शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

क्या तुम्हें मुसलमानों के बीच में जाते हुए डर नहीं लगता?

कल संत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर एक साथी के साथ जाना हुआ.
साथी ने अन्दर जाते हुए एक सवाल पूछा- 'क्या तुम्हें मुसलमानों के बीच में जाते हुए डर नहीं लगता?' अजीब तरह का सवाल था, उनसे इस तरह के सवाल की उम्मीद नहीं थी.
मैं देर तक हंसता रहा. उन्हें शायद अपने अजीब तरह के सवाल का इल्म हो गया था.
'नहीं आशीष, पूरी दुनिया में इस समय इस तरह का माहौल बन गया है कि सारे गलत कामों में मुसलमान शामिल हैं. मैं सिर्फ तुम्हारी राय जानना चाहता हूँ.'
सवाल का जवाब इतना आसान नहीं था. मेरा जवाब 'मैं इस तरह की राय नहीं रखता.' बिल्कुल इस सवाल के साथ न्याय नहीं था. साथी के सवाल पर आपकी क्या राय है, जरूर बताएं.

20 टिप्‍पणियां:

संजय बेंगाणी ने कहा…

थोड़ा अजिब सा लगेगा मगर यह सच है कि मेरी बहन सारा शहर घूम लेती है, मगर मुस्लिम बस्ती में जाते हुए घबराती है.

Unknown ने कहा…

सबसे पहले फोटो पर टिप्पडी | कुछ दिन पहले अमर सिंह ऐसा ही टोपी पहन कर कैमरा के सामने कूद रहे थे | कभी धोती पहन मंदिर में पूजा करते फोटो भी डाला जाये | आपके दोस्त की टिप्पडी वाकई अजूबा नहीं है | इसके लिए अब मोदी अडवाणी को तो दोषी नहीं ही ठहराया जा सकता है :)

अनुनाद सिंह ने कहा…

किसी की छवि कोई एक दिन या एक घण्ते में नहीं बनती। यह सदियों के कारनामों के औसत के रूप में समाज के सामने आता है। यह एक सांख्यिकीय सत्य है। यह उतना ही सत्य है जितना यह कहना कि सावन में खूब वर्षा होती है। (कभी कभार सूछा हो जाय इससे इस बात की सत्यता कम नहींहो जाती)

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

जो हर मुसलमान को आतंकी मानते हैं वे ही सब से अधिक डरते हैं।

विवेक रस्तोगी ने कहा…

बात तो सही है कि मुस्लमान बस्तियों में जाने पर ऐसा अहसास होता है कि ये लोग हिन्दुओं को पसंद नहीं करते, अगर कोई मेरी बात से सहमत न हो तो कृप्या पुरानी मुस्लिम बस्ती में जाये और फ़िर बताये।

P.N. Subramanian ने कहा…

आम आदमी और आतंकी में फर्क है. हर मुसलमान आतंकी नहीं है. हम लोग कई सालों से उनके साथ जी रहे हैं. आजकल की स्थितियां बदल गयीं हैं. अब हमें हर मुसलमान आतंकी दिखने लगा है. क्या हम जिमेदार हैं या वे जो उन आतंकियों को पनाह दे रहे हैं.

संजय बेंगाणी ने कहा…

दिनेशरायजी, मान्यताएं अनुभवों के आधार पर बनती है.

Prashant Dubey ने कहा…

आशीष भाई
दरअसल मैं कुछ चीजें एईसी होती है जिन्हें लोग केवल बातों मैं ही सच मान लेते लेते हैं और फिर फैलान शुरू करते हैं |
अभी नए भोपाल मैं कुछ एइसा ही शगल चल रहा है कि आप यदि मुसलमान हो तो मकान नहीं मिलेगा आपको किराये से | नयी बन रही कालोनी मैं भी आपको मकान नहीं मिलेगा यदि आप मुसलमान हो | समझ नहीं आता कि ये कौन सी संस्कृति जनम ले रही है |

mehek ने कहा…

sab to insaan hai ,ye hindu musalman kaha se aa gaya,hum is baat se sehmat nahi,aatanki ka koi majhab nahi hota,wo bas insaaniyat ka dushman hota hai.amen.darr bas mann ka khel hai.

बेनामी ने कहा…

मैं यहाँ किसी बहस में नहीं पड़ना चाहता.. और मैं इस बात का जवाब इसलिए नहीं दे रहा की मैं मुसलमान हूँ.... पर कुछ है जो साफ़ करना जरूरी समझता हूँ.....


एक शब्द है "धारणा". बचपन में जब बच्चा ये सवाल करता है कि "माँ, मैं कहाँ से आया?" तो उसकी माँ या दादी-नानी उससे ये कहती कि बेटा तुझे तो एक परी दे कर गयी थी. बच्चा इस बात को ही सच मानने लग जाता है. जैसे जैसे वो बड़ा होता है और उसे सच्चाई का पता लगना शुरू होता है तो बचपन की वो परी उसके मन में दुविधा पैदा करती है पर अंततः वो समझ जाता है.

ठीक यही बात यहाँ भी है. हमारे मन में अब भी ये धारणा है कि मुसलमान तो ग़दर फिल्म के अमरीश पूरी की तरह ही होता है. और रही सही कसर आतंक और आतंकवादियों ने पूरी कर दी.

हमें बड़े होने में अभी समय लगेगा.

कपिल ने कहा…

संजय भाई, अनुभव कम नहीं हैं — गोडसे, कटियार, योगी, ऋतंभरा, उमा, मोदी, प्रज्ञा, पुरोहित, कानपुर के राजीव मिश्रा और वरुण भी मान्‍यताएं बनाते हैं। क्‍या नहीं?

Pushpendra Paliwal ने कहा…

Disputed lekin satya hai " dar lagta hai".

ghughutibasuti ने कहा…

मेरे पास तो न ही अच्छे बुरे इस विषय में अनुभव हैं न ही इस बात का उत्तर। शायद जिसे नहीं जानते उसका भय भी होता है। छवि बिगड़ी है इसमें कोई शंका नहीं। परन्तु यह भी सच है कि यदि अंधेरे में कोई गाड़ी रोक दे या रास्ता रोक दे तो शायद उसका धर्म क्या है यह विचार मन में नहीं आएगा बल्कि उसकी मंशा क्या है का विचार आएगा।
घुघूती बासूती

मसिजीवी ने कहा…

अनुभव इतनी निर्दोष चीज भी नहीं है, बहुत बार हम वही अनुभव करते हैं (या कहें कि उन्ही अनुभवों को दर्ज करते हैं) जो हमारी मान्‍यताओं के अनूरूप होते हैं।

हमारे विद्यार्थियों की अन्‍य कॉलेजों की तुलना में मुस्लिम अधिक होते हैं, कई बार तो क्‍लास ही 'मुस्लिम बस्‍ती' होती है पर नही हमें क्‍लास में जाने में डर नही लगता। इसका मतलब ये भी नहीं कि इस तरह की धारणाओं के कोई आधार नही... एक बड़ा आधार तो 'घेटो सिंड्राम' के चलते जो खुद असुरक्षा से जन्‍मता है- इन बस्तियों (और जिंदगियों) का आर्किटेक्‍चर है जो एक किस्म का भय पैदा करता है।

फिर भी हमारा मानना है, यही हमारा अनुभव भी है कि जितना ज्‍यादा हम दूसरे समुदायों को जानेंगे हमारे भ्रम दूर ही होंगे।

Himanshu Dabral ने कहा…

डर तो नही लेकिन झिझक जरुर महसूस होती है, परन्तु कुछ धारणा एसी बनी है की लोग मुसलमानों के बीच में जाने से डरते है | अगर ज्यादातर गलत कामों में मुसलमान शामिल हैं तों मेरा कहना यह है की दूध का जला छाछ भी फूक फूक के पीता है |

Himanshu Dabral ने कहा…

डर तो नही लेकिन झिझक जरुर महसूस होती है, परन्तु कुछ धारणा एसी बनी है की लोग मुसलमानों के बीच में जाने से डरते है | अगर ज्यादातर गलत कामों में मुसलमान शामिल हैं तों मेरा कहना यह है की दूध का जला छाछ भी फूक फूक के पीता है |

NILAMBUJ ने कहा…

जो भी ये बात कहता है वो और कुछ भी हो साथी तो नहीं हो सकता. भोजपुरी मे एक शब्द है -- 'संघतिया' जो दोस्त के अर्थ मे भी प्रयुक्त होता है. इसका विश्लेषण "संग रह कर घात लगाने वाला" भी मेरे एक दोस्त रणजीत किया करते थे. तो ये महोदय वही संघतिया होंगे, साथी नहीं.

ख्वाजा मेरे ख्वाजा, दिल मे समां जा
ऐसे लोगो को राह तू दिखा जा

सुरेश यादव ने कहा…

यह सवाल निजी था अच्छा होता निजी रहता . फिरभी सच यह है की ऐसी धारणाएं विवेकपूर्ण परिक्षण के आभाव के फलस्वरूप भी होती हैं यदि हम अनुभव को सत्य के सर्वाधिक निकट मानें तो ऐसी बहुत सी गैर मुस्लिम बस्तियन भी होती हैं जहाँ जाने में किसी को दर लग सकता है

kamlesh yadav ने कहा…

mai roj waha se gujrta hu dost mujhe to kabhi dar nahi laga.100muslim me se 2 galat hote hai iska matlab ye nahi ki sab pe shak kiya jaye.mere kai muslim dost hai jo kisi bhi hindu dost se kam nahi.sab kuchh insan ki soch per nirbhar hai..

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

आपके भ्रमों का निवारण हो जायेगा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश का दौरा कर देखिये. कुछ पाखंड ऐसे होते हैं जो आसानी से दूर नहीं होते. अहं ब्रहास्मि पढी़ होगी. बाकी तालिबान का उदाहरण आपके सामने है. मुस्लिमों की आधिकारिक गणना चालीस प्रतिशत तक पहुंचने दीजिये, आपको खुद-ब-खुद समझ आ जायेगा, पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम