बुधवार, 31 मार्च 2010

कोई बोली ना रह जाए 'अनबोली'



क्या हुआ अगर एक भाषा खत्म हो गई
वह अपने झूठ और सच के साथ दफन हो गई,
शब्द नहीं रहे, दुनिया बढ़ती रही
बोआ की दुनिया की खातिर,
कहीं कोई नहीं रोया।’

बाबुई और अर्जून जाना की यह कविता उस 85 वर्षिय अंदमानी महिला बोआ को समर्पित है जो अंदमान में बोली जाने वाली दस भाषाओं में से एक बो भाषा की अन्तिम जानकार थीं। इसी वर्ष 26 जनवरी को उनकी मृत्यु के साथ मानव सभ्यता की 65000 साल पुरानी संस्कृति का ज्ञान भी चला गया। भाषा वैज्ञानिकों के पास इस भाषा से जुड़े तमाम अनुसंधान तो हैं लेकिन उसे संवाद के स्तर पर लाने वाली अन्तिम माध्यम अब हमारे बीच नहीं रही।
यहां बोआ को याद करने की एक खास वजह यह है कि 8 और 9 मार्च को गुजरात के बड़ोदरा में 320 भाषा-बोलियों के प्रतिनिधि के नाते 650 वक्ता भाषा शोध एवं प्रकाशन केन्द्र के द्वारा आयोजित ‘भारत भाषा संगम’ में एक साथ इकट्ठे हुए। भाषा के स्तर पर इतनी विविधता के बीच जो एक बात बार-बार ध्वनित हो रही थी, वह यह कि भाषा हमारे बीच सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं है। बल्कि यह हमारी संस्कृति और सभ्यता का वाहक भी है। संवाद के स्तर पर अपने बोलने वालों के खत्म होने के साथ सिर्फ भाषा खत्म नहीं होती बल्कि एक पूरी संस्कृति उसके साथ खत्म हो जाती है।
प्रसिद्ध भाषाविद और सेन्ट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ इंडियन लैन्गवेजेज के संस्थापक निदेशक डीपी पटनायक के अनुसार सभी भारतीय भाषाओं के लिए यह खतरे की घड़ी है। ना सिर्फ कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली या आदिवासियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा/बोली बल्कि हिन्दी जैसी बड़ी भाषाएं भी इस संकट से बाहर नहीं है। श्री पटनायक के अनुसार हमलोग गवाह बने हैं, अंग्रेजी जैसी भाषा की उन्नति के। आज अंग्रेजी भारत के सबसे अधिक बोली जाने वाली 35 भाषाओं में एक है। अंग्रेजी की यह उन्नति अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के लिए घातक साबित हो रही हैं, वहीं दूसरी तरफ जिन बोलियों और भाषाओं को बोलने वाले कम लोग हैं, उनके लिए अंग्रेजी दूगुनी घातक साबित हुई है।
भाषा का महत्व एक व्यक्ति के जीवन में क्या होता है, इसकी एक मिशाल सोमानी कुरोसी है। जो बुडापेस्ट के पास के एक गांव से अपनी भाषा, बोली, संस्कृति को ढूंढ़ता हुआ अपने पूर्वजो के गांव भारत आया था। कोलकाता, तीब्बत की उसने खाक छानी और यात्रा के दौरान ही उसकी मृत्यु दार्जलिंग में हुई। एक दूसरा उदाहरण ‘द इंडिजेनस लेप्चा ट्राइबल एसोसिएशन’ का है। जो लेप्चा भाषा की सरकारी उपेक्षा के बाद, अपनी संस्कृति से कट रहे लेप्चा बच्चों को अपनी मातृभूमि और मातृभाषा से जोड़ने के लिए बनी। आज यह संगठन आपसी मदद से 40 रात्रि स्कूल चला रहा है। 18 महीने के पाठ्यक्रम में लेप्चा बच्चों को यहां अपनी भाषा, पारंपरिक नृत्य, पारंपरिक वाद्य यंत्र, लोक कथाएं और लोकगीत से परिचय कराया जाता है। इसके लिए प्रतिदिन दो घंटे का समय बच्चों को स्कूल से अलग देना होता है। ऐसोसिएशन के संयुक्त सचिव एनटी लेप्चा के अनुसार- कलिमपोंग, दार्जलिंग, मिरिक, सोनाडा के अलावा दिल्ली में भी उनके केन्द्र चल रहे हैं। वे पश्चिम बंगाल सरकार से खुश नहीं हैं, जो उनपर बांग्ला भाषा जबरन थोप रही है। उन्हें बांग्ला से परहेज नहीं हैं, लेकिन वे चाहते हैं कि उनके बच्चे लेप्चा भाषा भी स्कूल में सीखें। जिससे नई पीढ़ी के युवा लेप्चा कटते जा रहे हैं।
दुनिया के 16 फीसदी आबादी वाले हमारे देश में 1961 की गणना अभिलेख के आधार पर कुल 1652 मातृभाषाएं हैं, जिनमें 103 विदेशी मातृभाषाएं हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में दुनिया भर में बोली जाने वाली लगभग 8000 भाषाओं में लगभग 90 फीसदी भाषाएं 2050 तक विलुप्त होने की कगार पर होंगी। भाषा को लेकर बड़ोदरा में हुए भाषा कुंभ में जिस प्रकार एक-एक कर देश भर से आए प्रतिनिधि अपनी बात रख रहे थे, उससे देश भर में भाषायी स्थिति की भयावहता का थोड़ा अंदाजा लग ही रहा था।
इस पूरे कार्यक्रम को समाजसेवी महाश्वेता देवी और गांधीवादी नारायण भाई देसाई का सान्निध्य प्राप्त हुआ। कार्यक्रम के लेकर नारायण भाई ने कहा कि इस कार्यक्रम में भारत और इंडिया का अंतर कम से कम दिखा। भाषा के स्तर पर जिस प्रकार का लोकतांत्रिक माहौल पूरे कार्यक्रम में दिखा उसे लेकर नारायण भाई ने यह टिप्पणी की। किसी पर भी किसी खास भाषा में अपनी बात को कहने का दबाव नहीं था। सबने खुलकर अपनी-अपनी बात रखी। यह सच है कि जिन लोगों ने अपनी बात हिन्दी में कही उनकी बात को अधिक सुना गया। चूंकि हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी हिन्दी ही समझती है। वे लोग भी इसे समझते है, जो ठीक से बोल नहीं पाते। महाश्वेता देवी ने भी अपनी बात हिन्दी-अंग्रेजी में रखी। भाषा शोध एवं अध्ययन केन्द्र के संस्थापक प्रोफेसर गणेश देवी ने कहा कि हमने इस कार्यक्रम को भाषा स्वाभिमान नाम नहीं दिया। यह भाषा संगम है। संगम माने जहां सभी आकर मिले। लेकिन यह मिलन विलीन होने के लिए नहीं है, बल्कि आगे बढ़ने के लिए है।
इस पूरे आयोजन में कई-कई बार भाषा आधारित सर्वेक्षण की बात उठी। हमारे पास इस समय सही-सही आंकड़े नहीं हैं कि कितनी भाषा और बोलियों को बोलने वाले लोग भारत में बसते हैं। जो भी दावे है, वे सब सिर्फ अनुमान आधारित ही हैं। दस हजार से कम जिन भाषा/बोलियों को बोलने वाले लोग बचे हैं, उनकी तो कहीं गिनती भी नहीं है। भाषा सर्वेक्षण के लिए जो लोग भी जाएं उनके प्रशिक्षण कार्य भी ठीक प्रकार से हो।
भाषा वन को इस पूरे आयोजन की उपलब्धि ही कहा जाएगा, जिसमें देशभर से भाषा प्रतिनिधियों ने अपनी-अपनी भाषा के नाम पर एक वृक्ष लगाया। इस प्रकार लगभग 650 पौधे भाषा वन लगाए गए। हर एक पेड़ किसी ना किसी भाषा का प्रतिनिधित्व करता है। अब आने वाले समय में यही देखना है कि ‘भाषा शोध एवं प्रकाशन केन्द्र’ ‘अंग्रेजी’ की ‘ग्लोबल वार्मिंग’ इस भाषा वन को बचा पाता है या नहीं?
(इसे आप 'विस्फोट' पर भी पढ़ सकते हैं)

3 टिप्‍पणियां:

पंकज झा. ने कहा…

काश कभी अंग्रेज़ी भाषा "बों" जैसे समाप्त हो जाती....! "बों" तो निश्चित रूप से जिंदगी के लिए जद्दोजहद करते रहने वाली कौम की भाषा थी..उसको तो ज़रूर रहना चाहिए था ...हाँ अगर अंग्रेज़ी के लुप्त हो जाने का सौभाग्य कभी मानवता को मिला तो ज़रूर कुछ रक्त रंजित चीज़ों से समाज को आज़ाद महसूस करेगा....!

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

@ पंकज झा
हमें यह कामना करनी चाहिए
कि हिन्‍दी खूब विकसित हो
परन्‍तु कोई भाषा समाप्‍त हो जाए
यह हमें नहीं चाहना चाहिए
जैसे गौरेया समाप्‍त हो रही हैं
तो उसका कुअसर मानवजीवन पर भी पड़ रहा है
इसी प्रकार अंग्रेजी या किसी अन्‍य भाषा के जाने के असर से
हिन्‍दी या अन्‍य भाषाओं को भी नुकसान तो होगा ही
इससे आप यह न समझें कि
मैं अंग्रेजी का हिमायती हूं
या हिन्‍दी की कम हिमायत कर रहा हूं
पर जो असलियत है
उससे आंखें नहीं मूंद रहा हूं।

अंशु के द्वारा साझा की गई जानकारी के लिए उनका आभारी हूं।

बलराम अग्रवाल ने कहा…

मेरे लिए एकदम नई जानकारी देने वाला दमदार लेख। भाषाओं और बोलियों को बचाए जाने के प्रति जो भी लोग कार्यरत हैं उनके प्रति मेरा नमन। आपको जानकारी देने हेतु धन्यवाद।
टिप्पणी में अविनाशजी की टिप्पणी अनुकरणीय है। भाषाएँ और बोलियाँ संरक्षण चाहती हैं--अंधानुकरण अथवा घृणा नहीं।

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम