यह घटना अगस्त तीन की है। इसे इसलिए दर्ज कर रहा हूं ताकि सनद रहे। अगस्त दो की रात एक बजे के आस-पास का वक्त रहा होगा। माने तीन अगस्त को शुरू हुए अभी एक घंटा ही बीता था। मैं अपने दो मित्रों को उनकी गाड़ी तक छोड़ने के लिए घर से लगभग सौ-दो सौ मीटर तक आया था। कई बार दोस्तों में घंटों बात होने के बाद भी विदाई के समय कुछ बातें रह ही जाती है। जैसे घर वालों को ट्रेन ठीक खुलते वक्त कुछ बातें याद आ जाती है। हमारी बात थोड़ी देर में खत्म हुई और वे गाड़ी लेकर आगे बढ़ गए। इस बीच हम तीनों में से किसी ने ध्यान नहीं दिया कि दिल्ली पुलिस के दो कांस्टेबल रात की गश्त पर हैं। वैसे यह ध्यान देने वाली बात भी नहीं थी। वे अपनी नौकरी कर रहे थे।
मेरे दोस्त गाड़ी लेकर आगे बढ़े और मैं अपने घर की तरफ मुड़ा, उस वक्त का यह दृश्य मेरे लिए थोड़ा अजीब था। मोटर सायकिल पर आए दो कांस्टेबल में से पिछे बैठे कांस्टेबल ने अचानक से कहा- ‘गाड़ी रोक, गाड़ी रोक।’
मानों कोई बड़ा अपराध हुआ हो वहां। मेरी नजर उनकी तरफ गई। आगे वाले कांस्टेबल मेरी तरफ मुखातिब थे-‘यह गाड़ी हमें देख कर भागी क्यों?’
यह सवाल मुझे थोड़ा अजीब लगा, यदि उन्हें कोई संदेह है तो गाड़ी रोक कर पूछताछ करनी चाहिए। रात को सड़क पर खड़े होने पर किसी तरह की आपत्ति है तो पूछ-ताछ करते लेकिन ‘यह गाड़ी हमें देखकर क्यों भागी? यह सवाल मुझे थोड़ा अजीब सा लगा। मैने पलटकर पूछा- ‘तो क्या आपसे पूछकर जाना चाहिए था?’
यह सुनना था कि पिछे बैठे कांस्टेबल साहब उछलकर मोटर सायकिल से नीचे उतर आए। उसने धक्का देते हुए कहा- चल थाने (तिमारपुर) तेरी औकात बताते हैं।
वजीराबाद गांव दिल्ली में कम आमदनी वालों की रिहायशी बस्ती है। इसलिए दिल्ली पुलिस के किसी भी कांस्टेबल के लिए यहां किसी की औकात नापने की सोचना आसान सी बात है। मैने इन दोनों कांस्टेबल के साथ थाने जाने का इरादा बना लिया। (यदि मैं उनके साथ थाने जाता तो दिल्ली ट्रेफिक पुलिस का, एक मोटर सायकिल पर तीन लोगों वाला कानून टूटता क्योंकि वे दो लोग थे और अपने साथ ही मोटर सायकिल पर बिठाकर मुझे थाने ले जाना चाहते थे)
एक कांस्टेबल के साथ मैं घर आया और अपना पर्स, कैमरा और मोबाइल साथ लेकर, कांस्टेबल के साथ ही वापस मौका ए वारदात पर पहुंचा। घर से कैमरा लेने के बाद दिल्ली पुलिस के उस कांस्टेबल से जो बात हुई, उसकी फूटेज मेरे पास है।
कांस्टेबल को मुझसे उलझता देखकर मेरे मित्र वापस आ गए थे। दोनों दिल्ली की अलग-अलग प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम करते हैं। यह बात वे कांस्टेबल नहीं जानते थे। दोनों मित्रों में एक एक लड़की को देखकर, कांस्टेबल धमकाने के लिहाज से बोला- ‘तुम्हे पता है, इतनी रात को लड़का और लड़की का सड़क पर निकलना दिल्ली में जूर्म है!’
कांस्टेबल ने यही सोचा था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले बीए के दोनों बच्चे होंगे और उसकी बात से डर जाएंगे। जबकि मेरी दोस्त को रात, दिल्ली और दिल्ली में गुनाह वाली बात खबरिया चैनल के लिहाज से उपयोगी लगी, सो उसने अपना मोबाइल वीडियो रिकॉर्ड के मोड पर डालकर, उनकी ही बात दोहराते हुए पूछ लिया- ‘क्या वास्तव में गुनाह है?’
दूसरे मित्र थाना ले जाने की बात पर गुस्से में थे और अपना परिचय दे चुके थे कि वे अमुक चैनल में काम करते हैं। इस वक्त दोनों कांस्टेबल की हालत रंगे हाथांे पकड़े गए चोर की तरह हो गई थी। कैमरा ऑन था, एक के बाद एक सवाल दोनों पूछ रहे थे लेकिन उन दोनों ने चुप्पी साध ली। एक ने जाकर पीसीआर (पुलिस कंट्रोल रूम) को फोन किया। उनकी गाड़ी आई और मौके की गंभीरता को मसझते हुए, दस मीनट में चली भी गई। अगले बीस मीनट में एक दर्जन कांस्टेबल और सब इंस्पेक्टर हमारे आस-पास मौजूद थे। इतने पुलिस वाले, किस क्राइम की तफ्तीश के लिए धीरे-धीरे इकट्ठे हो रहे थे, यह अब भी मेरे लिए राज है।
इस मौके को देखकर मैंने कहा भी कि इतने पुलिस वालों की यहां जरूरत तो नहीं है। सभी यहां एक साथ इकट्ठे हों और इस मौके का फायदा कोई वास्तविक अपराधी उठा ले जाए, यह भी तो ठीक नहीं है।
इकट्ठे हुए पुलिस वालों में एक सब इंस्पेक्टर साहब अपने पत्रकार मित्रों के नाम गिनाने लगे। सबके साथ उनके कितने मधुर रिश्ते हैं, इसकी भी दुहाई दी।
दूसरे साहब, कांस्टेबल की कम उम्र का हवाला देकर, उसे माफ करने की गुजारिश करने लगे।
एक साहब ने कहा, बता देते पत्रकार हैं तो शिकायत का मौका ही नही देते।
इस बीच मेरी मित्र ने अपनी एक साथी को फोन करके सारी स्थितियों से अवगत कराया और वह इस मामले को कवर करने के लिए नोएडा से यूनिट के साथ वजीराबाद गांव के लिए चल पड़ी।
जितने पुलिस वाले उस दिन आए थे, उनमें सबसे बुजूर्ग पुलिस अंकल ने हमें समझाते हुए कहा-
‘बच्चों मानता हूं इन दोनों से गलती हुई है। यह कांस्टेबल हैं। खबर चलेगी तो ये सस्पेंड हो जाएंगे। आप कहें तो आपसे अपनी गलती की माफी मांग लें। आज के बाद ऐसी गलती ये नहीं करेंगे।’
मैंने एक घंटे में दिल्ली पुलिस के एक ही आदमी में दो आदमी देखे,
एक वह जो औकात दिखाने की बात कर रहा था और दूसरा वह जिसका माफी में सिर झुका हुआ था।
यदि एक घंटे में दिल्ली पुलिस के एक कांस्टेबल में आए बदलाव की व्याख्या करंे तो हम-आप कई मामले सुलझा लेंगे, जो पुलिस फाइलों में सुलझ जाती है लेकिन न्यायालय में जाकर उलझ जाती है। आप सुलझा लेंगे ओखला सब्जी मंडी का वह मामला जिसमें एक सब्जी का ठेला लगाने वाला युवक दो सौ रुपए की चोरी के आरोप में जेेल गया और जेल में उसने दो सौ रुपए की चोरी कुबूल कर ली होती तो जितनी सजा मिलती उससे अधिक वक्त बिताया लेकिन वह खुद को बेगुनाह साबित नहीं कर पाया। एक दिन मजबूरी में उसने अपना गुनाह कुबूल किया और रिहा हो गया। जेल में रहने के दौरान उसकी मां का इंतकाल हुआ और वह उनकी अंतिम यात्रा में भी शामिल नहीं हो पाया। जेल से निकलने के बाद कई गैर सरकारी संस्थाओं ने उसे तलाशने की कोशिश की, लेकिन वह युवक नहीं मिला। ना जाने वह अब कहां है?
हाल में जिस तरह पुलिस के हाथों इंडिया गेट के पास एक युवक की हत्या मोटर सायकिल चलाते हुए हुई, मेरा अनुमान है कि वह लड़का एक सौ पच्चीस सीसी की मोटर सायकिल की जगह साढ़े तीन लाख की कावासाकी नीन्जा पर होता तो दिल्ली पुलिस उस पर गोली नहीं चलाती। हम लाख इस बात का दावा कर लें कि हम समाजवादी मुल्क में रहते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि सामंतवाद अब भी इस मुल्क में जिन्दा है। उसकी शक्ल थोड़ी बदल गई है।
जमीन्दारों की जगह अब धनकुबेरों ने ले ली है।
इसका सीधा सा मतलब है कि आप दिल्ली की किसी झुग्गी-झोपड़ी कॉलोनी में रहते हैं या फिर थोड़े गरीब मोहल्ले में रहते हैं, जहां दिल्ली के ऑटो रिक्शा वाले, साहब की गाड़ी चलाने वाले ड्राइवर, दिहाड़ी मजदूर रहते हैं तो आपका आपके घर के बाहर रात डेढ़ बजे खड़े होना भी आपके खिलाफ सबूत माना जाएगा। जिसके लिए आपको दिल्ली पुलिस का कोई कांस्टेबल खींचकर थाने ले जा सकता है।
पिछले महीने 26 जुलाई को मैं इंडिया ब्राइडल फैशन वीक, बसंत कुंज मंे था। वहां रात ढाई बजे भी मेहमानों का जाना-आना जारी था। रोहित बल की पार्टी पूरी रात चलती रही। वहां कोई पुलिस कांस्टेबल नहीं था, बताने के लिए कि रात डेढ़-दो बजे दिल्ली की सड़कों पर निकलना गुनाह है। ना जाने पार्टी में लड़का-लड़की साथ शराब पीते हुए नजर आए तो उनपर कौन सी धारा लगेगी?
अब दिल्ली में यह कहने का साहस कौन करेगा कि दिल्ली में कानून सबके लिए बराबर है।
यहां बसंत कुंज के लिए अलग कानून है और तिमारपुर थानान्तर्गत वजीराबाद गांव के लिए अलग।
मेरे दोस्त गाड़ी लेकर आगे बढ़े और मैं अपने घर की तरफ मुड़ा, उस वक्त का यह दृश्य मेरे लिए थोड़ा अजीब था। मोटर सायकिल पर आए दो कांस्टेबल में से पिछे बैठे कांस्टेबल ने अचानक से कहा- ‘गाड़ी रोक, गाड़ी रोक।’
मानों कोई बड़ा अपराध हुआ हो वहां। मेरी नजर उनकी तरफ गई। आगे वाले कांस्टेबल मेरी तरफ मुखातिब थे-‘यह गाड़ी हमें देख कर भागी क्यों?’
यह सवाल मुझे थोड़ा अजीब लगा, यदि उन्हें कोई संदेह है तो गाड़ी रोक कर पूछताछ करनी चाहिए। रात को सड़क पर खड़े होने पर किसी तरह की आपत्ति है तो पूछ-ताछ करते लेकिन ‘यह गाड़ी हमें देखकर क्यों भागी? यह सवाल मुझे थोड़ा अजीब सा लगा। मैने पलटकर पूछा- ‘तो क्या आपसे पूछकर जाना चाहिए था?’
यह सुनना था कि पिछे बैठे कांस्टेबल साहब उछलकर मोटर सायकिल से नीचे उतर आए। उसने धक्का देते हुए कहा- चल थाने (तिमारपुर) तेरी औकात बताते हैं।
वजीराबाद गांव दिल्ली में कम आमदनी वालों की रिहायशी बस्ती है। इसलिए दिल्ली पुलिस के किसी भी कांस्टेबल के लिए यहां किसी की औकात नापने की सोचना आसान सी बात है। मैने इन दोनों कांस्टेबल के साथ थाने जाने का इरादा बना लिया। (यदि मैं उनके साथ थाने जाता तो दिल्ली ट्रेफिक पुलिस का, एक मोटर सायकिल पर तीन लोगों वाला कानून टूटता क्योंकि वे दो लोग थे और अपने साथ ही मोटर सायकिल पर बिठाकर मुझे थाने ले जाना चाहते थे)
एक कांस्टेबल के साथ मैं घर आया और अपना पर्स, कैमरा और मोबाइल साथ लेकर, कांस्टेबल के साथ ही वापस मौका ए वारदात पर पहुंचा। घर से कैमरा लेने के बाद दिल्ली पुलिस के उस कांस्टेबल से जो बात हुई, उसकी फूटेज मेरे पास है।
कांस्टेबल को मुझसे उलझता देखकर मेरे मित्र वापस आ गए थे। दोनों दिल्ली की अलग-अलग प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम करते हैं। यह बात वे कांस्टेबल नहीं जानते थे। दोनों मित्रों में एक एक लड़की को देखकर, कांस्टेबल धमकाने के लिहाज से बोला- ‘तुम्हे पता है, इतनी रात को लड़का और लड़की का सड़क पर निकलना दिल्ली में जूर्म है!’
कांस्टेबल ने यही सोचा था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले बीए के दोनों बच्चे होंगे और उसकी बात से डर जाएंगे। जबकि मेरी दोस्त को रात, दिल्ली और दिल्ली में गुनाह वाली बात खबरिया चैनल के लिहाज से उपयोगी लगी, सो उसने अपना मोबाइल वीडियो रिकॉर्ड के मोड पर डालकर, उनकी ही बात दोहराते हुए पूछ लिया- ‘क्या वास्तव में गुनाह है?’
दूसरे मित्र थाना ले जाने की बात पर गुस्से में थे और अपना परिचय दे चुके थे कि वे अमुक चैनल में काम करते हैं। इस वक्त दोनों कांस्टेबल की हालत रंगे हाथांे पकड़े गए चोर की तरह हो गई थी। कैमरा ऑन था, एक के बाद एक सवाल दोनों पूछ रहे थे लेकिन उन दोनों ने चुप्पी साध ली। एक ने जाकर पीसीआर (पुलिस कंट्रोल रूम) को फोन किया। उनकी गाड़ी आई और मौके की गंभीरता को मसझते हुए, दस मीनट में चली भी गई। अगले बीस मीनट में एक दर्जन कांस्टेबल और सब इंस्पेक्टर हमारे आस-पास मौजूद थे। इतने पुलिस वाले, किस क्राइम की तफ्तीश के लिए धीरे-धीरे इकट्ठे हो रहे थे, यह अब भी मेरे लिए राज है।
इस मौके को देखकर मैंने कहा भी कि इतने पुलिस वालों की यहां जरूरत तो नहीं है। सभी यहां एक साथ इकट्ठे हों और इस मौके का फायदा कोई वास्तविक अपराधी उठा ले जाए, यह भी तो ठीक नहीं है।
इकट्ठे हुए पुलिस वालों में एक सब इंस्पेक्टर साहब अपने पत्रकार मित्रों के नाम गिनाने लगे। सबके साथ उनके कितने मधुर रिश्ते हैं, इसकी भी दुहाई दी।
दूसरे साहब, कांस्टेबल की कम उम्र का हवाला देकर, उसे माफ करने की गुजारिश करने लगे।
एक साहब ने कहा, बता देते पत्रकार हैं तो शिकायत का मौका ही नही देते।
इस बीच मेरी मित्र ने अपनी एक साथी को फोन करके सारी स्थितियों से अवगत कराया और वह इस मामले को कवर करने के लिए नोएडा से यूनिट के साथ वजीराबाद गांव के लिए चल पड़ी।
जितने पुलिस वाले उस दिन आए थे, उनमें सबसे बुजूर्ग पुलिस अंकल ने हमें समझाते हुए कहा-
‘बच्चों मानता हूं इन दोनों से गलती हुई है। यह कांस्टेबल हैं। खबर चलेगी तो ये सस्पेंड हो जाएंगे। आप कहें तो आपसे अपनी गलती की माफी मांग लें। आज के बाद ऐसी गलती ये नहीं करेंगे।’
मैंने एक घंटे में दिल्ली पुलिस के एक ही आदमी में दो आदमी देखे,
एक वह जो औकात दिखाने की बात कर रहा था और दूसरा वह जिसका माफी में सिर झुका हुआ था।
यदि एक घंटे में दिल्ली पुलिस के एक कांस्टेबल में आए बदलाव की व्याख्या करंे तो हम-आप कई मामले सुलझा लेंगे, जो पुलिस फाइलों में सुलझ जाती है लेकिन न्यायालय में जाकर उलझ जाती है। आप सुलझा लेंगे ओखला सब्जी मंडी का वह मामला जिसमें एक सब्जी का ठेला लगाने वाला युवक दो सौ रुपए की चोरी के आरोप में जेेल गया और जेल में उसने दो सौ रुपए की चोरी कुबूल कर ली होती तो जितनी सजा मिलती उससे अधिक वक्त बिताया लेकिन वह खुद को बेगुनाह साबित नहीं कर पाया। एक दिन मजबूरी में उसने अपना गुनाह कुबूल किया और रिहा हो गया। जेल में रहने के दौरान उसकी मां का इंतकाल हुआ और वह उनकी अंतिम यात्रा में भी शामिल नहीं हो पाया। जेल से निकलने के बाद कई गैर सरकारी संस्थाओं ने उसे तलाशने की कोशिश की, लेकिन वह युवक नहीं मिला। ना जाने वह अब कहां है?
हाल में जिस तरह पुलिस के हाथों इंडिया गेट के पास एक युवक की हत्या मोटर सायकिल चलाते हुए हुई, मेरा अनुमान है कि वह लड़का एक सौ पच्चीस सीसी की मोटर सायकिल की जगह साढ़े तीन लाख की कावासाकी नीन्जा पर होता तो दिल्ली पुलिस उस पर गोली नहीं चलाती। हम लाख इस बात का दावा कर लें कि हम समाजवादी मुल्क में रहते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि सामंतवाद अब भी इस मुल्क में जिन्दा है। उसकी शक्ल थोड़ी बदल गई है।
जमीन्दारों की जगह अब धनकुबेरों ने ले ली है।
इसका सीधा सा मतलब है कि आप दिल्ली की किसी झुग्गी-झोपड़ी कॉलोनी में रहते हैं या फिर थोड़े गरीब मोहल्ले में रहते हैं, जहां दिल्ली के ऑटो रिक्शा वाले, साहब की गाड़ी चलाने वाले ड्राइवर, दिहाड़ी मजदूर रहते हैं तो आपका आपके घर के बाहर रात डेढ़ बजे खड़े होना भी आपके खिलाफ सबूत माना जाएगा। जिसके लिए आपको दिल्ली पुलिस का कोई कांस्टेबल खींचकर थाने ले जा सकता है।
पिछले महीने 26 जुलाई को मैं इंडिया ब्राइडल फैशन वीक, बसंत कुंज मंे था। वहां रात ढाई बजे भी मेहमानों का जाना-आना जारी था। रोहित बल की पार्टी पूरी रात चलती रही। वहां कोई पुलिस कांस्टेबल नहीं था, बताने के लिए कि रात डेढ़-दो बजे दिल्ली की सड़कों पर निकलना गुनाह है। ना जाने पार्टी में लड़का-लड़की साथ शराब पीते हुए नजर आए तो उनपर कौन सी धारा लगेगी?
अब दिल्ली में यह कहने का साहस कौन करेगा कि दिल्ली में कानून सबके लिए बराबर है।
यहां बसंत कुंज के लिए अलग कानून है और तिमारपुर थानान्तर्गत वजीराबाद गांव के लिए अलग।
2 टिप्पणियां:
हम पहले ही पत्रकार बता देगें ,खुदा खास्ता फंसे तो!
hii, i read your story and i want to know that as you are a journalist ....u got out of that matter easily but the people who are not in media line or i should say the "Aam Admi" ....how will he survive in this kind of situation and what u did after this incident to change this situation or to improve this kind of law and order..??
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