शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

आपदाग्रस्त रिपोर्टिंग

16 जून 2013 की वह रात उत्तराखंड के इतिहास में एक मनहूस रात के तौर पर ही याद की जाएगी। जो लोग इस घटना के गवाह रहे हैं, वे शायद इस घटना से जुड़ी कुछ और बातों को भी कभी भूल नहीं पाएंगे। इन्हीं कुछ बातों में एक है, उत्तराखंड आपदा की कवरेज के लिए दिल्ली से उत्तराखंड पहुंचे पत्रकारों की भूमिका। यदि कथित राष्ट्रीय खबरिया चैनलों की रिपोर्टिंग को आप अब तक याद रख पाएं हों तो याद करने की कोशिश कीजिए, कि थ्रिल करने वाली उस डिजास्टर रिपोर्टिंग के दौरान आप उत्तराखंड के स्थानीय लोगों के दर्द के साथ कितना जुड़ पाए थे? क्या दिल्लीवाले रिपोर्टरों की रिपोर्टिंग से आप वहां की कठिन जिन्दगी और संघर्ष कर रहे लोगों की जिन्दगी को कितना समझ पाए थे?
दिल्ली से गई एक महिला पत्रकार को एक  स्थानीय बुजुर्ग ने नसीहत देते हुए कहा- बेटी तुम यहां से क्या लेकर जाओगी नहीं जानता, लेकिन वही दिखाना जो तुम्हें नजर आए।'' पत्रकारों से हम यही उम्मीद करते हैं कि वह सच ही दिखलाएंगे, यदि एक बुजुर्ग को इस तरह की बात एक पत्रकार से कहनी पड़ती है तो क्या पत्रकार वह नहीं दिखा रहे थे, जो खुद देख रहे थे? सामाजिक कार्यकर्ता और उत्तराखंड आपदा के समय वहां के लोगों की मदद के लिए तत्पर इन्द्रेश मैखुरी ने बताया कि ''दिल्ली की मीडिया के लिए स्थानीय लोगों में कितना गुस्सा है कि पीटूसी में कुछ गलत बयानी कर रहे एक पत्रकार की स्थानीय लोगों ने धुनाई भी कर दी थी।'' पत्रकारिता की असंवेदनशीलता उत्तराखंड आपदा रिपोर्टिंग में उस दिन भी नजर आई थी, जब एक पत्रकार, एक पीड़ित के कंधे पर चढ़ कर रिपोर्टिंग कर रहा था। उन पत्रकार के लिए पी साईनाथ का कहना है कि ''इस तरह की रिपोर्टिंग को यदि प्रतिकात्मक तौर पर देखें तो इसमें मीडिया के परजीवी की तरह व्यवहार करने के चिन्ह साफ नजर आते हैं।''
यह बात तो उत्तराखंड के पत्रकार भी जानना चाहते हैं कि उनमें क्या कमी थी जो दिल्ली से इलेक्ट्रानिक मीडिया के इतने सारे पत्रकार निर्यात किए गए? उन पत्रकारों को पहाड़ में क्यों धकेल दिया जिन्हें ना पहाड़ की स्थिति का अंदाजा था और ना ही पहाड़ी जीवन का। वैसे अंदाजा ना भी होता और वे होमवर्क करके आते तो भी सवाल नहीं था। उनके पास होमवर्क भी नहीं था। वर्ना श्रीनगर और रूद्रप्रयाग के रास्ते में पड़ने वाली सीडोबगड़ में खड़े होकर एक दिल्ली का पत्रकार उसे केदारनाथ की दरकती पहाड़िया नहीं बता रहा होता। ईटीवी के पत्रकार सुधीर भट्ट इलेक्ट्रानिक मीडिया का बचाव करते हुए कहते हैं, उनकी भी अपनी मजबूरी है। यहां के हालात दिल्ली में बैठे लोग जानते नहीं। उन्हें ‘खबर हर कीमत पर’ चाहिए। उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि उनका रिपोर्टर किन परिस्थितियों में है। खबर है भी या नहीं? वह खबर देने की हालत में भी है या नहीं। पहाड़ में रिपोर्टिंग मैदानी इलाकेों जैसी नहीं होती। यहां के बीस किलोमीटर के फासले और दिल्ली के बीस किलोमीटर के फासले में जमीन-आसमान का अंतर है और जब जगह-जगह लैन्ड स्लाइड हुआ हो तो हालात और बिगड़ जाते हैं। भट्ट आगे कहते हैं- सुबह नौ बजे से ही रिपोटर्स के पास फोन आना शुरू हो जाता है। आज क्या भेज रहे हो? कितनी देर में भेज रहे हो? अभी तक नहीं भेजा। ऐसे कैसे चलेगा? खबर चाहिए ही, माने ‘खबर हर कीमत पर।’ जब ऊपर के लोग कुछ सुनने को तैयार नहीं होेगे और नीचे खबर तक पहुंच नहीं होगी तो रिपोर्टर कुछ गलत ही करेगा क्योंकि उसे भी पता है कि नौकरी बचानी है, हर कीमत पर।
बार-बार केदारनाथ की घटना को बादल फटने से जोड़ा गया। इस पर प्रकृति प्रेमी एवं पर्यावरणविद, चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं, ''जैसा कहा गया कि बादल फटा। बादल फटने के लिए एक सौ मिली लीटर बारिश एक घंटे तक एक जगह पर केन्द्रित होनी चाहिए। तो उसे बादल फटना कह सकते हैं। भारी बारीश कहना फिर भी ठीक है। लेकिन यदि पत्रकार और वैज्ञानिक दोनों बादल फटना शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं तो कैसे कह रहे हैं? आपको कैसे पता, कि कितनी बारिश हुई? इसका सीधा अर्थ है आप भय पैदा करना चाहते हैं। केदारनाथ और गंगोत्री में आपके पास आंकड़े नहीं हैं मौसम के फिर आप कैसे कह रहे हैं बादल फटा?'' वैसे कहा जा रहा है कि इस विपदा के समय यदि चैनल स्थानीय पत्रकारों पर भी थोड़ा विश्वास करते और बाहर के पत्रकार स्थानीय पत्रकारों के साथ समन्वय रखकर रिपोर्टिंग करते तो शायद अधिक बेहतर तरिके से पूरी कहानी सामने आ पाती। लेकिन दिल्ली से गए पत्रकारों की बात थोड़ी अलग होती है। कुछ पत्रकार तो अपनी तुलना भी क्षेत्रीय पत्रकारों से कराना पसंद नहीं करेंगे क्योंकि दिल्ली में होते ही पत्रकार राष्ट्रीय हो जाता है। वैसे यह टिप्पणी उन पत्रकारों के लिए नहीं है, जो अपना काम भोपाल हो या दिल्ली, पटना हो या कोलकाता, जहां भी हो ईमानदारी से करते हैं।
उत्तराखंड आपदा की कहानी में दिल्ली से देहरादून की धरती पर लैंड होने वाले कुछ पत्रकार वाया अपने चैनल के स्ट्रींगर और कुछ अपने पुराने रिश्ते निकाल कर अलग-अलग मंत्रियों से जा चिपके। (सभी नहीं)। मंत्रियों से चिपकने की दो खास वजह थी। पहली रिपेार्टिंग के नाम पर मुफ्त हवा खोरी। जिसके लिए पहले ही सूचना और प्रसारण मंत्री ने अलग संदर्भो में डिजास्टर टूरिज्म जैसे शब्द ईजाद किए हुए हैं। मेरी जानकारी में एक भी चैनल या अखबार नहीं है, जिसने इस खबर की महता को समझते हुए, अपने रिपोर्टर को निजी विमान किराए पर लेने की इजाजत दी हो। कई-कई हजार करोड़ का कारोबार करने वाले मीडिया घरानों के लिए यह करना मुश्किल नहीं था। दूसरी वजह, लगे हाथों, विज्ञापन की भी बात करनी थी। जैसाकि हम सब जानते हैं, टेलीविजन चैनल चलाना कितना महंगा सौदा है। ऐसे में चैनलों के चुप रहने की कुछ तो कीमत बनती है। आपदा के नाम पर सरकार ने दोनों हाथों से विज्ञापन बांटे। कुछ पत्रकारों के रहने, खाने-पीने और उड़ने का खर्चा भी चैनल की जगह उत्तराखंड उठा रहा था। दिल्ली की एक महिला पत्रकार पर देहरादून के एक मंत्री की अति कृपा की कहानी देहरादून में खुब चली।
यह सरकारी विज्ञापनों का ही असर रहा होगा कि भूख से मरते ग्रामीणों की कहानी, केदारनाथ में बिना अंतिम संस्कार के कंकाल में तब्दील सैकड़ों शवों की कहानी, राहत के लिए काम कर रही तमाम सरकारी और गैर सरकारी एजेन्सियों के बीच आपसी समन्वय के घोर अभाव की कहानी, राहत के नाम पर हैलीकॉपटर के दुरुपयोग की कहानी कहीं नजर नहीं आई। गोविन्द घाट निवासी उत्तम सिंह मेहता बताते हैं, देश भर का शायद ही ऐसा कोई चैनल होगा जो यहां नही आया हो लेकिन सबकी चिन्ता पर्यटक थे। पर्यटक तो सब वापस लौट जाएंगे, अपना सबकुछ तो यहां के स्थानीय लोगों ने गंवाया है। उनसे बात करने की किसी पत्रकार ने जरूरत नहीं समझी। सभी को पर्यटक प्रिय थे। किसी को यहां के लोगों से मतलब नहीं था। हम जी रहे हैं या मर रहे हैं। यह दिखलाने की फुर्सत किसी चैनले के पास नहीं थी।
आप सबको याद होगा, चैनलों ने स्थानीय लोगों के संबंध में बताते हुए यह जरूर रिपोर्ट किया कि यह लोग यात्रियों को लूट रहे हैं। पन्द्रह रूपए के पानी की बोतल सौ रूपए में बेंच रहे हैं। बिस्किट के लिए दो सौ रूपए मांग रहे हैं। इस तरह की रिपोर्ट दिखलाते हुए, चैनलों ने उन लोगों को दिखलाना जरूरी क्यों नहीं समझा जिन्होंने अपने घर से हजारों रूपए लगाकर पीड़ितों की मदद की, बिना किसी स्वार्थ के। उत्तराखंड में अलग-अलग जगहों पर मदद के लिए हाथ बढ़ाने वाले वे सैकड़ों लोग कैसे इन कैमरों से बच गए, जिन्होंने पीड़ितों की मदद के लिए अपने हाथ बिना किसी स्वार्थ के बढ़ाए थे। आपदा के दौरान राष्ट्रीय अखबारों के स्थानीय संस्करण और कुछ छत्तीसगढ़ के स्थानीय चैनलों ने बेहतरीन रिपोर्टिंग का उदाहरण प्रस्तुत किया लेकिन उत्तराखंड के लोग कथित राष्ट्रीय चैनलों से बहुत निराश हैं।

सोमवार, 22 जुलाई 2013

बदलते पत्रकारिता के सरोकार : पालागुमी साईनाथ

मेरी जानकारी में आपका यह कान्फ्रेन्स तीन दिनों का है। तीन दिनों में औसतन क्या-क्या होता है, अपने देश में? ग्रामीण भारत में तीन दिन के अंदर अगर एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) के डाटा का औसत लेते हैं, तो तीन दिन के अंदर 147 किसान इस देश में आत्महत्या करते हैं। आधे घंटे में एक किसान अपनी जान देता है। जब आपका कान्फ्रेन्स खत्म होगा, उन तीन दिनों में एक सौ पचास किसान आत्महत्या कर चुके होंगे। लेकिन यह सब आपके मीडिया को देखकर नजर नहीं आता। वहां यह प्रदर्शित नहीं होता है। सबसे नया 2012 का डाटा भी आ चुका है। डाटा ऑन लाइन है। आप देख सकते हैं। छत्तीसगढ़ ने इस बार जीरो आत्महत्या  दिखलाया है, पश्चिम बंगाल ने डाटा जमा नहीं कराया है। उसके बावजूद आंकड़ा 14,000 तक आ गया है। तीन दिनों में तीन हजार बच्चे कुपोषण और भूख से जुड़ी बीमारियों से मौत के शिकार बनते हैं। इन्हीं तीन दिनों मे ंसरकार बड़े-बड़े कॉरपोरेट हाउस को और कंपनियों को 6800 करोड़ तक की आयकर में छुट देती है। सरकार के पास पैसा, किसान और बच्चों के लिए तो है नहीं। लेकिन आप पांच लाख करोड़ रुपए की सालाना छुट दे सकते हैं। यह पांच लाख करोड़ भी पूरी कहानी नहीं है। यह पांच लाख करोड़ रुपए केन्द्र की बजट से निकलते हैं। राज्य सरकारों और केन्द्र सरकारों द्वारा दूसरी कई तरह की रियायतें अलग से दी जाती हैं। पांच लाख करोड़ में वह सब जुड़ा नहीं है।
बजट में एक सेक्शन है, एनेक्स-टू, उसका शिर्षक है, ‘स्टेटमेन्ट ऑफ रेवेन्यू फॉरगॉन’। इसमें सारी जानकारी विस्तार से होती है। साल 2007 से यह जानकारी मिल रही है। अभी छह साल का डेटा अपने पास है। कितना पैसा कन्शेसन में गया। तीन तरह के कन्शेसन हैं, ग्रेट कन्फिलक्ट इन्कम टैक्स, कस्टम ड्यूटी वेवर और एक्साइज ड्यूटी वेवर। इन तीनों में इस साल पांच लाख करोड़ लगाए गए, इसमें सब्सिडी अलग है। यह सिर्फ केन्द्रिय बजट से दिया गया। हमारे पास यूनिवर्सल पीडीएस के लिए पैसा नहीं है, हमारे लिए स्वास्थ्य के लिए पैसा नहीं है, हमारे पास बच्चों के कुपोषण के लिए पैसा नहीं है। हमारे यहां मनरेगा 365 दिन नहीं 100 दिन का रोजगार है और पीडीएस सीमित है। इस देश में सिर्फ लूट मार ही यूनिवर्सल है। यह सब मीडिया में नजर नहीं आता।
मेरा सिर्फ इतना कहना है कि भारत में मीडिया राजनीतिक तौर पर आजाद है। लेकिन वह मुनाफे के प्रभाव में है। यह मार्शल लॉ नहीं है। कोई सेंसरशिप नहीं है। मीडिया राजनीतिक तौर पर आजाद है। लेकिन वह मुनाफे की कैद में है। यह स्थिति है मीडिया की।
एक शब्द बार-बार मीडिया में पिछले तीन सालों से आ रहा है। आप सबने सुना होगा, एंकर ने बताया होगा। क्रोनी कैपिटलिज्म। इसमें दो शब्द है, पहला कैपिटलिज्म। यह आप सब जानते हैं। दूसरा है, क्रोनी। यह क्रोनी हम हैं। मीडिया। क्रोनी कैपिटलिज्म में मीडिया क्रोनी है। यह स्थिति है मीडिया की। आप सबने पढ़ा था, अप्रैल में शारदा चिट फंड जब कॉलेप्स हो गई। उस वक्त एक खबर आई, बीच मंे फिर गायब हो गई। खबर था, सात सौ पत्रकार नौकरी से निकाले गए। मैं प्रभावित हुआ। यह खबर आ गई क्योंकि अक्टूबर 2005 से अब तक 5000 पत्रकारों की नौकरी गई है और कोई रिपोर्टिंग नहीं हुई। उस दिन एनडीटीवी ने एक इमोशनल स्टोरी किया। ये पत्रकार अब क्या करेंगे? इनका ईएमआई है। इनके बच्चे स्कूल जाते हैं। अब इनका घर कैसे चलेगा? यह सब उसी एनडीटीवी में चल रहा था, जिसने उसी महीने एनडीटीवी प्रोफीट से अस्सी लोगों को बाहर निकाला था और एनडीटीवी से 70 लोगों को बाहर निकाला था। डेढ़ से नौकरी गया एनडीटीवी के एक मुम्बई ऑफिस से। पूरे स्टेट में नहीं। एक ऑफिस में।
अक्टूूबर 2008 में जब फायनेन्सल कॉलेप्स हुआ। उस वक्त से बहुत सारी तब्दिलियां आई। मीडिया में भ्रष्टाचार तो पुरानी चीज है। कुछ नई चीज नहीं है। बुरी पत्रकारिता भी पुरानी चीज है।
कॉन्टेन्ट ऑफ जर्नालिज्म का एक उदाहरण कुछ दिन पहले देखने को मिला, जब एक बाढ़ पीड़ित के कंधे पर बैठकर एक पत्रकार रिपोर्ट कर रहा था। अगर पीड़ित पत्रकार के कंधे पर बैठता तो ठीक है। लेकिन उस रिपोर्ट में मीडिया के परजीवी होने का संकेत नजर आता है।
20 साल पहले जब हम मीडिया मोनोपॉली कहते थे तो साहूजी और जैन साहब का अखबार तीन-चार शहरों से निकलता था। भारत ऐसा देश है, जहां दो शहरों से आपका अखबार निकलता है तो आप नेशनल प्रेस बन जाते हैं। लेकिन मोनोपौली क्या था, इंडियन एक्सप्रेस के मालिक थे रामनाथ गोयनका। साहू और जैन मालिक रहे। यह मोनोपॉली अब खत्म हो गया। आज मीडिया मोनोपॉली का मतलब कॉरपोरेट मोनोपॉली के अंदर मीडिया एक छोटा डिपार्टमेन्ट बन कर रह गया है। आज सबसे बड़ा मीडिया मालिक कौन है? मुकेश अंबानी। जबकि मीडिया उसका मुख्य कारोबार नहीं है। यह उसके बड़े कारोबार का एक छोटा सा डिपार्टमेन्ट है। आप मुकेश भाई को देखिए, एक साल पहले नेटवर्क 18 को खरीदा। मैं सच बता रहा हूं, उनको नहीं पता कि उन्होंने क्या खरीदा? इसके अलावा 22 चैनल आया इनाडू से। तेलगू चैनल छोड़कर सब बिक गया। इनाडू मीडिया में अच्छा नाम है। लेकिन इनाडू का अब असली नाम है मुकेश अंबानी। ईनाडू का चैनल देखिए, वे कोल स्कैम, कैश स्कैम को कैसे कवर कर रहे हैं? ईनाडू का फुल बके मुकेश भाई का है। टीवी 18 का फुल बुके मुकेश भाई का है। उनको नहीं पता कि उन्होंने क्या खरीदा है? यह है उनका मीडिया मोनोपॉली। रामनाथ गोयनका के मोनोपॉली की तुलना आप मुकेश भाई के एक छोटे से दूकान से भी नहीं कर सकते।
आप देखिए कॉरपोरेट स्टाइल कॉस्ट सेविंग क्या है? आप टेलीविजन चैनल में देख सकते हैं, अब समाचार चैनल में समाचार खत्म हो गया है, टॉक शो बढ़ गए हैं। टॉक शो इसलिए अधिक हो गए क्योंकि बातचीत सस्ती है। बातचीत फ्री है। मुम्बई-दिल्ली से बुलाते हैं और महीने-दो महीने के बाद हजार-डेढ़ हजार रुपए का चेक भेजते हैं। यहां सात-आठ लोगों को बिठाकर दो दिन बात करते हैं। टाइम्स नाउ थोड़ा अलग है, वहां नौ लोग बैठकर अर्णव को सुनते हैं। टॉक टीवी शो का एक गंभीर वजह यही है कि यह सस्ता पड़ता है। रिपोर्टर को गांव में भेजने में, अकाल, बाढ़ में भेजने में पैसा डालना पड़ेगा। इससे अच्छा है, पांच लोगों को बिठा दो। मुझे लगता है, मनिष तिवारी और रविशंकर प्रसाद तो हमेशा टीवी स्टूडियो में ही रहते हैं। एक स्टूडियो से निकलते हैं और दूसरे में जाते हैं।

   ( विकास संवाद के सातवें मीडिया संवाद में जैसा पत्रकार पालागुमी साईनाथ ने कहा)



आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम