नीलाम्बुज ने जे एन यूं से एम् ऐ हिन्दी साहित्य से किया, एम् फिल दिल्ली विश्वविद्यालय से और इन दिनों पी एच डी के लिए फ़िर से जे एन यूं की शरण में हैं. वह 'अक्षरौटी' के नाम से एक साहित्य की पत्रिका भी निकलते हैं. नीलाम्बुज की रचना-
मिर्ज़ा या मीरज़ा ग़ालिब उर्दू-काव्य के सबसे अधिक विवादास्पद कवि हैं। उनके जीवन-काल में कुछ ने उन पर फ़ब्तियाँ कसीं, कुछ ने श्रद्धा से उनके आगे सिर झुकाया। आज तक वही हालत है। कुछ कहते हैं, उर्दू क्या, किसी भारतीय भाषा में उनकी समानता नहीं; कुछ उन्हें दुर्बल अनुभूतियाँ लेकर कल्पना के गगन में उड़नेवाला एक सामान्य कवि मानते हैं।जो हो, ग़ालिब की हस्ती में एक कशिश है। विरोध करो या अपनाओ, पर उसे छोड़ नहीं सकते। इसलिए ग़ालिब पर इतना लिखा गया है और इतने प्रकार से लिखा गया है कि वह एक भूल-भुलैया बनकर रह गया है। पाठक समझ नहीं पाता, उलटे उलझकर रह जाता है।इस पुस्तक में ग़ालिब के काल, व्यक्तित्व, काव्य तथा उनकी मानसिक पृष्ठभूमि के साथ उनके काव्य के चुने हुए अंश दिये गये हैं। चुनाव करते समय उनके दीवानेतर काव्य का भी ध्यान रखा गया है। चेष्टा की गई है कि ग़ालिब को तथा उनके काव्य को सर्वांगीण दृष्टि से देखने-परखने में हम पाठक के लिए कुछ उपयोगी हो सकें।बस इतना ही।श्री रामनाथ 'सुमन'
ग़ालिब : जीवन-रेखाउर्दू और दिल्लीउर्दू साहित्य, विशेषतः काव्य, के अभ्युदय में दिल्ली और उसके बाद लखनऊ का स्थान माना जाता है। उर्दू पैदा तो दिल्ली में ही हुई थी पर बचपन उसका दक्षिण में बीता; होश सँभालनेपर वह फिर दिल्ली आई और यहीं ब्याही भी गयी। उसका मायका चाहे दिल्ली को माने या दक्षिण को, उसकी ससुराल तो दिल्ली ही थी और है। हाँ, तरुणाई की अल्हड़ उमंगों से भरी रातें उसकी लखनऊ में भी बीतीं—यौवन की एक लम्बी रात जो अठखेलियाँ, शोख़ियों, कटाक्षों और मोहक हाव-भावसे पूर्ण है; जिसमें यौवन की वह लोच है जिसपर शत-शत प्राण निछावर; उसमें वह अदा है जिसके चरणों में दिल सिजदा करता है और जिसमें अगणित आलिंगनों का स्पर्श है। लखनऊ जो भी हो पर उर्दू के प्राण दिल्ली में ही बसते रहे; उसका कण्ठ वहीं फूटा। मुग़लों की दिल्ली, पददलिता और भूलुण्ठिता दिल्ली के प्रति विद्वानों, लेखकों कवियों, पर्यटकों, लुटेरों, सेनाधिपोंका आकर्षण सदा ही बना रहा और आज भी बना है। मज़ारों की भूमि, अगणित राज्यों का वह श्मशान दिल्ली, जहाँ जवानी और मृत्यु गलबहियाँ दिये खेलती रही हैं और खेलती है, कला और काव्य के लिए भी उपजाऊ भूमि रही है।उर्दू का यौवनयों हम देखते हैं कि रेखता या उर्दूका बचपन चाहे दक्षिण में बीता हो पर उसका शिक्षण और पालन-पोषण दिल्ली में हुआ। यह अल्हड़ दिल्ली की गलियों में घूमती फिरी; जामा मस्जिदकी सीढ़ियोंपर सोई, महलोंमें उसके स्वरलाप गूँजे, बाग़ों में वह लाला व गुलसे उलझी, नर्गिस को आखें दिखाती फिरी। मज्लिसों में साक़ी बन उसने जाम पिये-पिलाये और देखते-देखते सौन्दर्य और जवानी उसमें ऐसी फट पड़ी कि या अल्लाह ! फिर तो उसने अपने अंक में लखनऊ को भर लिया और जिधर से गुज़री उधर ही दीवाने पैदा कर दिये; शत-शत प्राण उसपर निछावर हो गये। मीर, सौदा और नासिख़, मोमिन, मीर, दर्द और इंशा, ज़ौक और ग़ालिबने उसे क्या-क्या इशारे दिये कि उसका कण्ठ यौवन की मस्तीमें फूटा तो फूटा और आज वह लाखों के दिल और दिमाग़ पर छा गयी है।जिन कवियों के कारण उर्दू अमर हुई और उसमें 'ब़हारे बेख़िज़ाँ' आई उनमें मीर और ग़ालिब सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। मीरने उसे घुलावट, मृदुता, सरलता, प्रेमकी तल्लीनता और अनुभूति दी तो ग़ालिबने उसे गहराई, बात को रहस्य बनाकर कहनेका ढंग, ख़मोपेच, नवीनता और अलंकरण दिये।
आगरा की देनआश्चर्य तो यह है कि दिल्ली (उस समय शाहजहानाबाद) में उर्दू फूली-फली पर जिन दो सर्वोत्कृष्ट कवियों—मीर और ग़ालिब—ने उर्दू काव्य को सर्वोत्तम निधियाँ प्रदान कीं, वे दिल्लीके नहीं, अकबराबाद (आगरा) के थे। यह ठीक है कि उनका अभ्युदय दिल्लीमें हुआ, उनकी संस्कृति दिल्लीकी थी पर उनको जन्म देनेका श्रेय तो अकबराबाद (आगरा) को ही है।ईरानके इतिहासमें जमशेदका नाम प्रसिद्ध है। यह थिमोरस के बाद सिंहासनासीन हुआ था। जश्ने नौरोज़का आरम्भ इसी ने किया था जिसे आज भी, हमारे देशमें, पारसी लोग मानते हैं। कहते हैं, इसीने द्राक्षासव या अंगूरी को जन्म दिया था। फारसी एवं उर्दू काव्यमें 'जामे-जम' (जो 'जामे जमशेद'का संक्षिप्त रूप है)* अमर हो गया है। इससे इतना तो मालूम पड़ता ही है कि यह मदिराका उपासक था और डटकर पीता-पिलाता था। जमशेदके अन्तिम दिनों में बहुत से लोग उसके शासन एवं प्रबन्ध से असन्तुष्ट हो गये थे। इन बाग़ियोंका नेता ज़हाक था जिसने जमशेद को आरेसे चिरवा दिया था पर वह स्वयं भी इतना प्रजा-पीड़क निकला कि सिंहासनसे उतार दिया गया। उसके बाद जमशेदका पोता फरीदूँ गद्दीपर बैठा जिसने पहली बार अग्नि-मन्दिरका निर्माण कराया। यही फरीदूँ ग़ालिब वंशका आदि पुरुष था।फरीदूँका राज्य उसके तीन बेटों एरज, तूर और सलममें बँट गया। एरजको ईरान का मध्य भाग, तूरको पूर्वी तथा सलमको पश्चिमी क्षेत्र मिले। चूँकि एरज को प्रमुख भाग मिला था इसलिए अन्य दोनों भाई उससे असन्तुष्ट थे; उन्होंने मिलकर षड्यन्त्र किया और उसे मरवा डाला पर बाद में एरज के पुत्र मनोचहरने उनसे ऐसा बदला लिया कि वे तुर्किस्तान भाग गये और वहां तूरान नाम का एक नया राज्य क़ायम किया। तूर-वंश और ईरानियोंमें बहुत दिनों तक युद्ध होते रहे। तूरानियों के उत्थान-पतन का क्रम चलता रहा। अन्त में ऐबकने ख़ुरासान, इराक़ इत्यादिमें सैलजुक राज्य की नींव डाली। इस राज-वंशमें तोग़रलबेग (1037-1063 ई.), अलप अर्सलान (1063-1072 ई.) तथा मलिकशाह (1072-1092 ई.) इत्यादि हुए जिनके समयमें तूसी एवं उमर ————————————*जामेजम=कहते हैं, जमशेदने एक ऐसा जाम (प्याला) बनवाया था जिसमें संसार की समस्त वस्तुओं और घटनाओंका ज्ञान हो जाता था। जान पड़ता है इस प्याले में कोई ऐसी चीज़ पिलाई जाती होगी जिसे पीनेपर तरह-तरह के काल्पनिक दृश्य दीखने लगते होंगे। जामेजमके लिए जामे जमशेद, जामे जहाँनुमाँ, जामे जहाँबीं इत्यादि शब्द भी प्रचलित हैं।ख़य्यामके कारण फ़ारसी काव्य का उत्कर्ष हुआ। मलिकसाहके दो बेटे थे। छोटेका नाम बर्कियारुक़ (1094-1104 ई.) था। इसी की वंश-परम्परामें 'ग़ालिब' हुए।जब इन लोगों का पतन हुआ, ख़ान्दान तितर-बितर हो गया। लोग क़िस्मत आज़माने इधर-उधर चले गये। कुछ ने सैनिक सेवा की ओर ध्यान दिया। इस वर्ग में एक थे तर्स़मख़ाँ जो समरक़न्द में रहने लगे थे। यही ग़ालिब के परदादा थे।
दादा और पितातर्समख़ाँके पुत्र क़ौक़ान बेगख़ाँ शाहआलम के ज़मानेमें, अपने बाप से झगड़कर हिन्दुस्तान चले आये। उनकी मात्र-भाषा तुर्की थी; हिन्दुस्तानी में बड़ी कठिनाई से चन्द टूटे-फूटे शब्द बोल पाते थे। यह क़ौक़ानबेग ग़ालिब के दादा थे। वह कुछ दिन लाहौर रहे, फिर दिल्ली चले आये और शाहआलम की नौकरी में लग गये। 50 घोड़े, भेरी और पताका इन्हें मिली और पहासू का पर्गना रिसाले और अपने खर्च के लिए इन्हें मिल गया। क़ौक़ानबेग के चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। बेटों में अब्दुल्लाबेग और नसरुल्लाबेगका वर्णन मिलता है। यही अब्दुल्लाबेग ग़ालिब के पिता थे।अब्दुल्लाबेग का जन्म दिल्ली में हुआ था। जबतक पिता जीवित रहे मज़ेसे कटी पर उनके मरते ही पहासू की जागीर हाथ से निकल गयी।ग़ालिब की रचनाएँ—कुल्लियाते नस्र और उर्दू-ए-मोअल्ला—देखने से मालूम होता है कि उनके बाप अब्दुल्लाबेगख़ाँ, जिन्हें मिर्जा दूल्हा भी कहा जाता था, पहले लखनऊ जाकर नवाब आसफ़उद्दौलाकी सेवा में नियुक्त हुए। कुछ ही दिनों बाद वहाँ से हैदराबाद चले गए और नवाब निज़ाम अली ख़ाँ की सेवा की। वहाँ 300 सवारोंके रिसाले के अफ़सर रहे। वहाँ भी ज्यादा दिन नहीं टिके और अलवर पहुँचे तथा राजा बख़्तावर सिंह की नौकरी में रहे। 1802 में वहीं गढ़ीकी लड़ाई में इनकी मृत्य हो गयी। पर बाप की मृत्य के बाद भी वेतन असदउल्लाख़ाँ (ग़ालिब) तथा उनके छोटे भाई को मिलता रहा। तालड़ा नाम का एक गाँव भी जागीर में मिला। इस प्रकार इनका वंश-वृक्ष यों बनता है :- तर्समख़ाँ । क़ौक़ानबेगख़ाँ ।——————————————————————————। । । । । । ।अब्दुल्लाबेगख़ाँ नसरुल्लाबेगख़ाँ पुत्र पुत्र पुत्री पुत्री पुत्री।——————————————————————। । ।असदउल्लाबेगख़ाँ मिर्ज़ा यूसुफ़ पुत्री खानम(असद एवं ग़ालिब)अब्दुल्लाबेग की शादी आगरा (अकबराबाद) के एक प्रतिष्ठत कुल में ख़्वाजा गुलामहुसेनख़ाँ कमीदान की बेटी इज्ज़तउन्निसा के साथ हुई थी। गुलामहुसेनख़ाँ की आगरा में काफ़ी ज़ायदाद थी। वह एक फ़ौजी अफ़सर थे। इस विवाह से अब्दुल्लाबेग को तीन सन्तानें हुईं—मिर्ज़ा असदउल्लाबेगख़ाँ, मिर्ज़ा यूसुफ़ और सबसे बड़ी ख़ानम।मिर्ज़ा असदउल्लाख़ाँका जन्म ननिहाल, आगरा में ही 27 दिसम्बर 1797 ई. को रात के समय हुआ। चूँकि पिता फ़ौजी नौकरी में इधर-उधर घूमते रहे इसलिए ज़्यादातर इनका पालन-पोषण ननिहाल में ही हुआ। जब यह पाँच साल के थे तभी पिता का देहावसान हो गया। पिता के बाद चाचा नसरुल्लाबेगख़ाँने इन्हें बड़े प्यार से पाला। नसरुल्लाबेग मराठों की ओर से आगराके सूबेदार थे पर जब लार्ड लेक ने मराठोंको हराकर आगरा पर अधिकार कर लिया तब यह पद भी टूट गया और उनकी जगह एक अंग्रेज कमिश्नर की नियुक्ति हुई। किन्तु नसरुल्लाबेगख़ाँ के साले लोहारू के नवाब फ़ख्रउद्दौला अहमदख़ाँकी लार्ड लेकसे मित्रता थी। उनकी सहायता से नसरुल्लाबेग अंग़्रेजी सेनामें 400 सवारों के रिसालदार नियुक्त हो गये। रिसाले तथा इनके भरण-पोषण के लिए 1700 रु. तनख़्वाह तय हुई। इसके बाद मिर्ज़ा ने स्वयं लड़कर भरतपुर के निकट सोंक और सोंसा के दो परगने होलकर के सिपाहियों से छीन लिये जो बाद में लार्ड लेक द्वारा इन्हें दे दिये गये। उस समय सिर्फ़ इन परगनों से ही लाख डेढ़ लाख की सालाना आमदनी थी। पर एक साल बाद चाचा की मृत्य हो गयी। *लार्ड लेक द्वारा नवाब अहमदबख़्शख़ाँको फ़ीरोज़पुर झुर्का का इलाका पचीस हज़ार सालाना कर पर मिला हुआ था। नसरुल्लाख़ाँ की मत्यु के बाद उन्होंने यह फैसला करा लिया कि 'पच्चीस हज़ार का कर माफ़ कर दिया जाय। इसकी जगह पर 50 सवारों का एक रिसाला रखूँ जिसपर पन्द्रह हज़ार का ख़र्च होगा और जो आवश्वकता पड़ने पर अंग़्रेज सरकार की सेवाके लिए भेजा जायगा। शेष 10 हज़ार नसरुल्लाख़ाँ के उत्तराधिकारियों को वृत्ति के रूप में दिया जाय।' *यह शर्त मान ली गयी।——————————*किसी लड़ाईमें लड़ते हुए हाथी से गिरकर 1806 में इनका देहावसान हुआ था।* न जाने कैसे, इसके एक मास बाद ही 7 जून 1806 ई. को, गुप्त रूप से, नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने अंग्रेज सरकार से एक दूसरा आज्ञापत्र प्राप्त कर लिया जिसमें लिखा था कि नसरुल्लाबेगख़ाँ के सम्बन्धियों को पाँच हज़ार सालाना पेंशन निम्नलिखित रूप में दी जाय—1. ख़्वाजा हाजी (जो 50 सवारों के अफ़सर थे)—दो हज़ार सालाना।2. नसरुल्लाबेगकी माँ और तीन बहिनें—डेढ़ हज़ार सालाना।3. मीरज़ा नौशा और मीरज़ा यूसुफ़ (नसरुल्ला के भतीजों) को डेढ़ हज़ार सालाना, इस प्रकार से 10 हज़ार से 5 हज़ार हुए, और 5 हज़ार में भी सिर्फ़ 750-750 सालाना ग़ालिब और उनके छोटे भाई को मिले। यह ठीक है कि बापकी मृत्यु के बाद चाचा ने इनका पालन किया पर शीघ्र ही उनकी मृत्यु हो गयी और यह अपने ननिहाल आ गये। पिता स्वयं घर-जमाईकी तरह, सदा ससुराल में रहे। वहीं उनकी सन्तानों का भी पालन-पोषण हुआ। ननिहाल खु़शहाल था। इसलिए ग़ालिब का बचपन ज़्यादातर वहीं बीता और बड़े आराम से बीता। उन लोगों के पास काफ़ी जायदाद थी। ग़ालिब खुद अपने एक पत्र में 'मफ़ीदुल ख़लायक़' प्रेसके मालिक मुंशी शिवनारायण को, जिनके दादा के साथ ग़ालिब के नानाकी गहरी दोस्ती थी, लिखते हैं :—''हमारी बड़ी हवेली वह है जो अब लक्खीचन्द सेठने मोल ली है। इसीके दरवाजे की संगीन बारहदरी पर मेरी नशस्त थी। *और पास उसी के एक 'खटियावाली हवेली' और सलीमशाह के तकियाके पास दूसरी हवेली और इससे आगे बढ़कर एक कटरा की वह 'गड़रियोंवाला' मशहूर था और एक कटरा कि वह 'कश्मीरवाला' कहलाता था, इस कटरे के एक कोठे पर मैं पतंग उड़ाता था और राजा बलवान सिंह से पतंग लड़ा करते थे।''*''यह बड़ी हवेली.........अब भी पीपलमण्डी आगरा में मौजूद है। इसी का नाम 'काला' (कलाँ ) महल है। यह निहायत आलीशान इमारत है। यह किसी जमाने में राजा गजसिंह की हवेली कहलाती थी। राजा गजसिंह जोधपुर के राजा सूरजसिंह के बेटे थे और अहदे जहाँगीरमें इसी मकान में रहते थे। मेरा ख़्याल है कि मिर्ज़ा की पैदाइश इसी मकानमें हुई होगी। आजकल (1938 ई.) यह इमारत एक हिन्दू सेठ की मिल्कियत है और इसमें लड़कियों का मदरसा है।'' —'जिक्रे ग़ालिब' (मालिकराम), नवीन संस्करण, पृष्ठ 21।
शिक्षणमतलब ननिहाल में मजे से गुज़रती थी। आराम ही आराम था। एक ओर खुशहाल परन्तु पतनशील उच्च मध्यमवर्ग की जीवन-विधि के अनुसार इन्हें पतंग, शतरञ्ज और जुएकी आदत लगी, और दूसरी ओर उच्चकोटि की बुजुर्गों की सोहबतका लाभ भी मिला। इनकी माँ स्वयं शिक्षिता थीं पर ग़ालिब को नियमित शिक्षा कुछ ज्यादा नहीं मिल सकी। हाँ, ज्योतिष, तर्क, दर्शन, संगीत एवं रहस्यवाद इत्यादिसे इनका कुछ न कुछ परिचय होता गया। फ़ारसीकी प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगराके उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान मौलवी मुहम्मद मोवज्ज़म से प्राप्त की। इनकी ग्रहण शक्ति इतनी तीव्र थी कि बहुत जल्द वह ज़हूरी जैसे फ़ारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे बल्कि फ़ारसी में गज़लें भी लिखने लगे।इसी ज़माने (1810-1811 ई.) में मुल्ला अब्दुस्समद ईरान से घूमते-फिरते आगरा आये और इन्हींके यहाँ दो साल तक रहे। यह ईरान के एक प्रतिष्ठत एवं वैभवसम्पन्न व्यक्ति थे और यज़्द के रहनेवाले थे। पहिले ज़रथुस्त्र के अनुयायी थे पर बाद में इस्लाम को स्वीकार कर लिया था। इनका पुराना नाम हरमुज़्द था। फ़ारसी तो उनकी घुट्टीमें थी। अरबी का भी उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। इसी समय मिर्ज़ा 14 के थे और फ़ारसी में उन्होंने अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी। अब मुल्ला अब्दुस्समद जो आये तो उनसे दो वर्ष तक मिर्ज़ा ने फ़ारसी भाषा एवं काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया और उनमें ऐसे पारंगत हो गये जैसे ख़ुद ईरानी हों। अब्दुस्समद इनकी प्रतिभा से चकित थे और उन्होंने अपनी सारी विद्या इनमें उँडेल दी। वह इनको बहुत चाहते थे। जब वह स्वदेश लौट गये तब भी दोनों का पत्र-व्यवहार जारी रहा। एकबार गुरु ने शिष्य को एक पत्र में लिखा—''ऐ अजीज़ ! चः कसी ? कि बाई हमऽ आज़ादेहा गाह गाह बख़ातिर मी गुज़री।'' * इससे स्पष्ट है कि मुल्लासमद अपने शिष्य को बहुत प्यार करते थे।काज़ी अब्दुल वदूद तथा एक-दो और विद्वानों ने अब्दुस्समद को एक कल्पित व्यक्ति बताया है। कहा जाता है कि मिर्जा से स्वयं भी एकाध बार सुना गया कि 'अब्दुस्समद' एक फर्ज़ी नाम है। चूँकि मुझे लोग बे उस्ताद कहते थे, उनका मुँह बन्द करनेको मैंने एक फ़र्जी उस्ताद गढ़ लिया है।'' * पर इस तरह की बातें केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित हैं। अपने शिक्षण के सम्बन्ध में स्वयं मिर्ज़ा ने एक पत्र में लिखा है—''मैंने अय्यामे दबिस्तां नशीनीमें1 'शरह मातए-आमिल' तक पढ़ा। बाद इसके लहवो लईव2 और आगे बढ़कर फिस्क़ व फ़िजूर3, ऐशो इशरतमें मुनमाहिक हो गया। फ़ारसी जबान से लगाव और शेरो-सख़ुन का जौक़ फ़ितरी व तबई5 था। नागाह एक शख़्स कि सासाने पञ्चुम की नस्ल में से....मन्तक़ व फ़िलसफ़ामें6 मौलवी फ़ज़ल हक़ मरहूम का नज़ीर मोमिने7 मूहिद व सूफ़ी-साफ़ी8 था, मेरे शहर में वारिद9 हुआ और लताएफ़10 फ़ारसी...और ग़वामज़े11 फ़ारसी आमेख़्ता व अरबी इससे मेरे हाली हुए। सोना कसौटी पर चढ़ गया। जेहन माउज़ न था। ज़बाने दरी से पैवन्दे अज़ली और उस्ताद बेमुबालग़ा...था। हक़ीक़त इस ज़बान की दिलनशीन व ख़ातिरनिशान12 हो गयी।''*————————————*'यादगारे ग़ालिब' (हाली)—इलाहाबादी संस्करण पृष्ठ 14-15।*'यादगारे ग़ालिब' (हाली) इलाहाबादी संस्करण पृष्ठ 13।1. पाठशाला में पढ़ने के दिनोंमें, 2. खेल-कूद, 3. दुराचरण. 4. तल्लीन, 5 प्राकृतिक, स्वाभाविक, 6. तर्कशास्त्र व दर्शन, 7. धर्मात्मा, 8. सन्त, 9. प्रविष्ठ, 10. विशिष्टताएँ, 11. समीक्षा, 12, हृदय में बैठना। *यह इशारा मुल्ला अब्दुस्समद के लिए ही है।
ग़ालिब : जीवन-रेखाउर्दू और दिल्लीउर्दू साहित्य, विशेषतः काव्य, के अभ्युदय में दिल्ली और उसके बाद लखनऊ का स्थान माना जाता है। उर्दू पैदा तो दिल्ली में ही हुई थी पर बचपन उसका दक्षिण में बीता; होश सँभालनेपर वह फिर दिल्ली आई और यहीं ब्याही भी गयी। उसका मायका चाहे दिल्ली को माने या दक्षिण को, उसकी ससुराल तो दिल्ली ही थी और है। हाँ, तरुणाई की अल्हड़ उमंगों से भरी रातें उसकी लखनऊ में भी बीतीं—यौवन की एक लम्बी रात जो अठखेलियाँ, शोख़ियों, कटाक्षों और मोहक हाव-भावसे पूर्ण है; जिसमें यौवन की वह लोच है जिसपर शत-शत प्राण निछावर; उसमें वह अदा है जिसके चरणों में दिल सिजदा करता है और जिसमें अगणित आलिंगनों का स्पर्श है। लखनऊ जो भी हो पर उर्दू के प्राण दिल्ली में ही बसते रहे; उसका कण्ठ वहीं फूटा। मुग़लों की दिल्ली, पददलिता और भूलुण्ठिता दिल्ली के प्रति विद्वानों, लेखकों कवियों, पर्यटकों, लुटेरों, सेनाधिपोंका आकर्षण सदा ही बना रहा और आज भी बना है। मज़ारों की भूमि, अगणित राज्यों का वह श्मशान दिल्ली, जहाँ जवानी और मृत्यु गलबहियाँ दिये खेलती रही हैं और खेलती है, कला और काव्य के लिए भी उपजाऊ भूमि रही है।उर्दू का यौवनयों हम देखते हैं कि रेखता या उर्दूका बचपन चाहे दक्षिण में बीता हो पर उसका शिक्षण और पालन-पोषण दिल्ली में हुआ। यह अल्हड़ दिल्ली की गलियों में घूमती फिरी; जामा मस्जिदकी सीढ़ियोंपर सोई, महलोंमें उसके स्वरलाप गूँजे, बाग़ों में वह लाला व गुलसे उलझी, नर्गिस को आखें दिखाती फिरी। मज्लिसों में साक़ी बन उसने जाम पिये-पिलाये और देखते-देखते सौन्दर्य और जवानी उसमें ऐसी फट पड़ी कि या अल्लाह ! फिर तो उसने अपने अंक में लखनऊ को भर लिया और जिधर से गुज़री उधर ही दीवाने पैदा कर दिये; शत-शत प्राण उसपर निछावर हो गये। मीर, सौदा और नासिख़, मोमिन, मीर, दर्द और इंशा, ज़ौक और ग़ालिबने उसे क्या-क्या इशारे दिये कि उसका कण्ठ यौवन की मस्तीमें फूटा तो फूटा और आज वह लाखों के दिल और दिमाग़ पर छा गयी है।जिन कवियों के कारण उर्दू अमर हुई और उसमें 'ब़हारे बेख़िज़ाँ' आई उनमें मीर और ग़ालिब सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। मीरने उसे घुलावट, मृदुता, सरलता, प्रेमकी तल्लीनता और अनुभूति दी तो ग़ालिबने उसे गहराई, बात को रहस्य बनाकर कहनेका ढंग, ख़मोपेच, नवीनता और अलंकरण दिये।
आगरा की देनआश्चर्य तो यह है कि दिल्ली (उस समय शाहजहानाबाद) में उर्दू फूली-फली पर जिन दो सर्वोत्कृष्ट कवियों—मीर और ग़ालिब—ने उर्दू काव्य को सर्वोत्तम निधियाँ प्रदान कीं, वे दिल्लीके नहीं, अकबराबाद (आगरा) के थे। यह ठीक है कि उनका अभ्युदय दिल्लीमें हुआ, उनकी संस्कृति दिल्लीकी थी पर उनको जन्म देनेका श्रेय तो अकबराबाद (आगरा) को ही है।ईरानके इतिहासमें जमशेदका नाम प्रसिद्ध है। यह थिमोरस के बाद सिंहासनासीन हुआ था। जश्ने नौरोज़का आरम्भ इसी ने किया था जिसे आज भी, हमारे देशमें, पारसी लोग मानते हैं। कहते हैं, इसीने द्राक्षासव या अंगूरी को जन्म दिया था। फारसी एवं उर्दू काव्यमें 'जामे-जम' (जो 'जामे जमशेद'का संक्षिप्त रूप है)* अमर हो गया है। इससे इतना तो मालूम पड़ता ही है कि यह मदिराका उपासक था और डटकर पीता-पिलाता था। जमशेदके अन्तिम दिनों में बहुत से लोग उसके शासन एवं प्रबन्ध से असन्तुष्ट हो गये थे। इन बाग़ियोंका नेता ज़हाक था जिसने जमशेद को आरेसे चिरवा दिया था पर वह स्वयं भी इतना प्रजा-पीड़क निकला कि सिंहासनसे उतार दिया गया। उसके बाद जमशेदका पोता फरीदूँ गद्दीपर बैठा जिसने पहली बार अग्नि-मन्दिरका निर्माण कराया। यही फरीदूँ ग़ालिब वंशका आदि पुरुष था।फरीदूँका राज्य उसके तीन बेटों एरज, तूर और सलममें बँट गया। एरजको ईरान का मध्य भाग, तूरको पूर्वी तथा सलमको पश्चिमी क्षेत्र मिले। चूँकि एरज को प्रमुख भाग मिला था इसलिए अन्य दोनों भाई उससे असन्तुष्ट थे; उन्होंने मिलकर षड्यन्त्र किया और उसे मरवा डाला पर बाद में एरज के पुत्र मनोचहरने उनसे ऐसा बदला लिया कि वे तुर्किस्तान भाग गये और वहां तूरान नाम का एक नया राज्य क़ायम किया। तूर-वंश और ईरानियोंमें बहुत दिनों तक युद्ध होते रहे। तूरानियों के उत्थान-पतन का क्रम चलता रहा। अन्त में ऐबकने ख़ुरासान, इराक़ इत्यादिमें सैलजुक राज्य की नींव डाली। इस राज-वंशमें तोग़रलबेग (1037-1063 ई.), अलप अर्सलान (1063-1072 ई.) तथा मलिकशाह (1072-1092 ई.) इत्यादि हुए जिनके समयमें तूसी एवं उमर ————————————*जामेजम=कहते हैं, जमशेदने एक ऐसा जाम (प्याला) बनवाया था जिसमें संसार की समस्त वस्तुओं और घटनाओंका ज्ञान हो जाता था। जान पड़ता है इस प्याले में कोई ऐसी चीज़ पिलाई जाती होगी जिसे पीनेपर तरह-तरह के काल्पनिक दृश्य दीखने लगते होंगे। जामेजमके लिए जामे जमशेद, जामे जहाँनुमाँ, जामे जहाँबीं इत्यादि शब्द भी प्रचलित हैं।ख़य्यामके कारण फ़ारसी काव्य का उत्कर्ष हुआ। मलिकसाहके दो बेटे थे। छोटेका नाम बर्कियारुक़ (1094-1104 ई.) था। इसी की वंश-परम्परामें 'ग़ालिब' हुए।जब इन लोगों का पतन हुआ, ख़ान्दान तितर-बितर हो गया। लोग क़िस्मत आज़माने इधर-उधर चले गये। कुछ ने सैनिक सेवा की ओर ध्यान दिया। इस वर्ग में एक थे तर्स़मख़ाँ जो समरक़न्द में रहने लगे थे। यही ग़ालिब के परदादा थे।
दादा और पितातर्समख़ाँके पुत्र क़ौक़ान बेगख़ाँ शाहआलम के ज़मानेमें, अपने बाप से झगड़कर हिन्दुस्तान चले आये। उनकी मात्र-भाषा तुर्की थी; हिन्दुस्तानी में बड़ी कठिनाई से चन्द टूटे-फूटे शब्द बोल पाते थे। यह क़ौक़ानबेग ग़ालिब के दादा थे। वह कुछ दिन लाहौर रहे, फिर दिल्ली चले आये और शाहआलम की नौकरी में लग गये। 50 घोड़े, भेरी और पताका इन्हें मिली और पहासू का पर्गना रिसाले और अपने खर्च के लिए इन्हें मिल गया। क़ौक़ानबेग के चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। बेटों में अब्दुल्लाबेग और नसरुल्लाबेगका वर्णन मिलता है। यही अब्दुल्लाबेग ग़ालिब के पिता थे।अब्दुल्लाबेग का जन्म दिल्ली में हुआ था। जबतक पिता जीवित रहे मज़ेसे कटी पर उनके मरते ही पहासू की जागीर हाथ से निकल गयी।ग़ालिब की रचनाएँ—कुल्लियाते नस्र और उर्दू-ए-मोअल्ला—देखने से मालूम होता है कि उनके बाप अब्दुल्लाबेगख़ाँ, जिन्हें मिर्जा दूल्हा भी कहा जाता था, पहले लखनऊ जाकर नवाब आसफ़उद्दौलाकी सेवा में नियुक्त हुए। कुछ ही दिनों बाद वहाँ से हैदराबाद चले गए और नवाब निज़ाम अली ख़ाँ की सेवा की। वहाँ 300 सवारोंके रिसाले के अफ़सर रहे। वहाँ भी ज्यादा दिन नहीं टिके और अलवर पहुँचे तथा राजा बख़्तावर सिंह की नौकरी में रहे। 1802 में वहीं गढ़ीकी लड़ाई में इनकी मृत्य हो गयी। पर बाप की मृत्य के बाद भी वेतन असदउल्लाख़ाँ (ग़ालिब) तथा उनके छोटे भाई को मिलता रहा। तालड़ा नाम का एक गाँव भी जागीर में मिला। इस प्रकार इनका वंश-वृक्ष यों बनता है :- तर्समख़ाँ । क़ौक़ानबेगख़ाँ ।——————————————————————————। । । । । । ।अब्दुल्लाबेगख़ाँ नसरुल्लाबेगख़ाँ पुत्र पुत्र पुत्री पुत्री पुत्री।——————————————————————। । ।असदउल्लाबेगख़ाँ मिर्ज़ा यूसुफ़ पुत्री खानम(असद एवं ग़ालिब)अब्दुल्लाबेग की शादी आगरा (अकबराबाद) के एक प्रतिष्ठत कुल में ख़्वाजा गुलामहुसेनख़ाँ कमीदान की बेटी इज्ज़तउन्निसा के साथ हुई थी। गुलामहुसेनख़ाँ की आगरा में काफ़ी ज़ायदाद थी। वह एक फ़ौजी अफ़सर थे। इस विवाह से अब्दुल्लाबेग को तीन सन्तानें हुईं—मिर्ज़ा असदउल्लाबेगख़ाँ, मिर्ज़ा यूसुफ़ और सबसे बड़ी ख़ानम।मिर्ज़ा असदउल्लाख़ाँका जन्म ननिहाल, आगरा में ही 27 दिसम्बर 1797 ई. को रात के समय हुआ। चूँकि पिता फ़ौजी नौकरी में इधर-उधर घूमते रहे इसलिए ज़्यादातर इनका पालन-पोषण ननिहाल में ही हुआ। जब यह पाँच साल के थे तभी पिता का देहावसान हो गया। पिता के बाद चाचा नसरुल्लाबेगख़ाँने इन्हें बड़े प्यार से पाला। नसरुल्लाबेग मराठों की ओर से आगराके सूबेदार थे पर जब लार्ड लेक ने मराठोंको हराकर आगरा पर अधिकार कर लिया तब यह पद भी टूट गया और उनकी जगह एक अंग्रेज कमिश्नर की नियुक्ति हुई। किन्तु नसरुल्लाबेगख़ाँ के साले लोहारू के नवाब फ़ख्रउद्दौला अहमदख़ाँकी लार्ड लेकसे मित्रता थी। उनकी सहायता से नसरुल्लाबेग अंग़्रेजी सेनामें 400 सवारों के रिसालदार नियुक्त हो गये। रिसाले तथा इनके भरण-पोषण के लिए 1700 रु. तनख़्वाह तय हुई। इसके बाद मिर्ज़ा ने स्वयं लड़कर भरतपुर के निकट सोंक और सोंसा के दो परगने होलकर के सिपाहियों से छीन लिये जो बाद में लार्ड लेक द्वारा इन्हें दे दिये गये। उस समय सिर्फ़ इन परगनों से ही लाख डेढ़ लाख की सालाना आमदनी थी। पर एक साल बाद चाचा की मृत्य हो गयी। *लार्ड लेक द्वारा नवाब अहमदबख़्शख़ाँको फ़ीरोज़पुर झुर्का का इलाका पचीस हज़ार सालाना कर पर मिला हुआ था। नसरुल्लाख़ाँ की मत्यु के बाद उन्होंने यह फैसला करा लिया कि 'पच्चीस हज़ार का कर माफ़ कर दिया जाय। इसकी जगह पर 50 सवारों का एक रिसाला रखूँ जिसपर पन्द्रह हज़ार का ख़र्च होगा और जो आवश्वकता पड़ने पर अंग़्रेज सरकार की सेवाके लिए भेजा जायगा। शेष 10 हज़ार नसरुल्लाख़ाँ के उत्तराधिकारियों को वृत्ति के रूप में दिया जाय।' *यह शर्त मान ली गयी।——————————*किसी लड़ाईमें लड़ते हुए हाथी से गिरकर 1806 में इनका देहावसान हुआ था।* न जाने कैसे, इसके एक मास बाद ही 7 जून 1806 ई. को, गुप्त रूप से, नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने अंग्रेज सरकार से एक दूसरा आज्ञापत्र प्राप्त कर लिया जिसमें लिखा था कि नसरुल्लाबेगख़ाँ के सम्बन्धियों को पाँच हज़ार सालाना पेंशन निम्नलिखित रूप में दी जाय—1. ख़्वाजा हाजी (जो 50 सवारों के अफ़सर थे)—दो हज़ार सालाना।2. नसरुल्लाबेगकी माँ और तीन बहिनें—डेढ़ हज़ार सालाना।3. मीरज़ा नौशा और मीरज़ा यूसुफ़ (नसरुल्ला के भतीजों) को डेढ़ हज़ार सालाना, इस प्रकार से 10 हज़ार से 5 हज़ार हुए, और 5 हज़ार में भी सिर्फ़ 750-750 सालाना ग़ालिब और उनके छोटे भाई को मिले। यह ठीक है कि बापकी मृत्यु के बाद चाचा ने इनका पालन किया पर शीघ्र ही उनकी मृत्यु हो गयी और यह अपने ननिहाल आ गये। पिता स्वयं घर-जमाईकी तरह, सदा ससुराल में रहे। वहीं उनकी सन्तानों का भी पालन-पोषण हुआ। ननिहाल खु़शहाल था। इसलिए ग़ालिब का बचपन ज़्यादातर वहीं बीता और बड़े आराम से बीता। उन लोगों के पास काफ़ी जायदाद थी। ग़ालिब खुद अपने एक पत्र में 'मफ़ीदुल ख़लायक़' प्रेसके मालिक मुंशी शिवनारायण को, जिनके दादा के साथ ग़ालिब के नानाकी गहरी दोस्ती थी, लिखते हैं :—''हमारी बड़ी हवेली वह है जो अब लक्खीचन्द सेठने मोल ली है। इसीके दरवाजे की संगीन बारहदरी पर मेरी नशस्त थी। *और पास उसी के एक 'खटियावाली हवेली' और सलीमशाह के तकियाके पास दूसरी हवेली और इससे आगे बढ़कर एक कटरा की वह 'गड़रियोंवाला' मशहूर था और एक कटरा कि वह 'कश्मीरवाला' कहलाता था, इस कटरे के एक कोठे पर मैं पतंग उड़ाता था और राजा बलवान सिंह से पतंग लड़ा करते थे।''*''यह बड़ी हवेली.........अब भी पीपलमण्डी आगरा में मौजूद है। इसी का नाम 'काला' (कलाँ ) महल है। यह निहायत आलीशान इमारत है। यह किसी जमाने में राजा गजसिंह की हवेली कहलाती थी। राजा गजसिंह जोधपुर के राजा सूरजसिंह के बेटे थे और अहदे जहाँगीरमें इसी मकान में रहते थे। मेरा ख़्याल है कि मिर्ज़ा की पैदाइश इसी मकानमें हुई होगी। आजकल (1938 ई.) यह इमारत एक हिन्दू सेठ की मिल्कियत है और इसमें लड़कियों का मदरसा है।'' —'जिक्रे ग़ालिब' (मालिकराम), नवीन संस्करण, पृष्ठ 21।
शिक्षणमतलब ननिहाल में मजे से गुज़रती थी। आराम ही आराम था। एक ओर खुशहाल परन्तु पतनशील उच्च मध्यमवर्ग की जीवन-विधि के अनुसार इन्हें पतंग, शतरञ्ज और जुएकी आदत लगी, और दूसरी ओर उच्चकोटि की बुजुर्गों की सोहबतका लाभ भी मिला। इनकी माँ स्वयं शिक्षिता थीं पर ग़ालिब को नियमित शिक्षा कुछ ज्यादा नहीं मिल सकी। हाँ, ज्योतिष, तर्क, दर्शन, संगीत एवं रहस्यवाद इत्यादिसे इनका कुछ न कुछ परिचय होता गया। फ़ारसीकी प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगराके उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान मौलवी मुहम्मद मोवज्ज़म से प्राप्त की। इनकी ग्रहण शक्ति इतनी तीव्र थी कि बहुत जल्द वह ज़हूरी जैसे फ़ारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे बल्कि फ़ारसी में गज़लें भी लिखने लगे।इसी ज़माने (1810-1811 ई.) में मुल्ला अब्दुस्समद ईरान से घूमते-फिरते आगरा आये और इन्हींके यहाँ दो साल तक रहे। यह ईरान के एक प्रतिष्ठत एवं वैभवसम्पन्न व्यक्ति थे और यज़्द के रहनेवाले थे। पहिले ज़रथुस्त्र के अनुयायी थे पर बाद में इस्लाम को स्वीकार कर लिया था। इनका पुराना नाम हरमुज़्द था। फ़ारसी तो उनकी घुट्टीमें थी। अरबी का भी उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। इसी समय मिर्ज़ा 14 के थे और फ़ारसी में उन्होंने अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी। अब मुल्ला अब्दुस्समद जो आये तो उनसे दो वर्ष तक मिर्ज़ा ने फ़ारसी भाषा एवं काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया और उनमें ऐसे पारंगत हो गये जैसे ख़ुद ईरानी हों। अब्दुस्समद इनकी प्रतिभा से चकित थे और उन्होंने अपनी सारी विद्या इनमें उँडेल दी। वह इनको बहुत चाहते थे। जब वह स्वदेश लौट गये तब भी दोनों का पत्र-व्यवहार जारी रहा। एकबार गुरु ने शिष्य को एक पत्र में लिखा—''ऐ अजीज़ ! चः कसी ? कि बाई हमऽ आज़ादेहा गाह गाह बख़ातिर मी गुज़री।'' * इससे स्पष्ट है कि मुल्लासमद अपने शिष्य को बहुत प्यार करते थे।काज़ी अब्दुल वदूद तथा एक-दो और विद्वानों ने अब्दुस्समद को एक कल्पित व्यक्ति बताया है। कहा जाता है कि मिर्जा से स्वयं भी एकाध बार सुना गया कि 'अब्दुस्समद' एक फर्ज़ी नाम है। चूँकि मुझे लोग बे उस्ताद कहते थे, उनका मुँह बन्द करनेको मैंने एक फ़र्जी उस्ताद गढ़ लिया है।'' * पर इस तरह की बातें केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित हैं। अपने शिक्षण के सम्बन्ध में स्वयं मिर्ज़ा ने एक पत्र में लिखा है—''मैंने अय्यामे दबिस्तां नशीनीमें1 'शरह मातए-आमिल' तक पढ़ा। बाद इसके लहवो लईव2 और आगे बढ़कर फिस्क़ व फ़िजूर3, ऐशो इशरतमें मुनमाहिक हो गया। फ़ारसी जबान से लगाव और शेरो-सख़ुन का जौक़ फ़ितरी व तबई5 था। नागाह एक शख़्स कि सासाने पञ्चुम की नस्ल में से....मन्तक़ व फ़िलसफ़ामें6 मौलवी फ़ज़ल हक़ मरहूम का नज़ीर मोमिने7 मूहिद व सूफ़ी-साफ़ी8 था, मेरे शहर में वारिद9 हुआ और लताएफ़10 फ़ारसी...और ग़वामज़े11 फ़ारसी आमेख़्ता व अरबी इससे मेरे हाली हुए। सोना कसौटी पर चढ़ गया। जेहन माउज़ न था। ज़बाने दरी से पैवन्दे अज़ली और उस्ताद बेमुबालग़ा...था। हक़ीक़त इस ज़बान की दिलनशीन व ख़ातिरनिशान12 हो गयी।''*————————————*'यादगारे ग़ालिब' (हाली)—इलाहाबादी संस्करण पृष्ठ 14-15।*'यादगारे ग़ालिब' (हाली) इलाहाबादी संस्करण पृष्ठ 13।1. पाठशाला में पढ़ने के दिनोंमें, 2. खेल-कूद, 3. दुराचरण. 4. तल्लीन, 5 प्राकृतिक, स्वाभाविक, 6. तर्कशास्त्र व दर्शन, 7. धर्मात्मा, 8. सन्त, 9. प्रविष्ठ, 10. विशिष्टताएँ, 11. समीक्षा, 12, हृदय में बैठना। *यह इशारा मुल्ला अब्दुस्समद के लिए ही है।
2 टिप्पणियां:
मार्क कर लिया है. बहुत लम्बा है मगर रविवार को पढ़ेंगे जरुर.
are bhai ye lekh maine nahi likha hai. ye to kahi se copy kiya tha.
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