कोलकाता के एक दोस्त ने उस मीठाई वाले की कहानी सुनाई थी। जो अपनी मीठाई की जरा सी शिकायत सुनकर गुस्से से भर जाता था। उस दूकान वाले को जानने वाले यह भली प्रकार से जानते थे, बोली में थोड़ा कड़कपन है लेकिन मीठाई में मिलावट नहीं करता। मिलावाट के अलावा उसकी मीठाई में दूसरे तरह की कमियां हो सकती थी, मसलन चीनी अधिक होना, खट्टापन आना। ईमानदारी से काम करने की वजह से उसकी मीठाई की कीमत स्वाभाविक है, दूसरे दुकानदारों से अधिक थी। उस दुकानदार ने जिस तरह अपनी ईमानदारी के साथ कभी समझौता नहीं किया और बाजार में मिलावटखोरों का दबाव होने के बावजूद वह ईमानदारी से बाजार में जमा रहा, यदि इस ईमानदारी के साथ उसने गुणवत्ता से भी समझौता नहीं किया होता तो शक नहीं कि फिर उसके काम की पूरे शहर में धाक होती।
15 तारिख की शाम श्रीराम सेन्टर में बगदाद के टीवी पत्रकार मुंतजिर अल जैदी की पुस्तक ‘द लास्ट सेल्यूट फॉर प्रसिडेन्ट बुश’ पर आधारित नाटक ‘द लास्ट सेल्यूट’ का प्रदर्शन था, मंडी हाउस में नाटक खत्म होने के बाद एक महिला के सवाल पर जिस तरह निर्देशक अरविन्द गौड़ ने प्रतिक्रिया की, उसे देखने के बाद कोलकाता के मीठाई वाले की कहानी याद हो आई। जो मीठाई वाला शुद्धता का पोषक, नेकनियत और ईमानदार था। गौड़ साहब के थिएटर के प्रति प्रतिबद्धता को कौन सेल्यूट नहीं करेगा? इस तरह उनसे दर्शकों की अपेक्षा का बढ़ जाना, अनायास नहीं था। अब आप ही कहिए, आप अरविन्द गौड़ द्वारा निर्देशित नाटक देखने जाएं और पूरी तैयारी में पटकथा से लेकर ध्वनि संयोजन तक में कई खामियां नजर आए तो हम जैसे आम दर्शक को भी लगता है कि यह और बेहतर हो सकता था। गौड़ साहब के प्रश्न आमंत्रित करने पर जब यही बात दर्शक दिर्घा से आई तो गौड़ साहब चुप कराने के अंदाज में थिएटर के लिए अपने समर्पण और त्याग की कहानी सुनाने लगे। जबकि जिन महिला ने सवाल पूछा था, वह लंबे समय से थिएटर से जुड़ी रहीं हैं। उनका थिएटर के प्रति समर्पण अरविन्द गौड़ से कम तो नहीं माना जा सकता।
जवाब में गौड़ साहब ने जो कहा, उनके कहने का कुल जमा लब्बोलुआब यही था कि उन्होंने बिना किसी सरकारी मदद के थिएटर को जिन्दा रखा है। चूंकि वे प्रतिबद्धता के साथ थिएटर के साथ जुड़े हैं, इसलिए किसी व्यक्ति का अधिकार नहीं बनता कि उनके काम की आलोचना करे! क्या दर्शकों से सवाल पूछने का आग्रह मात्र इसलिए था, कि लोग एक एक करके उठे और वाह गौड़ साहब वाह बोलकर बैठ जाएं।
द लास्ट सैल्यूट के एक दृश्य में मुंतजिर की प्रेमिका उनसे खुद को भूला देने की बात करती हैं। चूंकि उसकी शादी उसके चचेरे भाई से होने वाली है। क्या इस बिछड़ने की वजह सीया-सुन्नी वाला मसला है या फिर निर्देशक इशारों-इशारों में जूता फेंकने वाले प्रसंग को दिल टूटने से जोड़कर यह बताना चाहते हैं कि जूता प्रकरण की वजह अमेरिका द्वारा बरपाई गई तबाही से मुंतजीर के अंदर उपजी बुश के लिए बेपनाह नफरत मात्र नहीं थी। कुछ और भी था। द लास्ट सैल्यूट में बहूत शोर के बीच में मुंतजीर की कहानी की आत्मा कहीं खो गई थी।
यह बात भी समझना सबके बस की बात नहीं है कि जिस मुंतजिर की तुलना गौड़ साहब भगत सिंह से करते नहीं थक रहे थे, उस मुंतजिर ने अपना आदर्श महात्मा गांधी को बताया।
बहरहाल काम के प्रति अरविन्द गौड़ की प्रतिबद्धता को सलाम लेकिन महीनों लगकर संयम के साथ पारलेजी की बिस्किट और राव साहब के चाय के साथ गौड़ साहब रिहर्सल करते हैं। थोड़ा संयम रखकर यदि वे आलोचनाओं को भी सुन लें तो महेश भट्ट के शब्दों में ‘आलोचना के लिए उठे हाथ तराशने के भी काम आएंगे।’
गुरुवार, 19 मई 2011
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