उसका नाम भव्य केतन वासुदेव है। सभी दोस्त प्यार से उसे भव्य के नाम से ही बुलाते हैं। वह दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में एमए का छात्र है। इससे पहले उसने महाराजा अग्रसेन कॉलेज से पत्रकारिता की पढ़ाई की। उसके बाद अब वह इतिहास की पढ़ाई कर रहा है। लेकिन इतिहास पढ़ते हुए उसने ‘पत्रकारिता’ को पीछे नहीं छोड़ा। आज वह एक नायाब तरीके से अपनी बात दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर के छात्रों के समक्ष रख रहा है।
भव्य अपनी बात कहने के लिए उन लेखकों का सहारा लेता है, जो उसकी बात तथ्यों और संदर्भो के साथ लिख रहे हैं। पढ़ने में भव्य की रूची गहरी है। वह नियमित अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अतिरिक्त दर्जनों पत्र-पत्रिकाएं और किताबें पढ़ता है। इन मुद्रित सामग्रियों में जहां उसे कोई ऐसी बात लगी, जिसे उसकी समझ से अन्य दोस्तों तक जाना चाहिए, वह फौरन उसकी फोटो कॉपी कराकर दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों और कॉलेजों के नोटिस बोर्डों पर चिपका आता है। उसके द्वारा चिपकाई गई अधिकांश सामग्रियां किसी एक विचारधारा से प्रेरित जान पड़ती हैं। लेकिन भव्य के काम की खासियत यह है कि वह किसी बैनर के नीचे खड़े होकर यह काम नहीं करता। वह किसी छात्र अथवा किसी वैचारिक संगठन के आन्दोलन का हिस्सा नहीं है। वह गोष्ठीयों और सेमिनारों में जाना भी पसंद नहीं करता। उसके परिवार का भी किसी प्रकार के संगठन से कुछ लेना-देना नहीं है। भव्य के अनुसार- वह अपने इस काम को आत्म-प्रेरणा से करता है।रामजस कॉलेज में इतिहास का छात्र राघव पूरी तरह से भव्य के विचारों से सहमत नहीं होने के बावजूद नोटिस बोर्डस पर पर्चा चिपकाने में उसकी मदद करता है क्योंकि इस काम के प्रति भव्य की प्रतिबद्धता उसे पसंद है।जब भव्य से पूछा कि ‘क्या तुम्हारे चिपकाए हुए इन पर्चों को छात्र पढ़ते भी हैं? या फिर यह यूंही नोटिस बोर्ड्स की शोभा बढ़ाता रह जाता है?’भव्य का जवाब था- ‘चिपकाए गए पर्चे आम-तौर पर अगले दिन फटे हुए मिलते हैं। इसका मतलब उसे पढ़ा गया है। बात किसी के मन माफिक नहीं होगी तो उसे फाड़ दिया गया।’‘यदि तुम्हारे चिपकाए पर्चे कोई फाड़ दे फिर तुम क्या करते हो?’‘करना क्या है, जिस पर्चे को फाड़ा गया है, उस पर्चे की दूसरी कॉपी कराके एक बार फिर वहीं चिपका आते हैं।’भव्य का जवाब बहूत सुन्दर लगा।भव्य की अपनी बात कहने का यह आग्रह काबिले गौर ही नहीं काबिले तारीफ भी है। हो सकता है, भव्य ‘क्या कहता है?’ इस बात से कुछ लोगों की असहमति हो लेकिन वह ‘किस प्रकार कहता है?’ इसकी तारीफ…. मुझे विश्वास है, उसके विचारों की आलोचना करने वाले भी करेंगे।
मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009
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8 टिप्पणियां:
lage raho bhai.koi prayas vyarth nahi jata
नर हो न निराश करो मन को....
गिर कर उठना, उठकर चलना
यह क्रम है संसार का
कर्मवीर को फर्क ना पड़ता
किसी जीत या हार का !!
"भव्य केतन वासुदेव" मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ है....दृढ़्प्रतिज्ञ व्यक्ति से तो भगवान भी हार मान लेते हैं, फिर पर्चा फाड़ने वाले कौन-सी बला हैं !!
ऐसी ही घटना से जे.एन.यू. में मैं भी रुबरु हुआ था, और अंत में अपने अनवरत पर्चा-सटाई से पर्चाफाड़ू ग्रुप को हरा ही दिया.
हा हा हा............
Bhavya koshish karta hai aur ahinsak dhang se karta hai, nichaya hi achchhi baat hai. veh kya kahta hai yeh bhi pataa chal paata to aur bhi achchha lagta.
भव्य अच्छा करता है। लेकिन मेरा सुझाव है कि वह फोटोस्टेट चिपकाने तक ही अपने आप को सीमित न रखे, कुछ अपना स्वयं का भी लिखकर चिपकाने की शुरुआत करे। इससे उन्हें अपनी बात को अपने शब्दों में कह पाने की आदत पड़ेगी। दूसरों के शब्द हमारा साथ बहुत दूर तक नहीं देते। आगे चलकर वे सन्दर्भ तो बन सकते हैं, मन्तव्य नहीं।
भव्य की भव्यता और सभ्यता
फटे हुए पर दोबारा चिपकाने में
एक खूबसूरत अहसास है कराती
बात जो कही जाती है, भाती है
नहीं भाती तो हटाई ही है जाती।
बहुत ही दिलचस्प व्यक्तित्व है शायद इसी को भव्य कहते है,
मुझे भव्य के विचार अच्छे लगे और आपके कहने का तरीका भी,
उम्मीद करता हूँ की आगे भी कई चरित्र चित्रण पढ़ने को मिलेगा
तपशवनी आनंद
par aapka yeh kekh to leak se hatkar masik patrika mein chap chuka hai.....
khair bhavya hamare dipu bhai ke sabse acche dost hain... pichle saaal ye bhai saheb hamare mcrc mein hi the......
leak sehatkar kaa link......
http://leaksehatkar.blogspot.com/
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