सोमवार, 12 नवंबर 2007

तू बता कौन था खुसरो?

क्या आपने दिल्ली में अमीर खुसरो पार्क का बस पड़ाव देखा है। यह मथुरा रोड़ पर ओबेरॉय होटल और दिल्ली पब्लिक स्कूल के साथ में ही है। आज वहाँ से बस में गुजरना हुआ। ४२५ नम्बर की बस में मेरे साथ जो सज्जन बैठे थे, उन्होने बातचीत शुरू की।
दिल्ली की सरकार का दिमाग खराब हो गया है। यह अमीर खुसरो क्या होता है? यहाँ ओबेरॉय जैसा फाइव स्टार होटल है, डीपीएस है, इनको छोड़कर किसी खुसरो के नाम पर स्टैंड बना दिया इन्होने।
मैंने सिर्फ उनसे पूछा
'क्या आपने अमीर खुसरो का नाम नहीं सूना?'
'अरे भाई होगा कोई पार्षद इस इलाक़े का, मरा होगा तो बना दिया पार्क और एक बस स्टॉप उसके नाम पर। यही तो होता है इस देश में।'
'भाई आप बताओ कला की कोई क़द्र है कहीं इस देश में, कलाकार को कोई पूछने वाला नहीं।'
साथ वाले सज्जन बोलते-बोलते भावुक हो गय और मुझे उनकी बात सुनकर रोना आ रहा था। कला-कलाकार की बात करने वाला आदमी अमीर खोसरो को नहीं जनता।
मैंने हिम्मत करके कहा-
'भाई साहब खुसरो पार्षद नहीं थे।'
'तो विधायक होगा यहाँ का, क्या फर्क पड़ जाता है इससे।'
'नहीं वह विधायक भी नहीं थे।'
इस बार उन सज्जन ने मुझे खा जाने वाली निगाहों से देखा,
'तो कोई प्रधानमंत्री था, तू बता कौन था खुसरो?'

मुझे लगा इनसे अब बात करना ठीक नहीं है। जितनी बड़ी-बड़ी बात वे बस में बैठ कर, कर रहे थे, शायद वह उतने सवेंदनशील थे नहीं।

वह कहते हैं ना-
गुफ्तगू से होता है सख्सियत का अंदाजा,
कि कितना उथला पानी है और कितना गहरा है दरिया।

खैर क्या आपको पता है यह खुसरो कौन था, अगर पता है तो-

तू बता कौन था खुसरो?

बुधवार, 7 नवंबर 2007

पत्रकारिता के एक छात्र का दर्द

उसका नाम आदेश है, दिल्ली विश्वविद्यालय के खालसा कॉलेज से उसने पत्रकारिता की पढाई पूरी की है। इन दिनों वह नौकरी की तलाश में है।
'भाई दो-चार हजार की नौकरी भी कर लूंगा।'
सपने बडे नहीं है उसके मगर वह पत्रकारिता करना चाहता है, मीडिया में कहीं नौकरी चाहता है। वह खुद कहता है, आज से ४ साल पहले जब उसने कॉलेज में दाखिला लिया था, उस वक़्त मानों सारी दुनिया उसकी जेब में थी। उसे लगता था, जिस दिन उसने कॉलेज छोडा, उसी दिन आज तक वाले उसे अपने साथ ले जायेगे और दीपक चौरसिया या आई बी एन सेवेन में उसे राजदीप सरदेसाई की जगह बिठा दिया जायेगा। लेकिन आज हालत यह है कि आदेश को टोटल, आजाद, साधना, जैन और सुदर्शन चॅनल के भी चक्कर काटने पड़ रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि वहाँ भी जगह नहीं है, जगह है भी तो इन्टर्न वालों के लिय अर्थात बेगार करने वालों के लिय।
यह सिर्फ एक आदेश की कहानी नहीं है, भारत भर में ना जाने कितने आदेश होंगे। आदेश कहता है, 'भाई अब हम तो किसी काम के नहीं रह गय, पत्रकारिता में कोई काम हमारे लिय है नहीं और बाहर वाले काम देते नहीं। सब यही कहते हैं, इतना अच्छा कोर्स किया है, अच्छी नौकरी करो। अब भाई मैं क्या करू?'

आप चाहे तो आदेश से बात कर सकते हैं, उसकी कोई मदद कर सकते हैं - 09899040183

मंगलवार, 6 नवंबर 2007

यह हंसराज वकील कौन है?

यदि लाल किले के सामने से बस में बैठ कर आप कभी गुजरे हों, और आप हंसराज वकील का नाम नहीं जानते हों। इसकी संभावना कम है। इस वकील के नाम पर लाल किले के सामने छोटी-छोटी बच्चियां आने-जाने वालों से पैसों की वसूली करती हैं। इन बच्चियों को भिखारी कहना गलत है, वास्तव में हालात को देखकर लगता है कि यह मजदूर हैं, जो किसी खास व्यक्ति के लिय यह काम करती हैं, दुःख की बात सिर्फ इतनी है कि यह सारा काम वह लाल किले के सामने खडे होकर करती हैं। और वहाँ पुलिस-प्रशासन का इतना इंतजाम है, मगर इस बात पर आज तक किसी की नजर न गई हो यह बात मानने वाली नहीं है। जिस हंसराज वकील के नाम से बच्चियां पैसा वसूलती हैं, क्या पुलिस ने कभी यह जानने की कोशिश कि यह हंसराज कौन है, जो पिछ्ले ना जाने कितने वर्षों से से छोटी बच्चियों को भीख मांगने की चिट्ठी बाँट रहा है। यदि आपने यह चीट्ठी नहीं पढी, और पढ़ना चाहते हैं तो एक बार बस से लाल किले की तरफ यात्रा पर निकल जाइय जनाब।

भगवान का इस्तेमाल

आज सोचा एक बात आपके साथ बाँटीं जाय जो आपके लिय हो सकता है नई नहीं हो, पर किसी ने इस विषय पर लिखने की जरूरत नहीं समझी। आपने देखा होगा राजधानी की दीवारों पर लगे भगवान के पोस्टर, जो किसी भक्ति भाव से नहीं लगाय जाते, इसके लगाए जाने का कारण है वे लोग जो यहाँ-वहां कहीं भी शू-शू करने से नहीं हिचकते। अब किसी को इस नेक काम से बचाने के लिय भगवान् का जो इस्तेमाल दिल्ली वाले कर रहे हैं, और शायद बाहर वाले भी, इस संबंध में आपका क्या ख्याल है? क्या इसे किसी भी तरह ठीक कहा जा सकता है, क्या ऐसे लोगों पर कानूनी कार्यवाही नहीं की जानी चाहिय?

शनिवार, 3 नवंबर 2007

लघु पत्रिका सम्मेलन - एक प्रेरक प्रसंग

दिल्ली में इन दिनों लघु पत्रिका सम्मेलन चल रहा है, इसमे आय थे, नवारून भट्टाचार्य। महाश्वेता देवी के पुत्र नवारून बांग्ला साहित्य पत्रिका 'भाषा बन्धन' के संपादक हैं। जब वह मंच पर आय तो कहा कि 'मेरी हिन्दी अच्छी नहीं है, इसलिय अंगरेजी में बोलना चाहता हूँ।' इसके लिय पीछे बैठे रामशरण जोशी की टिप्पणी काबिलेगौर थी, उन्होने कहा कि 'आप बांग्ला में बोलिय, हम उसका हिंदी अनुवाद करा लेंगे।' हुआ भी यही वह बांग्ला में बोलते रहे, साथ-साथ उनकी बात का हिन्दी अनुवाद भी हुआ। वह बांग्ला बोलते-बोलते कब हिन्दी में बोलने लगे, शायद इसका एहसास उन्हें भी नही हुआ हो।

गुरुवार, 1 नवंबर 2007

जे.एन.यू. में जय-जय श्री राम

कल की बात है, जे.एन.यू. में चुनाव को लेकर प्रतिवर्ष होने वाले प्रेसीडेंसियल डीबेट में पहली बार चप्पल और जूते चले। मामला था राम का, एक चुनाव प्रत्यासी अपने एक मित्र के सवाल का जवाब देने में अतिउत्साह में आकर वह बोल गय, जो उन्हें नही बोलना चाहिय था, सवाल था राम को लेकर आपका संगठन क्या सोचता है? जवाब आया - राम भगवान् तो क्या शैतान से भी बडे थे। बस जनाब का इतना कहना। हर तरफ जय श्री राम के नारे लगने लगे। श्री राम के लिय अपशब्द बोलने वाले जनाब को अपनी गलती का अंदाजा हो गया था, उनके लिय मंच पर चप्पल और जूते लगातार आ रहे थे, उन्हें जल्दी ही मंच से उतार दिया गया। हालात को देख कर महिला प्रत्यासी इतनी घबरा गई कि उन्हें चक्कर आ गया और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। यह सब इस शिक्षण संस्थान के इतिहास में पहली बार हुआ।
है शर्म की बात।
उससे अधीक शर्म की बात यह कि हंगामा करने वाले अधिक् छात्र बाहर से थे, एक सज्जन ने बताया कि भाई देख कर यू लग रहा है कि मंच को यह उत्पात करने वाले बाबरी मस्जिद समझ कर गीरा रहे है।
खैर, बोलने वाले ने श्री राम के लिय अपशब्द बोलकर गलत किया ही। लेकिन उनके तथाकथित अनुयाइयों ने तोड़-फोड़ करके कौन से राम का मान रखा है। उलट जे.एन. यू. की परम्परा को धक्का लगाया है। हर तरफ एक ही आवाज आ रही थी कि इस बार हो सकता है पहली बार यहाँ चुनाव पुलिस की निगारानी में होंगे। छात्र दुखी थे, फिर क्या फर्क रह जायेगा हमारे और दिल्ली विवि के चुनाव में।

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम