मंगलवार, 31 जनवरी 2012

पेड न्यूज का खेल चलता रहेगा...

अधिक दिन नहीं हुए, जब दिल्ली के एक राष्ट्रीय अखबार के एमडी पत्रकारों को संबोधित करते हुए कह रहे थे कि इस बार चुनाव में पेड न्यूज ना छापने के संकल्प की वजह से कंपनी को चालिस लाख रुपए का नुक्सान होगा। यह तो उस समय जब यह राष्ट्रीय कहा जाने वाला अखबार उन राज्यों में बिल्कुल नहीं बिकता या फिर कुछ जगह जाता भी है तो छीट-पुट संख्या में।
ऐसे मे उन अखबारों के नुक्सान का हिसाब लगाइए जो इन राज्यों मे खुब बिकती है। ऐसे तीन-चार अखबार जरूर हैं। इसके बाद इनके नुक्सान का भी अंदाजा लगाइए। क्या यह करोड़ो में नहीं बैठेगा?


इस बार कुछ राष्ट्रीय अखबारों ने कुछ नई योजनाओं पर काम करना शुरू किया है। चुनाव आयोग को हमेशा प्रमाण चाहिए। प्रबंधकों ने पेड न्यूज के लिए बिल्कुल नई योजनाओं पर काम करना प्रारंभ कर दिया है। जिससे माल भी आ जाए और पेड न्यूज ना छापने की कसम भी ना टूटे। उतर प्रदेश के बड़े हिस्से में एक राष्ट्रीय अखबार ने दो पृष्ठों में मीडिया इनीसिएटिव के नाम से दो पेज का विज्ञापन छापा। वास्तव में मीडिया इनीसिएटिव ऊपर लिखा हो तो नीचे जो खबर छपी है, वह विज्ञापन बन जाता है, इस बात की समझ क्या इस अखबार ने अपने पाठकों में विकसित की है? वास्तव में विज्ञापन के नाम पर नीचे खबर ही छपी थी। सिर्फ मीडिया इनीसिएटिव लिख देने से अब अखबार पर पेड न्यूज का आरोप नहीं लगा सकते। यह तो प्रबंधन का एक छोटा सा खेल है।
यदि एक एक विधानसभा में खड़े होने वाले बीस प्रत्याशियों में सिर्फ चार या तीन या दो की ही खबरें अखबार में छप रहीं हैं तो इसका मतलब है कि वह अखबार बाकि के प्रत्याशियों को पहले से ही हारा हुआ मान रहा है। एक विधानसभा में अच्छे प्रसार संख्या वाले तीन से चार अखबार होते हैं। चुनाव के समय में विज्ञापन और प्रबंधन वाले छोटी-छोटी बातों के लिए चुनाव में खड़े होने वाले नेताओं से पैसे वसूलते हैं।
इस बार सुनने में आ रहा है कि कुछ बड़े अखबार अपने प्रबंधकों और मीडिया मैनेजरों की मदद से पेड न्यूज की आमदनी को विज्ञापन में तब्दील करने की जुगत में हैं। इसलिए अपनी पॉलिसी के तहत तस्वीरें वे कम से कम छाप रहे हैं। विज्ञापन में भी रसीद का कम का दिया जा रहा है, पैसे अधिक वसूले जा रहे हैं। लेकिन इसकी शिकायत कोई चुनाव आयोग से करे तो करे कैसे? इसके लिए पुख्ता सबूत जुटा पाना मुश्किल है और दूसरा समाज में रहकर कोई भी मीडिया से बैर नहीं लेना चाहता। चुनाव के विधानसभाओं में इस बार पर्चो की भी कीमत अखबार वाले लगा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में चुनाव वाले दिन अखबार में अमुकजी का छपा हुआ पर्चा ही जाएगा। उत्तर प्रदेश के कुछ विधानसभाओं में इसके लिए भी मोटी रकम ली गई है। इसके माने साफ हैं कि मैदान में अखबारों के अपने-अपने प्रतिनिधि होंगे। अ का पर्चा अमुक अखबार में डालकर बंटेगा और ब का पर्चा अमुक अखबार में। अब इसको तो चुनाव आयोग भी पेड न्यूज नहीं कह सकता क्योंकि जिनसे पैसे लिए गए हैं, अखबार उनके खिलाफ तो कम से कम नैतिकता के नाते चुनाव सम्पन्न होने तक कुछ नहीं छापेगा। क्या पैसे लेकर किसी खबर को नहीं छापना पेड न्यूज नहीं है? लेकिन चुनाव आयोग छपे पर सवाल कर सकता है, कि क्यों छापा, यह छापा तो कहीं यह पेड न्यूज तो नहीं है लेकिन जो छपा ही नहीं किसी अखबार में, उसपर आयोग कैसे कार्यवाही करेगा?




एक और उदाहरण, एक विधानसभा क्षेत्र से एबीसीडी ने अपना नामांकन एक ही दिन भरा, चारों महत्वपूर्ण नाम है अपने विधान सभा क्षेत्र के। किसी अखबार में यदि इस खबर का शीर्षक छपता है, ए के साथ तीन अन्य लोगों ने नामांकन दाखिल किया। इसका सीधा सा अर्थ है कि अखबार किसी एक व्यक्ति को प्रमुखता दे रहा है। इस प्रमुखता में पैसों का खेल नहीं है, यह कैसे साबित होगा?
यह सब उत्तर प्रदेश के अखबारों में काम कर रहे लगभग एक दर्जन पत्रकारों से बातचीत के बाद लिख रहा हूं। वे सभी पत्रकार पेड न्यूज के इस नए रंग से खुश नहीं है लेकिन नौकरी के बीच कुछ कर भी नहीं सकते। कमाल यह है कि पेड न्यूज के इस नए खेल को समझने के बाद भी साबित करना चुनाव आयोग के लिए भी टेढा काम होगा। इसका मतलब साफ है, पेड न्यूज का खेल चलता रहेगा, और हमारी भूमिका मूकदर्शक से अधिक कुछ भी नहीं होगी। ऐसे समय में अंतिम भरोसा पाठकों का ही है, वे अखबार की खबर को आंख बंद करके अंतिम सत्य समझ कर ना पढ़े और वह भी जानने की कोशिश करें जो अखबार में छपा नहीं है। उन प्रत्याशियों के नाम पर भी चर्चा करें, जिनका जिक्र अखबारों में नहीं है।

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

शुभम श्री की एक कविता ....


'मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है'-
''ये कोई नई बात नहीं
लंबी परंपरा है
मासिक चक्र से घृणा करने की
'अपवित्रता' की इस लक्ष्मण रेखा में
... कैद है आधी आबादी
अक्सर
रहस्य-सा खड़ा करते हुए सेनिटरी नैपकिन के विज्ञापन
दुविधा में डाल देते हैं संस्कारों को...

झेंपती हुई टेढ़ी मुस्कराहटों के साथ खरीदा बेचा जाता है इन्हें
और इस्तेमाल के बाद
संसार की सबसे घृणित वस्तु बन जाती हैं
सेनिटरी नैपकिन ही नहीं, उनकी समानधर्माएँ भी
पुराने कपड़ों के टुकड़े
आँचल का कोर
दुपट्टे का टुकड़ा

रास्ते में पड़े हों तो
मुस्करा उठते हैं लड़के
झेंप जाती हैं लड़कियाँ

हमारी इन बहिष्कृत दोस्तों को
घर का कूड़ेदान भी नसीब नहीं
अभिशप्त हैं वे सबकी नजरों से दूर
निर्वासित होने को

अगर कभी आ जाती हैं सामने
तो ऐसे घूरा जाता है
जिसकी तीव्रता नापने का यंत्र अब तक नहीं बना...

इनका कसूर शायद ये है
कि सोख लेती हैं चुपचाप
एक नष्ट हो चुके गर्भ बीज को

या फिर ये कि
मासिक धर्म की स्तुति में
पूर्वजों ने श्लोक नहीं बनाए
वीर्य की प्रशस्ति की तरह

मुझे पता है ये बेहद कमजोर कविता है
मासिक चक्र से गुजरती औरत की तरह
पर क्या करूँ

मुझे समझ नहीं आता कि
वीर्य को धारण करनेवाले अंतर्वस्त्र
क्यों शान से अलगनी पर जगह पाते हैं
धुलते ही 'पवित्र' हो जाते हैं
और किसी गुमनाम कोने में
फेंक दिए जाते हैं

उस खून से सने कपड़े
जो बेहद पीड़ा, तनाव और कष्ट के साथ
किसी योनि से बाहर आया है

मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अखबार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं जरा भी उनकी सूरत

करीने से डाला जाए कूड़ेदान में
न कि छोड़ दिया जाए

'जहाँ तहाँ' अनावृत ...
पता नहीं क्यों

मुझे सुनाई नहीं दे रहा
उस सफाई कर्मचारी का इनकार

गूँज रहे हैं कानों में वीर्य की स्तुति में लिखे श्लोक...''

