सोमवार, 30 मई 2011

हर सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है : डॉ विनायक सेन

जब विनायक सेन से बातचीत हुई थी, वे पीयूसीएल के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए दिल्ली आये थे। उस वक्त तक योजना आयोग के स्वास्थ संबंधी समिति में उनके सदस्य बनने की घोषणा नहीं हुई थी। इसलिए उस मुद्दे पर कोई सवाल यहां शामिल नहीं है। उनसे चितरंजन पार्क स्थित एक घर में लंबी बातचीत हुई। बातचीत के कुछ अंश:-



विनायक सेन को लेकर मीडिया और समाज में दो तरह की छवि है। एक विनायक सेन, जिन्हें हमेशा देश के दुश्मन के तौर पर पेश किया जाता है, दूसरे विनायक सेन वे जो आदिवासियों के शुभचिंतक हैं और गरीब समाज के मसीहा हैं। दोनों विचार अतिवादी हैं। इस तरह एक आम भारतीय असमंजस की स्थिति में है कि वह इन दोनों में से किसे सच माने और किसे झूठ! यदि हम मीडिया की नजर से इस मसले को न समझें और आपसे जानना चाहें कि कौन है ‘विनायक सेन’, तो आपका जवाब क्या होगा?
इस तरह के सवालों को मैं वाजिब नहीं मानता। मेरे लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं रहा कि कौन मेरे लिए क्या सोचता है? लोग मुझे लेकर क्या बात करते हैं? मैं हमेशा इस बात को महत्व देता हूं कि मैं क्या करता हूं। हो सकता है कि यही वजह हो कि मैं अपने लिए कही गयी किसी बात को अधिक महत्व नहीं देता।

वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई की। आप वहां गोल्ड मेडलिस्ट रहे। एक शिशु रोग विशेषज्ञ के नाते आप देश में देश के बाहर वह जिंदगी चुन सकते थे, जहां पांच सितारा अस्पताल के वातानुकूलित कमरे होते और बड़ी-बड़ी गाड़ियों से आने वाले मरीज। आपने तीस साल छत्तीसगढ़ में क्यों लगाया? कोई खास वजह?
छत्तीसगढ़ 1981 में आ गया था। उसी साल मैंने छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संगठन के साथ काम करना शुरू किया। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश एक ही हुआ करते थे। उससे पहले कुछ दिनों मैं होशंगाबाद भी रहा था। मैने हमेशा एक डॉक्टर और एक पीयूसीएल के कार्यकर्ता की हैसियत से ही काम किया है। शंकर गुहा नियोगी से प्रभावित था, उनसे प्रभावित होकर ही होशंगाबाद से रायपुर का रुख किया था। अपने तीस साल के सामाजिक जीवन में मैं महसूस कर रहा हूं, देश में एक तरफ तरक्की की बात की जा रही है और दूसरी तरफ देश के एक बड़े हिस्से में स्थायी अकाल की परिस्थितियां व्याप्त है, जिसे किसी भी सभ्य समाज के लिए अभिशाप समझा जा सकता है।


आपने अपने एक वक्तव्य में अंग्रेजी के एक शब्द जीनोसाइड (जन संहार) को एक नये अर्थ में परिभाषित किया, जिसमें आप मानते हैं कि भूख से हो रही लगातार मौतों को भी उसी श्रेणी में रखना चाहिए। क्या देश भर में कुपोषण से हो रही लगातार मौतें भी एक प्रकार का जन संहार है?
शरीर के वजन और लंबाई के आधार पर व्यक्ति का बॉडी मास इंडेक्स तय होता है। जिन व्यक्तियों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम है, इसे वयस्‍क व्यक्ति में स्थायी कुपोषण का स्वरूप माना जाएगा। हैदराबाद स्थित नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के अनुसार देश के 37 प्रतिशत व्यक्तियों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम है। 05 साल से कम उम्र के 45 प्रतिशत से अधिक बच्चे अपनी उम्र और वजन के हिसाब से कुपोषण के शिकार हैं। कुपोषित बच्चों की हमारे देश में संख्या, दुनिया भर के कुपोषित बच्चों की आधी बैठती है। हमारे देश में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत पर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की एक वरिष्ठ प्रोफेसर उत्सा पटनायक का अध्ययन है। उन्होंने अपने 2005 तक के अध्ययन के आधार पर कहा कि पिछले दस सालों में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत अपने देश में कम हुई है। दस साल पहले पांच लोगों का एक परिवार जो 880 किलोग्राम औसत अनाज साल भर में खर्च करता था। उस परिवार में वर्ष 2005 आते-आते यह खपत घटकर 770 किलोग्राम पर आ गयी है। यह गिरावट 110 किलोग्राम की है। पूरे देश में 37 प्रतिशत लोगों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम है। यदि सिर्फ सीड्यूल ट्राइव्स की बात की जाए, तो यह आंकड़ा 50 फीसदी से भी अधिक है। 18.5 से कम बॉडी मास इंडेक्स वाले लोगों की संख्या सीड्यूल कास्ट में 60 फीसदी से भी अधिक है। सच्चर समिति की रिपोर्ट कुछ इसी तरह की तस्वीर अल्पसंख्यकों की भी बताती है। विश्व स्वास्थ संगठन कहता है कि किसी समुदाय में 40 फीसदी से अधिक लोगों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम हो तो उस पूरे समुदाय को अकालग्रस्त माना जाना चाहिए। यदि हम विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा तय मानकों को अपने आंकड़े में लागू करें, तो यह देखने को मिलेगा कि कई समुदाय ऐसे हैं जो अकाल की स्थिति में जी रहे हैं। साल दर साल इतिहास का रास्ता तय कर रहे हैं और अकाल उनके जीवन का साथी है।

देश में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार आम आदमी के हितों का वादा करके सत्ता में आती है। जितनी भी सरकारी योजनाएं बनती हैं, वह सभी आम आदमी के हित में बनती है। फिर यह कहना कितना ठीक होगा कि सरकार आम आदमी विरोधी है?
सरकार का मुद्दा बेहद अहम है। आज सरकार उन्हीं सब चीजों को अपने निशाने पर ले रही है, जिन पर कई समुदाय जी रहे हैं। इनकी पहुंच में जो सामुदायिक संपदा है, उनसे इन्हें महरूम किया जा रहा है। पानी, जंगल, जमीन जिनके आधार पर ये जी रहे हैं, उन्हें योजना के साथ इनसे अलग किया जा रहा है। उन वंचित समुदायों को बताया जा रहा है कि जिस जमीन पर तुम रहते हो, जिस नदी का पानी पीते हो, जिस जंगल से जीवन यापन करते हो – वह सब तुम्हारा नहीं, सरकार का है। सरकार गरीब लोगों से सारे संसाधन छीन कर निजी कंपनियों को सौंप रही है। 1991 के बाद शासन के जो भी कार्यक्रम चल रहे हैं, वे सभी प्राइवेट कॉरपोरेट हित में ही हैं। गरीब से छीन कर जमीन बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों को देना अपने देश की तरक्की के लिए है। अत्याचार पहले भी गरीबों पर हुए हैं। लेकिन पहले उस अत्याचार के साथ एक शर्म होती थी। लोग अत्याचार को अत्याचार स्वीकार करते थे। लेकिन अब इन सभी अत्याचारों को तरक्की की तरकीब के रूप में देखा जा रहा है।

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यदि यह स्थिति बनी है कि सरकारें जन विरोधी काम कर रहीं हैं, तो आदिवासी समाज के लोग सरकार के खिलाफ अपना विरोध कैसे दर्ज करें?
उत्तरी अमेरिका में, ऑस्ट्रेलिया में आदिवासी समाज को खत्म किया गया। दुनिया भर में इस बात के उदाहरण हैं कि किस प्रकार पूंजीपति वर्ग ने आदिवासियों का शोषण किया है। इस देश की सरकार और पूंजीपतियों का गठजोड़ आदिवासियों से उनका हक छीनना चाहता है। सरकार और पूंजीपतियों के इस दोस्ती को पहले पहचानना जरूरी है, उसके बाद हम इस सरकारी रणनीति के खिलाफ रणनीति ईजाद कर सकते हैं।

एक तरफ हमारे पास नंदीग्राम और सिंगुर का उदाहरण है, जहां लड़कर किसानों ने अपन हक वापस लिया और दूसरी तरफ अहिंसा के साथ पिछले 25 सालों से चल रहा नर्मदा बचाओ आंदोलन का उदाहरण है, फिर क्या अपना अधिकार पाने के लिए समाज को सिंगुर वाला मॉडल ही अपनाना होगा?
एक मानवाधिकार संगठन के साथ काम करने के नाते कभी अपनी तरफ से मैं हिंसा की पैरवी नहीं कर सकता। चाहे वह किसी की भी हिंसा हो, सरकार की या किसी और की। इस वक्त देश भर में जो संपदा की लूट चल रही है, उसके खिलाफ खड़े हुए आंदोलनों को हिंसा के तौर पर निरूपति किया जा रहा है। जब तक प्राकृतिक संपदा की इस खुली लूट को सरकार समाप्त नहीं करेगी, देश में शांति का माहौल तैयार होना संभव नहीं है। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के नाते हम चाहते हैं कि देश में बराबरी का माहौल बने, सबके लिए न्याय हो और शांति हो।

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यदि इन तमाम शांति प्रक्रियाओं के बाद भी एक आदिवासी को उसका हक न मिले और उलटे उसे उसकी ही जमीन से बेदखल कर दिया जाए, तो क्या उसके बाद भी भूख से मर जाने तक उसे सत्याग्रह का दामन नहीं छोड़ना चाहिए?
देखिए हम भी एक प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। हमारे पास भी हर सवाल का जवाब नहीं है। हमें इस सवाल का जवाब तलाशना होगा, मैं उस खोज का साथी हूं। मैं मानता हूं सवाल महत्वपूर्ण है, रास्ता नहीं है। हम एक लोकतांत्रिक संरचना वाले देश में जी रहे हैं। इसके लिए कोई राह समाज को ही निकालना होगा। हमारे देश का सर्वोच्च न्यायालय कहता है, देश में गैर बराबरी बहुत अधिक है। एक ही देश में दो तरह के लोग स्वीकार्य नहीं हैं। पीयूसीएल की तरफ से जो हमारी बैठक थी, उसमें हमने तय किया है, राजद्रोह जैसे कानून को रद्द करने की मांग रखेंगे। पीयूसीएल और अन्य मानवाधिकार से जुड़े संगठन देश भर से दस लाख लोगों के हस्ताक्षर इस कानून के खिलाफ इकट्ठा करेंगे।

कल को यदि सर्वोच्च न्यायालय में आप पर लगे सारे आरोप गलत साबित होते हैं, तो आपके जो साल जेल के अंदर-बाहर होते बीते हैं, उसकी वापसी की कोई राह न्यायालय से निकलेगी?>
इन सालों में मेरा बहुत नुकसान हुआ। मेरे बहुत सारे काम अधूरे रह गये। अब तो खुद को व्यवस्थित कर पाना ही मेरे लिए बड़ी चुनौती है। वैसे सच्चाई तो यह है कि हर सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है।

गुरुवार, 19 मई 2011

अरविन्द गौड़ को गुस्सा क्यों आता है?

कोलकाता के एक दोस्त ने उस मीठाई वाले की कहानी सुनाई थी। जो अपनी मीठाई की जरा सी शिकायत सुनकर गुस्से से भर जाता था। उस दूकान वाले को जानने वाले यह भली प्रकार से जानते थे, बोली में थोड़ा कड़कपन है लेकिन मीठाई में मिलावट नहीं करता। मिलावाट के अलावा उसकी मीठाई में दूसरे तरह की कमियां हो सकती थी, मसलन चीनी अधिक होना, खट्टापन आना। ईमानदारी से काम करने की वजह से उसकी मीठाई की कीमत स्वाभाविक है, दूसरे दुकानदारों से अधिक थी। उस दुकानदार ने जिस तरह अपनी ईमानदारी के साथ कभी समझौता नहीं किया और बाजार में मिलावटखोरों का दबाव होने के बावजूद वह ईमानदारी से बाजार में जमा रहा, यदि इस ईमानदारी के साथ उसने गुणवत्ता से भी समझौता नहीं किया होता तो शक नहीं कि फिर उसके काम की पूरे शहर में धाक होती।
15 तारिख की शाम श्रीराम सेन्टर में बगदाद के टीवी पत्रकार मुंतजिर अल जैदी की पुस्तक ‘द लास्ट सेल्यूट फॉर प्रसिडेन्ट बुश’ पर आधारित नाटक ‘द लास्ट सेल्यूट’ का प्रदर्शन था, मंडी हाउस में नाटक खत्म होने के बाद एक महिला के सवाल पर जिस तरह निर्देशक अरविन्द गौड़ ने प्रतिक्रिया की, उसे देखने के बाद कोलकाता के मीठाई वाले की कहानी याद हो आई। जो मीठाई वाला शुद्धता का पोषक, नेकनियत और ईमानदार था। गौड़ साहब के थिएटर के प्रति प्रतिबद्धता को कौन सेल्यूट नहीं करेगा? इस तरह उनसे दर्शकों की अपेक्षा का बढ़ जाना, अनायास नहीं था। अब आप ही कहिए, आप अरविन्द गौड़ द्वारा निर्देशित नाटक देखने जाएं और पूरी तैयारी में पटकथा से लेकर ध्वनि संयोजन तक में कई खामियां नजर आए तो हम जैसे आम दर्शक को भी लगता है कि यह और बेहतर हो सकता था। गौड़ साहब के प्रश्न आमंत्रित करने पर जब यही बात दर्शक दिर्घा से आई तो गौड़ साहब चुप कराने के अंदाज में थिएटर के लिए अपने समर्पण और त्याग की कहानी सुनाने लगे। जबकि जिन महिला ने सवाल पूछा था, वह लंबे समय से थिएटर से जुड़ी रहीं हैं। उनका थिएटर के प्रति समर्पण अरविन्द गौड़ से कम तो नहीं माना जा सकता।

जवाब में गौड़ साहब ने जो कहा, उनके कहने का कुल जमा लब्बोलुआब यही था कि उन्होंने बिना किसी सरकारी मदद के थिएटर को जिन्दा रखा है। चूंकि वे प्रतिबद्धता के साथ थिएटर के साथ जुड़े हैं, इसलिए किसी व्यक्ति का अधिकार नहीं बनता कि उनके काम की आलोचना करे! क्या दर्शकों से सवाल पूछने का आग्रह मात्र इसलिए था, कि लोग एक एक करके उठे और वाह गौड़ साहब वाह बोलकर बैठ जाएं।
द लास्ट सैल्यूट के एक दृश्य में मुंतजिर की प्रेमिका उनसे खुद को भूला देने की बात करती हैं। चूंकि उसकी शादी उसके चचेरे भाई से होने वाली है। क्या इस बिछड़ने की वजह सीया-सुन्नी वाला मसला है या फिर निर्देशक इशारों-इशारों में जूता फेंकने वाले प्रसंग को दिल टूटने से जोड़कर यह बताना चाहते हैं कि जूता प्रकरण की वजह अमेरिका द्वारा बरपाई गई तबाही से मुंतजीर के अंदर उपजी बुश के लिए बेपनाह नफरत मात्र नहीं थी। कुछ और भी था। द लास्ट सैल्यूट में बहूत शोर के बीच में मुंतजीर की कहानी की आत्मा कहीं खो गई थी।
यह बात भी समझना सबके बस की बात नहीं है कि जिस मुंतजिर की तुलना गौड़ साहब भगत सिंह से करते नहीं थक रहे थे, उस मुंतजिर ने अपना आदर्श महात्मा गांधी को बताया।
बहरहाल काम के प्रति अरविन्द गौड़ की प्रतिबद्धता को सलाम लेकिन महीनों लगकर संयम के साथ पारलेजी की बिस्किट और राव साहब के चाय के साथ गौड़ साहब रिहर्सल करते हैं। थोड़ा संयम रखकर यदि वे आलोचनाओं को भी सुन लें तो महेश भट्ट के शब्दों में ‘आलोचना के लिए उठे हाथ तराशने के भी काम आएंगे।’

सोमवार, 2 मई 2011

जंतर मंतर पर मजदूर मांग पत्रक आंदोलन



मजदूर मांग पत्रक आंदोलन के बैनर तले छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, पंजाब और दिल्ली से मजदूरों का एक बड़ा वर्ग दिल्ली के जंतर मंतर पर अपनी मांगों के साथ इकट्ठा हुआ। मजदूर दिवस के 125 वंे वर्ष पर इस आंदोलन का आगाज हुआ,





जिसकी खास बात यह है कि इसमें किसी खास राजनीतिक या गैर राजनीतिक दल/व्यक्ति के पास इसका नेतृत्व नहीं है।




इस जुटान के संयोजकों का कहना है कि इस आंदोलन में कई धारा के लोगों की भागीदारी है लेकिन वे इसे देश भर के मजदूरों के सांझा और एकजुट लड़ाई के तौर पर इसे आगे बढ़ाना चाहते हैं।



आंदोलन की प्रमुख मांगेः-



- काम के घंटे आठ करो
- जबरन ओवर टाइम बंद करो
- न्यूतम मजदूरी ग्यारह हजरा रुपए करो
- ठेका प्रथा खत्म करो




- कारखाना में सुरक्षा के पूरे हों इन्तजाम
- किसी भी प्रकार के दुर्घटना की स्थिति में मुआब्जे की रकम पूरी मिले



- स्त्री मजदूरों के साथ भेदभाव ना बरतों
- बाहर से आए प्रवासी मजदूरों का शोषण बंद करो



- सभी घरेलू और स्वतंत्र मजदूरों का पंजीकरण हो
- मालिकों की अंधेरगर्दी रोको



- श्रम विभाग के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाओ
- सभी श्रम कानून सख्ती से लागे हों

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम