समर दास पश्चीम बंगाल में नक्सल आन्दोलन के समर्थकों में गिने जाते रहे हैं। लेकिन अब उनका इस व्यवस्था से मोहभंग हो गया है। उनका मानना है, आन्दोलन अपने राह से भटक गया है. वे कहते हैं, अपनी जान बचाने के लिए आप किसी की जान लेते हैं तो इसे दुनिया का कोई न्याय शास्त्र ग़लत नहीं कहेगा. लेकिन आप सिर्फ़ अपना आतंक कायम करने के लिए इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देते हैं तो इसे किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता. सिर्फ़ हाथ में हथियार उठा लेने से कोई नक्सली नहीं हो जाता. हथियार तो दुनिया भर के आतंकी संगठनों ने भी उठा रखा है. फ़िर नक्सल आन्दोलन उनसे अलग कैसे है? आज इसी सवाल का जवाब देना इस आन्दोलन के सामने सबसे बड़ी मुश्किल है. और चुनौती भी. वे आजकल विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर पश्चीम बंगाल में अलग-अलग मुद्दों पर जागरूकता अभियान चला रहे हैं. सिगूर का नैनों कार प्रोजेक्ट हो या नंदीग्राम का एस ई जेड या फ़िर आमार बंगाली और गोरखाओं के बीच चलने वाला शीत युद्ध. हर विषय पर उनका अपना पक्ष है. वे सेज क्षेत्र में जाने क्र लिए बनने वाले अनुमति पत्र को वीजा और पासपोर्ट की संज्ञा देते हैं. वे कहते हैं, जिन मजदूरों के हक की बात करके बंगाल की सरकार ने इतने दिनों तक शाशन किया, सरकार उन्हीं मजदूरों के हितों को भूल गई. एस ई जेड में किसी प्रकार का लेबर क़ानून नहीं होगा.
उन्होंने कहा - 'आशीष, एक समय बंगाल में मजदूर हड़ताल पर जाते थे, अब परंपरा बदल गई है। अब यहाँ मालिक लोग लॉक आउट करने लगे हैं.'
मैं समझ नहीं पाया यह कहते हुए वे रो रहे थे या हंस रहे थे.
शुक्रवार, 11 जुलाई 2008
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1 टिप्पणी:
आशीष जी,
यह प्रस्तुति कई मायनों में अहं है। नक्सलवादिता से विश्वास उठना एक अच्छा चिन्ह है चूंकि आतंकवादिता क्रांति नहीं है यह बात हमारे भटक रहे युवाओं को जितनी जल्द समझ आ जाये उतना बेहतर...बधाई स्वीकारें इस महत्वपूर्ण पोस्ट के लिये।
***राजीव रंजन प्रसाद
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