01
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संपादकजी,
छापकर आवरण पर
नग्न स्त्रियों की तस्वीर
ललकारते हैं रात में
यही है तुम्हारी संस्कृति
देख लो खजुराहो
याद आते ही मनु स्मृति
कहते हैं
जला दो,
इसमें दलित विरोधी बातें लिखी हैं
दलित अधिकार, आदिवासी अधिकार में
शामिल नहीं है
दलित महिला, आदिवासी महिला,
का अधिकार,
यह जानते हैं हम
पर मानते नहीं।
स्त्री जो घर में छुपाई गई
बाजार में उघाड़ी गई
ना छुपना स्त्री की नियत थी,
ना उघड़ना उसकी मर्जी,
उसका छुपना पुरूष की इच्छा थी
और उघड़ना पुरूष की कुंठा।
02
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पत्नी को बेटी को सात पर्दों में रखा
और प्रेमिका के लिए स्त्री मुक्ति आन्दोलन
तुम दोगले हो और तुम्हारा आंदोलन खोखला
होना-खोना दर्जन भर औरतों के साथ
तुम्हारा पुरूषार्थ है
इसमें तुम्हारी स्त्री मुक्ति है, तुम्हारा स्त्री विमर्श है
यदि बेटी लिखे सोना दस मर्दों के साथ
बीवी लिखे पाना-खोना दर्जन भर मर्दों का हाथ
तुम्हारे पांव तले जमीन निकल जाएगी
हर आंदोलन की शुरूआत घर से क्यों नहीं
मुक्त करो बहनों को, बीवियों को, बेटियों को
अपने नजरों के चंगुल से
जातिय दंभ की तरह पुरूष होना भी दंभी बनाता है
श्रेष्ठता का बोध कराता है
तुम भी तो पुरूष हो, दंभ और श्रेष्ठता से भरे हुए।
पहले अपने ‘पुरूष’ होने के झूठे दंभ से बाहर आओ
वर्ना स़्त्री मुक्ति की बात उस लोमड़ी की चालाकी है
जिसने भेड़ खाने के लिए भेड़ खाने का कानून बनाया
स्त्री मुक्ति के नाम पर स्त्री शोषण की राह तलाशते तुम
हे! महान साहित्यकार तुम्हारी स्त्री मुक्ति को प्रणाम।
03
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संपादकजी,
छापकर आवरण पर
नग्न स्त्रियों की तस्वीर
ललकारते हैं रात में
यही है तुम्हारी संस्कृति
देख लो खजुराहो
याद आते ही मनु स्मृति
कहते हैं
जला दो,
इसमें दलित विरोधी बातें लिखी हैं
दलित अधिकार, आदिवासी अधिकार में
शामिल नहीं है
दलित महिला, आदिवासी महिला,
का अधिकार,
यह जानते हैं हम
पर मानते नहीं।
स्त्री जो घर में छुपाई गई
बाजार में उघाड़ी गई
ना छुपना स्त्री की नियत थी,
ना उघड़ना उसकी मर्जी,
उसका छुपना पुरूष की इच्छा थी
और उघड़ना पुरूष की कुंठा।
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पत्नी को बेटी को सात पर्दों में रखा
और प्रेमिका के लिए स्त्री मुक्ति आन्दोलन
तुम दोगले हो और तुम्हारा आंदोलन खोखला
होना-खोना दर्जन भर औरतों के साथ
तुम्हारा पुरूषार्थ है
इसमें तुम्हारी स्त्री मुक्ति है, तुम्हारा स्त्री विमर्श है
यदि बेटी लिखे सोना दस मर्दों के साथ
बीवी लिखे पाना-खोना दर्जन भर मर्दों का हाथ
तुम्हारे पांव तले जमीन निकल जाएगी
हर आंदोलन की शुरूआत घर से क्यों नहीं
मुक्त करो बहनों को, बीवियों को, बेटियों को
अपने नजरों के चंगुल से
जातिय दंभ की तरह पुरूष होना भी दंभी बनाता है
श्रेष्ठता का बोध कराता है
तुम भी तो पुरूष हो, दंभ और श्रेष्ठता से भरे हुए।
पहले अपने ‘पुरूष’ होने के झूठे दंभ से बाहर आओ
वर्ना स़्त्री मुक्ति की बात उस लोमड़ी की चालाकी है
जिसने भेड़ खाने के लिए भेड़ खाने का कानून बनाया
स्त्री मुक्ति के नाम पर स्त्री शोषण की राह तलाशते तुम
हे! महान साहित्यकार तुम्हारी स्त्री मुक्ति को प्रणाम।
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6 टिप्पणियां:
Adbhut acchi bhavnayen hain
यह अच्छी बात है कि आप इस तरह सोच सकते हैं | सच यही है भी | यह समझ अधिकाँश पुरुषों में पैदा हो जाए तो पूरा समाज बदल जाए ... लेकिन स्त्री की पीडा का इतिहास तो दबी हुई सिसकियों का इतिहास है | जब शिक्षा के अवसर आये तो देखिये क्या हुआ , एक लड़की ने पूरे समाज की चेतना को झकझोर दिया | इसलिए तो सामन्ती सोच वाले पुरुष उसे अँधेरे में रखते हैं .... जबकि समाज को बदलने की क्षमता भी उसी के पास है | एक सुसंस्कृत स्त्री पूरे परिवार को संस्कार देती है और उन अच्छे संस्कारों की जरूरत पुरुष को ही अधिक है |
शुभकामनाएं!
इला
अच्छा लगा आपकी कविताओं से गुजरकर, गालियों को बदलने की जगह मिटाना अच्छा होगा
सुन्दर प्रस्तुति
बधाई
आर्यावर्त
बहुत सटीक बातें कही हैं आपने ।किसी भी आन्दोलन की शुरुवात घर से ही होनी चाहिए ।जागरूक करने के पहले जागरूक होना ज़रूरी है ।
अद्भुत कविता...परिपक्व सोच ..सुन्दर शिल्प..सार्थक बातें..साधुवाद.
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