06-19T05:02:00.000-07:002014-06-19T05:02:10.695-07:00सब हमारे चाहने वाले हैं, हमारा कोई नहीं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पीर सोना गाजी कभी एशिया के सबसे बड़े रेड लाइट एरिया में बसते थे। बाद में उन्हीं के नाम से इस रेड लाइट एरिया का नाम सोनागाछी पड़ गया। इतिहासकार देबोजीत बंदोपाध्याय और रजत रे के अनुसार एक समय यह नृत्य और कला का केन्द्र हुआ करता था। अंग्रेजो के आने के बाद यह जगह शास्त्रीय संगीत के केन्द्र से यौनकर्मियों के अड्डा के तौर पर विकसित हुआ। समय के साथ बहुत कुछ बदला और निश्चित तौर पर यौनकर्म भी बदला। इसी का परिणाम है कि कोलकाता की यौनकर्मी आज सरकार पर इस बात के लिए दबाव बना रहीं हैं कि सरकार यौन कर्मियों को कानूनी अधिकार दे और दलाल-पुलिस के गिरोह से मुक्त करे। यदि सरकार ऐसा करने में सक्षम नही होती तो कोलकाता की यौनकर्मी इस बार लोकसभा चुनाव में नोटा का बटन दबाएंगी। <br />
कोलकाता शहर में यौनकर्मियों के बीच लंबे समय संे काम कर रही भारती देव बताती हैं-<br />
‘बीस सालों से हम विभिन्न राजनीतिक दलों का वादा सुन रहे हैं कि ‘हमारी सारी मांगे वे पूरी कर देंगे।’ राजनीतिक दल वाले ना सिर्फ वादा करके गए बल्कि हमारी मांग पत्रों पर उनका हस्ताक्षर भी मिल जाएगा लेकिन जब बात आती है, चुनाव से पहले इसे अपने घोषणा पत्र में शामिल करो, सभी राजनीतिक दल शुचितावादी बन जाते हैं। कब तक हमें इस तरह ये राजनीतिक पार्टियां ऊल्लू बनाती रहेंगी?’<br />
यह खबर लिखे जाने तक सोनागछी की ग्यारह हजार यौनकर्मी महिला मतदाताओ ने तय किया है कि इस बार वे मतदान नहीं करेगी। यदि लोकतंत्र के सम्मान में उन्हें मतदान केन्द्र तक जाना पड़ा तो इनमें से कोई नहीं (नोटा) का बटन दबाएंगी।<br />
भारती देव कहती हैं- ‘जब लोकतंत्र में यौनकर्मियों के लिए अपने रोजगार के साथ जीने का अधिकार नहीं है फिर अपनी कमाई का एक दिन कतार में लगकर व्यर्थ करने जैसा ही होगा, इनके लिए।’<br />
कोलकाता (नॉर्थ), जहां इस बार लोकसभा चुनाव में कांटे की टक्कर देखने को मिल रही है, इन ग्यारह हजार मतों की सही कीमत वे प्रत्याशी बता सकते हैं, जो इस क्षेत्र में खड़े हैं। लेकिन यौनकर्मियों के जीवन की यही विडम्बना है, उनका साथ हर कोई चाहता है लेकिन उनके साथ दिखना कोई नहीं चाहता।<br />
यहां तृणमूल कांग्रेस के सुदीप बंदोपाध्याय, कांग्रेस से सोमेन मित्रा और सीपीएम की रूपा बागची में कड़ा मुकाबला है। ये सभी प्रत्याशी यौनकर्मियों से व्यक्तिगत बातचीत में उनके साथ होने के तमाम वादे करते हैं लेकिन यौनर्मियों की मांग उनके घोषणापत्र में शामिल क्यों नहीं है, का ठीक-ठीक जवाब वे नहीं दे पाते।<br />
कोलकाता के रेड लाइट एरिया में रहने वाली महिलाओं का नाम 1990 तक मतदाता सूचि में शामिल नहीं था। इस नाम के लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा। पहचान पत्र ना होने की वजह से उनका राशन कार्ड नहीं बन सकता था। उनका बैंक में खाता नहीं खुल सकता था। उनके बच्चों का स्कूल में नामांकन नहीं हो सकता था।<br />
सोनागाछी की सेक्स वर्कर्स ने कुछ समाज सेवियों की मदद से उषा कॉपरेटिव बनायां। उषा कॉपरेटिव बैक अपनीे तरह का अनोखा बैंक है, जिसे यौनकर्मियों द्वारा यौनकर्मियों के लिए चलाया जाता हैै। उषा सहकारी समिति ने चुनाव आयोग को निवेदन भेजा कि उषा सहकारी बैंक में चल रहे बचत खाते को पहचान पत्र माना जाए।<br />
चुनाव आयोग ने इस निवेदन को स्वीकार किया और इस तरह उनके अपने उषा कॉपरेटिव ने उन्हें अपनी पहचान दी। डॉ. स्मरजीत जेना लंबे समय से यौनकर्मियों के अधिकार के लिए लड़ रहे है। डा जेना बताते हैं कि उषा कॉपरेटिव के लिए जब यौनकर्मियों का दल आवेदनपत्र लेकर पहली बार गया था तो परिचय में यौनकर्मी देखकर वहां मौजूद अधिकारी ने सुझाव दिया कि यौनकर्मी की जगह गृहिणी लिखना सही होगा।<br />
आवेदन लेकर गई महिलाओं के समूह में से जब एक महिला ने अधिकारी को कहा कि अभी तो मैं यौनकर्मी ही हूं, यदि आप मुझसे शादी कर लें तो गृहिणी हो जाऊंगी। क्या आप मुझसे शादी करेगे? इसका जवाब अधिकारी नहीं दे पाए। इस तरह यौनकर्मियों का पहला अपना कॉपरेटिव बैक बना।<br />
2004 में सीपीएम के उम्मीदवार सुधांशु यौनकर्मियों द्वारा यौनकर्म को कानूनी अधिकार दिए जाने के संबंध में निकाली गई यात्रा में शामिल हुए थे। 2009 में तृणमूल के सुदीप बंदोपाध्याय ने यौनकर्मियों द्वारा काूननी अधिकर दिए जाने संबंधी विज्ञप्ती और पुलिस-दलाल की मिली भगत से मुक्ति से जुड़ी विज्ञप्ती पर हस्ताक्षर भी किया था। लेकिन नेताओं के हस्ताक्षर और वादे चुनाव तक के लिए होते हैं, इस बात को कोलकाता के यौनकर्मी इस बार समझ गई हैं।<br />
आमतौर पर सोनागाछी की एक यौनकर्मी को कमरे के किराए का महीने में दो से ढाई हजार रुपए देना पड़ता है। उन्हें एक घंटे के लिए डेढ़ सौ रुपए मिलते हैं। जिसमें पैंतीस से चालिस फीसदी हिस्सा पुलिस, दलाल और स्थानीय गंुडों का होता है। यौनकर्मियों की मांग है कि पुलिस जब खुद यह धंधा चलवा रही है फिर इस धंधे को कनूनी अधिकार देने में क्या अर्चन है? अर्चन सिर्फ इतनी है कि दलालों और पुलिस की आमदनी पर रोक लग जाएगी। वैसे सोनागाछी में ऐसी यौनकर्मी भी हैं जो एक घंटे के लिए दस से पन्द्रह हजार रुपए भी लेती हैं। हाल में इंकम टैक्स के छापे में सोना गाछी से दो करोड़ रुपए नकद बरामद हुए। यही वजह है कि कोलकाता पुलिस की जुबान में इसे सोने की खदान कहते हैं।<br />
खबर लिखे जाने तक कोलकाता की यौनकर्मियों ने तय कर लिया है कि इस बार वे ‘इनमें से कोई नहीं’ विकल्प के साथ मतदान केन्द्र तक जाएंगी क्योकि वे जान गईं हैं कि नेता यौनकर्म को कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त नहीं होने देंगे। दुर्बार की महासिता मुखर्जी कहती हैं- हालात यही रहे तो संभव है कि अगले चुनाव में यौनकर्मियों की तरफ से उनका अपना कोई उम्मीदवार मैदान में हो।<br />
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आशीष कुमार ‘अंशु’<br />
09868419453<br />
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आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-83167821312473443252014-05-23T05:59:00.001-07:002014-05-23T05:59:23.723-07:00पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन का रिजर्वेशन काउंटर कब होगा दलाल मुक्त?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन अक्सर जाना होता है। दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी पुरानी दिल्ली स्टेशन के बिल्कुल सामने है और अपनी यात्राओं के लिए टिकट बनाने पुरानी दिल्ली स्टेशन के रिजर्वेशन टिकट काउंटर पर भी जाता हूं। बार-बार पुरानी दिल्ली के रेलवे रिजर्वेशन काउंटर पर इस उम्मीद से जाता हूं कि इस बार दिल्ली का यह टिकट काउंटर दलाल मुक्त हो गया होगा। हर बार निराश होकर ही लौटा हूं। दिल्ली में सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त टिकट एजेन्ट भी उसी कतार में खड़े होकर टिकट लेते हैं, जिसमें आम लोगों को टिकट लेना होता है।<br />
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के एक काउंटर पर खड़े एजेन्ट ने ही बताया कि लगभग बारह सौ से लेकर पन्द्रह सौ एजेन्ट पुरानी दिल्ली में टिकट बेचने के लिए सक्रिय हैं। यह एजेन्ट जब इंटरनेट पर बुकिंग बंद दिखला रहा हो, उस समय भी अंतिम समय में टिकट करा सकते हैं। पैसे आप उन्हें वह दीजिए, जो उनको चाहिए और टिकट वे आपको वह दिला देंगे, जो आपको चाहिए। कई बार आपको भ्रम हो सकता है, यह टिकट के दलाल हैं या फिर जादूगर।<br />
इन टिकट दलालों की शक्ति देखनी हो तो आप कभी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के रिजर्वेशन काउंटर पर चले जाइए और देखिए वहां टिकट दलालों ने क्या हाल बना रखा है? दुखद यह है कि काउंटर पर बैठे टिकट बनाने वाले सरकारी कर्मचारी भी मानों उन्हीं के लिए अंदर बैठे हैं। इन टिकट दलालों द्वारा पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर फैलाई जा रही अव्यवस्था हर किसी को नजर आता है लेकिन ना जाने क्यों जीआरपी, सीआरपीएफ या फिर रेलवे इंटेलिजेन्स को यह बस क्यों नजर नहीं आता?<br />
नियम से एक व्यक्ति को रेलवे काउंटर पर एक बार में दो से अधिक टिकट नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मानों यह कानून तो आम आदमी के लिए है, टिकट एजेन्ट पर कोई नियम लागू नहीं होता। पैसों के इस लेन-देन का खुला खेल कोई भी आम आदमी समझ सकता है लेकिन रेलवे इंटेलीजेन्स की समझ में ना जाने यह सारी बात क्यों नही आती?<br />
दो तीन दिन पहले जब मैं अपना रेलवे टिकट वापस करने गया था, इसी तरह एक टिकट काउंटर पर कतार में लगे लोगों की अनदेखी करके जब काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने एक टिकट दलाल के लिए दो-तीन-चार-पांच-छह टिकट बना लिया तो उसका विरोध करना लाजमी था। मैने विरोध में बोला। यह देखकर दो तीन लोगों ने, जो कतार में लगे थे, मेरा साथ दिया।<br />
इस शोर शराबे से स्थिति थोड़ी संभली। लेकिन यह स्थिति संभली सिर्फ एक काउंटर पर, जिस पर यह शोर शराबा हुआ था। उस वक्त शायद ही पुरानी दिल्ली में ऐसी कोई कतार हो, जिसमें सात-आठ ऐसे लोग ना हो, जो टिकट की दलाली करते हैं। <br />
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन नीयमित जाने की वजह से कई ऐसे चेहरे अब पहचानने लगा हूं, जो सुबह से देर रात तक पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ही रहते हैं। संभव है, ये सब रेलवे द्वारा अधिकृत एजेन्ट के प्रतिनिधि हों।<br />
इसी रेलवे स्टेशन पर सुनने को मिला, ‘<br />
<i><b>‘ये जो लोग काउंटर पर दलालों के खिलाफ शोर मचा रहे हैं, ये सभी अरविन्द (केजरीवाल) के लोग हैं।’</b></i><br />
यह सुनकर एक रेलवे टिकट दलाल बोला- ‘<b><i>अरविन्द तो गए। अमेठी से उसके कवि की जमानत जप्त हो गई। अब अच्छें दिन आए हैं।’ </i></b><br />
इसका मतलब क्या, दिल्ली में बेईमानी के खिलाफ बोलने वाला हर एक व्यक्ति आम आदमी पार्टी का कार्यकर्ता माना जाएगा। यह सवाल मेरे लिए महत्वपूर्ण था। <i>आम आदमी पार्टी और अरविन्द से तमाम असहतियों के बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ उठने वाली हर एक आवाज की पहचान, आम आदमी पार्टी बन गई है। </i><br />
इस बात पर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों को सोचना चाहिए।<br />
आज यह सवाल मेरे लिए जरूर अहम है, देश की राजधानी दिल्ली जब इतने प्रयासों के बावजूद दलाल मुक्त नहीं हो पा रही तो देश के दूसरे हिस्सों का मालिक अल्लाह ही होगा!<br />
<br /></div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-29889351100737040292014-05-20T05:42:00.000-07:002014-05-20T05:42:26.388-07:00उंगलबाज.कॉम, हम उंगली करते नहीं मौजू सवालों पर उंगली रखते हैं...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उंगलबाज.कॉम की बात होती है तो अधिकांश मित्र समझते हैं कि यह किसी वेवसाइट का नाम है। लेकिन वे नहीं जानते कि उंगलबाज.कॉम वर्चूअल स्पेस में वर्चूअल वेवसाइट है। यह कपिल शर्मा के लाफ्टर शो में लिए जाने वाले उस इंटरव्यू की तरह है, जो इटरव्यू लिया तो एक पत्रिका के लिए जाता है लेकिन वह पत्रिका कभी छपती नहीं है।<br />
उंगलबाज शब्द से कुछ लोगों को आपत्ति है। वे कहते हैं कि यह ठीक नहीं है, क्योंकि वे समझते नहीं कि उंगल का अर्थ उंगलबाज के लिए उंगली करना नहीं है बल्कि यह उन मसलों पर उंगली रखने के अर्थ में, जिस पर आम तौर पर लोग बात करते नहीं या फिर उन मसलों पर बात करना नहीं चाहते।<br />
उंगलबाज.कॉम की तरफ से इस तरह के मसलों पर लगातर वीडियो अपलोड किया जा रहा है। आते-जाते रहिए।<br />
<br />
कुछ महत्वपूर्ण वीडियों के लिंक यहां आपके साथ शेयर कर रहा हूं.....<br />
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<a href="https://www.youtube.com/watch?v=h5gP3b0FzI0">रंगू शौर्या की कहानी...</a><br /><a href="https://www.youtube.com/watch?v=496dB1C_g34"><br /></a><div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "Kruti Dev 010"; font-size: 14.0pt;"><a href="https://www.youtube.com/watch?v=496dB1C_g34">va”kqxqIrk ls Lkk{kkRdkj ----</a><br /><a href="https://www.youtube.com/watch?v=4VFCJdZEOv0"><br /><o:p></o:p></a></span></div>
<div class="MsoNormal">
<a href="https://www.youtube.com/watch?v=4VFCJdZEOv0" style="font-size: 19px;">गुजरात दंगों का गुनाहगार बना, बेगुनाह अशोक....</a><br /><br /><a href="https://www.youtube.com/watch?v=XvOnXsIbrLg" style="font-size: 19px;">मुश्किल में है संतों की नगरी चित्रकूट....</a><br /><br /><span style="font-size: 19px;"><a href="https://www.youtube.com/watch?v=f7A9E2aQV2g">तीस्ता सीतलवाड़ के सताए फिरोज भाई....</a></span></div>
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<a href="https://www.youtube.com/watch?v=WqQOWnJhjIs">गुलाबी गैंग वाली संपत पाल का एक गीत....</a><br /><br /><a href="https://www.youtube.com/watch?v=LC018FNgzRw">जलपुरुष राजेन्द्र सिंह का साक्षात्कार ....</a><br /><br /><a href="https://www.youtube.com/watch?v=-gH8rHg505E">क्यों चाहिए गोरखालैंड...</a><br /><br /><a href="https://www.youtube.com/watch?v=5PqeDvjAQjE">अमेठी का विकास मॉडल...</a><br /><br /><a href="https://www.youtube.com/watch?v=olsLb0cOwmI">क्यों कांग्रेस हारी सलाया.....</a><br /><br /><a href="https://www.youtube.com/watch?v=Sg7hn_fbbNw">एक्सक्लूसिव: आदिवासी नेता महेन्द्र कर्मा का साक्षात्कार ....</a><br /><br /><a href="https://www.youtube.com/channel/UCJer-3zwLA0ubkB0JknpbjQ/videos">उंगलबाज.कॉम </a></div>
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आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-78718175573065857502014-01-17T02:36:00.001-08:002014-01-17T02:36:47.277-08:00लाल किला गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन 2014<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन श्रोताओं के लिए संभव है पांच-आठ घंटे चलने वाला एक सांस्कृतिक कार्यक्रम हो लेकिन मंचिय कवियों के लिए इस बात का प्रमाण पत्र है कि अब वे भी मंचिय कविता के लाल किला क्लब में शामिल हो गए हैं। एक बार लाल किला क्लब में जो कवि शामिल हो जाए। वह मंचिय कविता का श्रेष्ठ कवि मान लिया जाता है। यह गौरव देश के किसी भी दूसरे मंचिय कवि सम्मेलन को प्राप्त नहीं है। जब ऐसे कवि सम्मेलन में पैरवी से आए कवि सुनने को मिलते हेैं तो तकलीफ स्वाभाविक है। <br />
वर्ष 2014 का लाल किला कवि सम्मेलन सुरेन्द्र शर्मा के संचालन में सम्पन्न हुआ। इस संचालन में वे थके हुए से नजर आए, कई बार वे मंच पर होकर भी लगा मंच पर नहीं हैं। यूं कहिए कि हिन्दी अकादमी ने कोई जिम्मेवारी दी है तो उन्हें ना कहते नहीं बना, सो चले आए जैसी स्थिति थी। ‘ओरिजनल’ सुरेन्द्र शर्मा मंच पर नजर नहीं आए। यूं भी तीस कवियों को संचालित करना आसान काम तो नहीं होता। जब सुरेन्द्र अपने अंदाज में श्रोताओं से अनुरोध कर रहे थें कि वे अपना मोबाइल सायलेन्ट मोड पर डालकर जेब में रख लें, उस दौरान और आगे कविता के बीच में तमाम कवि मंच पर मोबाइल में उलझे नजर आए। बिना इस बात की परवाह किए कि यदि कवि स्वयं अनुशासित नहीं होंगे, फिर वे श्रोताओं से अनुशासन की अपेक्षा किस मुंह से रखेंगे? मंच पर कई कवियों ने लाल किले के कवि सम्मेलन का बखान किया लेकिन कवि सम्मेलन खत्म होने तक आधे से भी कम कवि मंच पर बैठे थे। जिस कवि सम्मेलन को अंतिम तक सुनने के लिए कवि स्वयं अंतिम तक बैठने को तैयार नहीं हैं, उस कवि सम्मेलन के लिए कैसे वे उम्मीद रखते हैं कि सोनिया गांधी उनके मंच तक आएंगी और अंतिम कवि तक बैठ कर सुनेगी। कवियों ने इस मंच की गरीमा को इतना कम किया है कि कभी अंतिम कवि तक जिस कवि सम्मेलन को नेहरू सुनते थे, उस कवि सम्मेलन को अब दिल्ली सरकार की मंत्री भी अंतिम कवि तक सुनना पसंद नहीं करती। दिल्ली के मुख्यमंत्री मुशायरे में जाना मंजूर करते हैं लेकिन भूलकर भी कवि सम्मेलन का रास्ता नहीं पकड़ते। इस मंच पर एक कवित्री ऐसी भी थी, जो कवि सम्मेलन में मौजूद होकर भी मौजूद नहीं थी।<br />
कुछ भर्ती के कवियों को छोड़ दिया जाए- जिनमें कुछ अपने अधिकारी होने का लाभ लेकर कवि सम्मेलन में घुस आए होंगे- तो इस बार मंच ने श्रोताओं का पूरा प्यार बटोरा। जब कवि सम्मेलन प्रारंभ हुआ था, आम आदमी की टोपी दर्जनों सिरों पर पड़ी थी। कवि सम्मेलन में आम आदमी पार्टी कई कवियों के निशाने पर रही, शायद इसी का परिणाम था कि सम्मेलन खत्म होते-होते चंद सिरों पर यह टोपी रह गई थी। <br />
इस कवि सम्मेलन की उपलब्धि रहे, पदम्श्री बेकल उत्साही। इस कवि सम्मेलन के साथ इस बुजूर्ग कवि ने ऐसी याद जोड़ दी है कि आने वाले समय में इस कवि सम्मेलन को इसलिए भी याद किया जाएगा क्योंकि इसमें बेकल उत्साही ने काव्य पाठ किया था। पूनम वर्मा और बलराम श्रीवास्तव पहली बार लाल किला कवि सम्मेलन में आए थे और पहली ही बार में उन्होंने खुद को साबित किया और खूब जमंे। <br />
सुरेश नीरव मंच पर आए तो इस दावे के साथ थे कि वे अपने पाठ के दौरान श्रोताओं से ताली डिमांड नहीं करेंगे और मंच से बार-बार ‘आशीर्वाद’मांगते पाए गए। सुरेश नीरव साहब को अपनी अच्छी रचना के साथ बोरिंग भूमिका से बचना चाहिए क्योंकि जो लोग कविता सुनने आए हैं, उनकी समझदारी पर अधिक संदेह करना कविजी अच्छी बात नहीं होती। भारत भूषण आर्य पूरे कवि सम्मेलन के अकेले ऐसे कवि रहे, जिन्हें श्रोताओं ने सबसे अधिक बे आबरू किया और वे हिट विकेट होकर पवेलियन लौटे। <br />
आलोक श्रीवास्तव के साथ मंच संचालक सुरेन्द्र शर्मा ने अच्छा नहीं किया। मंच की कविता की थोड़ी समझदारी रखने वाला व्यक्ति समझ सकता है कि विनीत चौहान और मदन मोहन समर नाम के दो मजबूत चक्कियों के बीच आए आलोक श्रीवास्तव का क्या हुआ होगा? प्रवीण शुक्ल मंचिय कविता के पुराने शार्प शूटर हैं, उसके बावजूद मदन मोहन समर की कविता का जादू जो भूत की तरह श्रोताओं पर चढ़ गया था, उसे उतारने के लिए प्रवीण को काफी मशक्कत करनी पड़ी। प्रवीण ने अपंने अंदाज में तब तक समर के गीत ‘थाम तीरंगा करो घोषण हिंन्दुस्तान जवान है... कि पैरोडी की, जब तक दर्शकों ने अपने हाथ खड़े नहीं कर लिए। <br />
‘तुमने दस-दस लाख दिए हैं, सैनिक की विधवाओं को<br />
सोचा कीमत लौटा दी है, वीर प्रसूता माओं को,<br />
मैं बीस लाख देता हूं, तुम किस्मत के हेटों को <br />
हिम्मत हैं तो मंत्री भेजे लड़ने अपने बेटों को। <br />
विनीत चौहान की इन चार पंक्तियों पर देर तक पंडाल में तालियों की गूंज सुनाई देती रही। <br />
इस कवि सम्मेलन में दिनेश रघुवंशी का नाम ना लिया जाए तो, कवि सम्मेलन के लिए की गई पूरी बात अधूरी रह जाएगी। मेरी राय में वर्ष 2014 गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन में रघुवंशी सर्वश्रेष्ठ कवि रहे । कश्मीर जनमत संग्रह पर रघुवंशी की चार पंक्तियों खूब सराही गईं-<br />
<br />
‘अगर गैरत है तो शरहद के रखवालों से भी पूछो<br />
वतन जिनके लिए सबकुछ है मतवालों से भी पूछो,<br />
अगर कश्मीर में जनमत कराना चाहते हो तो <br />
वहां कुर्बान हर सैनिक के घरवालों से भी पूछो।’<br />
<br />
कुंवर बेचैन, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, सर्वेश अस्थानाा और सरिता शर्मा की उपस्थिति से मंच की गरिमा बढ़ी। <br />
<br /></div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-19449903433117339092013-10-28T04:13:00.002-07:002013-10-28T07:40:56.374-07:00Open letter to asian human right commission, Hong Kong (China)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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may be considered as my formal complaint against </span></span><span style="font-family: "Times New Roman"; font-size: 12.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-language: AR-SA; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-US;">Mr Avinash Pandey alias Samar Anarya <span class="null"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>who works for </span></span><a href="http://www.humanrights.asia/countries/india">Asian Human Rights Commission</a>, </span><span class="null"> Hong Kong (China) and is involved in various
frivolous activities on social media, notably on the Facebook. I understand
that AHRC is an international organization, renowned for its work for human
dignity and freedom. However, contrary to prestige and the popular image of
AHRC, your staff, </span>Mr Avinash Pandey alias Samar Anarya <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>has been carrying out, for long, an unseemly
and vindictive campaign against me in a manner which is highly unbecoming of
the staff of an organization like AHRC. Such conduct not only gives a bad
impression of the individual but also tarnishes the reputation built over years
by your organization. The foul language used by him, to further his views, is
mostly laced with expletives, which speaks volume about him and his conduct in
public space. Such an act, which is highly undignified, provides a rather dim
view of a reputed organization like AHRC. I surely believe that AHRC does not
subscribe to his views and use of foul language, especially in public and
social media. I appreciate that an organization like AHRC works in difficult
and challenging situations and inappropriate conduct by one of your staff could
hamper your work to improve the cause of human rights in different parts of the
world. I thought it to bring to your attention the activities of your staff so
that you may take suitable steps to protect the reputation of your
organization. Thanking you. <br /><br />Yours sincerely,<br /><div class="MsoNormal">
<span class="null">
<span style="mso-spacerun: yes;"></span>Ashish Kr. Anshu<br />New Delhi (India)</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
</h5>
</div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-38996098925559199282013-10-16T03:23:00.001-07:002013-10-16T03:23:45.171-07:00राजेन्द्र यादव की स्वीकारोक्ति और स्त्रीवादी प्रतिबद्धता के सवाल ! संजीव चन्दन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span class="userContent" data-ft="{"tn":"K"}"><i>राजेन्द्र यादव को हिन्दी साहित्य अपनी स्पष्ट बयानी के लिए ही जानता है। वे अपने समग्र चिन्तन में ‘हिप्पोक्रेट’ नहीं दिखे। इसलिए श्री यादव के फेसबुक पर साया हुए इस बयान को हमें गंभीरता से लेना चाहिए- ‘बहुत ही अफ़सोस है मुझे कि वेब की दुनिया में मेरे और ज्योति कुमारी के संबंध को लेकर एक से एक कयास लगाये जा रहे है. मैंने हमेशा ज्योति कुमारी को अपनी बेटी की तरह माना है। इस सम्बन्ध में कुछ लोग गैर जिम्मेदाराना टिप्पणी कर रहे है। मै उनकी भर्त्सना करता हूँ। लोगों को सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने के लिये ऐसी वैसी बात करने से परहेज़ करना चाहिये।’’ अब तक के जीवन में श्री यादव अपनी बेबाकी के लिए ही जाने जाते हैं। इसलिए यदि ज्योति और राजेन्द्र यादव के रिश्ते के संबंध जो बाते कही जा रहीं है, वह सच होती तो निश्चित तौर पर राजेन्द्र यादव उसे स्वीकार करते। वैसे ज्योति के मामले में उनकी अब तक की चुप्पी जरूर उन के लिए गंभीर सवाल खड़े करती है। उम्मीद है कि नवम्बर, हंस के संपादकीय में यह चुप्पी टूटेगी। फिलहाल जैसाकि संजीव चंदन के आलेख से जानकारी मिलती है कि कुछ लोग इस मामले में पैसों की बात कर रहे हैं। उन्हें याद रखना चाहिए, पैसों की बात करके वे ना ज्योति का भला कर रहे हैं और ना राजेन्द्र यादव का क्योंकि ज्योति इस मामले में पीड़िता के साथ-साथ एक गवाह भी है। गवाह को पैसे देने की बात करना भारतीय कानून में अपराध माना जाता है। इसलिए इस तरह की बात जो कर रहे हैं, उन्हें बात करनी चाहिए लेकिन बात करने से पहले इस संबंध में पुख्ता जानकारी जरूर जुटा लेनी चाहिए। माने थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए।<b> </b>यहां प्रस्तुत है संजीव चंदन का आलेखः<b> मॉडरेटर </b></i></span><br />
<span class="userContent" data-ft="{"tn":"K"}"><i><b><br />ज्योति
कुमारी के प्रकरण पर मेरा मत , जो है सो है , और वह फेसबुक पर मैं जाहिर
भी कर चुका हूँ . राजेंद्र जी को माफी मांग लेनी चाहिए थी , चुप्पी तोड़नी
चाहिए थी , और यदि दोषी उनकी नज़रों में ज्योति हैं , तो प्रमोद के साथ
उन्हें खड़ा होना चाहिए . आख़िरकार घटना स्थल राजेन्द्र जी का घर है . लेकिन
ज्योति आपको भी सावधान रहना चाहिए . आपके साथ जो लोग दिख रहे हैं , वे
क्या चाहते हैं , इस प्रकरण में , उनकी भूम</b></i><span class="text_exposed_show"><i><b>िका
कितनी स्त्रीवादी है ! किसी शख्स का मुझे इस प्रकरण में बार –बार फोन आ
रहा था , मैंने उनसे कहा कि राजेंद्र जी अपने सम्पादकीय में ज्योति से
माफी मांगने वाले हैं तो उन्होंने , जो आपकी चिंता में दुहरे हुए जा रहे थे
, कहा कि ‘पैसों की लें –देन हुई है , इस ,माफीनामें में .’ मुझे खीझ हुई
और मैंने कहा कि फिर हम जैसे लोगों को एक शब्द भी क्यों जाया करना चाहिए इस
प्रकरण में . <br /> <br /> राजेन्द्र जी आपके न बोलने से आपका जो होगा सो
होगा , लेकिन ज्यादा नुकसान आपके द्वारा किये गए साहित्यिक –सामाजिक
–सांस्कृतिक हस्तक्षेप को है , जो वंचितों के पक्ष में था . फिलहाल मैं
मन्नू जी के प्रसंग से लिखे गए अपने एक आलेख को यहाँ लगा रहा हूँ , मित्रों
के लिए , प्रभात वार्ता में छपा था यह . <br /> इसी आलेख से ..........<br />
एक लेखिका –अभिनेत्री ने , जो साहित्य जगत की लम्पटता से परेशान रही हैं ,
मुझ से कभी कहा था कि हिंदी साहित्य के जिन लोगों से वह मिली उनमें से उसे
दो ही पुरुष 'कुंठा रहित ' दिखे , राजेन्द्र यादव और उदय प्रकाश. वहीँ
पत्नी के साथ अपने निजी व्यवहार में 'घोर पुरुष' के रूप में रहा है, ऐसा
हिंदी का हर पाठक मन्नू जी के आत्मकथ्यों से जानता समझता रहा है.सामजिक तौर
पर राजेंद्र जी 'मन्नू भंडारी ' को भाजपाई मानसिकता का घोषित करते हुए
अपने सरोकारों का एक बरख्स भी खड़ा करते हैं, और मन्नू जी हर बार लगभग
ख़ामोशी से 'नीलकंठ ' हो जाती हैं. राजेंद्र जी के व्यक्तित्व में यही
'द्वैध' है और इसी कि स्वीकारोक्ति है कि वे ‘मन्नू’ को संबंधों में अपने
जैसे प्रयोगों के लिए माफ़ नहीं करते. </b></i><br /> <br /> <br />
राजेन्द्र यादव युवा पीढ़ी के हम जैसे लोगों को इसी लिए आकर्षित करते हैं
कि वे अपनी बात बड़े बेबाकी से कहते हैं, कहे पर बने भी रहते हैं, अपनी
आलोचनाएं सुनते हैं.वे हिंदी साहित्य के उन बहुत कम व्यक्तित्वों में से
हैं, जो अपनी सरोकारी और वैचारिक प्रतिबद्धता बनाये रखते हैं, राजेंद्र
जी को तो इसके लिए कई लानते -मलानते भी झेलनी पडी हैं. राजेन्द्र यादव से
आपकी कई असहमतियां हो सकती हैं, असहमतियों के लिए वे स्पेस भी देते हैं, कई
बार तो वे विवादों को छेड़ते हैं, असहमत होने के अवसर पैदा करते हैं, और
आप यदि उनके हंस के दफ्तर में जाकर उनसे असहमतियां दर्ज कराते हैं, उनकी
आलोचना करते हैं तो वे बड़ी संजीदगी से सुनते हैं, जरूरत पड़ने पर ठहाकों से
उन असहमतियों पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करा देते हैं, आप उन ठहाकों पर चिढ
सकते हैं.<br /> बहरहाल उनसे मिलने जाने के पहले साहित्य के नवागंतुकों को
दिल से मजबूत होना पड़ेगा. पहली बार मैं उनसे मिलने 1998-1999 में कभी उनके
दरियागंज स्थित कार्यालय गया था. यह जानकार कि मैं गया से आया हूँ,
उन्होंने मुझसे पूछा कि संजय सहाय भी तो गया से ही हैं न , उनसे मिलते हैं?
फिर कहा कि नीलिमा सिन्हा भी तो गया से ही है. पता नहीं क्यों फिर
उन्होंने पूछा कि ' क्या यह सही है कि संजय सहाय की कहानियां शैवाल लिखते
हैं ?' मुझे याद नहीं कि मैंने तब क्या जवाब दिया होगा लेकिन 'साहित्यिक
अंडरवर्ल्ड' के नव शिखुओं के लिए यह मारक सवाल था . वह भी साहित्य के घोषित
डान के द्वारा. संजय जी और राजेन्द्र जी के सम्बन्ध जगजाहिर थे तब तक. खैर
इस सवाल के साथ उनका ठहाका !संजय जी की कहानियां मैंने बाद में पढ़ी, और
संजय जी को जाना भी, शैवाल को तब तक पढ़ चुका था. आज मैं दावे के साथ दोनों
रचनाकार की रचनाओं की शैली और कथ्य के अंतर बता सकता हूँ, लेकिन कसबे से
आने वाले 21-22 साल के युवक से यह जानलेवा सवाल राजेंद्र जी ही कर सकते थे.
खैर चाय पीकर , कुछ बातें कर मै विदा हुआ. <br /> उसके बाद पिछले 14 सालों
में मैं उनसे 7-8 बार जरूर मिला हूँ, लेकिन कभी पहचान नहीं बन पाई . अभी
हाल की मुलाकात हंस कार्यालय में रामजी यादव के साथ हुई , इस बार भी मुझे
परिचय देना पड़ा. हालांकि 2011 के पहले 2008 में मैं राजेंद्र जी को अर्जुन
सिंह के यहाँ एक डेलिगेशन में ले जाने के लिए हंस कार्यालय गया था और
इन्साफ के द्वारा मुहैय्या कराइ गई अपनी गाडी में लेकर मैं अर्जुन सिंह के
घर उन्हें ले गया, जहाँ रामशरण जोशी, मनेजर पांडे, और जे .एन यू के कुछ
प्राध्यापक वहां पहले से पहुँच चुके थे. यह डेलिगेशन मेरे अनुरोध पर हिंदी
विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में मंत्री से मुलाकात करने पहुंचा था. राजेंद्र
जी जोशी जी के बुलावे पर आये थे. <br /> इन 14 सालों में मैं दो बार अपनी
कहानी लेकर उनसे मिला , हर रचनाकार की तरह कहानी लिखने के बाद उसे पहले हंस
में छपवाने की मेरी भी आकांक्षा थी, कभी हंस में कहानी नहीं छपी, वे
दोनों कहानियां क्रमशः कथादेश और संवेद में छपी .एक बार मैं जब हंस
कार्यालय पहुंचा तब वहां गिरिराज किशोर बैठे थे . मैं संभवतः 'स्त्रीकाल '
की प्रति लेकर गया था, उसमें राजेन्द्र जी का असीमा भट्ट के द्वारा लिया
गया साक्षात्कार छपा था. गिरिराज किशोर, राजेन्द्र जी को 'आवरण से बाहर आने
की नसीहत दे रहे थे. राजेंद्र जी इत्मीनान से अपनी आलोचना सुन रहे
थे.विषय था ' विष्णुकांत शास्त्री का निधन और राजेंद्र जी जैसे उनके
मित्रों का शास्त्री जी से न मिलने जाना और राजेन्द्र जी मृत्यु
स्वाभाविक है के भाव में थे , हालांकि मुझे लगा था कि मृत्यु के प्रति
राजेंद्र जी संजीदा हो रहे थे, ऐसा न भी हो सकता है, मैं ऐसा समझ रहा होऊंगा
और राजेंद्र जी यथावत खिलंदर अंदाज में होंगे. हालांकि गिरिराज किशोर की
आलोचना वे बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे, बीच -बीच में शिरकत करते हुए. इसके
बाद मैं कुछ और दफा हंस कार्यालय गया और हर बार कोई आलोचक उन पर हर्वे
-हथियार के साथ पिला हुआ मिलता और राजेन्द्र जी आलोचना में मग्न होते,
निर्लिप्त भी..कभी अर्चना वर्मा तो कभी मदन कश्यप, कभी कोइ और .....<br />
समाज और हिंदी साहित्य में असहिष्णुता के परिवेश में राजेंद्र जी का यह
व्यकतित्व उन्हें अलहदा बनाता है और अपने इस अल्हदापन को बनाये रखने के
लिए वे अपनी ओर से प्रयास भी करते रहते हैं, विवाद पैदा कर, विवादों को हवा
देकर . व्यक्तिव के इन्हीं द्वैधों के बीच राजेन्द्र यादव का व्यक्तित्व
बनता है. जहाँ हंस के प्लेटफोर्म पर वे जिद्द की हद तक अपनी वैचारिक
प्रतिबद्धता बनाये रखते हैं, और इसी निरंतरता के साथ हिंदी साहित्य में
स्त्री और दलित विमर्श को स्थापित करते हैं. वहीँ मन्नू भंडारी के मामले
में वे निपट अहमन्य पुरुष हो जाते हैं और मैत्रयी के साथ अपनी मित्रता को
दावं पर लगाकर भी लेखिकाओं को गाली देने वाले शख्स को ' क्या उसकी रोजी
रोटी छिनोगी ' के ओछे तर्क के साथ अपनी भूमिका तय करते हैं. राजेन्द्र जी
का यह द्वैध स्त्रीवादियों के लिए एक पाठ भी है- पितृसत्ता की गहरी पैठ का
पाठ. <br /> <br /> अपने हालिया साक्षात्कार में राजेंद्र जी ने कहा कि यदि
उनकी ही तरह मन्नू जी ने भी संबंधों के मामले में स्वच्छंद जीवन जिया होता
तो उन्होंने मन्नू को माफ़ नहीं किया होता. स्त्री-दलित मुद्दों के प्रति
प्रतिबद्धता के साथ स्त्री और दलित विमर्श को हिंदी साहित्य के केंद्र में
लेने वाले राजेंद्र जी की यह स्वीकारोक्ति उनके कई प्रशंसकों को चोट पहुंचा
सकती है, या उनके आलोचक उन पर हमलावार हो सकते हैं. 'पर्सनल इज पोलिटिकल'
के आधार से स्त्रीवादी चिन्तक राजेन्द्र जी को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं.
इस सब से बेफिक्र राजेन्द्र जी ने यह बयांन किया है.<br /> राजेन्द्र जी की
यही खासियत है. वे चाहते तो एक हिप्पोक्रेट की तरह यह भी कह सकते थे कि
'उन्हें अपनी पत्नी के ऐसे रिश्तों से बहुत फर्क नहीं पड़ता क्योंकि संबंधो
के मामले में जैसा पुरुष और स्त्री दोनों के आचरणों के अलग-अलग मानदंड
नहीं हो सकते ,' आखिर राजेंद्र जी अपने समग्र चिंतन में स्त्री की 'दैहिक
स्वतंत्रता' की ही तो बात करते हैं, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें
मन्नू जी के विवाहेत्तर रिश्तों से ऐतराज होता और वे उन्हें कभी माफ़ नहीं
कर पाते. राजेंद्र जी का यह वक्तव्य 'पितृसत्तात्मक समाज ' में अनुकूलित
पुरुष का वक्तव्य है, जो स्त्रीवादी होने की प्रक्रिया में तो है लेकिन
अपनी संरचना से मुक्त नहीं हो पाया है . यह एक मानसिक द्वैध की
स्वीकारोक्ति है- दरअसल यह स्त्रीवाद के लिए एक पाठ भी है, खासकर उस
व्यक्ति, साहित्यकार और सम्पादक की स्वीकारोक्ति होने के परिपेक्ष्य
मे, जिसने सिद्दत के साथ और बड़ी इमानदारी से अपनी स्त्री और दलित
प्रतिबद्धताएं, बनाये रखी है.<br /> एक लेखिका –अभिनेत्री ने , जो साहित्य
जगत की लम्पटता से परेशान रही हैं , मुझ से कभी कहा था कि हिंदी साहित्य के
जिन लोगों से वह मिली उनमें से उसे दो ही पुरुष 'कुंठा रहित ' दिखे ,
राजेन्द्र यादव और उदय प्रकाश. वहीँ पत्नी के साथ अपने निजी व्यवहार में
'घोर पुरुष' के रूप में रहा है, ऐसा हिंदी का हर पाठक मन्नू जी के
आत्मकथ्यों से जानता समझता रहा है.सामजिक तौर पर राजेंद्र जी 'मन्नू भंडारी
' को भाजपाई मानसिकता का घोषित करते हुए अपने सरोकारों का एक बरख्स भी खड़ा
करते हैं, और मन्नू जी हर बार लगभग ख़ामोशी से 'नीलकंठ ' हो जाती हैं.
राजेंद्र जी के व्यक्तित्व में यही 'द्वैध' है और इसी कि स्वीकारोक्ति है
कि वे ‘मन्नू’ को संबंधों में अपने जैसे प्रयोगों के लिए माफ़ नहीं करते.</span></span></div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-28141443078857173252013-10-11T08:13:00.002-07:002014-05-20T04:59:39.421-07:00‘मूकदर्शक बने रहे राजेन्द्र यादव’: ज्योति कुमारी (भागः दो)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<i>जैसा कि इस श्रृंखला के पहले अंक में लिखा गया था कि यह कहानी अधूरी है, जब तक <b>राजेन्द्र यादव</b> का पक्ष इसके साथ नहीं जुड़ जाता। इस संबंध में बतकही की तरफ से राजेन्द्र यादव से उनका पक्ष को जानने के उद्देश्य से फोन किया गया था, श्री यादव के अनुसार- इस संबध में उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं है। राजेन्द्रजी का पक्ष अभी भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। यदि उनका पक्ष नहीं आता तो ज्योति के बयान पर उनका यह मौन, ‘सहमति’ माने जाने का भ्रम उत्पन्न करेगा। वैसे राजेन्द्र यादव के शुभचिन्तक कह रहे हैं कि राजेन्द्र यादव ब्लॉग को गंभीर माध्यम नहीं मानते, यदि उन्हें जवाब देना होगा तो हंस के नवम्बर अंक में अपने संपादकीय के माध्यम से दंेगे। वास्तव में हमारे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उनका पक्ष कहां आता है, किसके माध्यम से हम सबके बीच आता है। महत्वपूर्ण यह है कि उनका पक्ष सबके सामने आए। बहरहाल <b>आशीष कुमार ‘अंशु’</b> से <b>ज्योति कुमारी</b> की बातचीत का दूसरा भाग यहां प्रकाशित कर रहे हैं। इस बातचीत को साक्षात्कार या रिपोर्ट कहने से अच्छा होगा कि हम बयान कहें। चूंकि पूरी बातचीत एक पक्षीय और घटना केन्द्रित है। यहां गौरतलब है कि दूसरा पक्ष जो राजेन्द्र यादव का है, उन्होंने इस विषय पर बातचीत से इंकार कर दिया है। फिर भी उनका पक्ष उनकी सहमति </i><i>से </i><i>कोई रखना चाहे तो स्वागत है। यदि राजेन्द्र यादव स्वयं अपनी बात रखें तो इससे बेहतर क्या होगा? :</i><br />
<br />
इन सारी घटनाओं के दौरान जब मैं थाने में बैठी थी। मेरे मित्र मज्कूर आलम के पास फोन किया जा रहा था। मज्कूर आलम उस दिन अपने घर बक्सर (बिहार) में थे। उन्हें फोन पर बताया जा रहा था- ‘ज्योति थाने में है। यह अच्छा नहीं है। उसे वापस बुला लीजिए।’<br />
मैने सुना थाने में कई लोगों से कह कर फोन कराया गया। दबाव बनाने के लिए। यदि यह बात सच है तो दिल्ली पुलिस की सराहना की जानी चाहिए कि वे किसी के दबाव में नहीं आए।<br />
मैं अकेली रात एक बजे तक थाने में बैठी रही। इस बीच मेरा एमएलसी (मेडिकल लीगल केस) कराया गया। मैं वहां देर रात तक इसलिए बैठी रही क्योंकि मैंने तय कर लिया था, जब तक मेरा एफआईआर (फर्स्ट इन्फॉरमेशन रिपोर्ट) नहीं हो जाता, मैं वहां से हिलूंगी नहीं। मेरे एमएलसी में आ गया कि चोट है। ईएनटी में दिखलाया, वहां कान के चोट की भी पुष्टी हो गई। एक बजे रात में एक लेडी कांस्टेबल मुझे घर तक छोड़ कर गई।<br />
मुझे जानकारी मिली कि मेरे घर आने के थोड़ी देर बाद ही प्रमोद को छोड़ दिया गया। उसके बाद दो महीने तक केाई कार्यवायी नहीं हुई। मै अपने कान के दर्द से परेशान थी। मुझे चोट लगी थी। दो महीने तक पुलिस की तरफ से कोई कार्यवायी नहीं हुई। पुलिस की जांच पड़ताल चल रही होगी, यह अलग बात है। उन्होंने दो महीने तक एक जुलाई की घटना के लिए सीआरपीसी की धारा 164 में मेरा बयान भी नहीं कराया।<br />
घटना के अगले दिन दो जुलाई को राजेन्द्र यादव का फोन आया मेरे पास। उन्होंने कहा -‘क्या मिल गया, पुलिस में बयान दर्ज कराके। लड़का छुट गया। लड़का घर आ गया।’<br />
मैने जवाब दिया- ‘क्या हो गया यदि प्रमोद छुट कर आ गया। मैंने वही किया जो मुझे करना चाहिए।’<br />
फिर राजेन्द्र यादव ने कहा- ‘अच्छा ऐसा कर शाम छह बजे मेरे घर आ जा।’<br />
मैंने जवाब में कहा- ‘अब मैं आपके घर कभी नहीं आने वाली।’ <br />
राजेन्द्र यादव- ‘कभी नहीं आना, आज आ जा।’<br />
ज्योतिः ‘क्यों आज ऐसा क्या खास है कि मुझे इतना कुछ हो जाने के बाद भी आपके घर आ जाना चाहिए।’<br />
राजेन्द्र यादवः ‘मैने पुलिस वाले को कह दिया है, वकील को भी बुला लिया है। तू भी आ जा। प्रमोद भी रहेगा। वह तुझे सॉरी बोल देगा। बात खत्म हो जाएगी।’<br />
ज्योतिः ‘उसे पब्लिकली सॉरी बोलना होगा। उसने इतनी बूरी हरकत की है मेरे साथ। तब मैं माफ करूंगी। मुझे लगता है कि जिसे वास्तव में महसूस होगा कि उसने गलती की है, वह सार्वजनिक तौर पर माफी मांगेगा। जब कोई महसूस करता है, अपनी गलती तो उसे सार्वजनिक तौर पर गलती की माफी मांगनी चाहिए। यदि वह सार्वजनिक तौर पर माफी मांगेगा तो उसे सुधरने और अच्छा बनने का एक मौका दिया जा सकता है। उस माफी के बाद भी उसकी हरकतें नहीं बदलती तो उस पर फिर कार्यवायी होनी चाहिए लेकिन प्रमोद को एक मौका मिलना चाहिए, इस बात के मैं हक में हूं।’<br />
राजेन्द्र यादवः ‘फिर ऐसा कर, सोनिया गांधी को बुला ले, मनमोहन सिंह को बुला ले, ओबामा को बुला ले। रामलीला मैदान में माफी मांगने का सार्वजनिक कायक्रम रख लेते हैं।’<br />
ज्योतिः ‘आपको जो भी लगे लेकिन जब तक वह सार्वजनिक तौर पर माफी नहीं मांग लेता, मैं माफ नहीं करूंगी।’<br />
जब मेरी और राजेन्द्र यादव की फोन पर यह बात हो रही थी, मीडिया और साहित्य में बहुत से लोगों को इस घटना की जानकारी हो चुकी थी। बहुत से लोगों के फोन आने लगे थे।<br />
एक दिन पहले यानि एक जुलाई को जिस दिन दुर्घटना हुईं, जब मैं पुलिस के आने का इंतजार कर रही थी, उसी वक्त साहित्यिक पत्रिका पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज राजेन्द्र यादव के घर आए थे। प्रेम भारद्वाज जब भी पाखी का नया अंक आता है, उसे देने के लिए वे स्वयं हर महीने राजेन्द्र यादव के घर आते हैं। उस दिन भी वे पाखी देने ही आए थे। जब प्रेम भारद्वाज वहां पहुंचे तो उन्होंने मेरी हालत देखी। राजेन्द्र यादव ने प्रेम भारद्वाज के हाथ से पाखी लेकर बोला- ‘ठीक है, ठीक है। अब जाओ।’<br />
मैने कहा- ‘प्रेम भारद्वाज जाएं क्यों, उन्हें भी पता चलना चाहिए, आपके घर में क्या हुआ है?<br />
प्रेम भारद्वाज ने पूछा - ‘क्या हुआ?’<br />
राजेन्द्र यादव का जवाब था- ‘कुछ नहीं हुआ, तुम जाओ यहां से।’<br />
प्रेम भारद्वाज के जाने के बाद पुलिस आई। पुलिस के आने का जिक्र मैं पहले कर चुकी हूं। राजेन्द्र यादव द्वारा दिया गया, शराब पीने का ऑफर जब दिल्ली पुलिस ने ठुकरा दिया और इस बात पर भी सहमत नहीं हुए कि किसी स्त्री पर हमला छोटी बात होती है तो राजेन्द्र यादव को लगा कि यह बात उनसे अब नहीं संभलेगी। उन्होंने किशन को कहा- ‘भारत भारद्वाज को फोन मिलाओ।’<br />
जब तक भारत भारद्वाज आए, पुलिस दरवाजे तक आ चुकी थी। भारत भारद्वाज ने आते ही कहा- ‘मैं डीआईजी हूं आईबी डिपार्टमेन्ट में। आप पहले मुझसे बात कीजिए, उसके बाद प्रमोद को लेकर जाइएगा। ’<br />
मैने वहीं पर कहा- ‘ये रिटायर हो चुके हैं।’<br />
मैने देखा, प्रेम भारद्वाज गए नहीं थे। वे भारत भारद्वाज के साथ लौट आए थे। हो सकता है कि वे भारत भारद्वाज के पास पत्रिका देने गए हों और राजेन्द्र यादव का फोन आ गया हो।<br />
भारत भारद्वाज ने फिर पूछा- ‘क्या हुआ?’<br />
मैने पूरी कहानी उन्हें बताई, यह भी बताया कि घटना के बाद मैने शिकायत की है और मेरी शिकायत पर पुलिस आई है।<br />
भारत भारद्वाज फिर राजेन्द्र यादव के लिए, सलाह देने में व्यस्त हो गए। अनंत विजय को बुला लो, उसके एक भाई सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं। पुलिस ने भारत भारद्वाज से कहा- ‘सर आपको जो भी बात करनी है, थाने में आकर करिए।’<br />
जब एक महिला के साथ बलात्कार होता है या फिर बलात्कार की कोशिश होती है। लड़की की इससे सिर्फ शरीर की क्षति नहीं होती। उसका मन भी टूटता है। हमले का मानसिक असर भी गहरा होता है। मेरे साथ जो हुआ, मैं उससे अभी तक बाहर निकल नहीं पाई हूं। यह अलग बात है कि मैं लड़ रही हूं। मैने हिम्मत नहीं हारी है। कानूनी रूप से जो कर सकती थी, कर रही हूं। लेकिन इस घटना का मेरे अंदर जो असर हुआ है, उसे सिर्फ मैं समझ सकती हूं। इस तरह के अपराध के लिए समझौता कभी नहीं हो सकता है। कोई ऐसे मामले में समझौता शब्द का इस्तेमाल करता है, इसका मतलब है कि वह लड़की के साथ अन्याय करता है। मैने इस अन्याय को भोगा है। इस तरह के मामले में समझौते की बात कहीं आनी नहीं चाहिए। मैं ना समझौते के लिए कभी तैयार थी, ना हूं और ना इस मामले में आने वाले समय में समझौता करूंगी। यह संभव है कि कोई गलती करता है और अंदर से इस बात को महसूस करता है और माफी मांगता है तो उसे माफ करके एक मौका दिया जा सकता है। समझौता और माफी देने में अंतर होता है। यदि मैं प्रमोद को माफ करने पर विचार कर रही हूं तो इसे समझौता बिल्कुल ना कहा जाए। यह शब्द एक पीड़ित लड़की के लिए अपमानजनक है। एक तो लड़की के साथ गलत हुआ है। लड़की ने उसे भुगता। उस पीड़ा के शारीरिक मानसिक असर से लड़की गुजरी। अब उस पीड़ा से जुझ रही लड़की से अपराधी को माफ करने के लिए कहा जा रहा है और उसे समझौता नाम दिया जा रहा है। यह ऐसा ही है जैसे किसी ने पीड़ा से गुजर रही लड़की को दो थप्पड़ और मार दिया हो। वही सारी घटनाएं फिर एक बार मेरे साथ दुहराई जा रही हों। इसलिए समझौता नहीं, प्रमोद के लिए माफी शब्द का इस्तेमाल होना चाहिए। यदि उसे अपनी गलती का एहसास है तो जरूर उसे एक मौका मिलना चाहिए।<br />
अकेला प्रमोद इस गुनाह में शामिल है या फिर कुछ और लोग भी प्रमोद के पीछे इस गुनाह में शामिल हैं। इसका सही-सही जवाब राजेन्द्र यादव दे सकते हैं। मान लीजिए प्रमोद ने किसी के बहकाने पर यह सब किया। पैसा लेकर किया। लेकिन सच यह है कि मेरे साथ अपराध प्रमोद ने किया। मेरा अपराधी प्रमोद है। उसने ऐसा कदम क्यों उठाया? इसका जवाब प्रमोद दे सकता है।<br />
सच्चाई है कि राजेन्द्र यादव ने मेरा वीडियो नहीं बनाया, मुझ पर शारीरिक हमला भी नहीं किया। फिर भी मैने हंस का बहिष्कार किया। इसके पीछे वजह यही है कि राजेन्द्र यादव स्त्री सम्मान की बात करते हैं लेकिन जब उनके सामने स्त्री सम्मान पर हमला हुआ तो वे चुप थे। प्रमोद को पहले दिन थाने से निकलवाने में राजेन्द्र यादव की अहम भूमिका रही। प्रमोद के खिलाफ एफआईआर ना हो, इसमें राजेन्द्र यादव की पूरी भूमिका रही। वह नहीं रूकवा पाए, यह अलग बात है, लेकिन उन्होंने जोर पूरा लगा लिया था। पहले दिन जब प्रमोद थाने से छुट कर आया तो उनके घर में ही था। उनके घर में वह काम करता रहा। उसकी दूसरी बार दो महीने बाद गिरफ्तारी उनके घर से ही हुई। यदि कोई लड़का आपके यहां काम करता हो तो यह बात समझ में आती है कि वह आपके नियंत्रण में ना हो और उसका अपराध आपकी जानकारी में ना हो। लेकिन जब राजेन्द्र यादव एक जुलाई की घटना के चश्मदीद हैं, सबकुछ उनकी आंखों के सामने घटा है, वे कम से कम प्रमोद से अपना रिश्ता खत्म कर सकते थे। प्रमोद उनके घर में रहा और काम करता रहा। इतना ही नहीं, उलट राजेन्द्र यादव मुझपर ही दबाव बनाते रहे कि समझौता कर लो। केस वापस ले लो। उनकी तरफ से कई लोगों के फोन आ रहे थे- ‘तुम्हारा साहित्यिक कॅरियर चौपट हो जाएगा। तुम साहित्य से बाहर हो जाओगी।’<br />
मैं नहीं मानी।<br />
राजेन्द्र यादव ने तरह-तरह के एसएमएस भी मेरे पास भेजे। वे साहित्यिक व्यक्ति हैं, इसलिए उनकी धमकी भी साहित्यिक भाषा में थी।<br />
‘तुम जो कर रही हो, समझो इसमें सबसे अधिक नुक्सान किसका है?’<br />
‘मूर्ख उसी डाल को काटता है, जिस पर बैठा होता है।’<br />
‘तुम्हें आना तो मेरे पास ही पड़ेगा।’<br />
यह सारे एसएमएस मेरे पास सुरक्षित हैं। 27 जुलाई को राजेन्द्र यादव का फोन आया- ‘प्रमोद माफी मांगने को तैयार है। लेकिन सार्वजनिक माफी से पहले, वहां कौन-कौन से लोग होंगे, यह तय करने के लिए हम लोग मिले। मिलकर बात करते हैं। वह मिलकर भी तुमसे माफी मांग लेगा और सार्वजनिक तौर पर भी माफी मांग लेगा। मिलने की जगह नोएडा (उत्तर प्रदेश), सेक्टर सोलह का मैक डोनाल्ड तय हुआ।<br />
बात हुई थी माफी मांगने की लेकिन प्रमोद वहां भी मुझे धमकाने लगा। अपना केस वापस ले लो वर्ना मार के फेंक देंगे। लाश का भी पता नहीं चलेगा। किशन भी साथ दे रहा था। उस दिन मज्कूर आलम मेरे साथ थे। राजेन्द्र यादव उनके द्वारा सार्वजनिक माफी के लिए सुझाए जा रहे सारे नामों को एक-एक करके खारिज कर रहे थे। मानों घर से राजेन्द्र यादव प्रमोद के साथ सार्वजनिक माफी की बात सोचकर निकले हों और यहां आकर बदल गए हों। नामों को लेकर राजेन्द्र यादव की आपत्ति कायम थी। नहीं यह नहीं होगा। इसे क्यों बुलाएंगे। ऐसा करो कि वकील को बुला लेते हैं। बात खत्म करो।<br />
उनका यह रूख देखकर मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा।<br />
‘जब मैने स्पष्ट कर दिया है कि सार्वजनिक माफी से कम पर बात नहीं होगी और आपको यह स्वीकार्य नहीं है तो मिलने के लिए क्यों बुलाया?’<br />
राजेन्द्र यादव का वहां बयान था- ‘अब मैं और तुम आमने-सामने हैं। अब प्रमोद से तुम्हारी लड़ाई नहीं है। यदि तुमने मेरी बात नहीं मानी तो अब तुम्हारी लड़ाई मुझसे है।’<br />
इस घटना से पहले मैं राजेन्द्र यादव को ई मेल पर हंस और राजेन्द्र यादव के बहिष्कार की सूचना दे दी थी। उन्होंने हंस के अंक में मेरी कहानी की घोषणा की थी। मैने कहानी देने से मना कर दिया। मैं ऐसी पत्रिका को कहानी नहीं दे सकती, जिसका दोहरा चरित्र हो। मेरे ई मेल भेजे जाने के बाद भी उन्होंने मेरी समीक्षा छाप दी। (यह बातचीत हंस, अक्टूबर 2013 अंक आने से पहले हो चुकी थी, उस वक्त हंस में ‘समीक्षा’ के लिए राजेन्द्र यादव की माफी नहीं छपी थी) मैने जो ई मेल राजेन्द्र यादव को भेजा था, उसमें साफ शब्दों में लिख दिया था कि मेरा निर्णय समीक्षा पर भी लागू होता है। इसके बावजूद उन्होंने समीक्षा छाप दी। समीक्षा छापने के बाद उन्होंने मुझे सूचना भी नहीं दी। मेरी लेखकीय प्रति अब तक मेरे पास नहीं आई।<br />
मेरे पास एक परिचित का फोन आया, तुमने हंस का बहिष्कार किया है और तुम्हारी समीक्षा हंस में छपी है। यह फोन आने के बाद मैने राजेन्द्र यादव को फोन किया। उनकी पत्रिका 20-21 से पहले कभी प्रेस में नहीं जाती है लेकिन राजेन्द्र यादव ने कहा- इस बार पत्रिका 18 को ही प्रेस में चली गई। इसलिए समीक्षा रोक नहीं पाए। मैने कहा- आप अगले अंक में छाप दीजिएगा कि समीक्षा कैसे छप गई? जिससे पाठकों में भ्रम ना रहे। राजेन्द्र यादव ने उस वक्त कहा कि ठीक है। तीन दिनों बाद राजेन्द्र यादव का फोन आया- ‘समीक्षा छापने का निर्णय संजय सहाय का था, इसलिए वही बताएंगे कि क्या जाएगा?’<br />
मैने राजेन्द्र यादव से कहा- ‘आप संजय सहाय से बात करके खबर करवा दीजिएगा।<br />
उनकी तरफ से कोई फोन नहीं आया। मैंने फिर उन्हें ई मेल किया। आपने स्पष्टीकरण की बात कही थी, आप इस बार हंस में क्या छाप रहे हैं, आपका जवाब नहीं आया। इस ई मेल का जवाब नहीं आया तो मैने एक और ई मेल उन्हें लिखा। लेकिन उसका जवाब भी नहीं आया।<br />
जब हंस का सितम्बर अंक हाथ में आया, उसमें राजेन्द्र यादव ने मेरे लिए अपमानजनक बातें लिखी थी। जो उन्हें लिखना था, ज्योति ने हंस का बहिष्कार किया है। वह कहीं नहीं लिखा। उन्होंने मना करने के बावजूद समीक्षा छापने की बात भी कहीं नहीं लिखी। जब तक मैं उनके पास काम कर रही थी, तब तक बहुत अच्छी थी। जब मैने उनके घर में हुए गलत हरकत का विरोध किया तो उन्होंने मेरा साथ नहीं दिया। जब मैने उनका और उनकी पत्रिका का बहिष्कार किया तब उनको याद आया कि मेरा काम दस हजार के लायक भी नहीं था। यदि मेरा काम अच्छा नहीं था तो मुझे हंस में अपने पास रखा क्यों था? निकाला क्यों नहीं? मैंने तो कभी उनसे चंदा नहीं मांगा। क्या राजेन्द्र यादव जबर्दस्ती चंदा बांटते हैं। यदि राजेन्द्र यादव जबर्दस्ती चंदा बांटते है तो फिर यह चंदा सिर्फ ज्योति को क्यों? यदि चंदा ही दे रहे थे तो फिर बदले में इतना काम क्यों लेते थे?<br />
<br />
(यह ज्योति के बयान अंतिम भाग नहीं है......कहानी अभी बाकि है साथियो)<br />
<br />
<div>
<a href="http://ashishanshu.blogspot.in/2013/10/blog-post.html">‘मूकदर्शक बने रहे राजेन्द्र यादव’: ज्योति कुमारी (भागः 01)</a></div>
</div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-86606095959050431552013-10-07T07:16:00.000-07:002014-05-20T05:00:27.683-07:00‘मूकदर्शक बने रहे राजेन्द्र यादव’: ज्योति कुमारी (भाग एक)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<br />
<div>
<i>जुलाई 2013 में एक खबर आई थी कि <b>राजेन्द्र यादव</b> की प्रिय लेखिका <b>ज्योति कुमारी</b> ने ‘हंस’ का बहिष्कार किया है। सितम्बर के संपादकीय में ज्योति को लेकर श्री यादव का अनर्गल प्रलाप छपा। अक्टूबर संपादकीय में उन्होंने अपनी गलती के लिए युवा लेखिका से क्षमा मांग ली। राजेन्द्र यादव और हंस के बहिष्कार को लेकर <b>आशीष कुमार ‘अंशु’</b> ने ज्योति कुमारी से लंबी बातचीत की। ज्योति ने विस्तार से पूरी कहानी बयान की। इस कहानी में यदि आने वाले समय में राजेन्द्र यादव का पक्ष शामिल होता है तो यह कहानी पूरी मानी जाएगी। यहां प्रस्तुत है, ज्योति का बयान, जैसा उन्होंने आशीष को बताया। </i></div>
<div>
<br /></div>
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‘हंस’ का बहिष्कार करना किसी भी नई लेखिका के लिए आसान फैसला नहीं होता। खास तौर पर जब मेरे लेखन की अभी शुरूआत है। इस बात से कोई इंकार नहीं है कि हंस में जब कहानी छपती है तो अच्छा रिस्पांस मिलता है। मेरी कहानियां ‘हंस’, ‘पाखी’, ‘परिकथा’, ‘नया ज्ञानोदय’ और अभी बहुवचन में छपी है लेकिन हंस में प्रकाशित किसी भी कहानी के लिए सबसे अधिक फोन, एसएमएस और चिट्ठियां मिली हैं। किसी भी लेखक को यह अच्छा लगता है। </div>
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मैं पिछले दो सालों से राजेन्द्र यादव और हंस के लिए काम कर रहीं थी। मेरा वहां काम यादवजी जो बोले, उसे लिखने का था, हंस में अशुद्धियों को दुरुस्त करना और उसके संपादन से जुड़े काम को भी मैं देखती थी। जब ‘स्वस्थ्य आदमी के बीमार विचार’ पर काम शुरू किया, उसके थोड़ा पहले से मैं उनके पास जा रही थी। लगभग दो साल से मैं उनके पास जा रही हूं। इस काम के लिए वे मुझे दस हजार रूपए प्रत्येक महीने दे रहे थे। मैं मुफ्त में उनके लिए काम नहीं कर रही थी। सबकुछ ठीक था। यादवजी का स्नेह भी मिल रहा था। उस स्नेह में कहीं फेवर नहीं था। अपनी कहानियों के लिए कभी मैंने उन्हें नहीं कहा। मैं उन्हें लिखने के बाद कहानी दिखलाती थी और कहती थी कि यह यदि हंस में छपने लायक हो तो छापिए। मेरी पांच-छह कहानियां हंस में छपी। </div>
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यदि किसी लेखिका की पहली कहानी छपना उसे किसी साहित्यिक पत्रिका का प्रोडक्ट बनाता है तो मुझे ‘परिकथा’ का प्रोडक्ट कहा जाना चाहिए। मेरी पहली कहानी ‘परिकथा’ में छपी है। मैं हंस की प्रोडक्ट नहीं हूं। यह सच है कि कथा संसार में मेरी पहचान हंस से बनी। ‘हंस’ मेरे लिए स्त्री विमर्श की पत्रिका रही है। ‘हंस’ से मैने स्त्री अधिकार और स्त्री सम्मान को जाना है। राजेन्द्र यादव जो अपने संपादकीय में लिखते रहे हैं और जो विभिन्न आयोजनों में बोलते रहे हैं। इन सबसे उनकी छवि मेरी नजर स्त्री विमर्श के पुरोधा की बनी। </div>
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एक जुलाई 2013 को उनके घर में जो दुर्घटना हुई, उससे पहले उनसे मेरी कोई शिकायत नहीं थी। सबकुछ उससे पहले अच्छा चल रहा था। मैं उन्हें अपने अभिभावक के तौर पर पितातुल्य मानती रहीं हूं। मेरा उनसे इसके अलावा कोई दूसरा रिश्ता नहीं रहा। इसके अलावा केाई दूसरी बात करता है तो गलत बात कर रहा है। राजेन्द्र यादव मुझसे कहते थे- ‘तुझे देखकर मेेरे अंदर इतना वातशल्य उमरता है, जितना बेटी रचना के लिए भी नहीं उमरा। कभी मैं उन्हें कहती थी कि मुझे हंस छोड़ना है तो वे मुझे बिटिया रानी, गुड़िया रानी बोलकर, हंस ना छोड़ने के लिए मनाते थे। राजेन्द्र यादव हमेशा मेरे साथ पिता की तरह ही व्यवहार करते थे। </div>
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जब से मैं उनके पास काम कर रहीं हूं, प्रत्येक सुबह 8ः00 बजे- 8ः30 बजे उनके फोन से ही मेरी निन्द खुलती थी। फोन उठाते ही वे कहते- अब उठ जा बिटिया रानी। मैं उनके घर 10ः30 बजे सुबह पहुंचती थी। वे रविवार को भी बुलाते थे। रविवार को उनके घर शाम तीन-साढे तीन बजे पहुंचती थी। </div>
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राजेन्द्र यादव का मानना था कि वे हंस कार्यालय में एकाग्र नहीं हो पाते हैं। इसलिए वे संपादकीय लिखवाने के लिए घर ही बुलाते थे। जब मैंने राजेन्द्र यादव के साथ काम करना शुरू किया, उन दिनों राजेन्द्र यादव दफ्तर नहीं जाते थे। वे बीमार थे। तीन-चार महीने तक वे बिस्तर पर ही पड़े रहे। ‘स्वस्थ्य आदमी ......’ वाली किताब उन्होंने घर पर ही लिखवाई। उस दौरान वे हंस नहीं जा रहे थे। जब उन्होंने हंस जाना प्रारंभ किया, उसके बाद भी वे रचनात्मक लेखन घर पर ही करते थे। दफ्तर में वे चिट्ठियां लिखवाते थे। मेरी नौकरी उनके घर से शुरू हुई थी, इस तरह मेरा एक दफ्तर उनका घर भी था। </div>
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30 जून 2013 की रात 10ः00-10ः15 बजे के आस-पास मेरे मोबाइल पर नए नंबर से फोन आया। नए नंबर के फोन इतनी रात को मैं उठाती नहीं। लेकिन एक नंबर से दो-तीन बार फोन आ जाए तो उठा लेती हूं। जब दूसरी बार में मैंने नए नंबर वाला फोन उठाया तो दूसरी तरफ से आवाज आई- ‘मैं प्रमोद बोल रहा हूं।’ जब मैने पूछा -‘कौन प्रमोद?’ तो उसने राजेन्द्र यादव का नाम लिया। प्रमोद, राजेन्द्र यादव का अटेन्डेन्ट था। ‘हंस’ में मेरी राजेन्द्र यादव और संगम पांडेय से बात होती थी और किसी से कुछ खास बात नहीं होती थी। मैं बातचीत में थोड़ी संकोची हूं, यदि सामने वाला पहल ना करे तो मैं बात शुरू नहीं कर पाती। प्रमोद से मेरी बातचीत सिर्फ इतनी थी कि वह दफ्तर पहुंचने पर राजेन्द्र यादव के लिए और मेरे लिए एक गिलास पानी लाकर रखता था और पूछता था- ‘मैडम आप कैसी हैं?’ इससे अधिक मेरी प्रमोद से कोई बात हुई हो, मुझे याद नहीं।</div>
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उसका फोन आना मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। उसने फोन पर कहा- ‘मुझसे आकर मिलो। मैंने तुम्हारा वीडियो बना लिया है। उसे मैं इंटरनेट पर डालने जा रहा हूं।’</div>
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यह फोन मेरे लिए झटका था। कोई यदि वीडियो बनाने की बात कर रहा है तो निश्चित तौर पर यह किसी आम वीडियो की धमकी नहीं होगी। वह नेकेड वीडियो की बात कर रहा होगा। मैंने राजेन्द्र यादव को उसी वक्त फोन मिलाया। जब राजेन्द्र यादव से मेरी बात हो रही थी, उस दौरान भी प्रमोद का फोन वेटिंग पर आ रहा था। राजेन्द्र यादव को मैने फोन पर कहा- ‘प्रमोद नेकेड वीडियो की बात कर रहा है, आप देखिए क्या मामला है?’</div>
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राजेन्द्र यादव ने कहा- अब मेरे सोने का वक्त हो रहा है। सुबह बात करूंगा। उनसे बात खत्म हुई प्रमोद का फोन जो वेटिंग पर बार-बार आ ही रहा था। फिर आ गया- उसने फिर मुझे धमकाया। </div>
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राजेन्द्र यादव जो दो साल से प्रतिदिन मुझे फोन करके उठाते थे। उस दिन उनका फोन नहीं आया। जब मैंने फोन किया तो उन्होंने कहा- ‘मैं आंख दिखलाने एम्स जा रहा हूं। तुमसे दोपहर में बात करता हूं। फिर राजेन्द्र यादव का फोन नहीं आया। फिर मैंने ही फोन किया, राजेन्द्र यादव ने फोन पर मुझे कहा- प्रमोद कह रहा है, वीडियो सुमित्रा के पास है और सुमित्रा कह रही है वीडियो प्रमोद के पास है। पता नहीं चल पा रहा कि वीडियो किसके पास है। ऐसा करो, इस मसले को अभी रहने दो। इस पर बात 31 जुलाई वाले कार्यक्रम के बीत जाने के बाद बात करेंगे। मुझे यह बात बुरी लगी। मैंने कहा- ‘आज एक जुलाई है। 31 जुलाई में अभी तीस दिन है। इस बीच प्रमोद ने कुछ अपलोड कर दिया तो फिर मेरी बदनामी होगी। आप भारतीय समाज को जानते हैं। मैं कहीं की नहीं रहूंगी। मैंने कई बार राजेन्द्र यादव को फोन किया और एक बार प्रमोद को भी फोन किया- ‘आप सच बोल रहे हैं या कोई मजाक कर रहे हैं। क्या है उस वीडियो में?’</div>
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उसने ढंग से बात नहीं की। उसका जवाब था- ‘जब दुनिया देखेगी, तुम भी देख लेना।’ </div>
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जब कई बार फोन करने के बाद भी राजेन्द्र यादव ने मेरी बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया फिर मैंने उन्हें फोन करके कहा कि मैं शाम में आपके घर आ रही हूं। यह छोटी बात नहीं है। आप प्रमोद से बात करिए। </div>
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मेरे साथ जो दुर्घटना हुई, उसके बाद मैने लोगों से बातचीत बंद कर दी थी। अब जब फिर से बातचीत हो रही है तो यह सुनने में आ रहा है कि कुछ लोग कह रहे हैं- ज्योति अगर राजेन्द्र यादव के घर में कुछ गलत काम नहीं कर रही थी, राजेन्द्र यादव के साथ उसके नाजायज संबंध नहीं थे फिर वह वीडियो की बात से डरी क्यों? यहां स्पष्ट कर दूं कि यह वीडियो मेरा और राजेन्द्र यादव का होता तो मैं बिल्कुल नहीं डरती। ना मैं घबरातीं, वजह यह कि प्रमोद राजेन्द्र यादव के पास काम करता था, फिर क्या वह अपने मालिक का वीडियो अपलोड करता? अपलोड करता तो क्या सिर्फ ज्योति की बदनामी होती? क्या राजेन्द्र यादव की नहीं होती। राजेन्द्र यादव का कद बड़ा है। उनकी बदनामी भी बड़ी होती। यदि वे सेफ होते तो मैं भी सेफ होती लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। वे मुझे बेटी तुल्य मानते रहे थे। मेरे लिए वे पितातुल्य थे। इसका मतलब था कि यदि प्रमोद ने कोई वीडियो वास्तव में बनाया था तो वह मेरे अकेले की वीडियो होगी। मैं राजेन्द्र यादव के यहां काम करती थी तो उनका बाथरूम भी इस्तेमाल करती थी। राजेन्द्र यादव से मेरी घनिष्ठता हो ही गई थी। कई बार जब मेरे घर पानी नहीं आया होता तो राजेन्द्र यादव कहते थे- मेरे घर आ जाओ। डिक्टेशन ले लो और यहीें पर नहा लेना। उनके बाथरूम का कई बार मैने इस्तेमाल नहाने के लिए किया है। मेरा डर यही था, बाथरूम में नहाते हुए कैमरा छुपाकर मेरा नेकेड वीडियो प्रमोद, राजेन्द्र यादव के घर में बना सकता है। एक अकेली लड़की का नेकेड वीडियो जब इंटरनेट पर डाला जाता है तो बिल्कुल नहीं देखा जाता कि वह अकेली है या फिर किसी के साथ है। यदि लड़की वीडियों में नेकेड है तो उसकी बदनामी होनी है, उसकी परेशानी होनी है। इस बात से मैं डरी थी। यदि राजेन्द्र यादव के साथ कोई वीडियो होता फिर डर की कोई बात नहीं थी। यदि राजेन्द्र यादव सेफ हैं तो उनके साथ वाला भी सेफ है। </div>
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वीडियो वाली बात से मैं काफी परेशान थी। परेशान होकर मैं राजेन्द्र यादव के घर पहुंची। एक जुलाई को 6ः30-6ः45 बजे शाम में। मैंने राजेन्द्र यादव से कहा- ‘सर आप मेरे सामने प्रमोद से बात करें कि वह क्या वीडियो है? वह दिखलाए।’</div>
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मैं राजेन्द्र यादव को सर ही कहती हूं। उनका जवाब था- ‘मैं प्रमोद को कुछ नहीं कहूंगा। उसे बुला देता हूं, तुम खुद ही उससे बात कर लो।’</div>
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यह बातचीत राजेन्द्र यादव के कमरे में हुई। वे उस वक्त शराब पी रहे थे। उनके सामने ही प्रमोद ने अपशब्दों का प्रयोग किया। यह मामला अभी न्यायालय में है। प्रमोद यह आलेख लिखे जाने तक जेल में है। इस पूरी घटना में दुखद पहलू यह है कि यह सब एक ऐसे आदमी की नजरों के सामने हुुआ जिसकी छवि देश में स्त्रियों के हक में खड़े व्यक्ति के तौर पर है। वह मुकदर्शक बनकर अपने कर्मचारी द्वारा एक स्त्री के लिए प्रयोग किए जा रहे अशालीन भाषा को सुनता रहा। वे उस वक्त भी शराब पीने में मशगूल थे, जब उनका कर्मचारी स्त्री के साथ अमर्यादित व्यवहार कर रहा था। इस पूरी घटना के दौरान राजेन्द्र यादव बीच में सिर्फ एक वाक्य प्रमोद को बोले- ‘यार कुछ है तो दिखा दे ना...’</div>
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मानों छुपन-छुपाई के खेल में चॉकलेट का डब्बा गुम हो गया हो। जबकि प्रमोद कई बार राजेन्द्र यादव के सामने धमका चुका था- वीडियो इंटरनेट पर अपलोड कर दूंगा। फिर भी वे चुप थे। मैं भी चुप हो जाती। कोई कदम नहीं उठाती लेकिन उसके बाद जो प्रमोद ने किया वह किसी भी स्त्री के लिए अपमानजनक था। मामला न्यायालय में है इसलिए उस संबंध में यहां नहीं बता रहीं हूं। मेरे साथ जो हुआ, उसके बाद मैं समझ गई थी कि मेरा अब यहां से बच कर निकलना नामूमकिन है। मैंने राजेन्द्र यादव के कमरे में रखे टेलीफोन से सौ नंबर मिलाया। उस वक्त राजेन्द्र यादव बोले- ‘यह क्या कर रही हो? फोन रख।’ तब तक दूसरी तरफ फोन उठ चुका था। मैंने फोन पर सारी बात बता दी। मेरे साथ क्या हुआ और मुझे मदद की जरूरत है। </div>
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फोन रखने के बाद अब तक शांत पड़े राजेन्द्र यादव फिर बोले- ‘यह सब क्या कर रही हो? पुलिस के आने से क्या हो जाएगा? बेवजह बात ना बढ़ा।’</div>
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पुलिस को फोन मिलाने के बाद प्रमोद शांत हो गया था। राजेन्द्र यादव ने अब प्रमोद से कहा- ‘तू जा यहां से।’ उनकी आज्ञा मिलते ही प्रमोद आज्ञाकारी बच्चे की तरह चला गया। अब राजेन्द्र यादव ने मुझसे कहा- पुलिस को कुछ नहीं बताना है। मैंने कहा- ‘यह नहीं होगा सर। आपके सामने, आपके घर में इतनी बुरी हरकत हुई है मेरे साथ। आपसे मैं बार-बार फोन पर कहती रही कि आप प्रमोद से बात कीजिए लेकिन आपने वह भी नहीं किया। अब मैं पुलिस को सारी बात बताऊंगी।’</div>
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यदि मेरे मन में कोई चोर होता तो मैं वहां डर जाती। मेरे मन में कोई चोर नहीं था, इसलिए मैं डरी नहीं। मेरे अंदर सिर्फ इतनी बात थी कि मेरे साथ जो हुआ है, वह गलत हुआ है। इसलिए मैं पुलिस में शिकायत करूंगी। </div>
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राजेन्द्र यादव लगातार मुझे समझाते रहे कि पुलिस में शिकायत करने से कुछ नहीं होगा। सौ नंबर पर उन्होंने रिडायल किया, शायद यह कन्फर्म करने के लिए कि उनके घर से पुलिस के पास फोन गया था या नहीं? जब उधर से कहा गया कि फोन आया था तो यादवजी ने कहा- ‘अब पुलिस को भेजने की जरूरत नहीं है। आपसी मारपीट थी। अब सुलझ गया सबकुछ।’ </div>
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मैं वहीं बैठी थी। मैने दुबारा फोन मिलाया कि पुलिस अभी तक नहीं आई? दूसरी तरफ से मुझसे सवाल पूछा गया- ‘मैडम आप इतनी सुरक्षित तो हैं ना, जितनी देर में पुलिस आप तक पहुंच सके?’</div>
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मैंने कहा- सुरक्षित हूं। प्रमोद बाहर बैठा है और राजेन्द्र यादव फोन पर किसी से बात कर रहे हैं। </div>
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पुलिस आई। उन्होंने प्रमोद को थाने ले जाने के लिए पकड़ा। साथ में मुझे भी बयान के लिए ले जा रहे थे। राजेन्द्र यादव ने पुलिस वाले से कहा- ‘क्या इतनी छोटी सी बात के लिए ले जा रहे हो? बैठो यहां। स्कॉच लोगे या व्हीस्की? मेरे पास 21 साल पुरानी शराब है। एक से एक अच्छी शराब है। कहो क्या लोगे?’</div>
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लेकिन पुलिस वाले ने कहा- ‘सर लड़की के साथ ऐसा हुआ है। यह छोटी बात नहीं है।’</div>
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मेरा कुर्ता खींच-तान में फट गया था। मेरे पास ऐसी खबर आ रही है कि कुछ लोग कह रहे हैं कि ज्योति ने खुद ही अपने कपड़े फाड़ लिए। कोई भी लड़की पहली बात इतनी बेशरम नहीं होती कि अपने कपड़े खुद फाड़ ले। यदि फाड़ेगी तो उसका उद्देश्य क्या होगा? सामने वाले पर इल्जाम लगाना। मैने इसके लिए प्रमोद पर आरोप नहीं लगाया है। मैंने कहा है कि यह खींच-तान में फटा है। </div>
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प्रमोद राजेन्द्र यादव के पास अप्रैल में आया है। वह राजेन्द्र यादव के घर में रहता है। उनके कमरे में सोता है। उसकी गिरफ्तारी भी राजेन्द्र यादव के घर से हुई थी।</div>
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आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com64tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-13671264351228221722013-09-28T07:55:00.002-07:002013-09-28T07:55:35.948-07:00तिमारपुर थाने का एक किस्सा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
यह घटना अगस्त तीन की है। इसे इसलिए दर्ज कर रहा हूं ताकि सनद रहे। अगस्त दो की रात एक बजे के आस-पास का वक्त रहा होगा। माने तीन अगस्त को शुरू हुए अभी एक घंटा ही बीता था। मैं अपने दो मित्रों को उनकी गाड़ी तक छोड़ने के लिए घर से लगभग सौ-दो सौ मीटर तक आया था। कई बार दोस्तों में घंटों बात होने के बाद भी विदाई के समय कुछ बातें रह ही जाती है। जैसे घर वालों को ट्रेन ठीक खुलते वक्त कुछ बातें याद आ जाती है। हमारी बात थोड़ी देर में खत्म हुई और वे गाड़ी लेकर आगे बढ़ गए। इस बीच हम तीनों में से किसी ने ध्यान नहीं दिया कि दिल्ली पुलिस के दो कांस्टेबल रात की गश्त पर हैं। वैसे यह ध्यान देने वाली बात भी नहीं थी। वे अपनी नौकरी कर रहे थे। <br />मेरे दोस्त गाड़ी लेकर आगे बढ़े और मैं अपने घर की तरफ मुड़ा, उस वक्त का यह दृश्य मेरे लिए थोड़ा अजीब था। मोटर सायकिल पर आए दो कांस्टेबल में से पिछे बैठे कांस्टेबल ने अचानक से कहा- ‘गाड़ी रोक, गाड़ी रोक।’<br />मानों कोई बड़ा अपराध हुआ हो वहां। मेरी नजर उनकी तरफ गई। आगे वाले कांस्टेबल मेरी तरफ मुखातिब थे-‘यह गाड़ी हमें देख कर भागी क्यों?’<br />यह सवाल मुझे थोड़ा अजीब लगा, यदि उन्हें कोई संदेह है तो गाड़ी रोक कर पूछताछ करनी चाहिए। रात को सड़क पर खड़े होने पर किसी तरह की आपत्ति है तो पूछ-ताछ करते लेकिन ‘यह गाड़ी हमें देखकर क्यों भागी? यह सवाल मुझे थोड़ा अजीब सा लगा। मैने पलटकर पूछा- ‘तो क्या आपसे पूछकर जाना चाहिए था?’<br />यह सुनना था कि पिछे बैठे कांस्टेबल साहब उछलकर मोटर सायकिल से नीचे उतर आए। उसने धक्का देते हुए कहा- चल थाने (तिमारपुर) तेरी औकात बताते हैं। <br />वजीराबाद गांव दिल्ली में कम आमदनी वालों की रिहायशी बस्ती है। इसलिए दिल्ली पुलिस के किसी भी कांस्टेबल के लिए यहां किसी की औकात नापने की सोचना आसान सी बात है। मैने इन दोनों कांस्टेबल के साथ थाने जाने का इरादा बना लिया। (यदि मैं उनके साथ थाने जाता तो दिल्ली ट्रेफिक पुलिस का, एक मोटर सायकिल पर तीन लोगों वाला कानून टूटता क्योंकि वे दो लोग थे और अपने साथ ही मोटर सायकिल पर बिठाकर मुझे थाने ले जाना चाहते थे)<br />एक कांस्टेबल के साथ मैं घर आया और अपना पर्स, कैमरा और मोबाइल साथ लेकर, कांस्टेबल के साथ ही वापस मौका ए वारदात पर पहुंचा। घर से कैमरा लेने के बाद दिल्ली पुलिस के उस कांस्टेबल से जो बात हुई, उसकी फूटेज मेरे पास है। <br />कांस्टेबल को मुझसे उलझता देखकर मेरे मित्र वापस आ गए थे। दोनों दिल्ली की अलग-अलग प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम करते हैं। यह बात वे कांस्टेबल नहीं जानते थे। दोनों मित्रों में एक एक लड़की को देखकर, कांस्टेबल धमकाने के लिहाज से बोला- ‘तुम्हे पता है, इतनी रात को लड़का और लड़की का सड़क पर निकलना दिल्ली में जूर्म है!’<br />कांस्टेबल ने यही सोचा था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले बीए के दोनों बच्चे होंगे और उसकी बात से डर जाएंगे। जबकि मेरी दोस्त को रात, दिल्ली और दिल्ली में गुनाह वाली बात खबरिया चैनल के लिहाज से उपयोगी लगी, सो उसने अपना मोबाइल वीडियो रिकॉर्ड के मोड पर डालकर, उनकी ही बात दोहराते हुए पूछ लिया- ‘क्या वास्तव में गुनाह है?’<br />दूसरे मित्र थाना ले जाने की बात पर गुस्से में थे और अपना परिचय दे चुके थे कि वे अमुक चैनल में काम करते हैं। इस वक्त दोनों कांस्टेबल की हालत रंगे हाथांे पकड़े गए चोर की तरह हो गई थी। कैमरा ऑन था, एक के बाद एक सवाल दोनों पूछ रहे थे लेकिन उन दोनों ने चुप्पी साध ली। एक ने जाकर पीसीआर (पुलिस कंट्रोल रूम) को फोन किया। उनकी गाड़ी आई और मौके की गंभीरता को मसझते हुए, दस मीनट में चली भी गई। अगले बीस मीनट में एक दर्जन कांस्टेबल और सब इंस्पेक्टर हमारे आस-पास मौजूद थे। इतने पुलिस वाले, किस क्राइम की तफ्तीश के लिए धीरे-धीरे इकट्ठे हो रहे थे, यह अब भी मेरे लिए राज है।<br />इस मौके को देखकर मैंने कहा भी कि इतने पुलिस वालों की यहां जरूरत तो नहीं है। सभी यहां एक साथ इकट्ठे हों और इस मौके का फायदा कोई वास्तविक अपराधी उठा ले जाए, यह भी तो ठीक नहीं है। <br />इकट्ठे हुए पुलिस वालों में एक सब इंस्पेक्टर साहब अपने पत्रकार मित्रों के नाम गिनाने लगे। सबके साथ उनके कितने मधुर रिश्ते हैं, इसकी भी दुहाई दी। <br />दूसरे साहब, कांस्टेबल की कम उम्र का हवाला देकर, उसे माफ करने की गुजारिश करने लगे। <br />एक साहब ने कहा, बता देते पत्रकार हैं तो शिकायत का मौका ही नही देते।<br />इस बीच मेरी मित्र ने अपनी एक साथी को फोन करके सारी स्थितियों से अवगत कराया और वह इस मामले को कवर करने के लिए नोएडा से यूनिट के साथ वजीराबाद गांव के लिए चल पड़ी।<br />जितने पुलिस वाले उस दिन आए थे, उनमें सबसे बुजूर्ग पुलिस अंकल ने हमें समझाते हुए कहा- <br />‘बच्चों मानता हूं इन दोनों से गलती हुई है। यह कांस्टेबल हैं। खबर चलेगी तो ये सस्पेंड हो जाएंगे। आप कहें तो आपसे अपनी गलती की माफी मांग लें। आज के बाद ऐसी गलती ये नहीं करेंगे।’<br />मैंने एक घंटे में दिल्ली पुलिस के एक ही आदमी में दो आदमी देखे,<br />एक वह जो औकात दिखाने की बात कर रहा था और दूसरा वह जिसका माफी में सिर झुका हुआ था। <br />यदि एक घंटे में दिल्ली पुलिस के एक कांस्टेबल में आए बदलाव की व्याख्या करंे तो हम-आप कई मामले सुलझा लेंगे, जो पुलिस फाइलों में सुलझ जाती है लेकिन न्यायालय में जाकर उलझ जाती है। आप सुलझा लेंगे ओखला सब्जी मंडी का वह मामला जिसमें एक सब्जी का ठेला लगाने वाला युवक दो सौ रुपए की चोरी के आरोप में जेेल गया और जेल में उसने दो सौ रुपए की चोरी कुबूल कर ली होती तो जितनी सजा मिलती उससे अधिक वक्त बिताया लेकिन वह खुद को बेगुनाह साबित नहीं कर पाया। एक दिन मजबूरी में उसने अपना गुनाह कुबूल किया और रिहा हो गया। जेल में रहने के दौरान उसकी मां का इंतकाल हुआ और वह उनकी अंतिम यात्रा में भी शामिल नहीं हो पाया। जेल से निकलने के बाद कई गैर सरकारी संस्थाओं ने उसे तलाशने की कोशिश की, लेकिन वह युवक नहीं मिला। ना जाने वह अब कहां है? <br />हाल में जिस तरह पुलिस के हाथों इंडिया गेट के पास एक युवक की हत्या मोटर सायकिल चलाते हुए हुई, मेरा अनुमान है कि वह लड़का एक सौ पच्चीस सीसी की मोटर सायकिल की जगह साढ़े तीन लाख की कावासाकी नीन्जा पर होता तो दिल्ली पुलिस उस पर गोली नहीं चलाती। हम लाख इस बात का दावा कर लें कि हम समाजवादी मुल्क में रहते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि सामंतवाद अब भी इस मुल्क में जिन्दा है। उसकी शक्ल थोड़ी बदल गई है। <br />जमीन्दारों की जगह अब धनकुबेरों ने ले ली है। <br />इसका सीधा सा मतलब है कि आप दिल्ली की किसी झुग्गी-झोपड़ी कॉलोनी में रहते हैं या फिर थोड़े गरीब मोहल्ले में रहते हैं, जहां दिल्ली के ऑटो रिक्शा वाले, साहब की गाड़ी चलाने वाले ड्राइवर, दिहाड़ी मजदूर रहते हैं तो आपका आपके घर के बाहर रात डेढ़ बजे खड़े होना भी आपके खिलाफ सबूत माना जाएगा। जिसके लिए आपको दिल्ली पुलिस का कोई कांस्टेबल खींचकर थाने ले जा सकता है। <br />पिछले महीने 26 जुलाई को मैं इंडिया ब्राइडल फैशन वीक, बसंत कुंज मंे था। वहां रात ढाई बजे भी मेहमानों का जाना-आना जारी था। रोहित बल की पार्टी पूरी रात चलती रही। वहां कोई पुलिस कांस्टेबल नहीं था, बताने के लिए कि रात डेढ़-दो बजे दिल्ली की सड़कों पर निकलना गुनाह है। ना जाने पार्टी में लड़का-लड़की साथ शराब पीते हुए नजर आए तो उनपर कौन सी धारा लगेगी?<br />अब दिल्ली में यह कहने का साहस कौन करेगा कि दिल्ली में कानून सबके लिए बराबर है। <br />यहां बसंत कुंज के लिए अलग कानून है और तिमारपुर थानान्तर्गत वजीराबाद गांव के लिए अलग। <br /></div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-11458835367402833222013-08-27T04:49:00.001-07:002013-08-27T04:49:34.755-07:00विकास बनाम मन्दिर-मस्जिद...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-03palqm_OyY/UhyQsdzsAGI/AAAAAAAACbE/tMGYjfyDYXA/s1600/DSC02279.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-03palqm_OyY/UhyQsdzsAGI/AAAAAAAACbE/tMGYjfyDYXA/s320/DSC02279.JPG" width="320" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<b style="text-align: left;"><i>यदि बात मस्जिद की करें तो जिस स्थान के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में इतना विवाद हुआ, उसके डेढ़-दो सौ मीटर की दूरी पर एक दूसरी बड़ी मस्जिद है। गांव से ही पता चला कि जुमे की नमाज ना हो तो आम तौर पर बड़ी मस्जिद में दस लोगों को जुटना भी मुश्किल होता है...<br /><br /></i></b><a href="http://4.bp.blogspot.com/-gUVVh-BCqhQ/UhyQ4qoS_GI/AAAAAAAACbM/FGmX7JEMxtU/s1600/DSC02271.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-gUVVh-BCqhQ/UhyQ4qoS_GI/AAAAAAAACbM/FGmX7JEMxtU/s320/DSC02271.JPG" width="320" /></a></div>
<br />ग्रेटर नोएडा के सोए हुए गांव कादलपुर की तारिफ इस बात के लिए पूरे मुल्क को करनी चाहिए कि उसने प्रदेश की सोई हुई अखिलेश सरकार को जगा दिया। वर्ना चालिस-पैंतालिस मीनट में किसी सरकारी अधिकारी का निलंबन किस राज्य में होता है? इसका संदेश जनता में तो यही जाता है कि समाजवादी पार्टी आवश्यकता समझे तो किसी बड़े से बड़े अधिकारी को आधे घंटे में सस्पेन्शन ऑर्डर दे सकती है।<br />
अधिकारी पार्टी की हां में हां मिलाने वाला हैै तो सिर्फ जांच बिठाई जाएगी। जांच तो सालों साल चलती है और एक दिन उसकी रिपोर्ट भी आ जाती है, उस वक्त तक लोगों में रिपोर्ट के परिणामों को जानने में कोई रूचि नहीं होती। वैसे अखिलेश सरकार में सिर्फ सस्पेन्शन नहीं हुआ, उनके एक बड़े नेता सार्वजनिक सभा में स्वीकार किया कि उसकी वजह से यह निलंबन हुआ। उसके बाद भी अखिलेश सरकार इस बात से पिछे हटने को तैयार नहीं है कि गांव में साम्प्रदायिक हिंसा का माहौल था, जबकि गांव के लोग खुद स्वीकार कर रहे हैं कि मस्जिद के लिए हिन्दूओं में भी सभी जातियों के लोगों ने अपने-अपने सामर्थ से चंदा दिया था। जिस गांव में इतने सहयोग रखने वाले हिन्दू-मुस्लिम हो, वहां तो सिर्फ नेता ही दंगा करवा सकते हैं। इसलिए जनता ही तय करें कि वास्तव में सस्पेन्ड कौन होना चाहिए और हुआ कौन?<br />
मन्दिर-मस्जिद जिसे समाज को जोड़ने का केन्द्र होना चाहिए था, वह इस देश में समाज को तोड़ने का हथियार बन कर रह गई है। इस देश के नेता जानते हैं कि यह एक मात्र फार्मूला है, जिससे एक मुश्त वोट लिया जा सकता है। कादलपुर के एक एक बच्चे को सरकार पढ़ाने की जिम्मेवारी ले ले या फिर गांव के एक एक बेरोजगार युवक को नौकरी देने के काम पर लग जाए तो दूसरे गांव-मोहल्लों के लोग भी रोजगार और शिक्षा के लिए सड़क पर उतर आएंगे। लेकिन कादलपुर में मस्जिद की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी जानती है कि एक मस्जिद के नाम पर पूरे उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के दिल में अपने लिए एक सॉफ्ट कॉर्नर बनाया जा सकता है। बेहतर तो यह हो कि पूरे उत्तर प्रदेश में जितनी मस्जिदें उनके मौलाना नरेन्द्र भाटी को मिले और उनसे मस्जिद मरम्मत के नाम पर इकावन हजार रूपए की मांग करें। वैसे भाटी जी ने अब तक कादलपुर वालों को इकावन हजार रुपए के आश्वासन पर ही रखा हुआ है। मस्जिद निर्माण के लिए अभी भाटीजी के पैसे गांव वालों को मिले नहीं हैं। वे आश्वासन पर ही मीडिया में इतनी फूटेज ले चुके हैं, जितनी लाखों खर्च करके भी लोग नहीं ले पाते।<br />
गांव के ही एक सज्जन ने कहा- जो सरकार चालिस मीनट में एक बड़े अधिकारी को निलंबित कर सकती है, वह सात दिन में मस्जिद भी बना सकती थी लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।<br />
अब उस मस्जिद की बात जहां उत्तर प्रदेश पुलिस के दो सिपाही इसलिए बैठे हैं क्योंकि निर्माण कार्य आगे ना बढ़े। यहां नमाज अदा हो इसके लिए धीरेन्द्र सिंह नाम के एक स्थानीय कांग्रेसी नेता ने यहां तक कह दिया कि नमाज यहीं पढ़ी जाएगी और पुलिस गोली चलाती है तो पहली गोली वे खाएंगे। ‘शर्म की बात यह है कि निर्मानाधीन मस्जिद के स्थान के बराबर जो सड़क निकलती है, वहां नाले और सड़क का अंतर मिट गया है। नाले में सड़क है या फिर सड़क पर नाला है, यह अंतर कर पाना मुश्किल है। गांव में दर्जनों बच्चे बीमार हैं, बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जाते। गोली खाने को तैयार सिंह साहब ने यह नहीं कहा कि एक महीने के अंदर यदि गांव के अंदर की सड़क दुरूस्त नहीं करवा पाया, गांव के एक-एक बच्चे को अच्छा ईलाज नहीं दिलवा पाया और गांव के एक एक बच्चे के लिए अच्छी शिक्षा बंदोबस्त नहीं कर पाया तो गोली खाने का हकदार बनूंगा।<br />
इस देश में अस्सी कोसी यात्रा के नाम पर और मस्जिद के नाम पर गोली खाने वाले बहुत हैं, लेकिन रोजी-रोटी, शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर कितने लोग हैं, जो गोली खाने को तैयार हैं?<br />
यदि बात मस्जिद की करें तो जिस स्थान के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में इतना विवाद हुआ, उसके डेढ़-दो सौ मीटर की दूरी पर एक दूसरी बड़ी मस्जिद है। गांव से ही पता चला कि जुमे की नमाज ना हो तो आम तौर पर बड़ी मस्जिद में दस लोगों का जुटना भी मुश्किल होता है।<br />
अब तो कहा यह भी जा रहा है कि दुर्गा को योजना बनाकर तो कादलपुर नहीं भेजा गया था क्योंकि इतनी छोटी बात पर, बड़े अधिकारियों का इतनी जल्दी निलंबन नहीं होता। अभी तक उत्तर प्रदेश में वे अधिकारी भी अपने पदों पर बने हुए हैं, जिनके ‘शासन में साम्प्रदायिक दंगे हुए। यह कहीं समाजवादी पार्टी का रेत माफियाओं को लूट की खुली छुट देने के साथ-साथ, उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के बीच अपनी छवि सुधारने की कवायद भी तो नहीं है। <br />
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आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-19020615123265646762013-08-09T04:23:00.000-07:002013-08-09T04:23:03.657-07:00निर्मल कथा : (उंगलबाज.कॉम, हमारी विश्वसनीयता संदिग्ध है)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
-<span class="userContent" data-ft="{"tn":"K"}">एक-<br /><span> ..............................</span><wbr></wbr><span class="word_break"></span>...<br />
एक मार्क्सवादी, बाबा निर्मल के दरबार तीन हजार रूपए की पर्ची कटाकर भक्त
वेश में पहुंचे। उंगलबाज.कॉम के तमाम संवाददाता यह पता नहीं लगा पाए कि
मार्क्सवादी पत्रकार साथी बाबा के भक्त बनकर आयोजन में आए थे या फिर वे
अपने चैनल के लिए कोई स्टिंग करना चाहते थे। <br /> मार्क्सवादी साथी के हाथ में माइक आते ही, उन्होंने बाबा के चरणों में शत-शत नमन किया। <br /> बाबा-‘यह तुम<span class="text_exposed_show">्हे देखकर दास कैपिटल क्यों नजर आ रहा है?’<br /> मार्क्सवादी पत्रकारः ‘बाबा मैं मार्क्सवादी हूं। शायद इसलिए।’<br /> बाबाः- ‘क्या दास कैपिटल तुमने पढ़ी है?’<br /> मार्क्सवादी पत्रकारः ‘नहीं बाबा।’ <br />
बाबाः- ‘तुम्हारी सारी कृपा वहीं रूकी हुई है। जाओ पहले खुद दास कैपिटल
पढ़ो और अपने पांच संघी मित्रों को ‘दास कैपिटल’ खरीद कर भेंट करो। उसके बाद
ही तुम पर कृपा आएगी।’<br /><br />-------------------------------------------------------------------------------<br />-------------------------------------------------------------------------------<br /></span></span><span class="userContent" data-ft="{"tn":"K"}"> -दो-<br /><span> ..............................</span><wbr></wbr><span class="word_break"></span>.<br /> ‘बाबा के चरणों में शत-शत नमन। मेरा नाम दिग्विजय सिंह है। बाबा मध्य प्रदेश से आया हूं।’ <br /> ‘यह तुम्हे देखकर सोनिया गांधी क्यों नजर आ रही है?’<br /> ‘बाबा मैं कांग्रेस पार्टी से ताल्लुक रखता हूं। हो सकता है, यही वजह हो।’<br /> ‘अंतिम बार सोनियाजी से कब मिले थे?’<br /> ‘तीन दिन हो गए बाबा।’<br /> ‘तुम्हारी सारी कृपा वहीं रूकी हुई है। सोनियाजी से सुबह-शाम मिला करो। कृपा बिना रूकावाट बरसेगी।'</span><br />----------------------------------------------------------------------------------<br />----------------------------------------------------------------------------------<br />
<span class="userContent" data-ft="{"tn":"K"}"> -तीन-<br /> -----------------------<br /> ‘बाबा मेरा नाम नरेन्द्र मोदी है, गुजरात प्रान्त से आया हूं। वहां मैं सात करोड़ गुजरातियों का नेतृत्व करता हूं।’<br /> ‘तुम्हे देखकर यह टोपी क्यों नजर आने लगी?’<br />
‘बाबा अपनी सद्भावना यात्रा में एक मौलाना की टोपी को पहनने से मैने इंकार
कर दिया था। संभव है, जो नजर आ रही है, वही वाली टोपी हो।’<br /> ‘पूरे देश को टोपी पहनाने का इरादा है तो टोपी पहननी चाहिए थी। तुम्हारी सारी कृपा उसी टोपी पर रूकी हुई है।’ <br /> ‘निदान क्या है बाबा?’<br /> ‘अगली सद्भावना यात्रा में टोपी-तिलक उत्सव करो। टोपी पहनाओ-तिलक लगाओ। कृपा आएगी।’<br />-----------------------------------------------------------------------------<br />----------------------------------------------------------------------------</span><span class="userContent" data-ft="{"tn":"K"}"> चार<br /> ----------------<br />
'बाबा चरणों में कोटी-कोटी प्रणाम बाबा। उत्तर प्रदेश से आया हूं बाबा।
मुलायम सिंह यादव नाम हुआ। पिछले समागम में आपका आशीर्वाद मिला था। अपना
बच्चा उसके बाद प्रदेश में सरकार बना लिया है बाबा। आशीर्वाद बनाए रखिए।'<br /> ‘यह तुम्हारे आते ही नजर के सामने मस्जिद की दीवार क्यों नजर आने लगी? तुम्हारी सरकार है, तुमने गिरवाई है क्या?’<br /> ‘क्या बात कर दी बाबा। मैं तो मस्जिद प्रेमी, धर्<span class="text_exposed_show">म निरपेक्ष नेता हूं। समाजवाद की राजनीति करता हूं। लगता है बाबा उमर का असर आप पर होने लगा है।’<br /> ‘रूको! रूको! यह नोट का बंडल कैसा है, मस्जिद के दीवार के साथ। यह नोट क्यों नजर आने लगा?’<br />
‘वह हमारे पार्टी के ही नेता हैं भाटी, उन्होंने मस्जिद निर्माण के लिए
पचास हजार रूपए दिए थे। वही रूपया आपको दिख रहा है। बाबा इसी मुसीबत से
निकलने के लिए तो आए हैं आपके पास।’<br /> ‘उसी नोट के बंडल पर सारी कृपा
अटकी हुई है। भाटी से कहो, पचास लाख रूपए मस्जिद के लिए चंदा दे और विशाल
मस्जिद निर्माण कराए। और पचास-पचास हजार के नोेट के बंडल कम से कम पांच पीर
की मजार के दान पात्र में रख कर चुपके से लौट आए। तुम्हारी पार्टी पर रूकी
हुई बड़ी कृपा आएगी।’</span></span><br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-65418867211198228942013-08-04T23:58:00.002-07:002013-08-04T23:58:50.874-07:00आशीष कुमार ‘अंशु’ की दो कविताएं:<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
-01-<br />
<span class="userContent" data-ft="{"tn":"K"}">‘हम डरे हुए लोग<br /> कभी नरक से डरे<br /> कभी कयामत से डरे,<br /> और उन्होंने डरा-डरा कर हमें<br /> कभी अल्लाह बेचा, <br /> कभी राम बेच दिया।’</span><br />
<span class="userContent" data-ft="{"tn":"K"}">---------------------------------------------</span><br />
<span class="userContent" data-ft="{"tn":"K"}"> -02-</span><br />
<span class="userContent" data-ft="{"tn":"K"}"><span class="userContent" data-ft="{"tn":"K"}">तुम मस्जिद बनाओ, हम मन्दिर बना लेते हैं, <br /> तुम मुसलमानों को फंसाओ, हम हिन्दूओं को पटा लेते हैं।<br /> रोटी नहीं, कपड़ा नहीं, शिक्षा नहीं, भूख के सवाल पर नहीं,<br /> मजहब के नाम पर इनको फिर से लड़ा देते हैं। <br /> कभी गधा, कभी उल्लू, और कभी बंदर,<br /> हम लोकतंत्र के जादूगर ठहरे, जिसको जैसा चाहें बना देते हैं। <br /> 2014 मे मस्जिद नहीं मजलूमों को आवाज दे दो,<br /> राम मन्दिर तुम रख लो, जनता को राम राज दे दो</span> </span></div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-51802700784092859182013-07-26T03:09:00.002-07:002013-07-26T03:09:32.703-07:00आपदाग्रस्त रिपोर्टिंग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-4OEeJf6Dshw/UfJKmzxSYjI/AAAAAAAACV4/TvfmvmW-R_s/s1600/uttarakhand.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="http://3.bp.blogspot.com/-4OEeJf6Dshw/UfJKmzxSYjI/AAAAAAAACV4/TvfmvmW-R_s/s320/uttarakhand.jpg" width="240" /></a></div>
<div class="article_abstract">
16 जून 2013 की वह रात उत्तराखंड के इतिहास
में एक मनहूस रात के तौर पर ही याद की जाएगी। जो लोग इस घटना के गवाह रहे
हैं, वे शायद इस घटना से जुड़ी कुछ और बातों को भी कभी भूल नहीं पाएंगे।
इन्हीं कुछ बातों में एक है, उत्तराखंड आपदा की कवरेज के लिए दिल्ली से
उत्तराखंड पहुंचे पत्रकारों की भूमिका। यदि कथित राष्ट्रीय खबरिया चैनलों
की रिपोर्टिंग को आप अब तक याद रख पाएं हों तो याद करने की कोशिश कीजिए, कि
थ्रिल करने वाली उस डिजास्टर रिपोर्टिंग के दौरान आप उत्तराखंड के स्थानीय
लोगों के दर्द के साथ कितना जुड़ पाए थे? क्या दिल्लीवाले रिपोर्टरों की
रिपोर्टिंग से आप वहां की कठिन जिन्दगी और संघर्ष कर रहे लोगों की जिन्दगी
को कितना समझ पाए थे?</div>
दिल्ली से गई एक महिला पत्रकार को एक स्थानीय बुजुर्ग ने नसीहत
देते हुए कहा- बेटी तुम यहां से क्या लेकर जाओगी नहीं जानता, लेकिन वही
दिखाना जो तुम्हें नजर आए।'' पत्रकारों से हम यही उम्मीद करते हैं कि वह सच
ही दिखलाएंगे, यदि एक बुजुर्ग को इस तरह की बात एक पत्रकार से कहनी पड़ती
है तो क्या पत्रकार वह नहीं दिखा रहे थे, जो खुद देख रहे थे? सामाजिक
कार्यकर्ता और उत्तराखंड आपदा के समय वहां के लोगों की मदद के लिए तत्पर
इन्द्रेश मैखुरी ने बताया कि ''दिल्ली की मीडिया के लिए स्थानीय लोगों में
कितना गुस्सा है कि पीटूसी में कुछ गलत बयानी कर रहे एक पत्रकार की स्थानीय
लोगों ने धुनाई भी कर दी थी।'' पत्रकारिता की असंवेदनशीलता उत्तराखंड आपदा
रिपोर्टिंग में उस दिन भी नजर आई थी, जब एक पत्रकार, एक पीड़ित के कंधे पर
चढ़ कर रिपोर्टिंग कर रहा था। उन पत्रकार के लिए पी साईनाथ का कहना है कि
''इस तरह की रिपोर्टिंग को यदि प्रतिकात्मक तौर पर देखें तो इसमें मीडिया
के परजीवी की तरह व्यवहार करने के चिन्ह साफ नजर आते हैं।''<br />
यह बात तो उत्तराखंड के पत्रकार भी जानना चाहते हैं कि उनमें क्या कमी
थी जो दिल्ली से इलेक्ट्रानिक मीडिया के इतने सारे पत्रकार निर्यात किए गए?
उन पत्रकारों को पहाड़ में क्यों धकेल दिया जिन्हें ना पहाड़ की स्थिति का
अंदाजा था और ना ही पहाड़ी जीवन का। वैसे अंदाजा ना भी होता और वे होमवर्क
करके आते तो भी सवाल नहीं था। उनके पास होमवर्क भी नहीं था। वर्ना श्रीनगर
और रूद्रप्रयाग के रास्ते में पड़ने वाली सीडोबगड़ में खड़े होकर एक दिल्ली का
पत्रकार उसे केदारनाथ की दरकती पहाड़िया नहीं बता रहा होता। ईटीवी के
पत्रकार सुधीर भट्ट इलेक्ट्रानिक मीडिया का बचाव करते हुए कहते हैं, उनकी
भी अपनी मजबूरी है। यहां के हालात दिल्ली में बैठे लोग जानते नहीं। उन्हें
‘खबर हर कीमत पर’ चाहिए। उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि उनका रिपोर्टर किन
परिस्थितियों में है। खबर है भी या नहीं? वह खबर देने की हालत में भी है
या नहीं। पहाड़ में रिपोर्टिंग मैदानी इलाकेों जैसी नहीं होती। यहां के बीस
किलोमीटर के फासले और दिल्ली के बीस किलोमीटर के फासले में जमीन-आसमान का
अंतर है और जब जगह-जगह लैन्ड स्लाइड हुआ हो तो हालात और बिगड़ जाते हैं।
भट्ट आगे कहते हैं- सुबह नौ बजे से ही रिपोटर्स के पास फोन आना शुरू हो
जाता है। आज क्या भेज रहे हो? कितनी देर में भेज रहे हो? अभी तक नहीं भेजा।
ऐसे कैसे चलेगा? खबर चाहिए ही, माने ‘खबर हर कीमत पर।’ जब ऊपर के लोग कुछ
सुनने को तैयार नहीं होेगे और नीचे खबर तक पहुंच नहीं होगी तो रिपोर्टर कुछ
गलत ही करेगा क्योंकि उसे भी पता है कि नौकरी बचानी है, हर कीमत पर।<br />
बार-बार केदारनाथ की घटना को बादल फटने से जोड़ा गया। इस पर प्रकृति
प्रेमी एवं पर्यावरणविद, चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं, ''जैसा कहा गया कि
बादल फटा। बादल फटने के लिए एक सौ मिली लीटर बारिश एक घंटे तक एक जगह पर
केन्द्रित होनी चाहिए। तो उसे बादल फटना कह सकते हैं। भारी बारीश कहना फिर
भी ठीक है। लेकिन यदि पत्रकार और वैज्ञानिक दोनों बादल फटना शब्द का
इस्तेमाल कर रहे हैं तो कैसे कह रहे हैं? आपको कैसे पता, कि कितनी बारिश
हुई? इसका सीधा अर्थ है आप भय पैदा करना चाहते हैं। केदारनाथ और गंगोत्री
में आपके पास आंकड़े नहीं हैं मौसम के फिर आप कैसे कह रहे हैं बादल फटा?''
वैसे कहा जा रहा है कि इस विपदा के समय यदि चैनल स्थानीय पत्रकारों पर भी
थोड़ा विश्वास करते और बाहर के पत्रकार स्थानीय पत्रकारों के साथ समन्वय
रखकर रिपोर्टिंग करते तो शायद अधिक बेहतर तरिके से पूरी कहानी सामने आ
पाती। लेकिन दिल्ली से गए पत्रकारों की बात थोड़ी अलग होती है। कुछ पत्रकार
तो अपनी तुलना भी क्षेत्रीय पत्रकारों से कराना पसंद नहीं करेंगे क्योंकि
दिल्ली में होते ही पत्रकार राष्ट्रीय हो जाता है। वैसे यह टिप्पणी उन
पत्रकारों के लिए नहीं है, जो अपना काम भोपाल हो या दिल्ली, पटना हो या
कोलकाता, जहां भी हो ईमानदारी से करते हैं।<br />
उत्तराखंड आपदा की कहानी में दिल्ली से देहरादून की धरती पर लैंड होने
वाले कुछ पत्रकार वाया अपने चैनल के स्ट्रींगर और कुछ अपने पुराने रिश्ते
निकाल कर अलग-अलग मंत्रियों से जा चिपके। (सभी नहीं)। मंत्रियों से चिपकने
की दो खास वजह थी। पहली रिपेार्टिंग के नाम पर मुफ्त हवा खोरी। जिसके लिए
पहले ही सूचना और प्रसारण मंत्री ने अलग संदर्भो में डिजास्टर टूरिज्म जैसे
शब्द ईजाद किए हुए हैं। मेरी जानकारी में एक भी चैनल या अखबार नहीं है,
जिसने इस खबर की महता को समझते हुए, अपने रिपोर्टर को निजी विमान किराए पर
लेने की इजाजत दी हो। कई-कई हजार करोड़ का कारोबार करने वाले मीडिया घरानों
के लिए यह करना मुश्किल नहीं था। दूसरी वजह, लगे हाथों, विज्ञापन की भी बात
करनी थी। जैसाकि हम सब जानते हैं, टेलीविजन चैनल चलाना कितना महंगा सौदा
है। ऐसे में चैनलों के चुप रहने की कुछ तो कीमत बनती है। आपदा के नाम पर
सरकार ने दोनों हाथों से विज्ञापन बांटे। कुछ पत्रकारों के रहने, खाने-पीने
और उड़ने का खर्चा भी चैनल की जगह उत्तराखंड उठा रहा था। दिल्ली की एक
महिला पत्रकार पर देहरादून के एक मंत्री की अति कृपा की कहानी देहरादून में
खुब चली।<br />
यह सरकारी विज्ञापनों का ही असर रहा होगा कि भूख से मरते ग्रामीणों की
कहानी, केदारनाथ में बिना अंतिम संस्कार के कंकाल में तब्दील सैकड़ों शवों
की कहानी, राहत के लिए काम कर रही तमाम सरकारी और गैर सरकारी एजेन्सियों के
बीच आपसी समन्वय के घोर अभाव की कहानी, राहत के नाम पर हैलीकॉपटर के
दुरुपयोग की कहानी कहीं नजर नहीं आई। गोविन्द घाट निवासी उत्तम सिंह मेहता
बताते हैं, देश भर का शायद ही ऐसा कोई चैनल होगा जो यहां नही आया हो लेकिन
सबकी चिन्ता पर्यटक थे। पर्यटक तो सब वापस लौट जाएंगे, अपना सबकुछ तो यहां
के स्थानीय लोगों ने गंवाया है। उनसे बात करने की किसी पत्रकार ने जरूरत
नहीं समझी। सभी को पर्यटक प्रिय थे। किसी को यहां के लोगों से मतलब नहीं
था। हम जी रहे हैं या मर रहे हैं। यह दिखलाने की फुर्सत किसी चैनले के पास
नहीं थी।<br />
आप सबको याद होगा, चैनलों ने स्थानीय लोगों के संबंध में बताते हुए यह
जरूर रिपोर्ट किया कि यह लोग यात्रियों को लूट रहे हैं। पन्द्रह रूपए के
पानी की बोतल सौ रूपए में बेंच रहे हैं। बिस्किट के लिए दो सौ रूपए मांग
रहे हैं। इस तरह की रिपोर्ट दिखलाते हुए, चैनलों ने उन लोगों को दिखलाना
जरूरी क्यों नहीं समझा जिन्होंने अपने घर से हजारों रूपए लगाकर पीड़ितों की
मदद की, बिना किसी स्वार्थ के। उत्तराखंड में अलग-अलग जगहों पर मदद के लिए
हाथ बढ़ाने वाले वे सैकड़ों लोग कैसे इन कैमरों से बच गए, जिन्होंने पीड़ितों
की मदद के लिए अपने हाथ बिना किसी स्वार्थ के बढ़ाए थे। आपदा के दौरान
राष्ट्रीय अखबारों के स्थानीय संस्करण और कुछ छत्तीसगढ़ के स्थानीय चैनलों
ने बेहतरीन रिपोर्टिंग का उदाहरण प्रस्तुत किया लेकिन उत्तराखंड के लोग
कथित राष्ट्रीय चैनलों से बहुत निराश हैं।<br />
<br /></div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-82834874518284908622013-07-22T06:59:00.003-07:002013-07-22T06:59:49.808-07:00बदलते पत्रकारिता के सरोकार : पालागुमी साईनाथ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मेरी जानकारी में आपका यह कान्फ्रेन्स तीन दिनों का है। तीन दिनों में औसतन क्या-क्या होता है, अपने देश में? ग्रामीण भारत में तीन दिन के अंदर अगर एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) के डाटा का औसत लेते हैं, तो तीन दिन के अंदर 147 किसान इस देश में आत्महत्या करते हैं। आधे घंटे में एक किसान अपनी जान देता है। जब आपका कान्फ्रेन्स खत्म होगा, उन तीन दिनों में एक सौ पचास किसान आत्महत्या कर चुके होंगे। लेकिन यह सब आपके मीडिया को देखकर नजर नहीं आता। वहां यह प्रदर्शित नहीं होता है। सबसे नया 2012 का डाटा भी आ चुका है। डाटा ऑन लाइन है। आप देख सकते हैं। छत्तीसगढ़ ने इस बार जीरो आत्महत्या दिखलाया है, पश्चिम बंगाल ने डाटा जमा नहीं कराया है। उसके बावजूद आंकड़ा 14,000 तक आ गया है। तीन दिनों में तीन हजार बच्चे कुपोषण और भूख से जुड़ी बीमारियों से मौत के शिकार बनते हैं। इन्हीं तीन दिनों मे ंसरकार बड़े-बड़े कॉरपोरेट हाउस को और कंपनियों को 6800 करोड़ तक की आयकर में छुट देती है। सरकार के पास पैसा, किसान और बच्चों के लिए तो है नहीं। लेकिन आप पांच लाख करोड़ रुपए की सालाना छुट दे सकते हैं। यह पांच लाख करोड़ भी पूरी कहानी नहीं है। यह पांच लाख करोड़ रुपए केन्द्र की बजट से निकलते हैं। राज्य सरकारों और केन्द्र सरकारों द्वारा दूसरी कई तरह की रियायतें अलग से दी जाती हैं। पांच लाख करोड़ में वह सब जुड़ा नहीं है। <br />बजट में एक सेक्शन है, एनेक्स-टू, उसका शिर्षक है, ‘स्टेटमेन्ट ऑफ रेवेन्यू फॉरगॉन’। इसमें सारी जानकारी विस्तार से होती है। साल 2007 से यह जानकारी मिल रही है। अभी छह साल का डेटा अपने पास है। कितना पैसा कन्शेसन में गया। तीन तरह के कन्शेसन हैं, ग्रेट कन्फिलक्ट इन्कम टैक्स, कस्टम ड्यूटी वेवर और एक्साइज ड्यूटी वेवर। इन तीनों में इस साल पांच लाख करोड़ लगाए गए, इसमें सब्सिडी अलग है। यह सिर्फ केन्द्रिय बजट से दिया गया। हमारे पास यूनिवर्सल पीडीएस के लिए पैसा नहीं है, हमारे लिए स्वास्थ्य के लिए पैसा नहीं है, हमारे पास बच्चों के कुपोषण के लिए पैसा नहीं है। हमारे यहां मनरेगा 365 दिन नहीं 100 दिन का रोजगार है और पीडीएस सीमित है। इस देश में सिर्फ लूट मार ही यूनिवर्सल है। यह सब मीडिया में नजर नहीं आता। <br />मेरा सिर्फ इतना कहना है कि भारत में मीडिया राजनीतिक तौर पर आजाद है। लेकिन वह मुनाफे के प्रभाव में है। यह मार्शल लॉ नहीं है। कोई सेंसरशिप नहीं है। मीडिया राजनीतिक तौर पर आजाद है। लेकिन वह मुनाफे की कैद में है। यह स्थिति है मीडिया की। <br />एक शब्द बार-बार मीडिया में पिछले तीन सालों से आ रहा है। आप सबने सुना होगा, एंकर ने बताया होगा। क्रोनी कैपिटलिज्म। इसमें दो शब्द है, पहला कैपिटलिज्म। यह आप सब जानते हैं। दूसरा है, क्रोनी। यह क्रोनी हम हैं। मीडिया। क्रोनी कैपिटलिज्म में मीडिया क्रोनी है। यह स्थिति है मीडिया की। आप सबने पढ़ा था, अप्रैल में शारदा चिट फंड जब कॉलेप्स हो गई। उस वक्त एक खबर आई, बीच मंे फिर गायब हो गई। खबर था, सात सौ पत्रकार नौकरी से निकाले गए। मैं प्रभावित हुआ। यह खबर आ गई क्योंकि अक्टूबर 2005 से अब तक 5000 पत्रकारों की नौकरी गई है और कोई रिपोर्टिंग नहीं हुई। उस दिन एनडीटीवी ने एक इमोशनल स्टोरी किया। ये पत्रकार अब क्या करेंगे? इनका ईएमआई है। इनके बच्चे स्कूल जाते हैं। अब इनका घर कैसे चलेगा? यह सब उसी एनडीटीवी में चल रहा था, जिसने उसी महीने एनडीटीवी प्रोफीट से अस्सी लोगों को बाहर निकाला था और एनडीटीवी से 70 लोगों को बाहर निकाला था। डेढ़ से नौकरी गया एनडीटीवी के एक मुम्बई ऑफिस से। पूरे स्टेट में नहीं। एक ऑफिस में। <br />अक्टूूबर 2008 में जब फायनेन्सल कॉलेप्स हुआ। उस वक्त से बहुत सारी तब्दिलियां आई। मीडिया में भ्रष्टाचार तो पुरानी चीज है। कुछ नई चीज नहीं है। बुरी पत्रकारिता भी पुरानी चीज है। <br />कॉन्टेन्ट ऑफ जर्नालिज्म का एक उदाहरण कुछ दिन पहले देखने को मिला, जब एक बाढ़ पीड़ित के कंधे पर बैठकर एक पत्रकार रिपोर्ट कर रहा था। अगर पीड़ित पत्रकार के कंधे पर बैठता तो ठीक है। लेकिन उस रिपोर्ट में मीडिया के परजीवी होने का संकेत नजर आता है। <br />20 साल पहले जब हम मीडिया मोनोपॉली कहते थे तो साहूजी और जैन साहब का अखबार तीन-चार शहरों से निकलता था। भारत ऐसा देश है, जहां दो शहरों से आपका अखबार निकलता है तो आप नेशनल प्रेस बन जाते हैं। लेकिन मोनोपौली क्या था, इंडियन एक्सप्रेस के मालिक थे रामनाथ गोयनका। साहू और जैन मालिक रहे। यह मोनोपॉली अब खत्म हो गया। आज मीडिया मोनोपॉली का मतलब कॉरपोरेट मोनोपॉली के अंदर मीडिया एक छोटा डिपार्टमेन्ट बन कर रह गया है। आज सबसे बड़ा मीडिया मालिक कौन है? मुकेश अंबानी। जबकि मीडिया उसका मुख्य कारोबार नहीं है। यह उसके बड़े कारोबार का एक छोटा सा डिपार्टमेन्ट है। आप मुकेश भाई को देखिए, एक साल पहले नेटवर्क 18 को खरीदा। मैं सच बता रहा हूं, उनको नहीं पता कि उन्होंने क्या खरीदा? इसके अलावा 22 चैनल आया इनाडू से। तेलगू चैनल छोड़कर सब बिक गया। इनाडू मीडिया में अच्छा नाम है। लेकिन इनाडू का अब असली नाम है मुकेश अंबानी। ईनाडू का चैनल देखिए, वे कोल स्कैम, कैश स्कैम को कैसे कवर कर रहे हैं? ईनाडू का फुल बके मुकेश भाई का है। टीवी 18 का फुल बुके मुकेश भाई का है। उनको नहीं पता कि उन्होंने क्या खरीदा है? यह है उनका मीडिया मोनोपॉली। रामनाथ गोयनका के मोनोपॉली की तुलना आप मुकेश भाई के एक छोटे से दूकान से भी नहीं कर सकते। <br />आप देखिए कॉरपोरेट स्टाइल कॉस्ट सेविंग क्या है? आप टेलीविजन चैनल में देख सकते हैं, अब समाचार चैनल में समाचार खत्म हो गया है, टॉक शो बढ़ गए हैं। टॉक शो इसलिए अधिक हो गए क्योंकि बातचीत सस्ती है। बातचीत फ्री है। मुम्बई-दिल्ली से बुलाते हैं और महीने-दो महीने के बाद हजार-डेढ़ हजार रुपए का चेक भेजते हैं। यहां सात-आठ लोगों को बिठाकर दो दिन बात करते हैं। टाइम्स नाउ थोड़ा अलग है, वहां नौ लोग बैठकर अर्णव को सुनते हैं। टॉक टीवी शो का एक गंभीर वजह यही है कि यह सस्ता पड़ता है। रिपोर्टर को गांव में भेजने में, अकाल, बाढ़ में भेजने में पैसा डालना पड़ेगा। इससे अच्छा है, पांच लोगों को बिठा दो। मुझे लगता है, मनिष तिवारी और रविशंकर प्रसाद तो हमेशा टीवी स्टूडियो में ही रहते हैं। एक स्टूडियो से निकलते हैं और दूसरे में जाते हैं। <br /><br /><b><i> ( विकास संवाद के सातवें मीडिया संवाद में जैसा पत्रकार पालागुमी साईनाथ ने कहा)</i></b><br /><br /><br /><br /></div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-21238929773068564482013-03-22T07:00:00.003-07:002013-03-22T07:00:31.666-07:00टीवी पत्रकारों पर दुनियां का सबसे बड़ा उंगलबाज.कॉम का सर्वेक्षण: ---उंगलबाज.कॉम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-RYgHz8OcqA0/UUxjklV_tDI/AAAAAAAACPs/_L-JQMHOEuI/s1600/puny+pras.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/-RYgHz8OcqA0/UUxjklV_tDI/AAAAAAAACPs/_L-JQMHOEuI/s1600/puny+pras.jpeg" /></a></div>
<span class="userContent">उंगलबाज.कॉम ने तीन महीने के अथक परिश्रम के बाद होली के अवसर पर उस सर्वेक्षण क<span class="text_exposed_show">ो
आपके सबके बीच लाने का निर्णय ले ही लिया है, जिसका इंतजार ब्रेकिंग और
सिर्फ इसी चैनल पर टाइप पत्रकार कर रहे थे। दो सौ शहरो में ढाई सौ लोगों से
बात करने के बाद यह सर्वेक्षण सामने आया है। इस सर्वेक्षण के परिणाम इतने
चौंकाने वाले हैं कि आप इस पर विश्वास नहीं कर पाएंगे। आप कह सकते हैं कि
सबकुछ पहले से फिक्स है। लेकिन जरा सोचिएगा यह कहने से पहले कि जिस देश में
क्रिकेट मैच तक फिक्स हो सकता है, वहां एक सर्वेक्षण का फिक्स होना कौन सा
नामुमकिन है।</span></span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-h_7T4SVeKwM/UUxjkvokcwI/AAAAAAAACPw/_j3k6-sstp8/s1600/rajat+sharma.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/-h_7T4SVeKwM/UUxjkvokcwI/AAAAAAAACPw/_j3k6-sstp8/s1600/rajat+sharma.jpeg" /></a></div>
<span class="userContent"><span class="text_exposed_show">वैसे आरोप तो आप इस सर्वेक्षण पर पेड होने का भी लगा
सकते हैं लेकिन जब खबरे पैसे लेकर छप सकती हैं तो सर्वेक्षण के परिणाम पैसे
लेकर क्यों नहीं बदले जा सकते।<br /> उंगलबाज.कॉम का यह सर्वेक्षण उस वक्त
आप सबके सामने आया है, जब सारे टीवी चैनल और अखबार रिसेशन से बाहर आने की
कोशिश कर रहे हैं। हमारे सर्वेक्षण में यह सामने आया है कि देश की सत्तर
फीसदी आबादी को पता ही नहीं है कि एबीपी नाम से भी कोई चैनल है। यह
सर्वेक्षण उंगलबाज.कॉम का, खबरिया चैनलों के ऊपर सबसे बड़ा सर्वेक्षण है। इस
महा सर्वे के परिणाम वास्तव में बड़े चौंकाने वाले हैं। जिससे सहमत हो पाना
बहुत मुश्किल है।</span></span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-ZB9lMOZ2KGU/UUxjkoZGUAI/AAAAAAAACP0/AHw1Xq498Rw/s1600/deepak.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-ZB9lMOZ2KGU/UUxjkoZGUAI/AAAAAAAACP0/AHw1Xq498Rw/s1600/deepak.jpeg" /></a></div>
<span class="userContent"><span class="text_exposed_show">इस सर्वेक्षण में हमें कई लोगों से मदद मिली।
ब्रेकिंग प्राइवेट लिमिटेड और एक्सक्लूसिव फाउंडेशन ने खास तौर से आर्थिक
मदद की। वे चाहते थे कि आने वाले दिनों में ऑन एयर होने वाले चैनल हाहाकार
टीवी को अपने सर्वे में हम नंबर एक या नंबर दो की जगह दे दें। यह हमने किया
भी है। हम उनमें नहीं हैं कि पैसे भी लें और काम भी ना करें। उंगलबाज.कॉम
की विश्वनियता संदिग्ध है, लेकिन ईमानदारी पर कोई शक नहीं कर सकता। हमने
जिससे पैसे लिए हैं, उनका काम करके दिया है। आप चाहें तो मार्केट में
सर्वेक्षण करा सकते हैं, कहंी किसी तरह की शिकायत नहीं मिलेगी।<br /> इस
सर्वेक्षण में यह जानना चौंकाने वाला था कि सीएनबीसी आवाज को लोग आशुतोष और
करण थापर से जोड़कर देख रहे है, इतना ही नहंीं इस सर्वेक्षण में हमें आजाद,
एस वन, एमएच वन, प्रज्ञा, जैसे चैनल देखने वाले भी मिले।</span></span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-uTYkojJzpGk/UUxjlTnWZ0I/AAAAAAAACQA/sHjp-7_p_60/s1600/sudhir.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-uTYkojJzpGk/UUxjlTnWZ0I/AAAAAAAACQA/sHjp-7_p_60/s1600/sudhir.jpeg" /></a></div>
<span class="userContent"></span><br />
<div class="text_exposed_root text_exposed" id="id_514c62661af8c8308941521">
<span class="text_exposed_show"><br /> <br /> <br /> इस
सर्वेक्षण में हमने पाया कि देश की पचास फीसदी आबादी उन लोगों को पत्रकार
मानने को तैयार नहीं, जिनका नाम राडिया कांड में नहीं था। एनडीटीवी में
रविश और अभिज्ञान को इसीलिए बड़ा पत्रकार इस सर्वेक्षण में नहीं माना गया
क्योंकि राडिया उनको नहीं जानतीे थी। इस सर्वेक्षण में बरखा दत्त, नीरा
राडिया से अपनी जान पहचान की वजह से एनडीटीवी की सबसे बड़ी पत्रकार मानी गई।
आज तक से प्रभू चावला के बलिदान को भी सर्वेक्षण ने बेकार नहीं जाने दिया।
सर्वेक्षण में यह बात खुलकर सामने आई कि प्रभू को लाइफ टाइम अचिवमेन्ट
अवार्ड देकर पत्रकारिता से सेवानिवृत हो जाना चाहिए।<br /> सर्वेक्षण में
सबसे आगे जी न्यूज रहा। सुधीर चौधरी जैसे होनहार पत्रकार की वजह से यह हो
पाया। आम जनता की राय है कि सुधीर चौधरी ने साबित किया कि मीडिया को किसी
नीरा राडिया की जरूरत नहीं है। जरूरत पड़ने पर मीडियाकर्मी आत्म निर्भर हो
सकते हैं और कुछ भी कर सकते हैं। जी न्यूज छोड़ने की वजह से इस सर्वेक्षण
में पूण्य प्रसून वाजपेयी का ग्राफ गिरा। उन्होंने उस समय चैनल छोड़ दिया,
जब उसे वाजपेयी की सबसे अधिक जरूरत थी।<br /> स्टिंग ऑपरेशन के लिए अनिरूद्ध
बहल को जहां सबसे अधिक वोट मिले, वहीं खोजी पत्रकार के तौर पर सबसे आगे
अरविन्द केजरीवाल रहे। रॉबर्ट वाड्रा, नितिन गडकरी, रिलायंस जैसे बड़ी खोज
अरविन्द के हिस्से है। सर्वेक्षण में शामिल कुछ बड़े उद्योगपतियों ने कहा कि
यदि अरविन्द पार्टी की जगह अपना चैनल खोलें तो वे उसमें पैसा लगा सकते
हैं।<br /> सर्वेक्षण में शामिल अस्सी फीसदी लोग कमर वाहिद नकवी और राहुल देव
जैसे पत्रकारों का नाम नहीं जानते। अरविन्द मोहन को कुछ लोगों ने जरूर
टीवी पत्रकार के तौर पर पहचाना और कुछ लोगांें का मानना यह भी है कि संजय
झा को वेवसाइट संभालने की जगह कोई चैनल ही संभालना चाहिए।<br /> सर्वेक्षण
में शामिल एक भी व्यक्ति यह नहीं बता पाया कि एक बड़े पत्रकार पंकज पचौरी
अचानक टीवी पर दिखना बंद क्यों हो गए। एक व्यक्ति का जवाब दिलचस्प था,
इंडिया टीवी ने अभी तक उनकी तलाश क्यों नहीं की? क्या वह चैनल सिर्फ
अभिनेत्रियों को ही ढूंढ़ता रहेगा? अपने बीच का एक पत्रकार नहीं मिल रहा,
उसे क्यों नहीं तलाशते?<br /> अंजना ओम कश्यप का नाम सत्तर फीसदी लोगों ने
सुन रखा था लेकिन वह किस चैनल में हैं, यह बीस फीसदी लोग भी सही-सही नहीं
बता पाए। दस फीसदी सर्वेक्षण में शामिल लोगों ने उनका नंबर हमारे
सर्वेक्षणकर्ताओं से मांगा, जिसे हमारे सर्वेक्षण टीम के होनहार युवाओं ने
खुबसूरती से टाल दिया।<br /> सर्वेक्षण में शामिल पचपन फीसदी लोगों का मानना
था कि रजत शर्मा अच्छे भले पत्रकार है, इंडिया टीवी में अपना कॅरियर क्यों
खराब कर रहे हैं? टीआरपी सबकुछ नहीं होता। उन्हें आजतक या एनडीटीवी में
होना चाहिए। वैसे दीपक चौरसिया को लेकर अब भी लोगों में भ्रम है कि वे
इंडिया टीवी में गए हैं या फिर इंडिया न्यूज में। सुनने में आया है कि एक
गुटखा कंपनी ने दीपक को ऑफर दिया है कि वे चैनल पर ऑन एयर उनकी कंपनी का
गुटखा खाते हुए समाचार पढ़े तो गुटखा कंपनी उन्हें एक करोड़ रुपए साल का दे
सकती है। (वैधानिक चेतावनीः गुटखा खाना सेहत के लिए अच्छा नहीं है।)<br /> इस
सर्वेक्षण को लेकर कुछ लोगों की आपत्ति हो सकती है लेकिन खबरिया चैनल वाले
स्वर्ग का दरवाजा ढूंढ़ निकालते हैं और हम एक सर्वेक्षण भी नहीं कर सकते।<br /> <i><b>(हमारी विश्वनियता संदिग्ध है, बुरा ना मानों होली है)</b></i></span></div>
</div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-65734207686531368312013-01-18T05:35:00.001-08:002013-01-18T05:35:53.860-08:00गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन से लौटकर...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दिल्ली में जनवरी का महीना गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन का महीना होता है। हिन्दी कवि सम्मेलन, उर्दू कवि सम्मेलन, भोजपुरी-मैथिली कवि सम्मेलन, पंजाबी कवि सम्मेलन, किसी भी कवि सम्मेलन में चले जाइए, मंच की कविता के कद्रदानों की कमी नहीं मिलेगी, अच्छे कवि और अच्छी कविता की कमी महसूस हो सकती है। <br />
कहते हैं जनवरी महीने में लाल किले में होने वाला कवि सम्मेलन देश का सबसे प्रतिष्ठित कवि सम्मेलन होता है और कभी इस कवि सम्मेलन को सुनने के लिए प्रधानमंत्री रहते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू पूरी-पूरी रात बैठते थे। यह बात दूसरी है कि अब इसी कवि सम्मेलन के लिए दिल्ली की मुख्यमंत्री तक के पास वक्त नहीं है। दिल्ली सरकार में शिक्षा मंत्री प्रो. किरण वालिया ने जरूर इस बार लाल किले पर बैठकर पूरी कविता सुनी और गिनकर सताइस बार कवियों का आभार भी स्वीकार किया। जिस तरह मंच पर अच्छे कवि दूर होते जा रहे हैं, आने वाले समय में यह भी कवियों के लिए किस्सा ही ना बन जाए कि दिल्ली सरकार की मंत्री पूरी रात बैठकर यहां कविता सुनती थीं। <br />
इस बार गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन में मंच पर आया पहला कवि ही हरी ओम पंवार की फोटो कॉपि होने की कोशिश कर रहा था। फोटो कॉपि होने में कोई बुराई नहीं है। ओम प्रकाश आदित्य की एक कवि कार्बन कॉपि हो रहे थे लेकिन दुर्घटना में हुई मृत्यु के बाद ओम प्रकाश आदित्य ंमंच पर नहीं आ सकते। उनकी नकल मंच पर सुनने वालों को आगे भी उनकी याद दिलाती रहेगी लेकिन सुरेन्द्र शर्मा और हरी ओम पंवार की कॉपि करने वालों को मंच पर बिठाने की क्या जरूरत है, जबकि यह दोनों कवि अकादमी को उपलब्ध हो सकते हैं और यह दोनों कवि मंचिय कवि समाज के लिए उपलब्धि भी हैं। <br />
इस कवि सम्मेलन में नौशा खां, पवन जैन, नन्दलाल और सविता असीम को मानों हूट करवाने के लिए ही बुलवाया गया था, यदि यह चार नहीं होते तो जुगाड़ तंत्र से अंदर आए दीपक गुप्ता और कुछ कवियों का हाल यही होना था। वैसे कवि सम्मेलन में यह देखना दिलचस्प था, कि कई कवि जिन्हें सुनने वाले हूट कर रहे थे, वे इसे अपनी तारिफ समझ कर दुगुने उत्साह में दो कविता अधिक सुना कर जा रहे थे। वैसे भी मंच पर आगे वालों की ही सुनी जाती है, पिछे वालों की कौन सुनता है? उन्हें तो अनसुना भी किया जा सकता है। <br />
दर्शको में इस बार कवि सम्मेलन को लेकर भारी निराशा थी, मदन मोहन समर ने इस निराशा से दर्शकों को निकाला। उन्होंने जब मंच से कहा कि मेरी कविता सतरह मीनट बारह सेकेन्ड की है तो कुछ लोगों ने इस बात को चुटकुला समझा और कुछ इस कविता को उबाउ समझकर कॉफी पीने चले गए लेकिन इस कविता ने लाल किले में ऐसा माहौल बनाया कि एक-एक श्रोता उनकी कविता पर झूम उठा। उन्होंने अपना वादा पूरा भी किया, सतरह मिनट कुछ सेेकेन्ड में अपनी कविता पूरी करके। यदि समर की वह कविता आपको पढ़ने को मिले तो आप उसे साधारण कविता की श्रेणी में भी ना रखें लेकिन मंच का समीकरण अलग होता है और उस समीकरण में समर का अंदाज ए बयां कुछ और। लोगों ने समर की कविता से अधिक उनके अंदाज ए बयां को सराहा। पसंद किया और झूमे। समर कवि सम्मेलन को जिस उंचाई पर ले गए थे, वहां से कवि सम्मेलन को बचाकर लाना बहुत बडी चुनौति होती है। इस चुनौति में मंच संचालक की परीक्षा होती है क्योंकि कवि सम्मेलन में मंच संचालक की भूमिका कप्तान की होती है। संचालक शशिकांत यादव जो संचालक जैसे भी थे लेकिन उन्होंने साबित किया कि वे एक अच्छे संयोजक और समन्वयक हैं। समर की कविता के बाद जिस खुबसूरती के साथ उन्होंने महेन्द्र अजनबी को मंच पर प्लेस किया, वास्तव में इसके लिए उनकी तारिफ की जानी चाहिए। मंच पर गिनती के नाम थे, जिन्हें सुना जा सकता था, आसकरण अटल, सीता सागर, वेद प्रकाश, कविता किरण, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, विष्णु सक्सेना, अरूण जैमिनी। अशोक चक्रधर कोे मंचिय कवियों के बीच सुपर स्टार स्टेटस हासिल है। वे पिछले पचास सालों से लाल किले के कवि सम्मेलन में आ रहे हैं। अब वे सुनने वालों की शक्ल देखकर पहचान जाते हैं कि उस पर किस तरह की कविता काम करेगी। <br />
लाल किले पर कुछ कवि सालों से आ रहे हैं, क्या वे लाल किले के लिए पूरे साल में एक नई कविता भी नहीं लिख सकते। जिस कविता ने उन्हें पहचान दिलाई है, वे डरते क्यों है कि नई कविता से वह पहचान छीन जाएगी। यह भी संभव है कि नई कविता उन्हें सुनने वालों के बीच फिर से एक नई पहचान दे। इसबार भी सालों से लाल किले पर आ रहे अधिक कवियों ने अपनी पुरानी कविता ही सुनाई। कुछ लोगो ने जरूर मंच पर लिखी हुई और रास्ते में आते हुए लिखी हुई कविता सुनाई। सुनने वालों ने उन कविताओं को भी पसंद किया। फिर कवियों के मन में यह डर क्यों कि नई कविता सुनने वालों के बीच में जगह नहीं पाती। वैसे मंच पर लिखी हुई और रास्ते में लिखने की बात जिस कविता के लिए कही गई, उसे मंच पर प्रस्तुत करने की वजह वे चार नौजवान भी हो सकते हैं, जिन्होंने यह कहते हुए कवि सम्मेलन का बहिष्कार किया कि कविता के इस मंच से दामिनी को याद क्यों नहीं किया गया और वे चार नौजवान कवियों को धिक्कारते हुए कार्यक्रम से बाहर हो गए। कवि सम्मेलन में मौजूद श्रोताओं की माने तो यदि ये चार युवकों ने आयोजन का बहिष्कार नहीं किया होता तो कवि सम्मेलन का स्वरूप कुछ और होना था। वैसे अनुशासित तरिके से चल रहे कार्यक्रम में इस तरह बाधा डालना भी किसी सभ्य समाज की निशानी नहीं है। जिन युवकों ने विरोध किया, जिस तरह आनन-फानन में उन्होंने अपनी कार्यवायी को अंजाम दिया, उससे साफ पता चलता था कि उनका मकसद कविता सुनना नहीं था, वे अंदर आए ही थे, कवि सम्मेलन में बाधा बनने के लिए। <br />
कविता किरण कविता सुनाने के दौरान श्रोताओं से बार-बार आग्रह कर रही थी, कि उन्हें शांत होकर कविता सुननी चाहिए। कई बार यह दोहराने के बाद उन्होंने मंच की तरफ मुखातिब होकर कहा- जब मंच पर ही लोग कविता नहीं सुन रहे और आपस मेे बात कर रहे हैं फिर मैं आप श्रोताओं से क्या कहूं?<br />
मंच के कवि चाहते हैं कि उन्हें लोग गंभीरता से सुने तो कम से कम मंच पर उन्हें खुद दूसरे कवियों को सुनना होगा लेकिन दिल्ली के लाल किला कवि सम्मेलन को माहल्ले के कवि सम्मेलन से अधिक महत्व देने को कवि खुद तैयार नहीं थे। एक एक कर कवि कविता पढ़ रहे थे और अपना लिफाफा लेकर बाहर निकल रहे थे। क्या यह लाल किले के कवि सम्मेलन का अनुशाशन है। कवि कहते हैं कि यहां जवाहर लाल नेहरू सुबह तक कविता सुनते थे और आज कवि ही दूसरे कवि को सुनने को राजी नहीं है। दूसरे शहरों से आए कवियों की वजह से मंच की गरीमा थोड़ी बच गई, बेचारे इतनी ठंड में और इतनी रात को कहां जाते? वर्ना अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह की बारी-बारी आते पूरा मंच खाली हो जाना था। <br />
इस साल मंच पर सुरेन्द्र शर्मा, हरिओम पंवार, राजगोपाल सिंह, दिनेश रघुवंशी, कुंवर बेचैन, कुमार विश्वास, शैलेश लोढ़ा की कमी लोगों ने मंच पर महसूस की। गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन में किसी मंत्री संतरी से पर्ची लेकर प्रवेश पाने वाले कवि पहले भी हुआ करते थे लेकिन अब ऐेसे कवियों की संख्या बढ़ सीगई है। अब मानों कवि की कविता अकादमी की प्राथमिकता में नहीं है, अकादमी के कवियों को बुलाने के मानक अब मानों बदल गए हैं। <br />
इस बार गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन का ‘मैन ऑफ द सम्मेलन’ का खिताब देने की बात यदि हो तो निसंदेह वह मध्य प्रदेश के खाकी वर्दी वाले मदन मोहन समर को जाता है। <br />
कवियों का नेता सबसे प्रिय विषय होता है, जहां वीर रस के कवि हमेशा पाकिस्तान के खून के प्यासे होते हैं, वहीं किसी रस का कवि हो, उसकी एक आध कविता नेताआंे पर निकल ही आएगी। ऐसे में पूरे कवि सम्मेलन में बैठे रहना दिल्ली सरकार में मंत्री किरण वालिया के लिए कितना मुश्किल रहा होगा, इसका अंदाजा कोई भी सहज ही लगा सकता है। कवि एक के बाद एक देश के नेताआंे की क्लास लेते रहे और पिछे नेताजी मुस्कुराती रहीं। यह अच्छा हुआ कि कविता में नेताओं से पूछे गए सवाल का जवाब देने के लिए बाद में संचालक शशिकांत ने मंत्रीजी को फिर से आमंत्रित नहीं किया। <br />
यह मेरी बात थोड़ी काल्पनिक है, लेकिन इसे ंसभव किया जा सकता है। <br />
क्या दिल्ली में उर्दू अकादमी और हिन्दी अकादमी मिलकर एक इंडियन कवि सम्मेलन-मुशायरा लीग जैसा कुछ नहीं कर सकती। दिल्ली के रामलीला मैदान मंे एक तरफ कवि सम्मेलन इलेवन के ग्यारह कवि और दूसरी तरफ मुशायरा इलेवन के ग्यारह शायर। एक तरफ सुरेन्द्र शर्मा या अशोक चक्रधर कप्तानी कर रहे हैं और दूसरी तरफ वसीम बरेलवी या मुनव्वर राणा ने कमान संभाली है। कवियों की तरफ से हरि ओम पंवार परफॉर्म करके लौटे और दूसरी तरफ मंच पर आने के लिए नवाज देवबंदी उतावले हुए जा रहे हैं। एक बार ऐसा एक प्रयोग करके देखिए फिर मैं देखा जाए कि कौन कहता है कि कविता और शायरी के कद्रदान कम हो गए हैं। </div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-41279556196008278372013-01-01T07:21:00.001-08:002013-01-01T07:21:46.965-08:00आशीष कुमार 'अंशु' की तीन कवितायेँ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
01<br /> -------<span class="userContent"><br />संपादकजी,<br /> छापकर आवरण पर<br /> नग्न स्त्रियों की तस्वीर<br /> ललकारते हैं रात में <br /> यही है तुम्हारी संस्कृति<br /> देख लो खजुराहो<br /> <br /> याद आते ही मनु स्मृति<br /> कहते हैं<br /> जला दो,<br /><span class="text_exposed_show"> इसमें दलित विरोधी बातें लिखी हैं<br /> दलित अधिकार, आदिवासी अधिकार में<br /> शामिल नहीं है<br /> दलित महिला, आदिवासी महिला,<br /> का अधिकार,<br /> यह जानते हैं हम<br /> पर मानते नहीं।<br /> <br /> स्त्री जो घर में छुपाई गई<br /> बाजार में उघाड़ी गई<br /> ना छुपना स्त्री की नियत थी,<br /> ना उघड़ना उसकी मर्जी,<br /> उसका छुपना पुरूष की इच्छा थी<br /> और उघड़ना पुरूष की कुंठा।<br /><br /> 02<br /> --------<br />पत्नी को बेटी को सात पर्दों में रखा<br />और प्रेमिका के लिए स्त्री मुक्ति आन्दोलन<br />तुम दोगले हो और तुम्हारा आंदोलन खोखला<br />होना-खोना दर्जन भर औरतों के साथ <br />तुम्हारा पुरूषार्थ है<br />इसमें तुम्हारी स्त्री मुक्ति है, तुम्हारा स्त्री विमर्श है<br />यदि बेटी लिखे सोना दस मर्दों के साथ<br />बीवी लिखे पाना-खोना दर्जन भर मर्दों का हाथ<br />तुम्हारे पांव तले जमीन निकल जाएगी<br />हर आंदोलन की शुरूआत घर से क्यों नहीं<br />मुक्त करो बहनों को, बीवियों को, बेटियों को<br />अपने नजरों के चंगुल से<br />जातिय दंभ की तरह पुरूष होना भी दंभी बनाता है<br />श्रेष्ठता का बोध कराता है<br />तुम भी तो पुरूष हो, दंभ और श्रेष्ठता से भरे हुए।<br /><br />पहले अपने ‘पुरूष’ होने के झूठे दंभ से बाहर आओ <br />वर्ना स़्त्री मुक्ति की बात उस लोमड़ी की चालाकी है<br />जिसने भेड़ खाने के लिए भेड़ खाने का कानून बनाया<br />स्त्री मुक्ति के नाम पर स्त्री शोषण की राह तलाशते तुम<br />हे! महान साहित्यकार तुम्हारी स्त्री मुक्ति को प्रणाम।<br /><br /> 03<br /> --------</span></span><br /><span class="userContent"><span class="text_exposed_show"><!--[if gte mso 9]><xml>
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आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-6810556306085798372012-12-20T01:54:00.002-08:002012-12-20T01:58:24.309-08:00माओवादी दुनिया की पड़ताल .....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-sSbyILmvzKQ/UNLgPYdTg1I/AAAAAAAACPc/vZ7MzH23s3U/s1600/shubranshu.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="http://1.bp.blogspot.com/-sSbyILmvzKQ/UNLgPYdTg1I/AAAAAAAACPc/vZ7MzH23s3U/s320/shubranshu.jpg" width="208" /></a></div>
<br /><h1>
<span style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: verdana,sans-serif;"><span style="font-size: x-small;">वर्ष 2008-09 की बात है, जब नेपाल में कुसहा बांध टूटने की वजह से
बिहार में भयावह बाढ़ आई थी। बाढ़ के लगभग छह महीने बाद
दिल्ली से पत्रकारों का एक समूह बिहार-नेपाल के बाढ़ प्रभावित रहे
क्षेत्र का दौरा करने के लिए गया था। उन में इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल
था। बिहार में सीतामढ़ी-सुपौल-सहरसा होते हुए नेपाल पहुंचे। <br />
इसी यात्रा के दौरान एक माओवादी नेता से मुलाकात हुई। नेपाल में भारत की
तरह माओवादी संगठन प्रतिबंधित नहीं हैं। इसलिए मिलने वाले सज्जन ने
सार्वजनिक सभा में जब अपना परिचय माओवादी के रूप में दिया तो चौंकना लाजमी
था। वैसे उस दौरान नेपाल में माओवादी शासन में थे। <br />
वह व्यक्ति फिर यात्रा में हमारे साथ था।<br />शुभ्राशु चौधरी की किताब
''उसका नाम वासु नहीं'' पढ़ते हुए, उस यात्रा की याद आई। उस बातचीत को कहीं
लिख नहीं पाया था। लेकिन शुभ्रांशु को पढ़ते हुए उस माओवादी नेता से हुई
बातचीत की यादें ताजा हो गईं। <br />
‘भारत में माओवाद से सहानुभूति रखने वाले जितने चेहरों को आप जानते हैं,
उससे कई गुणा अधिक चेहरे छुपे हुए हैं। वे उस वक्त सामने आएंगे, जब भारत पर
माओवाद का राज होगा।’<br />उस माओवादी नेता का यह अति आत्मविश्वास थोड़ा चौंकाने वाला था। मैंने धीरे से ही कहा- यह कभी संभव नहीं होगा।<br />
जिस गाड़ी पर हम कुसहा के लिए जा रहे थे, उसमें वही हमारा मार्गदर्शक था।
नेपाल में माओवादी सरकार थी। हम दूसरे देश में थे, इन सारी स्थितियों को
समझते हुए, मेरे साथ बैठे एक पत्रकार ने आंखों के इशारे से कहा, बातचीत बंद
कर दो। उस माओवादी नेता ने बिना असहज हुए कहा- आप निसंकोच कुछ भी पूछिए और
आप सब पत्रकार हैं, मुझे हुई हर एक बात को ऑन द रिकॉर्ड समझिए। जहां चाहें
इसे लिखें। फिर वे मेरी तरफ मुखितिब हुए- आपकी उम्र 24-25 साल की होगी,
यकिन जानिए आप अपनी जिन्दगी में भारत में माओ का शासन देखंेगे। फिर बहुत से
चेहरे बेनकाब होंगे। <br />
उन्होंने पटना का एक किस्सा सुनाया, जब वे प्रचंड के साथ पटना हनुमान मंदिर
में थे। पटना में प्रचंड की तलाश हो रही थी। इंटेलीजेन्स के पास खबर थी कि
प्रचंड पटना में हैं। पटना हाई अलर्ट पर था। हर तरफ पुलिस थी और प्रचंड
आसानी से उन सबके बीच से आम आदमी की तरह निकल गए, किसी ने पहचाना नहीं। <br />
उन सज्जन ने बताया था, माओवादी अपनी टीम तीन श्रेणियों में बनाते हैं। एक
वे लोग जो जंगल में रहते हैं और हथियार बंद रहते हैं। एक वे जो जंगल और
बाहरी दुनिया के बीच समन्वय का काम करते हैं। आन्दोलन के लिए पैसा जुटाने
का काम इनका ही होता है। वे सज्जन नेपाल माओवादी आन्दोलन में इसी भूमिका
में थे और तीसरे वे लोग, जो समाज में पत्रकार, एनजीओ, अभिनेता, नेता,
उद्योगपति या दूसरी भूमिका में होते हैं लेकिन उनकी सहानुभूति इस आन्दोलन
के साथ होती है। आन्दोलन के लिए पैसा इन्ही लोगों के पास से आता है। उन
सज्जन ने बताया कि नेपाल में माओवादी आन्दोलन की सफलता के लिए सबसे अधिक
आर्थिक मदद भारत से मिलती है, इसलिए उन्हें अक्सर भारत आना पड़ता है। भारत
में भी दिल्ली में सबसे अधिक मदद करने वाले हैं। <br />
उन्होंने हथियार के संबंध में बताया था- माओवादी आन्दोलन में अधिकतर सस्ते
हथियार इस्तेमाल होते हैं। उन्होंने कुकर बम का उदाहरण दिया। जिसमें पुराने
कुकर को बम की तरह इस्तेमाल करते थे। एक समय तो इस वजह से भारत से कुकर का
आयात भी नेपाल ने बंद कर दिया था। इसी तरह तीन बार झूठा बम रखकर, जब नेपाल
पुलिस बम को लेकर लापरवाह हो जाते थे तो जिन्दा बम रखने की जानकारी
उन्होंने दी। यह सब घटना नेपाल में माओवादी शासन आनंे के पहले की है। <br />
चीन के हथियार नेपाल में माओवादियों के पास कैसंे आते हैं, क्या चीन उन्हें
मदद कर रहा है? इस सवाल पर उन माओवादी नेता ने यही बताया था कि चीन उनका
चोरी-छीपे जाना-आना रहा है। वहां के कई हथियार के सौदागरों से उनका परिचय
है लेकिन वे आन्दोलन के लिए सारे हथियार खरीद कर लाते हैं, चीन कोई भी
हथियार खैरात में नहीं देता। इसके लिए उन्हें पैसा भारतीय मददगारों से चंदा
के तौर पर मिलता है। <br />
यदि मैं सही-सही याद कर पा रहा हूं तो उस दौरान उन सज्जन के छोटे भाई की
पत्नी प्रचंड सरकार में किसी महत्वपूर्ण भूमिका में थी। छोटे भाई भी सक्रिय
राजनीति में थे। <br />आज शुभ्रांशु चौधरी की किताब पढ़ते हुए लगा, वासु के तौर पर वही नेपाली माओवादी मेरे सामने आ खड़ा हुआ हो। </span></span></span></h1>
<br /></div>
आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5826908165840830090.post-74479678724707619602012-11-28T23:05:00.001-08:002012-11-28T23:05:56.984-08:00शेर का राज माने जंगल राज!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="http://3.bp.blogspot.com/-2C0T9z_jsJI/ULcITEjfcNI/AAAAAAAACPA/Y31lBT2GUMk/s1600/bala+saheb.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-2C0T9z_jsJI/ULcITEjfcNI/AAAAAAAACPA/Y31lBT2GUMk/s1600/bala+saheb.jpg" /></a></div>
<h5 class="uiStreamMessage userContentWrapper" data-ft="{"type":1,"tn":"K"}">
<span class="messageBody" data-ft="{"type":3}"><span class="userContent">तुम
कहते हो वह शेर था, <br />फिर पिंजरे में क्यों रहता था? <br />इतनी सुरक्षा में क्यों
चलता था <br />और वह शेर था <br />तो तुम्हे मानना चाहिए, तुम्हारे राज्य में जंगल-राज
है.<br /><br /> कमाल है तुम यह भी मानने को तैयार नहीं <br />और बात-बात पर <br />गिरफ्तार कराने
को उतावले रहते हो!</span></span></h5>
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आशीष कुमार 'अंशु'http://www.blogger.com/profile/12024916196334773939noreply@blogger.com1