मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

साहित्य बनाम मंच की कविता

मंचिय और गैर मंचिय कवियों के बीच एक अघोषित लकीर हमेशा से रही है। कभी कभी यह लकीर जरुर थोड़ी गहरी हो जाती है। जिससे इस भेद को बाहर का समाज भी समझने लगता है। मंचिय और गैर मंचिय लोगों के बीच होने वाले इस भेद भाव की कीमत ही आज कानपुर के प्रमोद तिवारी और दिल्ली के विनय विश्वास जैसे कवि चुका रहे हैं। वरना इनकी कविताओं पर भी अकादमिक चर्चा हो सकती थी। विश्वास बताते हैं, मंचिय और गैर मंचिय या साहित्यिक और गैर साहित्यिक जैसे लकीर का कोई अर्थ नहीं है। मंच की कविता साहित्यिक पत्रिकाओं में सराही जा सकती है। सात्यिक पत्रिकाओं में छपने वाले कवियों की कविताएं मंच की वाह-वाही लूट सकती हैं। विश्वास ने अपने स्तर पर एक प्रयास भी किया है। वे मंच से राजेश जोशी, हेमंत कुकरेती, बद्रीनारायण की पंक्तियों को समय समय पर अपनी प्रस्तुति में जोड़ते हैं। खास बात यह कि साहित्यिक कवि माने जाने वाले राजेश जोशी, बद्रीनारायण की कविताओं को मंच पर उद्धृत करने पर श्रोताओं की तरफ से कई-कई बार ‘एक बार फिर’ (वन्स मोर) का आग्रह भी आया।
यदि साहित्यिक पत्रिकाओं के पास अरुण कमल, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, केदारनाथ सिंह, इब्बार रब्बी जैसे कवि हैं तो कविता के दूसरे पलड़े अर्थात मंच पर भी गोपाल दास नीरज, सोम ठाकुर, बाल कवि बैरागी, उदय प्रताप सिंह, सुरेन्द्र शर्मा, अशोक चक्रधर जैसे हस्ताक्षर मौजूद हैं। अब मंच और साहित्यिक कविता के दो पलड़ों में कौन सा पलड़ा भारी है, यह कहना मंचिय कविता को कम करके आंकनेे वालों के लिए भी मुश्किल होगा।
वरिष्ठ हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा कहते हैं, मंच का कवि होना, पत्रिकाओं में कविता लिखने से अधिक चुनौतिपूर्ण हैं। चूंकि साहित्य की कविता का पाठक एक खास तरह का पाठक वर्ग होता है। मंच की कविता सुनने वालों में कुली से लेकर कलेक्टर तक मौजूद होते हैं। अब आपको कुछ ऐसा सुनाना है, जो दोनों के समझ में आए और दोनों उसकी सराहना किए बिना ना रह पाएं।
शर्माजी गंभीर साहित्यिक कविताओं पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, उस कविता का क्या पर्याय जो जिस शोषित समाज के लिए लिखी जाए, उस समाज के समझ में ही ना आए।



शर्माजी एक कविता का हवाला देते हैं,

‘एक कवि ने पसीना बहाने वालों पर कविता लिखी,
पसीना बहाने वालों को समझ में नहीं आई,
मुझे समझने में पसीने आ गए।’

मंच पर कवि अपनी रचना के साथ श्रोताओं के सामने होता है। इस तरह श्रोता कवि के सामने अपनी नाराजगी या खुशी प्रकट कर देता है। कविता पर तालियों की गड़गडाहट होती है या फिर कवि हूट हेाते हैं। जो भी अंजाम होना है, सरेआम होता है। यह मंचिय कविता का ही जादू है, जो श्रोता अपने प्रिय कवि को सुनने के लिए पूरी पूरी रात कवि सम्मेलनों में बैठा रह जाता हैं। गोपाल दास नीरज के लिए मशहूर है कि उनकी महफिल में जो बैठ गया, कार्यक्रम खत्म होने तक वह उठकर नहीं जा पाया। दूसरी तरफ साहित्यिक कविता के पाठकों के पास त्वरित प्रतिक्रिया का कोई विकल्प नहीं होता। पाठकों के सामने संपादकजी ने जो परोस दिया, उसे पढ़ना पड़ता है।



बात मंच के जादू की करें तो जनवरी महीने में होने वाले गणतंत्र दिवस लाल किले के कवि सम्मेलन में रात दस से सुबह तीन चार बजे तक ठीठुरति ठंड में भी कविता सुनने के लिए हजारों की संख्या में श्रोता बैठे होते हैं। क्या शालीनता के साथ चलने वाला कोई दूसरा आयोजन है, जो इतनी बड़ी संख्या मंे लोगों को अपने साथ कड़ाके की ठंड में पूरी रात बांध कर रखे।



उम्मीद है, मंचिय और गैर मंचिय कवियों के बीच जो शरहद बनी है, उसे आने वाले समय मंे दोनों तरफ के कवि ही ‘फिजूल’ साबित करेंगे। फिर निर्बाध दोनांे तरफ के कवि एक दूसरे की सीमा में आ जा सकेंगे।

12 टिप्‍पणियां:

पूर्णिमा वर्मन ने कहा…

सही लिखा है आशीष।

अशोक चक्रधर ने कहा…

अपनी हसरत है ये आसान सी बात,काश उनकी समझ में आ जाए।

सुनील गज्जाणी ने कहा…

अंशु भाई
नमस्कार !
सटीक लिखा है आप ने . दर्द सह कर लिखा जाए तो लिखा समझ नहीं आया है .
सादर

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

बिलकुल सही बात है| आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने कविता की परिभाषा में लिखा है ,'कविता भावुक ह्रदय की सहजतम अभिव्यक्ति है |' अब सहजतम का मतलब यही तो हुआ कि जो सबकी समझ में आये |

मंचीय और गैरमंचीय रचनाकारों के बीच कोई भेद समझ से परे ही है | दोनों की रचनाएँ लोकोन्मुख होती हैं तो साहित्य का उद्देश्य भी यही है | पूर्व में इसका अभूतपूर्व उदाहरण हैं - सुश्री महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान | दोनों कवियित्रियों में गहरी मित्रता थी | जहाँ महादेवी जी लगभग गैरमंचीय थीं वहीँ सुभद्रा जी मंचों की अत्यंत लोकप्रिय थीं | दोनों का अपना-अपना रचना संसार है जो हिंदी साहित्य की अनमोल निधि है |

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

बिलकुल सही बात है| आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने कविता की परिभाषा में लिखा है ,'कविता भावुक ह्रदय की सहजतम अभिव्यक्ति है |' अब सहजतम का मतलब यही तो हुआ कि जो सबकी समझ में आये |

मंचीय और गैरमंचीय रचनाकारों के बीच कोई भेद समझ से परे ही है | दोनों की रचनाएँ लोकोन्मुख होती हैं तो साहित्य का उद्देश्य भी यही है | पूर्व में इसका अभूतपूर्व उदाहरण हैं - सुश्री महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान | दोनों कवियित्रियों में गहरी मित्रता थी | जहाँ महादेवी जी लगभग गैरमंचीय थीं वहीँ सुभद्रा जी मंचों की अत्यंत लोकप्रिय थीं | दोनों का अपना-अपना रचना संसार है जो हिंदी साहित्य की अनमोल निधि है |

shahroz ने कहा…

mauzun sawal uthaya hai bhai aapne!! bahas ki mang hai

Udan Tashtari ने कहा…

एक उम्दा आलेख...किसी की भी महत्ता कमतर नहीं है बस, जरुरत इस बात को समझने की है कि कविता को मंच से पढ़ते वक्त उसे कविता ही रहने दिया जाये....वरना, श्रोताओं को लुभाने के लिए जिस तरह कविता के नाम पर फुहड़ हास्य परोसा जा रहा है, उसने ही इस तरह की लकीरबंदी की बात को जोर पकड़वाया है.

बेनामी ने कहा…

you are right at some places Ashish, but multitude of modern Hindi Manchiya poets are not apparaised even by poets like Surendra Ji, Ashok Ji and some other genuine poets. I don't want to say that the entire line is not doing justice with the poetry but most of them are just making mokery of the poetry. What the hell is going on kawi sammellans? would you justify the poem like " Bihar Ke Mukhyamantru Laloo/ Das bachchhe ho gaye fir bhi machine hai Chaloo?"" Isn't it vulgarity on the name of poetry?
I would like to share my posts about kavi sammellans in my blog. please do visit "www.vyangyavagairah.blog.in' and convey your views to me.
Regards
atul kanakk

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

मंचीय कवियों में आपने जो नाम गिनाए हैं, वे साहित्य के क्षेत्र में भी अपना स्थान रखते है। कई ऐसे मंचीय कवि हैं जो मंच पर चुटकुलेबाज़ी करके निकल जाते है। यद्यपि हास्य-व्यंग्य भी साहित्य का हिस्सा है, पर यदि इसमें फूहड़ता आ जाए तो व इसे परिधि के बाहर समझा जाएगा:)

Patali-The-Village ने कहा…

सटीक लिखा है आप ने|

Girish Kumar Billore ने कहा…

आशीष भाइ दमदार आलेख मज़ा गया

Unknown ने कहा…

एकदम सही कहा आपने ...........

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम