जुलाई 2013 में एक खबर आई थी कि राजेन्द्र यादव की प्रिय लेखिका ज्योति कुमारी ने ‘हंस’ का बहिष्कार किया है। सितम्बर के संपादकीय में ज्योति को लेकर श्री यादव का अनर्गल प्रलाप छपा। अक्टूबर संपादकीय में उन्होंने अपनी गलती के लिए युवा लेखिका से क्षमा मांग ली। राजेन्द्र यादव और हंस के बहिष्कार को लेकर आशीष कुमार ‘अंशु’ ने ज्योति कुमारी से लंबी बातचीत की। ज्योति ने विस्तार से पूरी कहानी बयान की। इस कहानी में यदि आने वाले समय में राजेन्द्र यादव का पक्ष शामिल होता है तो यह कहानी पूरी मानी जाएगी। यहां प्रस्तुत है, ज्योति का बयान, जैसा उन्होंने आशीष को बताया।
‘हंस’ का बहिष्कार करना किसी भी नई लेखिका के लिए आसान फैसला नहीं होता। खास तौर पर जब मेरे लेखन की अभी शुरूआत है। इस बात से कोई इंकार नहीं है कि हंस में जब कहानी छपती है तो अच्छा रिस्पांस मिलता है। मेरी कहानियां ‘हंस’, ‘पाखी’, ‘परिकथा’, ‘नया ज्ञानोदय’ और अभी बहुवचन में छपी है लेकिन हंस में प्रकाशित किसी भी कहानी के लिए सबसे अधिक फोन, एसएमएस और चिट्ठियां मिली हैं। किसी भी लेखक को यह अच्छा लगता है।
मैं पिछले दो सालों से राजेन्द्र यादव और हंस के लिए काम कर रहीं थी। मेरा वहां काम यादवजी जो बोले, उसे लिखने का था, हंस में अशुद्धियों को दुरुस्त करना और उसके संपादन से जुड़े काम को भी मैं देखती थी। जब ‘स्वस्थ्य आदमी के बीमार विचार’ पर काम शुरू किया, उसके थोड़ा पहले से मैं उनके पास जा रही थी। लगभग दो साल से मैं उनके पास जा रही हूं। इस काम के लिए वे मुझे दस हजार रूपए प्रत्येक महीने दे रहे थे। मैं मुफ्त में उनके लिए काम नहीं कर रही थी। सबकुछ ठीक था। यादवजी का स्नेह भी मिल रहा था। उस स्नेह में कहीं फेवर नहीं था। अपनी कहानियों के लिए कभी मैंने उन्हें नहीं कहा। मैं उन्हें लिखने के बाद कहानी दिखलाती थी और कहती थी कि यह यदि हंस में छपने लायक हो तो छापिए। मेरी पांच-छह कहानियां हंस में छपी।
यदि किसी लेखिका की पहली कहानी छपना उसे किसी साहित्यिक पत्रिका का प्रोडक्ट बनाता है तो मुझे ‘परिकथा’ का प्रोडक्ट कहा जाना चाहिए। मेरी पहली कहानी ‘परिकथा’ में छपी है। मैं हंस की प्रोडक्ट नहीं हूं। यह सच है कि कथा संसार में मेरी पहचान हंस से बनी। ‘हंस’ मेरे लिए स्त्री विमर्श की पत्रिका रही है। ‘हंस’ से मैने स्त्री अधिकार और स्त्री सम्मान को जाना है। राजेन्द्र यादव जो अपने संपादकीय में लिखते रहे हैं और जो विभिन्न आयोजनों में बोलते रहे हैं। इन सबसे उनकी छवि मेरी नजर स्त्री विमर्श के पुरोधा की बनी।
एक जुलाई 2013 को उनके घर में जो दुर्घटना हुई, उससे पहले उनसे मेरी कोई शिकायत नहीं थी। सबकुछ उससे पहले अच्छा चल रहा था। मैं उन्हें अपने अभिभावक के तौर पर पितातुल्य मानती रहीं हूं। मेरा उनसे इसके अलावा कोई दूसरा रिश्ता नहीं रहा। इसके अलावा केाई दूसरी बात करता है तो गलत बात कर रहा है। राजेन्द्र यादव मुझसे कहते थे- ‘तुझे देखकर मेेरे अंदर इतना वातशल्य उमरता है, जितना बेटी रचना के लिए भी नहीं उमरा। कभी मैं उन्हें कहती थी कि मुझे हंस छोड़ना है तो वे मुझे बिटिया रानी, गुड़िया रानी बोलकर, हंस ना छोड़ने के लिए मनाते थे। राजेन्द्र यादव हमेशा मेरे साथ पिता की तरह ही व्यवहार करते थे।
जब से मैं उनके पास काम कर रहीं हूं, प्रत्येक सुबह 8ः00 बजे- 8ः30 बजे उनके फोन से ही मेरी निन्द खुलती थी। फोन उठाते ही वे कहते- अब उठ जा बिटिया रानी। मैं उनके घर 10ः30 बजे सुबह पहुंचती थी। वे रविवार को भी बुलाते थे। रविवार को उनके घर शाम तीन-साढे तीन बजे पहुंचती थी।
राजेन्द्र यादव का मानना था कि वे हंस कार्यालय में एकाग्र नहीं हो पाते हैं। इसलिए वे संपादकीय लिखवाने के लिए घर ही बुलाते थे। जब मैंने राजेन्द्र यादव के साथ काम करना शुरू किया, उन दिनों राजेन्द्र यादव दफ्तर नहीं जाते थे। वे बीमार थे। तीन-चार महीने तक वे बिस्तर पर ही पड़े रहे। ‘स्वस्थ्य आदमी ......’ वाली किताब उन्होंने घर पर ही लिखवाई। उस दौरान वे हंस नहीं जा रहे थे। जब उन्होंने हंस जाना प्रारंभ किया, उसके बाद भी वे रचनात्मक लेखन घर पर ही करते थे। दफ्तर में वे चिट्ठियां लिखवाते थे। मेरी नौकरी उनके घर से शुरू हुई थी, इस तरह मेरा एक दफ्तर उनका घर भी था।
30 जून 2013 की रात 10ः00-10ः15 बजे के आस-पास मेरे मोबाइल पर नए नंबर से फोन आया। नए नंबर के फोन इतनी रात को मैं उठाती नहीं। लेकिन एक नंबर से दो-तीन बार फोन आ जाए तो उठा लेती हूं। जब दूसरी बार में मैंने नए नंबर वाला फोन उठाया तो दूसरी तरफ से आवाज आई- ‘मैं प्रमोद बोल रहा हूं।’ जब मैने पूछा -‘कौन प्रमोद?’ तो उसने राजेन्द्र यादव का नाम लिया। प्रमोद, राजेन्द्र यादव का अटेन्डेन्ट था। ‘हंस’ में मेरी राजेन्द्र यादव और संगम पांडेय से बात होती थी और किसी से कुछ खास बात नहीं होती थी। मैं बातचीत में थोड़ी संकोची हूं, यदि सामने वाला पहल ना करे तो मैं बात शुरू नहीं कर पाती। प्रमोद से मेरी बातचीत सिर्फ इतनी थी कि वह दफ्तर पहुंचने पर राजेन्द्र यादव के लिए और मेरे लिए एक गिलास पानी लाकर रखता था और पूछता था- ‘मैडम आप कैसी हैं?’ इससे अधिक मेरी प्रमोद से कोई बात हुई हो, मुझे याद नहीं।
उसका फोन आना मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। उसने फोन पर कहा- ‘मुझसे आकर मिलो। मैंने तुम्हारा वीडियो बना लिया है। उसे मैं इंटरनेट पर डालने जा रहा हूं।’
यह फोन मेरे लिए झटका था। कोई यदि वीडियो बनाने की बात कर रहा है तो निश्चित तौर पर यह किसी आम वीडियो की धमकी नहीं होगी। वह नेकेड वीडियो की बात कर रहा होगा। मैंने राजेन्द्र यादव को उसी वक्त फोन मिलाया। जब राजेन्द्र यादव से मेरी बात हो रही थी, उस दौरान भी प्रमोद का फोन वेटिंग पर आ रहा था। राजेन्द्र यादव को मैने फोन पर कहा- ‘प्रमोद नेकेड वीडियो की बात कर रहा है, आप देखिए क्या मामला है?’
राजेन्द्र यादव ने कहा- अब मेरे सोने का वक्त हो रहा है। सुबह बात करूंगा। उनसे बात खत्म हुई प्रमोद का फोन जो वेटिंग पर बार-बार आ ही रहा था। फिर आ गया- उसने फिर मुझे धमकाया।
राजेन्द्र यादव जो दो साल से प्रतिदिन मुझे फोन करके उठाते थे। उस दिन उनका फोन नहीं आया। जब मैंने फोन किया तो उन्होंने कहा- ‘मैं आंख दिखलाने एम्स जा रहा हूं। तुमसे दोपहर में बात करता हूं। फिर राजेन्द्र यादव का फोन नहीं आया। फिर मैंने ही फोन किया, राजेन्द्र यादव ने फोन पर मुझे कहा- प्रमोद कह रहा है, वीडियो सुमित्रा के पास है और सुमित्रा कह रही है वीडियो प्रमोद के पास है। पता नहीं चल पा रहा कि वीडियो किसके पास है। ऐसा करो, इस मसले को अभी रहने दो। इस पर बात 31 जुलाई वाले कार्यक्रम के बीत जाने के बाद बात करेंगे। मुझे यह बात बुरी लगी। मैंने कहा- ‘आज एक जुलाई है। 31 जुलाई में अभी तीस दिन है। इस बीच प्रमोद ने कुछ अपलोड कर दिया तो फिर मेरी बदनामी होगी। आप भारतीय समाज को जानते हैं। मैं कहीं की नहीं रहूंगी। मैंने कई बार राजेन्द्र यादव को फोन किया और एक बार प्रमोद को भी फोन किया- ‘आप सच बोल रहे हैं या कोई मजाक कर रहे हैं। क्या है उस वीडियो में?’
उसने ढंग से बात नहीं की। उसका जवाब था- ‘जब दुनिया देखेगी, तुम भी देख लेना।’
जब कई बार फोन करने के बाद भी राजेन्द्र यादव ने मेरी बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया फिर मैंने उन्हें फोन करके कहा कि मैं शाम में आपके घर आ रही हूं। यह छोटी बात नहीं है। आप प्रमोद से बात करिए।
मेरे साथ जो दुर्घटना हुई, उसके बाद मैने लोगों से बातचीत बंद कर दी थी। अब जब फिर से बातचीत हो रही है तो यह सुनने में आ रहा है कि कुछ लोग कह रहे हैं- ज्योति अगर राजेन्द्र यादव के घर में कुछ गलत काम नहीं कर रही थी, राजेन्द्र यादव के साथ उसके नाजायज संबंध नहीं थे फिर वह वीडियो की बात से डरी क्यों? यहां स्पष्ट कर दूं कि यह वीडियो मेरा और राजेन्द्र यादव का होता तो मैं बिल्कुल नहीं डरती। ना मैं घबरातीं, वजह यह कि प्रमोद राजेन्द्र यादव के पास काम करता था, फिर क्या वह अपने मालिक का वीडियो अपलोड करता? अपलोड करता तो क्या सिर्फ ज्योति की बदनामी होती? क्या राजेन्द्र यादव की नहीं होती। राजेन्द्र यादव का कद बड़ा है। उनकी बदनामी भी बड़ी होती। यदि वे सेफ होते तो मैं भी सेफ होती लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। वे मुझे बेटी तुल्य मानते रहे थे। मेरे लिए वे पितातुल्य थे। इसका मतलब था कि यदि प्रमोद ने कोई वीडियो वास्तव में बनाया था तो वह मेरे अकेले की वीडियो होगी। मैं राजेन्द्र यादव के यहां काम करती थी तो उनका बाथरूम भी इस्तेमाल करती थी। राजेन्द्र यादव से मेरी घनिष्ठता हो ही गई थी। कई बार जब मेरे घर पानी नहीं आया होता तो राजेन्द्र यादव कहते थे- मेरे घर आ जाओ। डिक्टेशन ले लो और यहीें पर नहा लेना। उनके बाथरूम का कई बार मैने इस्तेमाल नहाने के लिए किया है। मेरा डर यही था, बाथरूम में नहाते हुए कैमरा छुपाकर मेरा नेकेड वीडियो प्रमोद, राजेन्द्र यादव के घर में बना सकता है। एक अकेली लड़की का नेकेड वीडियो जब इंटरनेट पर डाला जाता है तो बिल्कुल नहीं देखा जाता कि वह अकेली है या फिर किसी के साथ है। यदि लड़की वीडियों में नेकेड है तो उसकी बदनामी होनी है, उसकी परेशानी होनी है। इस बात से मैं डरी थी। यदि राजेन्द्र यादव के साथ कोई वीडियो होता फिर डर की कोई बात नहीं थी। यदि राजेन्द्र यादव सेफ हैं तो उनके साथ वाला भी सेफ है।
वीडियो वाली बात से मैं काफी परेशान थी। परेशान होकर मैं राजेन्द्र यादव के घर पहुंची। एक जुलाई को 6ः30-6ः45 बजे शाम में। मैंने राजेन्द्र यादव से कहा- ‘सर आप मेरे सामने प्रमोद से बात करें कि वह क्या वीडियो है? वह दिखलाए।’
मैं राजेन्द्र यादव को सर ही कहती हूं। उनका जवाब था- ‘मैं प्रमोद को कुछ नहीं कहूंगा। उसे बुला देता हूं, तुम खुद ही उससे बात कर लो।’
यह बातचीत राजेन्द्र यादव के कमरे में हुई। वे उस वक्त शराब पी रहे थे। उनके सामने ही प्रमोद ने अपशब्दों का प्रयोग किया। यह मामला अभी न्यायालय में है। प्रमोद यह आलेख लिखे जाने तक जेल में है। इस पूरी घटना में दुखद पहलू यह है कि यह सब एक ऐसे आदमी की नजरों के सामने हुुआ जिसकी छवि देश में स्त्रियों के हक में खड़े व्यक्ति के तौर पर है। वह मुकदर्शक बनकर अपने कर्मचारी द्वारा एक स्त्री के लिए प्रयोग किए जा रहे अशालीन भाषा को सुनता रहा। वे उस वक्त भी शराब पीने में मशगूल थे, जब उनका कर्मचारी स्त्री के साथ अमर्यादित व्यवहार कर रहा था। इस पूरी घटना के दौरान राजेन्द्र यादव बीच में सिर्फ एक वाक्य प्रमोद को बोले- ‘यार कुछ है तो दिखा दे ना...’
मानों छुपन-छुपाई के खेल में चॉकलेट का डब्बा गुम हो गया हो। जबकि प्रमोद कई बार राजेन्द्र यादव के सामने धमका चुका था- वीडियो इंटरनेट पर अपलोड कर दूंगा। फिर भी वे चुप थे। मैं भी चुप हो जाती। कोई कदम नहीं उठाती लेकिन उसके बाद जो प्रमोद ने किया वह किसी भी स्त्री के लिए अपमानजनक था। मामला न्यायालय में है इसलिए उस संबंध में यहां नहीं बता रहीं हूं। मेरे साथ जो हुआ, उसके बाद मैं समझ गई थी कि मेरा अब यहां से बच कर निकलना नामूमकिन है। मैंने राजेन्द्र यादव के कमरे में रखे टेलीफोन से सौ नंबर मिलाया। उस वक्त राजेन्द्र यादव बोले- ‘यह क्या कर रही हो? फोन रख।’ तब तक दूसरी तरफ फोन उठ चुका था। मैंने फोन पर सारी बात बता दी। मेरे साथ क्या हुआ और मुझे मदद की जरूरत है।
फोन रखने के बाद अब तक शांत पड़े राजेन्द्र यादव फिर बोले- ‘यह सब क्या कर रही हो? पुलिस के आने से क्या हो जाएगा? बेवजह बात ना बढ़ा।’
पुलिस को फोन मिलाने के बाद प्रमोद शांत हो गया था। राजेन्द्र यादव ने अब प्रमोद से कहा- ‘तू जा यहां से।’ उनकी आज्ञा मिलते ही प्रमोद आज्ञाकारी बच्चे की तरह चला गया। अब राजेन्द्र यादव ने मुझसे कहा- पुलिस को कुछ नहीं बताना है। मैंने कहा- ‘यह नहीं होगा सर। आपके सामने, आपके घर में इतनी बुरी हरकत हुई है मेरे साथ। आपसे मैं बार-बार फोन पर कहती रही कि आप प्रमोद से बात कीजिए लेकिन आपने वह भी नहीं किया। अब मैं पुलिस को सारी बात बताऊंगी।’
यदि मेरे मन में कोई चोर होता तो मैं वहां डर जाती। मेरे मन में कोई चोर नहीं था, इसलिए मैं डरी नहीं। मेरे अंदर सिर्फ इतनी बात थी कि मेरे साथ जो हुआ है, वह गलत हुआ है। इसलिए मैं पुलिस में शिकायत करूंगी।
राजेन्द्र यादव लगातार मुझे समझाते रहे कि पुलिस में शिकायत करने से कुछ नहीं होगा। सौ नंबर पर उन्होंने रिडायल किया, शायद यह कन्फर्म करने के लिए कि उनके घर से पुलिस के पास फोन गया था या नहीं? जब उधर से कहा गया कि फोन आया था तो यादवजी ने कहा- ‘अब पुलिस को भेजने की जरूरत नहीं है। आपसी मारपीट थी। अब सुलझ गया सबकुछ।’
मैं वहीं बैठी थी। मैने दुबारा फोन मिलाया कि पुलिस अभी तक नहीं आई? दूसरी तरफ से मुझसे सवाल पूछा गया- ‘मैडम आप इतनी सुरक्षित तो हैं ना, जितनी देर में पुलिस आप तक पहुंच सके?’
मैंने कहा- सुरक्षित हूं। प्रमोद बाहर बैठा है और राजेन्द्र यादव फोन पर किसी से बात कर रहे हैं।
पुलिस आई। उन्होंने प्रमोद को थाने ले जाने के लिए पकड़ा। साथ में मुझे भी बयान के लिए ले जा रहे थे। राजेन्द्र यादव ने पुलिस वाले से कहा- ‘क्या इतनी छोटी सी बात के लिए ले जा रहे हो? बैठो यहां। स्कॉच लोगे या व्हीस्की? मेरे पास 21 साल पुरानी शराब है। एक से एक अच्छी शराब है। कहो क्या लोगे?’
लेकिन पुलिस वाले ने कहा- ‘सर लड़की के साथ ऐसा हुआ है। यह छोटी बात नहीं है।’
मेरा कुर्ता खींच-तान में फट गया था। मेरे पास ऐसी खबर आ रही है कि कुछ लोग कह रहे हैं कि ज्योति ने खुद ही अपने कपड़े फाड़ लिए। कोई भी लड़की पहली बात इतनी बेशरम नहीं होती कि अपने कपड़े खुद फाड़ ले। यदि फाड़ेगी तो उसका उद्देश्य क्या होगा? सामने वाले पर इल्जाम लगाना। मैने इसके लिए प्रमोद पर आरोप नहीं लगाया है। मैंने कहा है कि यह खींच-तान में फटा है।
प्रमोद राजेन्द्र यादव के पास अप्रैल में आया है। वह राजेन्द्र यादव के घर में रहता है। उनके कमरे में सोता है। उसकी गिरफ्तारी भी राजेन्द्र यादव के घर से हुई थी।
64 टिप्पणियां:
स्त्री विमर्श के झंडाबरदार मार्क्सवादी (कु)चिंतक राजेंद्र यादव का स्त्रीविरोधी चेहरा पर्दाफाश। आपको बधाई, आशीषजी।
स्त्री-विमर्श के झंडाबरदार मार्क्सवादी(कु)चिंतक राजेंद्र यादव का स्त्री-विरोधी चेहरा पर्दाफाश। आशीष अंशु को बधाई।
आभार ..
इससे अधिक अभी और क्या कहूँ,समझ नहीं पड़ रहा ...
राजेंद्र यादव का स्त्रीविरोधी चेहरा पर्दाफाश। आपको बधाई, आशीषजी।
ज्योतिकुमारी की आपबीती पूरी पढ़ी, अफसोस हुआ. दुःख भी। सचमुच, साहित्य के इस आसाराम का एक गन्दा चेहरा सामने आया है , जितनी निंदा की जाये कम है. साहित्यकार को नैतिक मूल्यों का संवाहक होना चाहिए वह भी लंपटो जैसी हरकत करे, तो यह कोई आधुनिकता नहीं, अपराध है
ज्योतिकुमारी की आपबीती पूरी पढ़ी, अफसोस हुआ. दुःख भी। सचमुच, साहित्य के इस आसाराम का एक गन्दा चेहरा सामने आया है , जितनी निंदा की जाये कम है. साहित्यकार को नैतिक मूल्यों का संवाहक होना चाहिए वह भी लंपटो जैसी हरकत करे, तो यह कोई आधुनिकता नहीं, अपराध है
जो आदमी निजी पलों को ख्याति पाने के लिए अपने उपन्यास में लिख सकता है वो स्त्री समर्थक कैसे हो सकता है... मैं तो यही नहीं समझ सका
अब पारदर्शिता का ज़माना है ढोंग ज्यादा दिन तक नहीं छुपता
सच कहूँ तो समझ नहीं पा रही क्या कहूँ ... असमंजस की स्थिति में हूँ बस ..