क्‍यों किसी गाड़ी पर प्रेस लिखा होना चाहिए!


यदि देश भर में यह सर्वेक्षण किया जाए कि दो चक्कों और चार चक्कों वाली गाड़ियों पर सबसे अधिक कौन सा स्टीकर चिपकाया गया होता है? मेरा विश्वास है कि सबसे आगे ‘प्रेस’ ही होगा। गांवों, कस्बो, शहर और महानगर तक में आपकों बड़ी छोटी गाड़ियों पर प्रेस लिखी गाड़ियां आसानी से मिल जाएंगी। कुछ लोग अपनी गाड़ी पर प्रेस लिखवाने के लिए और प्रेस लिखा परिचय पत्र पाने के लिए पैसा खर्च करने को भी तैयार होते हैं। मैंने सुना था, दिल्ली के गुरु तेग बहादुर नगर में कोई संस्था पांच सौ-हजार रुपए लेकर छह महीने-साल भर के लिए प्रेस परिचय पत्र जारी करती थी। यदि महीने में उसने पच्चीस-तीस लोगों का परिचय पत्र भी बनाया तो उसके महीने की आमदनी हो गई पन्द्रह से तीस हजार रुपए की। खैर, यहां मेरा उद्देश्य उनकी आमदनी पर बात करना नहीं है। मैं सिर्फ इतना समझना चाहता हूं कि अपनी गाड़ी पर प्रेस लिखने की ऐसी कौन सी अनिवार्यता है, जो प्रेस लिखे बिना पूरी नहीं होती।
क्यों किसी गाड़ी पर ‘प्रेस’ लिखा होना चाहिए? क्या आज किसी गाड़ी पर आपने पलम्बर, हेयर डिजायनर, एक्टर, सिंगर लिखा देखा है? सिर्फ प्रेस और पुलिस जैसे कुछ पेशे वाले ही अपनी गाड़ी पर अपना परिचय लिखवाते हैं। कुछ सालों से विधायक, सांसद, जिला पार्षद लिखने की परंपरा भी शुरु हुई है। क्या यह स्टीकर सिर्फ रोड़ पर मौजूद दूसरे लोगों पर धौंस जमाने के लिए होता है। या इसकी दूसरी भी कोई उपयोगिता है। किसी गाड़ी पर एम्बुलेन्स लिखा हो तो समझ में आता है। चूंकि एम्बुलेन्स के साथ कई लोगों की जिन्दगी और मौत जुड़ी होती है। यह मामला फायर ब्रिगेड की गाड़ियों के साथ भी जुड़ा है।
वैसे कुछ पत्रकार मित्र यह भी कहेंगे कि रिपोर्टिंग के लिए जाते समय वे किसी बेवजह के पचड़े में ना पड़ें इसलिए वे अपनी गाड़ी पर प्रेस का स्टीकर लगाते हैं। वरना रिपोर्टिंग के दौरान वे बेवजह देर होंगे। यह सच भी है कि एक पत्रकार अपने पाठकों और दर्शकों के प्रति जिम्मेवार होता है। उस तक खबर सही समय पर पहुंचे यह उसकी जिम्मेवारी होती है। वास्तव में विरोध प्रेस के स्टीकर से नहीं है। विरोध है, उसके दुरुपयोग से। जो लोग इस स्टीकर का बेजा इस्तेमाल करते हैं उनसे।
वास्तव में प्रेस के स्टीकर के साथ यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि व्यक्ति उस संस्था का नाम भी साथ में जरुर लिखे, जहां से वह ताल्लुक रखता है। या फिर इस तरह के नियम बनने चाहिए कि प्रेस लिखा स्टीकर अपने पत्रकारों के लिए संस्थान ही जारी करें। इससे सड़क पर प्रेस स्टीकर की अराजकता कम होगी। इसी प्रकार अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए खरीदी गई गाड़ी पर कोई व्यक्ति पुलिस का स्टीकर लगा रहा है? तो यह समझने की बात है कि इसके पीछे उसका क्या उद्देश्य हो सकता है? इस तरह की स्टीकर बाजी पर वास्तव में कुछ नीति बननी चाहिए।

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम