सोमवार, 2 मई 2011
जंतर मंतर पर मजदूर मांग पत्रक आंदोलन
मजदूर मांग पत्रक आंदोलन के बैनर तले छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, पंजाब और दिल्ली से मजदूरों का एक बड़ा वर्ग दिल्ली के जंतर मंतर पर अपनी मांगों के साथ इकट्ठा हुआ। मजदूर दिवस के 125 वंे वर्ष पर इस आंदोलन का आगाज हुआ,
जिसकी खास बात यह है कि इसमें किसी खास राजनीतिक या गैर राजनीतिक दल/व्यक्ति के पास इसका नेतृत्व नहीं है।
इस जुटान के संयोजकों का कहना है कि इस आंदोलन में कई धारा के लोगों की भागीदारी है लेकिन वे इसे देश भर के मजदूरों के सांझा और एकजुट लड़ाई के तौर पर इसे आगे बढ़ाना चाहते हैं।
आंदोलन की प्रमुख मांगेः-
- काम के घंटे आठ करो
- जबरन ओवर टाइम बंद करो
- न्यूतम मजदूरी ग्यारह हजरा रुपए करो
- ठेका प्रथा खत्म करो
- कारखाना में सुरक्षा के पूरे हों इन्तजाम
- किसी भी प्रकार के दुर्घटना की स्थिति में मुआब्जे की रकम पूरी मिले
- स्त्री मजदूरों के साथ भेदभाव ना बरतों
- बाहर से आए प्रवासी मजदूरों का शोषण बंद करो
- सभी घरेलू और स्वतंत्र मजदूरों का पंजीकरण हो
- मालिकों की अंधेरगर्दी रोको
- श्रम विभाग के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाओ
- सभी श्रम कानून सख्ती से लागे हों
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2 टिप्पणियां:
मजदूर!
सबके करीब
सबसे दूर
कितने मजबूर!!!!
इसी महीने एक तारिख को मजदूर मांग पत्रक के नाम पर दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक बड़ी रैली हुई थी। जिसमें छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, पंजाब और दिल्ली से मजदूरों का एक बड़ा वर्ग दिल्ली आया था। इनमें सबसे बड़ी संख्या थी, गोरखपुर से आने वाले मजदूरों की। वे संख्या में लगभग दो हजार थे। यह भी उस वक्त हुआ, जबकि उनकी फैक्ट्री का प्रबंधन बिल्कुल यह नहीं चाहता था कि वे लोग दिल्ली आएं। मजदूर दिवस के एक सौ पच्चीसवें साल पर दिल्ली के जंतर मंतर पर इकट्ठे हुए इस मजदूर आंदोलन की खास बात यही थी कि किसी राजनीतिक या गैर-राजनीतिक दल के पास इसका नेतृत्व नहीं था। इस जुटान के संयोजकों ने बताया था कि इस आंदोलन में कई धारा के लोगों की भागीदारी है। वास्तव में इसे देश भर के मजदूरों के सांझा और एकजुट लड़ाई के तौर पर आगे बढ़ाने के प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है।
मांग पत्रक आंदोलन में आए दूसरे प्रांतों के साथियों ने अब तक अपनी नई जिन्दगी शुरू कर दी होगी। वही रोज सुबह उठना फैक्ट्री जाना और देर शाम वापस आना। लेकिन गोरखपुर के विनोद सिंह, विरेन्द्र यादव, अमित कुमार, रमानन्द साहनी, शैलेष कुमार, पप्पू जायसवाल, रामजन्म भारत, विनय श्रीवास्तव, देवेंद्र यादव, विनोद दुबे, ध्रुव सिंह, श्रीनिवास चौहान, जैसे एक दर्जन से अधिक मजदूरों को पता ही नहीं था कि मांग पत्रक आंदोलन का साथ देना उनके लिए इतना खतरनाक हो सकता है। ये सभी साथी गोरखपुर जिला अस्पताल में जीवन मौत से जूझ रहे हैं।
यहां यदि गोरखपुर के अखबार की भूमिका की बात करें तो वह मालिकों के साथ ही चालाकी के साथ अपनी पक्षधरता दिखा रहा है। चूंकि अखबारों के सारे विज्ञापन उन्हीं की तरफ से आते हैं। फिर मजदूरों का पक्ष लेकर वह अपने व्यवसाय में नुकसान क्यों उठाएगा। शहर भर में बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा इस घटना की घोर भर्त्सना की गई लेकिन किसी भी अखबार में यह खबर नहीं छपी। खबर सिर्फ घटना परक थी। जबकि इतनी बड़ी संख्या में मजदूरों पर जानलेवा हमला होना किसी भी समाज के लिए शर्मनाक है।
बताया जा रहा है, इस सबके पीछे मजदूरों बढ़ती एकता को कमजोर करने का प्रयास है। वास्तव में गोरखपुर के लगभग सवा दो सौ फैक्टरियों में काम करने वाले कई हजार मजदूर अगर एक हो गए तो काम के घंटे आठ, जबरन ओवर टाइम बंदी, न्यूतम मजदूरी ग्यारह हजार रुपए, ठेका प्रथा बंदी जैसी तमाम मांगे मालिकों को माननी पड़ेगी। जो वे कभी नहीं चाहेंगे। इस वक्त जिन अखबारों को मजदूरों के पक्ष में होना चाहिए, वे फैक्ट्री मालिको के पास विज्ञापन के जुगाड़ में लगे हैं। इस तरह की स्थिति पर क्या कहा जा सकता है?
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