बुधवार, 10 अगस्त 2011

‘सम्मनों’ के देश में

आज ‘मोहल्ला लाइव’ के कार्यक्रम में सोचकर गया था, कुछ भी हो जाए सहमत होकर लौटना है। आजकल ई-मेल, एसएमएस और फोन पर लोगों की यही समझाइश सुन रहा हूं। नेगेटिव होते जा रहे हो। आज किसी बात पर आपत्ति नहीं। सभी बातों को सकारात्मक करके देखना है। माफ कीजिएगा, आमिर खान के ‘खाली चेक’ की वजह से यह हो नहीं पाया।
सारी बातें अच्छी हो रहीं थीं। कार्यक्रम के सूत्रधार पूरी तैयारी के साथ आए थे। हिन्दी के कार्यक्रम में सूत्रधार को इतनी सुन्दर तैयारी के साथ बहुत दिनों बाद सुना। इसलिए अच्छा लगा। एक वक्ता को छोड़कर तीन के पास अपनी बात रखने के लिए तैयारी नजर आई। जो एक वक्ता रह गए उनके लिए सूत्रधार ने बताया था कि आमिर खान ने उनकी लिखी फिल्म को अपना बनाने के लिए खाली चेक देकर कहा था, जो रकम भरनी है, भर लो, यह कहानी मुझे दे दो। चार वक्ताओं में रविकांत, महमूद फारूकी और रविश कुमार के नाम तो याद रहे लेकिन चौथे वक्ता का नाम याद करने की कोशिश करता हूं तो वह खाली चेक सामने आ जाता है। माफ कीजिएगा। इस विरोधाभास को समझना आसान नहीं है कि एक व्यक्ति जो फिल्म को नाच, गाने और मनोरंजन से ज्यादा कुछ नहीं समझता फिर वही आदमी खाली चेक वापस क्यों करता है? आमिर खान ने जिसके सामने खाली चेक रख दिया, उसमें कुछ तो बात होगी। वह आदमी इतना निराशावादी और अंदर से इतना खाली कैसे हो सकता है कि कह देः- ‘फिल्मों से आज तक कुछ बदला है क्या?’ इसी तरह की एक चालाकी मीडिया में भी आई है, जो कहती है, मीडिया ‘सेवा’ नहीं ‘धंधा’ है। रविश कुमार ने अपनी बातचीत में इस बात को स्वीकार किया लेकिन खाली चेक इस बात को फिल्म के परिपेक्ष में स्वीकार नहीं कर पाए। फिल्म बनाने वाला समाज भी उतना ही चालाक हुआ है, जितनी मीडिया हुई है। माध्यम पर गोबर लिप कर कहते हैं, यही असली रंग है। यदि फिल्म से कुछ बदलना नहीं था, देलही बेली की भाषा में कहूं तो कुछ उखड़ना नहीं था फिर उनकी अपनी फिल्म को ‘ए’ सर्टिफिकेट लेकर बाजार में क्यों आना पड़ा?



झारखंड के डॉक्यूमेनट्री फिल्म एक्टिविस्ट मेघनाथ, इसी बात को फिल्मकारों की नासमझी कहते हैं। फिल्म इकलौता ऐसा माध्यम है, जिसकी ताकत को सरकारें अधिक समझती हैं और इसे बरतने वाले कम करके आंकते हैं। वरना क्या वजह रही होगी कि देश के सीनेमेटोग्राफी के कानून को बाकि सूचना प्रसार के कानूनों से सख्त बनाने की। किसी समाचार चैनल या अखबार को प्रसारित या प्रकाशित होने से पहले किसी सेंसर बोर्ड से पास नहीं होना होता। किसी बात पर आपत्ति हो तो जनता के दरबार में आने के बाद उसपर चर्चा होती है। यह हक फिल्म को क्यों नहीं मिला साहब? एक बार रीलिज कीजिए, उसके बाद जनता की कोई आपत्ति आए तो वापस मंगा लो। हर्षद मेहता पर बनी 'घपला' जैसी बेहतरिन फिल्म आज तक आम जनता के बीच क्यों नहीं आ पाई? ‘आरक्षण’ फिल्म अभी रीलिज भी नहीं हुई है, सेंसर बोर्ड को फिल्म पर आपत्ति नहीं है। फिर हमारे समाज का एक वर्ग कैसे अपने पूर्वाग्रह के आधार पर फिल्म को प्रतिबंधित करवाने के नाम पर उसकी पब्लिसिटी कर रहा है। फिल्म से कुछ होना नहीं है तो प्रकाश झा की ही पिछली फिल्म राजनीति का प्रोमो देखकर लोगों को यदि कैटरिना कैफ में सोनिया गांधी के दर्शन हो गए तो क्या आफत आ गई? ‘फायर’ के साथ इस देश में क्या हुआ? किसी से छुपा है क्या? मराठी में कुछ समय पहले आई एक फिल्म को सेंसर बोर्ड के साथ-साथ शिव सेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से भी अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना पड़ा था।
खाली चेक यदि यह कहते कि मिथुन, गोविन्दा या सलमान की फिल्मों को सिर्फ सेंसर बोर्ड से पास होना होता है, यदि आप कुछ अलग हटकर करना चाहते हैं तो देश में हिन्दू सेना, अल्पसंख्यक सेना और दलित सेना इन तीनों से आपको अपनी फिल्म पास करानी होती है। घर-घर जाकर फिल्म दिखानी पड़ती है तो बात समझ आती। अब जब हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर ‘सम्मनों’ के देश में जी रहे हैं तो गंगा सहाय मीणा और राकेश कुमार सिंह सरिखी फिल्में कैसे बन सकती हैं? हो सकता है कि सम्मनों के मुल्क में जी रहे एक पटकथा लेखक की यह झल्लाहट हो कि ‘मुझसे नहीं होता, तुमसे जो बन पड़ता है कर लो।’

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आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम