-अशोक चक्रधर
कहते हैं कि जब मौत आती है तो इंसान को कहीं भी शरन नहीं मिलती, पर उलटा हो गया। मौत को शरन मिल गई। आठ अप्रैल दो हज़ार आठ को शरन रानी नहीं रहीं।
आज वे अस्सीवें वर्ष में प्रवेश करतीं पर एक दिन पहले ही अपनी ज़िन्दगी की सी. डी. रिलीज़ करा के सीढ़ी चढ़ गईं। यस्टरडे तक सरोद गुंजाया और अपना म्यूज़िक टुडे को दे गईं। लोग उन्हें कहते थे सरोद रानी। सघन अंधेरे में जैसे कौंध-कौंध उठती हो सरोद की विद्युत, उस तड़ित्तरंगीय गतिमयता में प्रारम्भ हो जाए आलाप, जो धीरे-धीरे बढ़ता जाए, झाला की नक्षत्र-माला तक। तारामंडल खिल उठें और फैल जाए उजाला, गुरु शरन रानी के नाम का।
शरन रानी जी का जन्म 9 अप्रैल, 1929 को दिल्ली के एक जाने माने कायस्थ माथुर परिवार में हुआ। उस कायस्थ परिवार में साहित्य, संगीत, कलाओं के प्रति प्रेम भाव तो था लेकिन लड़कियां उसमें आगे बढ़-चढ़कर हिस्सा लें इसकी मनाही थी। धुन की धनी शरन जी ने प्रतिकूल वातावरण को बचपन से ही अनुकूल बना लिया, और आगे भी संघर्ष करती रहीं।
सरोद घर में बड़े भैया लाए थे अपनी श्रीमती जी को सिखाने के लिए, पर नन्हीं शरन रानी ने देखा कि भाभी तो खान-पान, घर-परिवार और गृहस्थी में डूबी हुई हैं, कहां सीखेंगी। लिया एक सिक्का, छेड़ दिए स्वर, आनंद आया, सरगम निकाली। सा-रे-ग-म निकल आए तो फिर क्या था, वह वाद्य इनका हो गया और ये उस वाद्य की हो गईं।
बहुत सारे प्रथम जुड़े हैं उनके नाम के आगे। गुरु शरन रानी प्रथम महिला थीं जिन्होंने सरोद जैसे मर्दाना साज को संपूर्ण ऊंचाई दी। वे प्रथम महिला थीं जो संगीत को लेकर पूरे भूमंडल में घूमीं, विदेश गईं। वे प्रथम महिला थीं जिन्हें सरोद के कारण विभिन्न प्रकार के सम्मान मिले। वे प्रथम महिला थीं जिन्हें सरोद पर डॉक्टरेट की उपाधियों से नवाज़ा गया। वे प्रथम महिला थीं जिन्होंने पंद्रहवीं शताब्दी के बाद बने हुए वाद्य यंत्रों को न केवल संग्रहीत किया बल्कि राष्ट्रीय संग्रहालय को दान में दे दिया। वे प्रथमों में प्रथम थीं।
उनके प्रयत्नों में आई कभी कमी नहीं।
उनकी संगीत साधना कभी थमी नहीं।
नेहरू जी कहा करते थे कि शरन रानी तो हमारी कला और संस्कृति की राजदूत हैं। सही कहा था पंडित जी ने, शरन जी देश-देशांतर तक घूमीं। सरोद को उन्होंने विश्व-विख्यात किया।
उनके गुरु बाबा अलाउद्दीन खां गजब के इंसान थे। वे संसार का हर बाजा बजा सकते थे। जो चीज़ न भी बजे वह भी बज उठती थी उनके स्पर्श से।
युवा और अपूर्व सुन्दरी शरन रानी को यों ही शरन में नहीं लिया बाबा ने। शिष्यों को गाय की सानी करनी पड़ती थी, चिलम भरनी पड़ती थी। रसोई में समय देना होता था। और दस-दस घण्टे के रियाज़ की पाबन्दी। संभ्रांत-रईस परिवार की शरन रानी ने औघड़ बाबा की सारी बात मानीं।
नई पीढ़ी को अगर बताना हो कि क्या होती है गुरु-शिष्य परंपरा, क्या होता है परंपरा प्रदान करने की प्रक्रिया का सिलसिला, तो बाबा और शरन रानी जी के आपसी रिश्तों को बड़ी गहराई से समझना होगा। गुरु ऐसे ही विद्या नहीं देता, जब तक कि शिष्य में पूरी लगन न हो, निष्ठा न हो। उस निष्ठा की प्रतिमूर्ति बनकर शरन रानी बार-बार मैहर जाती रहीं। संगीत सीखना है तो गुरुभक्ति निष्ठा से करनी होगी। उन्होंने ठान लिया कि सीखकर ही मानेंगी। गगन को गुंजा देंगी सरोद के सुरों से।
कला मर जाती है, अगर जीवन-साथी सहारा न दे। पति भी सरोद जैसा ही मिला। सुरीला सुल्तान सिंह बाकलीवाल। उन्होंने शरन जी को सदा उत्साहित किया और आगे लाने के लिए पीछे-पीछे रहे।
आश्चर्य की बात है कि बाबा विभिन्न वाद्यों को सम्पूर्ण कुशलता से बजाते थे, कहां सितार, कहां बांसुरी, कहां सरोद! वे विलक्षण स्वर-सम्राट थे और सारे वाद्य-यंत्रों से प्यार करते थे। वाद्यों के प्रति यह प्रेम, परंपरा के रूप में शरन रानी जी के पास आया। वे भी वाद्यों से प्यार करने लगीं। पति सुल्तान सिंह बाकलीवाल के सहयोग से वाद्य-यंत्रों का एक विशाल भंडार उनके पास इकट्ठा हो गया। कहीं वो आदिवासी क्षेत्रों से अनूठे प्राचीन वाद्य लेकर आईं, कहीं उनको ग्रामीण लोक वाद्य मिले। तरह-तरह के तंत्री-वाद्य और ताल वाद्य। वे सब के सब उन्होंने भारत सरकार के अधीन राष्ट्रीय संग्रहालय को दान में दे दिए। 'शरन रानी बाकलीवाल गैलरी' बनी, जिसका उद्घाटन किया था श्रीमती इंदिरा गांधी ने। इस संग्रहालय को शरन जी निरंतर संपन्न करती रहीं। उनके वाद्यों पर डाक टिकट जारी हुए। सरोद पर भी, बांसुरी पर भी और मृदंग पर भी।
क्या चाहिए कलाकार को? पैसा। पैसा तो शरन जी के पास पहले से था। पैसे के लिए तो वो संगीत के पीछे भागी नहीं। संगीत तो एक प्यास थी, तड़प थी, एक आकर्षण था, एक चुंबक थी जिसके पीछे शरन दीवानी सी रहती थीं। क्या चाहिए कलाकार को? यश। हां, यश चाहिए। किसी के पीछे दौड़ी नहीं शरन जी। डॉ. ज़ाकिर हुसैन द्वारा सम्मानित किया गया। आर. के. नारायण द्वारा उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। न जाने कितने मंचों पर, न जाने कितनी बार उन्हें सम्मानित किया गया। सम्मान शरन जी के पीछे-पीछे दौड़ा, सम्मानों के पीछे शरन जी कभी नहीं दौड़ीं।
व्यवहार और शास्त्र दोनों साथ-साथ चलते हैं। जहां एक ओर शरन रानी जी ने सरोद को बजाया, वहीं उसके शास्त्रीय पक्ष को भी अनदेखा नहीं रखा। उन्होंने सरोद को लेकर काफी शोध-कार्य किया। कालिदास के 'मेघदूत' से यह सूत्र निकाला कि मेघों ने अपना रास्ता बदल लिया था चूंकि उनके अधिक नीचे आने पर अलकापुरी में रहने वाले संगीतकारों के साज़ों के सुर उतर जाते थे। यह बात तय है कि उन्हीं साज़ों के सुर उतरते हैं जो चमड़े से बने हुए होते हैं। सरोद एक ऐसा ही वाद्य है जिस पर चमड़ा लगा रहता है। यानी सरोद एक प्राचीन भारतीय वाद्य है। वे कहती थीं कि सरोद नाम के मूल में 'स्वरोदय' रहा है। संगीत के कुछ विद्वान मानते हैं कि सरोद वाद्य मध्य एशिया से आया। वे मतभेद रख सकते हैं। शोध और भी होनी चाहिए। वैसे शोध हो भी जाए तो लाभ क्या? एक समाचार चैनल में शरन जी के देहावसान की ख़बर देते समय उन्हें सितार-वादिका बताया जा रहा था। सरोद और सितार में उनके लिए कोई फ़र्क ही नहीं है। क्या कहें उनको, याद कर लिया यही क्या कम है।
बाबा अलाउद्दीन खां व्यवहार से शास्त्र गढ़ते थे। उन्होंने कितने ही नए वाद्य बना दिए। उनका बनाया हुआ एक सितार बैंजो मेरे पास भी है। मैहर बैंड बनाया था बाबा ने जिसमें अनेक सुरीले वाद्यों का समन्वय था।
शरन जी ने एक बार बताया कि कठिन परीक्षा लेते थे बाबा। सरोद पर कोई एक मींड़-मुरकी निकल नहीं पा रही थी। बाबा ने कई बार समझाया, लेकिन स्वरों के बीच से श्रुतियों की सही लड़ी पकड़ में नहीं आ रही थी। बाबा ने अपने हुक्के में गहरा कश मारा और चिलम से निकली एक लहराती हुई सी चिंगारी। बाबा ने कहा ऐसे, ऐसे, हां ऐसे निकालो। सरोद का तार उँगली के दबाव के साथ परदे पर चिंगारी की तरह लहराया और वह नाद अधिकतम सुरीला होकर निकल आया।
बाबा जब देह त्याग कर गए तो न तो उनके परम शिष्य रवि शंकर आ सके न उनके दूसरे कुटुम्बी जन। दिल्ली से दौड़ी-दौड़ी गई थीं शरन रानी। चाहती तो थीं बाबा की मैयत को कंधा देना, लेकिन परंपरावादियों ने मना कर दिया। अल्लाह का भेजा हुआ कोई एक मौलवी था जिसने कहा कि मिट्टी की पहली मुट्ठी शरन रानी की होगी।
ऐसे गए तो क्या गए जैसे बादल की छाया चली जाती है। जाओ तो ऐसे कि बादलों के जाने के बाद भी आंसुओं की तरह बरसते रहो। शरन जी की याद में आते हुए आंसू सिर्फ दुःख के नहीं हैं। इन बूंदों में हमारी शास्त्रीय संगीत की साधनाओं को सलाम है। कल उनकी चिता से जो लहराती हुई चिंगारियां निकल रही थीं, उनसे कितने लोगों ने श्रुतियों और मींड़ों को पकड़ा होगा। लोग आँख मींड़ कर आंसू पौंछ लेंगे पर वैसी मींड़ कौन निकालेगा?
सम्पर्क:- श्री अशोक चक्रधर
जे -११६, सरिता विहार,
नईं दिल्ली - ११००७६
०११- २६९४९४९४,
०११- २६९४१६१६,
फैक्स- ०११-४१४०१६३६
मंगलवार, 8 अप्रैल 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
अफ़सोस!
एक टिप्पणी भेजें