शुक्रवार, 31 जुलाई 2009
गोरख पांडेय
सोचो तो मामूली तौर पर जो अनाज उगाते हैं
उन्हें दो जून अन्न ज़रूर मिलना चाहिए
उनके पास कपडे ज़रूर होने चाहिए जो उन्हें बुनते हैं
और उन्हें प्यार मिलना ही चाहिए जो प्यार करते हैं
मगर सोचो तो यह भी कितना अजीब है कि
उगाने वाले भूखें रहते हैं
और उन्हें पचा जाते हैं,
चूहे और बिस्तरों पर पड़े रहने वाले लोग
बुनकर फटे चीथडों में रहते हैं,
और अच्छे से अच्छे कपडे प्लास्टिक की मूर्तियाँ पहने होती हैं
गरीबी में प्यार भी नफरत करता हैं
और पैसा नफरत को भी प्यार में बदल देता है.
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2 टिप्पणियां:
वर्तमान का यथार्थ कितने कम शब्दों में बयाँ किया है , सुंदर ।
सुन्दर कविता. लेकिन पैसा शायद नफ़रत को प्यार में बदलता नहीं, केवल ऐसा आभास दिलाता है.
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