साहित्यकार को नैतिक मूल्यों का संवाहक होना चाहिए साहित्य का आसाराम ! ! !
साहित्यकार को नैतिक मूल्यों का संवाहक होना चाहिए साहित्य का आसाराम ! ! !
साहित्यकार को नैतिक मूल्यों का संवाहक होना चाहिए साहित्य का आसाराम ! ! !
एक सफेदपोश की कुत्सित मानसिकता और घृणित चेहरे से रूबरू कराया.. समझ नहीं आ रहा की किस अलंकार से अलंकृत करूँ इसे....
लम्पटों की लिस्ट है एक और दलित लेखक व् ब्राह्मण प्रकाशक, ज्योति की पुस्तक के नामवर जी द्वारा विमोचन के दिन ऐसी बेहूदा बात कर रहे थे की यहाँ लिख नही सकता।
इस प्रसंग में बकौल ज्योति राजेन्द्र यादव का मूक बने रहना काल चिंतन को बाधित करता है। सत्य पूछने के लिए क्या गुड़िया के अन्दर गुड़िया के पास जाना पडेगा।
इसे पढ़कर यह बात समझ में आ गई कि हिंदी साहित्य में माफ़ियागीरी जमकर चल रही है। वस्तुत: राजेन्द्र यादव का पूरी तरह पतन हो गया है। यह तो अजीब ही बात है। बुढ़भस में यह आदमी पूरी तरह से कामविकृत हो गया है। लड़कियों को इससे बचना चाहिए। पता नहीं, कितनी लड़कियों को साहित्यकार बनाने का प्रलोभन दे इसने उनका यौन शोषण किया होगा। इसकी सच्चाई सामने लानी चाहिए।
राजेन्द्र यादव मुझे हमेशा से ही नापसंद रहे हैं तो इसी वजह से/ लोग पता नहीं क्यों उन्हें पसंद करते हैं और खींचे जाते हैं? ये आदमी मन का काला' है, ऐसा ही हमेशा लगा/ ख़ैर। . ज्योति जैसी कई होंगी जिन्हें अभी बोलना शेष होगा /
Is he another Asaram?
जब लोगों को फायदे मिलते हैं तब इस ओर से वे आँखें मूँद लेते हैं,वर्ना कौन नहीं जानता कि फिल,राजनीति की तरह साहित्य में भी कास्टिंग-कॉउच जैसा बहुत कुछ चलता है.कई लोग जल्द सफलता के लिए शॉर्टकट अपनाते हैं.
एक दिन अचानक उनका शोषण शुरू हो जाता है.इससे भी ख़ूब पब्लिसिटी मिलती है.दुःख की बात है कि कुछ महिला साहित्यकार बनने की जल्दी में पहले एकदम अनजान बनी रहती हैं.
नेता,बाबा,साहित्यिक-मठाधीश दूध के धुले नहीं हैं.ज़रूरत इस बात की है कि हम अपने को बचा के चलें.इनसे संपर्क का फायदा है तो नुकसान कोई दूसरा क्यों झेलेगा ?
मेरी पहली वाली टिप्पणी का अर्थ यह न निकाला जाय कि राजेंद्र यादव या ऐसी हरकतें करने वाले निर्दोष हैं,पर आज हर थोड़ा समझदार महिला यह तुरंत भाँप सकती है कि कौन उसे किस तरह उपयोगी मान रहा है ?
ऐसे मसले हमेशा एकतरफा ही नहीं होते और न अचानक होते हैं !
एसा क्यों है कि हिन्दी के साहित्यकार इस पूरे प्रकरण में राजेन्द्र यादव की भूमिका को ले कर मौन हैं? एसा क्या भय है जो उन्हें खुल कर उस दोमुही वृत्ति को उजागर करने से रोक रहा है जो हंस के मूल स्वर और इस घटना के उपसंहार से सामने आ रही है? क्या यह मौन एक मठाधीश की चापलूसी और उनके कृत्य को मौन समर्थन नहीं है? क्या इसी बूते हिन्दी साहित्य की जनपक्षधरता और उसका स्त्री विमर्श ढोल पीटा करता है?
मैं तो कभी सपने में भी नहीं सोच सकता हूँ कि
राजेन्द्र यादव जी के घर पर यह सब हुआ,अफसोस.
मै शायद बहुत कुछ लिख जाऊ...! लेखक नहीं हूँ, न ! लिहाजा ख़ुद न लिख कर किसी और का लिखा पेस्ट कर रहा हूँ...! यादव जी की अकथ कथा का बहुत छोटा हिस्सा है, ये ...
"आठवें अध्याय मुड़ मुड़ के देखता हूँ भाग २ ये तुम्हारा स्वर मुझे खींचे लिये जाता.... में चर्चा की है अपने मित्रों की जिसमें विस्तार महिला मित्रों को ही मिला है। हेमलता नाम की उनकी किसी उद्योगपति घराने से संबंध रखने वाली प्रशंसिका, जिसे उन्होने बाद में दीदी कहना शुरू कर दिया, उनकी रचनाओं पर उन दीदी का प्रभाव इस कदर था कि मित्र उन्हे दीदीवादी लेखक भी कहने लगे बाद में कुछ आकर्षण..... जिसको बंधन आर्थिक विषमता के कारण नही मिल सका। कर्मयोगी के संपादक रामरखसिंह सहगल की मृत्यु के बाद बी०एड० करने आई उनकी पु्त्री से अति आकर्षण,जिसके आगे ना बढ़ पाने के लिये राजेन्द्र जी ने अपनी अपंगता को दोषी माना। फर्राट मीता जिससे परिचय उनका ट्यूशन के जरिये तभी हुआ जब वो १४-१५ वर्ष की ही थी और अब लगभग ५० वर्षो की जनपहचान हो चुकी है; जिसने विवाह प्रस्ताव कि यह कर टाल दिया कि हम मित्र है है और मित्र ही रहेंगे। राजेंन्द्र यादव ने जिसे पर लिखा कि "ये साफ साफ मेरा रिजेक्शन था। तुम सिर्फ कभी कभी मित्रता के लायक हो, साथ बँधने के नही।" बाद में उन्होने ये भी स्वीकार किया कि मन्नू जी से विवाहके पश्चात कई बार जब मीता और राजेंन्द्र जी ने शादी की तारीखें भी तय कर लीं तब पता नही किन कारणों से राजेन्द्र यादव ही पीछे हट गये। इस विश्वासघात के लिये उनका कहना है कि इसने उन्हे ही बार बार तोड़ा। इन सारे संबंधों से परे जहाँ किसी ने शारीरिक और किसी ने आर्थिक विषमताओं की आड़ ले कर राजेंद्र जी से, मित्रता की तो सारी मान्यताए निभाईं मगर जीवनबंधन में बँधने से परे रह गये; पर जब मन्नू जी ने उन्हे जस का तस स्वीकार किया तब भी वो ना जाने कौन से कारण थे जिन्होने उन दोनो को साथ नही रहने दिया। जबकि राजेंन्द्र जी स्वीकार करते हैं कि रिश्तेदारों और मित्रों के बीच मन्नू जी उनका अहम् बड़ी चतुराई से रख लेती थी। बच्ची, परिवार, समाज, राजेंन्द्र जी को जब जब जरूरत हुई तब तब सहयोग के बावजूद राजेंद्र जी घर गृहस्थी में न जम सके क्योंकि उनके अनुसार "बौद्धिक और व्यक्तिगत तौर पर वह सब मुझे असहज बनाता है जो जिंदगी को बने बनाये ढर्रे में कैद कर के सारी संभावनाओं को समाप्त कर देता है।" प्रभा खेतान का भी हल्का फुल्का जिक्र है। अनेकानेक स्त्रियो से संबंध मे वे दीदी, मीता और मन्नू का विशेष योगदान मानते हैं अपने जीवन में। मगर अब तीनो ही उनकी जिंदगी में नही है। "
साभार;- http://kanchanc.blogspot.in/2009/07/blog-post_06.html
हद हो गया, नाम बड़े और दर्शन छोटे !
ये जितने स्त्रीवादी और मार्क्सवादी विमर्शकार है सब एक से बढ़कर एक छंटे हुए ऐयाश है ! इस शराबीयों और कबाबीयों से मर्यादा की उम्मीद करना बेकार है !
हद हो गया, नाम बड़े और दर्शन छोटे !
ये जितने स्त्रीवादी और मार्क्सवादी विमर्शकार है सब एक से बढ़कर एक छंटे हुए ऐयाश है ! इस शराबीयों और कबाबीयों से मर्यादा की उम्मीद करना बेकार है !
मैं हंस नहीं पढ़ता। लंबे समय से नहीं पढ़ता। लिहाजा अगर संपादकीय भी आप ब्लॉग पर लगा दें..तो वो भी देख लूंगा।
मैं हंस नहीं पढ़ता। लंबे समय से नहीं पढ़ता। अगर वो संपादकीय भी हो..आपके पास तो ब्लॉग पर लगा दीजिए।
राजेंद्र यादव के आस पास सभी अराजक और अश्लील लोग हैं, उनके यहां या उनके लिए दी गई पार्टी में कोई अपने नहीं दूसरे के साथी के साथ जाता है, वहां बहुत गंद है।
बात सामान्य तो नही हैं इसलिऐ सीधे तौर पर हजम भी नही हो रही हैं सब कुछ इस तरह एकाएक हो जरुर तीनो ही पात्र कुछ छुपा रहे हैं , बिल्कुल तीनो के तीन.......
पहली बार इस घटना से परिचित हुआ। निहायत शर्मनाक वाकया लग रहा है ये। साथ ही यह एक पक्ष है दूसरे पक्ष का इंतजार रहेगा। अंशु का आभार
ज्योति कुमारी और राजेंद्र यादव के ताजा विवाद से मुझे एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक का वह जवाब अनायास ही याद आ गया, जो उन्होंने किसी रचनाकार के लिए चारित्रिक शुचिता कितनी जरूरी है? प्रश्न पूछे जाने पर दिया था। उन्होंने कहा था कि लेखक की पहचान उसकी रचना से होती है और वही स्थायी भी है इसलिए उसका व्यक्तिगत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। अमिताभ बच्चन के साथ एक लंबे पत्रव्यवहार में यादव जी कह चुके हैं कि सार्वजनिक जीवन जीने वाली बड़ी हस्तियों का कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता इसलिए उनका आदर्श होना जरूरी है। दूसरों के लिए उपदेश देने वाले यादव जी का जवाब प्रतीक्षित है।
मौन कभी कभी कितना निस्संग और निर्मम होता है हो सकता है काल चिंतन करता हो।
ज्योति कुमारी और राजेंद्र यादव के ताजा विवाद से मुझे एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक का वह जवाब अनायास ही याद आ गया, जो उन्होंने किसी रचनाकार के लिए चारित्रिक शुचिता कितनी जरूरी है? प्रश्न पूछे जाने पर दिया था। उन्होंने कहा था कि लेखक की पहचान उसकी रचना से होती है और वही स्थायी भी है इसलिए उसका व्यक्तिगत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। अमिताभ बच्चन के साथ एक लंबे पत्रव्यवहार में यादव जी कह चुके हैं कि सार्वजनिक जीवन जीने वाली बड़ी हस्तियों का कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता इसलिए उनका आदर्श होना जरूरी है। दूसरों के लिए उपदेश देने वाले यादव जी का जवाब प्रतीक्षित है।
मौन कभी कभी कितना निस्संग और निर्मम होता है हो सकता है काल चिंतन करता हो। कश्यप किशोर मिश्रा जी एक कहानी और है गुड़िया में गुड़िया की ज़ुबानी।
ज्योति कुमारी और राजेंद्र यादव के ताजा विवाद से मुझे एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक का वह जवाब अनायास ही याद आ गया, जो उन्होंने किसी रचनाकार के लिए चारित्रिक शुचिता कितनी जरूरी है? प्रश्न पूछे जाने पर दिया था। उन्होंने कहा था कि लेखक की पहचान उसकी रचना से होती है और वही स्थायी भी है इसलिए उसका व्यक्तिगत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। अमिताभ बच्चन के साथ एक लंबे पत्रव्यवहार में यादव जी कह चुके हैं कि सार्वजनिक जीवन जीने वाली बड़ी हस्तियों का कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता इसलिए उनका आदर्श होना जरूरी है। दूसरों के लिए उपदेश देने वाले यादव जी का जवाब प्रतीक्षित है।
ज्योति कुमारी और राजेंद्र यादव के ताजा विवाद से मुझे एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक का वह जवाब अनायास ही याद आ गया, जो उन्होंने किसी रचनाकार के लिए चारित्रिक शुचिता कितनी जरूरी है? प्रश्न पूछे जाने पर दिया था। उन्होंने कहा था कि लेखक की पहचान उसकी रचना से होती है और वही स्थायी भी है इसलिए उसका व्यक्तिगत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। अमिताभ बच्चन के साथ एक लंबे पत्रव्यवहार में यादव जी कह चुके हैं कि सार्वजनिक जीवन जीने वाली बड़ी हस्तियों का कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता इसलिए उनका आदर्श होना जरूरी है। दूसरों के लिए उपदेश देने वाले यादव जी का जवाब प्रतीक्षित है।
ज्योति कुमारी और राजेंद्र यादव के ताजा विवाद से मुझे एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक का वह जवाब अनायास ही याद आ गया, जो उन्होंने किसी रचनाकार के लिए चारित्रिक शुचिता कितनी जरूरी है? प्रश्न पूछे जाने पर दिया था। उन्होंने कहा था कि लेखक की पहचान उसकी रचना से होती है और वही स्थायी भी है इसलिए उसका व्यक्तिगत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। अमिताभ बच्चन के साथ एक लंबे पत्रव्यवहार में यादव जी कह चुके हैं कि सार्वजनिक जीवन जीने वाली बड़ी हस्तियों का कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता इसलिए उनका आदर्श होना जरूरी है। दूसरों के लिए उपदेश देने वाले यादव जी का जवाब प्रतीक्षित है।
ज्योति कुमारी और राजेंद्र यादव के ताजा विवाद से मुझे एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक का वह जवाब अनायास ही याद आ गया, जो उन्होंने किसी रचनाकार के लिए चारित्रिक शुचिता कितनी जरूरी है? प्रश्न पूछे जाने पर दिया था। उन्होंने कहा था कि लेखक की पहचान उसकी रचना से होती है और वही स्थायी भी है इसलिए उसका व्यक्तिगत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। अमिताभ बच्चन के साथ एक लंबे पत्रव्यवहार में यादव जी कह चुके हैं कि सार्वजनिक जीवन जीने वाली बड़ी हस्तियों का कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता इसलिए उनका आदर्श होना जरूरी है। दूसरों के लिए उपदेश देने वाले यादव जी का जवाब प्रतीक्षित है।
दुखद घटना है|यादव जी का स्त्री विमर्श अब थक चुका है|
साहित्यकार या साहित्यक माफिया में अंतर समझना चाहिए।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लेखकों के एक गिरोह ने प्रगतिशील लेखक संघ का साइनबोर्ड लगा कर साहित्य माफिया की शुरुआत की थी।
उत्तरवर्ती लेखकों में राजेन्द्र यादव जैसे लेखक माफियाओं ने उस परम्परा को आगे बढ़ाया। किसका सम्मान होना है, किसका नहीं! कौन पुरुस्कृत होगा, कौन विदेशयात्रा या किसी फैलोशिप का अधिकारी होगा, फैसला इनकी मर्जी के बिना नहीं हो सकता था।
आरम्भिक काल में भले ही कुछ अच्छा रच दिया हो। पर इनका उत्तरकाल कुचक्रों व भृष्ट आचरण के लिए ही जाना जाएगा। इन्हें तरह-तरह की साजिशों व उदीयमान साहित्यक प्रतिभाओं को बुझाने के लिए ही याद किया जाएगा।
साहित्यकार या साहित्यक माफिया में अंतर समझना चाहिए।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लेखकों के एक गिरोह ने प्रगतिशील लेखक संघ का साइनबोर्ड लगा कर साहित्यक माफिया की शुरुआत की थी।
उत्तरवर्ती लेखकों में राजेन्द्र यादव जैसे लेखक माफियाओं ने उस परम्परा को आगे बढ़ाया। किसका सम्मान होना है, किसका नहीं! कौन पुरुस्कृत होगा, कौन विदेशयात्रा या किसी फैलोशिप का अधिकारी होगा, इसका फैसला इनकी मर्जी के बिना नहीं हो सकता था।
आरम्भिक काल में भले ही कुछ अच्छा रच दिया हो। पर इनका उत्तरकाल कुचक्रों व कदाचरण के लिए ही जाना जाएगा। इन्हें तरह-तरह की साजिशों व उदीयमान साहित्यक प्रतिभाओं को बुझाने के लिए ही याद किया जाएगा।
साहित्यकार या साहित्यक माफिया में अंतर समझना चाहिए।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लेखकों के एक गिरोह ने प्रगतिशील लेखक संघ का साइनबोर्ड लगा कर साहित्य माफिया की शुरुआत की थी।
उत्तरवर्ती लेखकों में राजेन्द्र यादव जैसे लेखक माफियाओं ने उस परम्परा को आगे बढ़ाया। किसका सम्मान होना है, किसका नहीं! कौन पुरुस्कृत होगा, कौन विदेशयात्रा या किसी फैलोशिप का अधिकारी होगा, इसका फैसला इनकी मर्जी के बिना नहीं हो सकता था।
आरम्भिक काल में भले ही कुछ अच्छा रच दिया हो। पर इनका उत्तरकाल कुचक्रों व कदाचरण के लिए ही जाना जाएगा। जिसमें इन्हें तरह-तरह की साजिशों व उदीयमान साहित्यक प्रतिभाओं को बुझाने के लिए ही याद किया जाएगा।
आप सबसे निवेदन की राजेन्द्र यादव जी की पत्नी मन्नू भंडारी जी की कृति "एक कहानी यह भी" पढ़िए. भरोसा हो जाएगा की ज्योति ने एक हर्फ़ भी गलत नहीं कहा होगा. यादव जैसे गंदे आदमी का समाज में बने रहना कोई अजूबा नहीं है. अजूबा तो यह है की समाज उन्हें नारी-दलित विमर्शकार के रूप में जानता है. मुख्यधारा का मीडिया उन्हें हमेशा से हीरो के रूप में पेश करते आया है.
आश्चर्य है की यादव के घर से एक नौकर की गिरफ्तारी हुई है, आरोप छेड़छाड़ का है, गंदे विडिओ सार्वजनिक कर देने की धमकी का है लेकिन किसी भी बाजारू मीडिया के लिए यह 'खबर'नहीं है. मूंह यादव का नहीं बल्कि मीडिया का काला हुआ है. बधाई आशीष, सैल्यूट करता हूँ आपको.
सुन समझ कर लिखना ही बेहतर है। पर इस पर लेखकों का विमर्श अनिवार्य है। जहां तक मैं समझ पाया हूं कि जी हुजूरी करके लेखिकाओं ने ही नहीं, कतिपय लेखकों ने भी राजेन्द्र यादव को बतौर सीढ़ी ही इस्तेमाल किया है। कहां जा रही है यह पीढ़ी,इस सबसे बीड़ी पीना अधिक सेफ है। यह मेरी उनके संबंध में उनके सार्वजनिक जीवन से उपजी मान्यता है। इसलिए जरूरी नहीं कि यह हकीकत हो और यह भी जरूरी नहीं कि सर्वथा मिथ्या ही हो। मुझे लेखकों की इस तरह की हरकतें या करतूतें पसंद नहीं आई हैं। जिनको आती हैं, वह इस राह पर चलकर ख्याति और कुख्याति बटोरते रहे हैं। फिर एक उम्र के बाद सठियाना जरूरी नहीं कि 60 की आयु पूरी होने पर ही हो, यह 50 या 45 की उम्र में भी हो सकता है और 70 या 80 की उम्र में भी। कब मानव मन की कुप्रवृतियां अपने अपने सिर उठाकर बाहर झांकने लगें और उनमें मौका देखकर चौका अथवा छक्का मारने की इच्छाएं जोर मारने लगें, सब कुछ संभव है। ज्योति को अपने पक्ष पर डटे रहना चाहिए। हंस पक्षी से हंस (लाफ) का गिराफ लगातार जिराफ की मानिंद गरदन बाहर निकाल कर झांक रहा है। उसे जानने समझने का और अपनी राय जाहिर करने का हक है।
जैसे आसाराम भागे और अब उनका कु(पुत्र) दौड़ में तल्लीन है, कुछ कुछ ऐसी ही चूहा दौड़ में राजेन्द्र यादव शामिल नजर आ रहे हैं, अपना पक्ष जाहिर न करके, पर यह उनकी उन पर ओढ़ी गई मजबूरी हो सकती है, नजर आ रही है। वैसे भी विवादों की आंच को हवा देना उनका प्रिय शगल रहा है। इससे वह विमुख नहीं हो सकते। उन्हें इसी आंच से ऊर्जा,उष्मा मिलती है, मिलती रहेगी, ऐसा अहसास मुझे हो रहा है।
कहां गई टिप्पणी, क्या यहां पर ऐसा भी होता है
सुन समझ कर लिखना ही बेहतर है। पर इस पर लेखकों का विमर्श अनिवार्य है। जहां तक मैं समझ पाया हूं कि जी हुजूरी करके लेखिकाओं ने ही नहीं, कतिपय लेखकों ने भी राजेन्द्र यादव को बतौर सीढ़ी ही इस्तेमाल किया है। कहां जा रही है यह पीढ़ी,इस सबसे बीड़ी पीना अधिक सेफ है। यह मेरी उनके संबंध में उनके सार्वजनिक जीवन से उपजी मान्यता है। इसलिए जरूरी नहीं कि यह हकीकत हो और यह भी जरूरी नहीं कि सर्वथा मिथ्या ही हो। मुझे लेखकों की इस तरह की हरकतें या करतूतें पसंद नहीं आई हैं। जिनको आती हैं, वह इस राह पर चलकर ख्याति और कुख्याति बटोरते रहे हैं। फिर एक उम्र के बाद सठियाना जरूरी नहीं कि 60 की आयु पूरी होने पर ही हो, यह 50 या 45 की उम्र में भी हो सकता है और 70 या 80 की उम्र में भी। कब मानव मन की कुप्रवृतियां अपने अपने सिर उठाकर बाहर झांकने लगें और उनमें मौका देखकर चौका अथवा छक्का मारने की इच्छाएं जोर मारने लगें, सब कुछ संभव है। ज्योति को अपने पक्ष पर डटे रहना चाहिए। हंस पक्षी से हंस (लाफ) का गिराफ लगातार जिराफ की मानिंद गरदन बाहर निकाल कर झांक रहा है। उसे जानने समझने का और अपनी राय जाहिर करने का हक है।
जैसे आसाराम भागे और अब उनका कु(पुत्र) दौड़ में तल्लीन है, कुछ कुछ ऐसी ही चूहा दौड़ में राजेन्द्र यादव शामिल नजर आ रहे हैं, अपना पक्ष जाहिर न करके, पर यह उनकी उन पर ओढ़ी गई मजबूरी हो सकती है, नजर आ रही है। वैसे भी विवादों की आंच को हवा देना उनका प्रिय शगल रहा है। इससे वह विमुख नहीं हो सकते। उन्हें इसी आंच से ऊर्जा,उष्मा मिलती है, मिलती रहेगी, ऐसा अहसास मुझे हो रहा है।
अच्छा हुआ कि इधर आ गई और पढ़ सकी, अपना ही लिखा हुआ। :) :)
अच्छा हुआ कि इधर आ गई और पढ़ सकी, अपना ही लिखा हुआ।
इस पूरे मामले मे एक बात स्पष्ट है कि जो भी वीडियो है वो लेखिका और राजेन्द्र यादव के बीच मे ही हो सकता है। लेखिका भले उनके और राजेन्द्र यादव के बीच के मामले का वीडियो होने पर सेफ़ होने की बात कह रही हों लेकिन नहाते हुये महिला का फ़ोटॊ सार्वजनिक हो जाने से भी उनका वैसा चरित्र हनन नही हो सकता कि जिसके लिये वे इतने दबाव मे हो और न ही राजेन्द्र यादव चुप्पी साध कर नौकर को झेलते।
मेरी नजर मे राजेन्द्र यादव खुद भी इस ब्लैकमेल सीरिज के एक वैसे ही शिकार है जैसे कि महिला। कोई भी आदमी अपने ऐसे नौकर को सेकेंड के सौवे हिस्से मे पुलिस के हवाले कर देगा जो उनकी पुत्री समान युवती का स्नान घर मे वीडियो बना उसे ब्लैकमेल कर रहा हो वो भी उनके घर नौकरी करते हुये।
वैसे साहित्य जगत की ज्यादा जानकारी मुझे नही है और ना ही राजेन्द्र यादव से कोई परिचय। मामला मेरे आकलन से उलट भी हो सकता है। राजेन्द्र यादव को भी हिरासत मे लेकर पूछताछ करने से दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा।
यह तो कचहरी वाला बयान है, असली बयान कब छपेगा????
दरअसल मे सवाल यह नहीं है कि राजेन्द्र यादव ने क्या किया और क्या नहीं किया ज्योतिकुमारी के जो बयान है वे यह दिखाते है कि वो एक जागरूक कथाकार होने के बाद भी राजेन्द्र यादव पर भरोसा किया. ये वही यादव है जो स्त्री विमर्श के अंक निकालते है प्रभु जोशी के स्त्री पर बनाए न्यूड चित्र छापते है और बरसों से तमाम तरह की महिलाओं की उजबक कहानियां छापते रहे है चाहे वह आत्महत्या कर लेने वाली लवलीन की कहानी चक्रवात हो या संजीव ठाकुर की झौया बेहार या सुषमा मुनीन्द्र की या जया जादवानी की और भी कईं.
राजेन्द्र यादव जिस संकट और विकक्षिप्तता से इन दिनों गुजर रहे है उसमे ज्योति को खुद ही सावधान हो जाना चाहिए, वो भी लगता है अति महत्वाकांक्षी है- इसलिए दुनिया मे घटियापन के नोबल पुरस्कार से सम्मानित कथाकार के घर क्यों जा रही थी. असली चक्कर ज्योति की मूर्खताओं का है जो उसने विश्वास किया ज्योति को क्या लगा कि दलित और स्त्री विमर्श का आदमी और जानकार एक "मर्द" नहीं होगा जिस आदमी ने मन्नू भंडारी जैसी महिला के साथ शादी की और फ़िर छोड़ दिया वो क्या जीवन मे करता होगा, यह किसी से छुपा है. सब जानते है कि हंस मे दिखावा और सच्चाई कितनी है. ये मूल्यों की बात तो करते है पर तमाम तरह की गरीबी परोसकर दारु के लिए जुगाड कर लेते है वरना क्या बात है कि गौरीनाथ जैसा सज्जान पुरुष भी हंस के मायाजाल से निकल भागा. ज्योति तुम भोली नहीं हो, आज उन्हें पिता कहकर किसे समझा रही हो, सब जानती हो और सब कुछ समझती हो, पर अब ये प्रपोगंडा करने से कोई मतलब नहीं है.
रहा सवाल राजेन्द्र यादव का उसकी चिंता मत करो उनके पाले हुए दलित और हर माह छपने वाले छपास के भूखे भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स उन्हें अंतिम समय मे गंगाजल दे देंगे और माशा अल्लाह बड़े कार्पोरेट्स के साथ मिलकर जो कमाई हंस ने की है और शिवराज सिंह, लालू, नितीश, मुलायम अदि के विज्ञापन छापकर जो कमाया है वह दर्शाता है कि इनकी विचारधारा क्या है और ये पिछले बरसों मे कितने गर्त मे पहुँच चुके है.
प्रेमचंद की आत्मा तो सन 1986 मे ही मर गई थी जब हंस का पुनर्प्रकाशन शुरू हुआ था क्योकि वे जान गये थे कि ये हश्र एक दिन होना ही है वर्ग चेतना का और स्त्री विमर्श का. फर्क क्या है घीसू माधव और राजेन्द्र यादव मे ?
आगे कुल मिलाकर लब्बो लुबाब यह है कि एक ज्योति गई इन्हें दूसरी अनिता, सुनीता, विमला, जया, गरिमा या चम्पा मिल जायेगी और ये फ़िर वही कुकर्म करते रहेंगे. महिलाओं को भी इस्तेमाल होने से और अपनी हवस और अपनी छपास मिटाने के लिए पुरुषों के इस्तेमाल करने की मानसिकता से भी बाज आना पडेगा वरना ये कथाएं हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह चलाती रहेगी और मीडिया चटखारे लेकर परोसता रहेगा.
मै राजेंद्र यादव के बारे बस सुना ही हूँ ज्यादा कुछ जानता नहीं लेकिन एक स्त्री की आपबीती पढकर टिप्पणी के लिए मजबूर हूँ .... जहाँ तक राजेंद्र यादव के बारे सुनना हुआ है वो साहित्य के एक बड़े नाम है शायद और वो स्त्री विमर्श पर ... वही दुसरी ओर संतो की जमात में आसाराम का नाम था फिर ये पक्षपात क्यों ... राजेंद्र यादव के साथ भी वही होना चाहिए जो आसाराम के साथ हुआ है ? ( नोट : मै यहाँ आसाराम का पक्ष नहीं ले रहा )दोष लगभग बराबर हैं ... दोनों एक स्त्री के मानसिक उत्पीडन में सहयोगी रहे हैं |
dukhad........
अजीब बात है कि इसे लेकर सन्नाटा है। आख़िर वह व्यक्ति किस चीज़ के लिए धमकी दे रहा था? क्या बदले में पैसा मांग रहा था? राजेंद्र यादव का व्यवहार अचानक कैसे बदल गमा? उन्हें अपना पक्ष रखना ही होगा। भयानक है यह सब।
अजीब बात है कि इसे लेकर सन्नाटा है। आख़िर वह व्यक्ति किस चीज़ के लिए धमकी दे रहा था? क्या बदले में पैसा मांग रहा था? राजेंद्र यादव का व्यवहार अचानक कैसे बदल गमा? उन्हें अपना पक्ष रखना ही होगा। भयानक है यह सब।
इस पूरे प्रकरण को पढ़ कर मन दहल गया है...कौन सच बोल रहा है कौन झूठ कहना मुश्किल है...लेकिन ज्योति कुमारी ने जिस अंदाज में अपनी बात प्रस्तुत की हैं, उससे जाहिर होता है कि राजेन्द्र यादव जिस तरीके से मूकदर्शक बने रहे, वह भी अपराध ही है। जिसके सरक्षण में अपराध को अंजाम दिया जाता है, वह अपराध करने वाले से बड़ा गुनाहगार होता है...एक बात यह भी है कि कहीं प्रमोद किसी दूसरे विडियों का हवाला देकर राजेन्द्र यादव को भी तो व्लैकमेल नहीं कर रहा...हो सकता है कि प्रमोद के पास जो विडियो है, वह ज्योति व राजेन्द्र यादव का न हो...लेकिन यह भी हो सकता है कि उसके पास राजेन्द्र यादव के साथ किसी और का विडियो हो, जिसके के दम पर वह राजेन्द्र यादव को अपने काबू में कर रखा हो...खैर, ज्योति ने एक बहादूरी का काम किया है...उसके लिए वह बधाई की पात्र है...अब पुलिस का काम है कि वह सच्चाई से पर्दा उठाएं...
आशुतोष कुमार सिंह
मुम्बई
मेरी टिप्पणी सेंसर हो गई क्योकि तीखी है ना हा हा हा
पूरा मामला ही अजीबोगरीब है
यकीन ही नहीं होता
कुछ भी कह पाना बहुत मुश्किल है !
वैसे भी ये एक तरफ़ा बयान है
बाकी दोनों पक्ष की बात सुने बिना किसी नतीजे पर कैसे जाए
लेकिन अगर इस बयान को सच मान लिया जाए तो प्रमोद के साथ ही राजेन्द्र यादव भी अपराधी हैं !
जब मैं टिप्पणी करने में नहीं डरा फिर आप प्रकाशित करने में क्यों हिचकिचा रहे हैं,, आप तो ऐसे न हैं
सतरों के बीच बहुत कुछ अनकहा रह गया लगता है
राजेन्द्र यादव से जुड़ा एक और शर्मनाक किस्सा ...|घृणित और निंदनीय |
राजेंन्द्र यादव जी के अनगिनत कुकर्मों की जानकारी प्रमोद को होगी. हो सकता है कि उसने उसकी CD भी बना रखी हो. उनकी(राजेन्द्र यादव)चुप्पी का यही कारण है. ऐसे ही वामपंथियों के कारण तो हमारे देश में वामपंथ की यह दुर्दशा है.
स्त्री विमर्श के झंडाबरदार बन उसकी आड़ ही ये लोग स्त्रियों को फांसते है !!
Jyoti - a brave girl id to be appreciated for the move. And the person - so called writer or editor must feel shame for the wrongdoings there at his residence. It does not matter what the victim says.
ज्योति के लिए-
वो खुदा था तेरा
या शैतान था कोई ?
कोई रहनुमा था
या हैवान था कोई ?
ऊंची उड़ान के ख्वाबों का
हौसला तो काबिल ए तारीफ़ है लेकिन
इल्म रखना भी ज़रूरी है खुद्दारी के लिए
झपटने को आतुर सुर्ख आंखों से
उड़ान भरने का गुर सिखाने वाला
कोई और नहीं झपटमार बाज है कोई
तेरे दर्द, ख़ौफ़, ज़ख़्मों...
तेरे आंसुओं, मज़बूरियों से
कोई मतलब नहीं है उसको
तेरे ज़मीर के लहू से
क़ॉकटेल बना के पी रहा था कोई
वो खुदा था तेरा
या शैतान था कोई ?
-नीरद जनवेणु,
संपादक ‘प्रतिबद्ध’
पढ़कर अफ़सोस हुआ
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