सोमवार, 29 दिसंबर 2008

रचनात्मक जनाक्रोश की आवश्यकता - राधा भट्ट

राधा भट्ट गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष हैं। वह उतरांचल के कई जनांदोलनों से जुड़ी रहीं हैं। यहाँ प्रस्तुत है, समाज में उत्पन्न जनाक्रोश पर उनसे हुई बातचीत के अंश -
मेरी समझ गांव के जनाक्रोश के साथ रही है, इसलिए मेरा जो विश्लेषण होगा, वह गांव केन्द्रित होगा। गांव में आम तौर पर लोग जल्दी अपनी हक की लड़ाई लड़ने के लिए सड़क पर नहीं आते। पहले तो वे सहते रहते हैं, चूंकि उन्हें घर भी चलाना है और बच्चे भी पालने हैं। जब हम जनाक्रोश की बात करेंगे, तो हमें इसे दो हिस्सों में बांटना होगा। एक है, रचनात्मक जनाक्रोश जिसमें विरोध का तौर–तरीका रचनात्मक और प्रतीकात्मक होता है। इसमें तोड़–फोड़ के लिए गुंजाइश नहीं होती। मैं खुद कई जनाक्रोश, जिसने आगे चलकर जनान्दोलन का रूप लिया, उसकी गवाह रही हूं। जैसे पहला रचनात्मक जनाक्रोश मुझे शराब के खिलाफ कौशानी के पास गरूड़ में देखने को मिला। पिथौरागढ़ के थल में और अल्मोड़ा के काफिरी खाल में भी यह आक्रोश देखने को मिला। महिलाएं अपने पतियों के शराब पीने की आदत से परेशान थीं, इसलिए उन्होंने शराब-बंदी के लिए इन गांवों में अभियान चलाया। इसमें कुछ पुरूषों ने भी महिलाओं का साथ दिया। हम कह सकते हैं कि तकलीफ जब हद से गुजर जाता है तो आक्रोश उभरता है। ये उदाहरण हैं सकारात्मक आक्रोश के। कुछ आक्रोश नकारात्मक भी होते हैं। इंदौर की एक घटना याद आती है। एक मुस्लिम भाई का अपना एक अस्पताल था। वहां इलाज कराने आई एक हिन्दू युवती इलाज के बाद घर नहीं पहुंची। संयोगवश इसी समय अस्पताल का एक मुस्लिम युवक भी छुट्टी लेकर चला गया था। यह दोनों अलग–अलग घटनाएं थीं। किसी ने इन दोनों अलग–अलग घटनाओं को मिलाकर एक कहानी गढ़ दी कि उस हिन्दू लड़की को वह मुसलमान लड़का ले गया है। इसके बाद आम जनता ने आक्रोश में आकर अस्पताल में तोड़–फोड़ की। किसी ने यह जांच करने की भी कोशिश नहीं की, कि आखिर वह दोनों एक–दूसरे को जानते भी थे या नहीं। बाद में वह लड़की लौट आई, वह बिना बताए अपने एक रिश्तेदार के यहां चली गई थी। कुछ दिनों बाद अपनी छुट्टी पूरी करके वह लड़का भी लौट आया। जिस तरह का आक्रोश अस्पताल में दिखा, वह आक्रोश वांछित नहीं है। यह दुर्बल समाज की पहचान है। जब तक जनाक्रोश जनहित में है, उससे सच उजागर होता और संपत्ति का नुकसान नहीं होता है, उस वक्त तक तो ठीक है। जिस जनाक्रोश में हिंसा और तोड़–फोड़ का समावेश हो गया, उसे दुर्बल जनाक्रोश ही कहना चाहिए।इन दिनों उत्तराखंड में जनाक्रोश से उभरे दो जनान्दोलनों का उल्लेख करना चाहिए। सिंगोली भटवारी जल विघुत परियोजना मंदाग्नि नदी पर बन रही है। वहां ग्रामीणों के पेड़ों को काटकर सड़क के लिए रास्ता बनाया जा रहा है। ग्रामीणों के जनाक्रोश से सड़क बननी बंद हो गयी है, लेकिन अब गांव के नीचे से सुरंग खोदना शुरू कर दिया गया है। अर्थात नीचे सुरंग होगा और ऊपर गांव। सुरंग बनाने के लिए विस्फोट किया जा रहा है। हिमालय की पहाड़ी अभी कच्ची है। यह भूकंप का क्षेत्र है। सवाल है कि ऐसे में कैसे गांव वालों की जान को दांव पर लगाकर सुरंग और सड़क जैसी परियोजनाओं को मंजूरी मिल रही है? सरकार यहां कंपनी के पक्ष में है। हमें हमेशा जनहित में पैदा हुए आक्रोश को मदद करनी चाहिए। भीलंगाना के ऊपर भाटगांव (टिहरी) में सुरंग बन रही है। इसकी वजह से पानी ने अपना रास्ता बदल लिया। अब गांव वालों को पानी के लिए तीन–चार किलोमीटर दूर जाना होता है। इन्हीं लोगों के लिए आ॓मप्रकाश डंगवाल पिछले पन्द्रह दिनों से उपवास पर बैठे हैं। यह गहरे आक्रोश हैं, चूंकि इसमें सिर्फ अपने खाने–पीने और आ॓ढ़ने–बिछाने की चिन्ता नहीं है। इसमें पूरे समाज की चिन्ता है। डंगवाल अपनी लड़ाई के साथ–साथ इस आक्रोश से पूरे हिमालय की लड़ाई लड़ रहे हैं।

1 टिप्पणी:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

आ॓मप्रकाश डंगवाल जी जैसे निस्वार्थ समाज की सेवा करने वाले बिरले ही होते हैं...उनको हमारा नमन...
नीरज

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम