'जब अमीर लोग अपनी सुविधा के लिए किसी बड़ी परियोजना के नाम पर गरीबों की बस्तियों को उजाड़ते हैं इसका अर्थ है बस्ती का विकास होने वाला है।' टिहरी के छाम गांव से विस्थापित पूरन सिंह राणा के लिए विकास के मायने यहीं हैं। टिहरी में उनका घर गंगा के ठीक किनारे हुआ करता था। पूरन याद करके बताते हैं,`कई बार हमारे खेत में फसल बिना सींचाई के सूख जाती थी लेकिन हम गंगा से पानी नहीं लेते थे। चूंकि गंगा हमारे लिए सिर्फ नदी मात्र नहीं थी, वह हमारी मां थी. हमारे जीवन का हिस्सा थी।´ उन्हें अपने जीवन के इस हिस्से से काटकर आज अलग कर दिया गया है। टिहरी पर बन रहे बांध की वजह से उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा।
1980 में इंदिरा गांधी के निर्देश पर विज्ञान एवं तकनीकी विभाग की समिति द्वारा अगस्त 1986 में जो रिपोर्ट दी गई थी, उसके आधार पर तो परियोजना पर उसी वक्त रोक लग जानी चाहिए थी। बाद में इस परियोजना को छोड़ देने की सिफारिश वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भी की। लेकिन सरकार इन सिफारिशों की परवाह करे तो हो चुका विकास। टिहरी से उजड़े पूरन को ज्वालापुर (हरिद्वार के पास ) स्थित वन विभाग की जमीन पर बसाया गया है। नई जमीन के मालिकाना हक से संबंधित सिर्फ एक पर्ची सींचाई विभाग ने काट कर उन्हें दी। इस पर्ची के अलावा उनके पास अन्य कोई सबूत नहीं है, जिससे वे साबित कर सकें की पुर्नवास की जमीन के मालिक वे हैं। उनके पास ना इस जमीन से जुड़ा कोई पट्टा है। ना उन्हें अब तक कोई मतदाता पहचान पत्र मिला। ना ही उनका इस नई जगह पर अधिकारी आवासीय प्रमाण पत्र बनाने को तैयार है। वे अपनी जमीन जरूरत पड़ने पर किसी को बेच भी नहीं सकते। इस जमीन पर अपने बच्चों की अच्छी िशक्षा के लिए बैंक से वे कर्ज भी नहीं ले सकते। यह कहानी केवल पूरन की नहीं हैं। यह कहानी है, टिहरी से विस्थापित हुए 5000
'जब अमीर लोग अपनी सुविधा के लिए किसी बड़ी परियोजना के नाम नर गरीबों की बस्तिीयों को उजाड़ते हैं इसका अर्थ है बस्ती का विकास होने वाला है।' टिहरी के छाम गांव से विस्थापित पूरन सिंह राणा के लिए विकास के मायने यहीं हैं। टिहरी में उनका घर गंगा के ठीक किनारे हुआ करता था। पूरन याद करके बताते हैं,`कई बार हमारे खेत में फसल बिना सींचाई के सूख जाती थी लेकिन हम गंगा से पानी नहीं लेते थे। चूंकि गंगा हमारे लिए सिर्फ नदी मात्र नहीं थी, वह हमारी मां थी. हमारे जीवन का हिस्सा थी।´ उन्हें अपने जीवन के इस हिस्से से काटकर आज अलग कर दिया गया है। टिहरी पर बन रहे बांध की वजह से उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा।
1980 में इंदिरा गांधी के निर्देश पर विज्ञान एवं तकनीकी विभाग की समिति द्वारा अगस्त 1986 में जो रिपोर्ट दी गई थी, उसके आधार पर तो परियोजना पर उसी वक्त रोक लग जानी चाहिए थी। बाद में इस परियोजना को छोड़ देने की सिफारिश वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भी की। लेकिन सरकार इन सिफारिशों की परवाह करे तो हो चुका विकास। टिहरी से उजड़े पूरन को ज्वालापुर (हरिद्वार के पास ) स्थित वन विभाग की जमीन पर बसाया गया है। नई जमीन के मालिकाना हक से संबंधित सिर्फ एक पर्ची सींचाई विभाग ने काट कर उन्हें दी। इस पर्ची के अलावा उनके पास अन्य कोई सबूत नहीं है, जिससे वे साबित कर सकें की पुर्नवास की जमीन के मालिक वे हैं। उनके पास ना इस जमीन से जुड़ा कोई पट्टा है। ना उन्हें अब तक कोई मतदाता पहचान पत्र मिला। ना ही उनका इस नई जगह पर अधिकारी आवासीय प्रमाण पत्र बनाने को तैयार है। वे अपनी जमीन जरूरत पड़ने पर किसी को बेच भी नहीं सकते। इस जमीन पर अपने बच्चों की अच्छी िशक्षा के लिए बैंक से वे कर्ज भी नहीं ले सकते। यह कहानी केवल पूरन की नहीं हैं। यह कहानी है, टिहरी से विस्थापित हुए 5000 ग्रामीण और 3000 शहरी परिवारों की। सरकार ने विकास के नाम पर उन्हें घर निकाला दे दिया और वे लोग अपने ही घर में शरणार्थी बनकर जीने को मजबूर हैं।
वर्ष 1977 में टिहरी परियोजना के लिए अनुमानित लागत 197.9 करोड़ था, जो बढ़कर आज 50,000 करोड़ से भी ऊपर चला गया है। विकास की गति वहां तेज है लेकिन किसी को इस बात की चिन्ता नहीं है कि किसी दिन यदि टिहरी बांध क्षतिग्रस्त हो गया तो इसका क्या परिणाम हो सकता है। पर्यावरणशास्त्री और समाजसेवी सुंदरलाल बहुगुणा के अनुसार-यदि बांध क्षतिग्रस्त हुए तो जलाशय 22 मिनट में खाली हो जाएगा, 63 मिनट के अंदर श्रृषिकेश 260 मीटर ऊंची पानी की लहरों के नीचे गोता खाता नजर आएगा। अगले 20 मिनटों में यही दशा हरिद्वार की होगी। 232 मीटर ऊंची पानी के लहरों के कारण। इसी प्रकार बिजनौर, मेरठ, हापुड़, बुलंदशहर आदि 12 घंटों के अंदर 8ण्5 मीटर ऊंची बाढ़नुमा पानी की चादर के नीचे हमेशा-हमेशा के लिए दब जाएंगे। इस वक्त विकास के लिए उत्तरांचल में उठा-पटक बहुत तेज है। एक तरफ टिहरी विस्थापितों को बसाने के लिए वन विभाग ने ज्वालापुर में जंगल की कटाई की। दूसरी तरफ यही सरकार देहरादून के पास हरकीदून (उत्तरकाशी) में गोवन्द विहार, गंगोत्री नेशनल पार्क बनाने के नाम पर बड़ी संख्या में गांव वालों को उजाड़ रही है।
नई टिहरी में पत्रकार देवेन्द्र दुमोगा कहते हैं- पूरे उत्तरांचल में विकास के नाम पर विनाशलीला चल रही है। आम लोग व्यवस्था की नजर में कीड़े-मकोड़ों से अधिक अहमियत नहीं रखते। विकास के नाम पर यहां अव्यवस्था ही फैलाया जा रहा है। जो इस अव्यवस्था के खिलाफ बोले, वह विकास विरोधी है। आज मेरे लिए अपने गांव जाना अधिक मुिश्कल है, दिल्ली पहुंचना आसान हो गया। यह कैसा विकास है? आप कभी उत्तरांचल जाएं तो वहां हर तरफ चल रही मशीनी गतिविधियों को देखकर सोच सकते हैं, यहांं विकास की गति बहुत तेज है। बकौल दुमोगा-`यह विकास नहीं है। यह तो साफ तौर से उत्तरांचल की नदियों पहाड़ों और जंगलों के साथ बलात्कार है। जमकर उत्तरांचल में नदियों का दोहन किया गया। यह नया दौर है, नदियों में सुंरग निकालने का।´ उत्तरांचल फैल रहे लगातार प्रदूषण की वजह स ेअब प्रशासन ने गोमुख तक यात्रियों के जाने पर पाबंदी लगा दी है। गोमुख लगातार सिकुरता जा रहा है। यदि गोमुख नहीं होगा तो गंगा को बचाना मुिश्कल होगा। अब जिन लोगों को गोमुख तक जाना है, उनके लिए परमिट बनाना अनिवार्य कर दिया गया है।
देवप्रयाग स्थित श्री लक्ष्मीधर विद्यामंदिर वेधशाला के प्रभाकर जोशी सामने लगे एक बोर्ड की तरफ इशारा करते हैं, जिसपर लिखा है- `सावधान, नदी के जलस्तर में 1 से 5 मीटर का उतार एवं चढ़ाव किसी भी समय हो सकता है। कृपया घाट पर अत्यधिक सावधानी बरतें।- टिहरी हाइड्रो डेवलमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड´ श्री जोशी बताते हैं- `जिस खतरे से हमें सावधान किया जा रहा है, वह प्राकृतिक नहीं है। वह मानव निर्मित है।´ वे बताते हैं- `टिहरी के पानी को रोकने और छोड़ने के खेल में ना जाने कितने लोग बह गए।´ पूरे उत्तरांचल में सबसे अधिक लोगों का पलायन टिहरी से हुआ। वजह टिहरी का पिछड़ापन है। पूरा देश 1947 में आजाद हुआ लेकिन टिहरी को आजादी मिली 1948 में। यह राज्य राजा के अधिन था। यहां अंग्रजों का शासन नहीं रहा। राजा ने कभी अपने राज्य के लोगों को िशक्षित और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने का प्रयास नहींं किया। इसलिए यह क्षेत्र शिक्षा-दीक्षा के मामले में फिसड्डी रहा। अपने बीच से नीचे उतर कर काम-काज करने वालों को पहाड़ के समाज ने अधिक सम्मान दिया। इससे वहां पलायन का चलन बढ़ा। सामाजिक कार्यकर्ता प्रदीप बहुगुणा कहते हैं, `लोग पलायन कर ही रहे थे। सरकार ने विकास के नाम पर विस्थापन का सिलसिला अलग से शुरू कर दिया। पूरे उत्तरांचल में यह चल रहा है। बड़ी संख्या में लोगों के घर उजाड़े गए हैं।´
विकास, विस्थापन और पुनर्वास उत्तराखण्ड की नीयति बन गई है।
1980 में इंदिरा गांधी के निर्देश पर विज्ञान एवं तकनीकी विभाग की समिति द्वारा अगस्त 1986 में जो रिपोर्ट दी गई थी, उसके आधार पर तो परियोजना पर उसी वक्त रोक लग जानी चाहिए थी। बाद में इस परियोजना को छोड़ देने की सिफारिश वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भी की। लेकिन सरकार इन सिफारिशों की परवाह करे तो हो चुका विकास। टिहरी से उजड़े पूरन को ज्वालापुर (हरिद्वार के पास ) स्थित वन विभाग की जमीन पर बसाया गया है। नई जमीन के मालिकाना हक से संबंधित सिर्फ एक पर्ची सींचाई विभाग ने काट कर उन्हें दी। इस पर्ची के अलावा उनके पास अन्य कोई सबूत नहीं है, जिससे वे साबित कर सकें की पुर्नवास की जमीन के मालिक वे हैं। उनके पास ना इस जमीन से जुड़ा कोई पट्टा है। ना उन्हें अब तक कोई मतदाता पहचान पत्र मिला। ना ही उनका इस नई जगह पर अधिकारी आवासीय प्रमाण पत्र बनाने को तैयार है। वे अपनी जमीन जरूरत पड़ने पर किसी को बेच भी नहीं सकते। इस जमीन पर अपने बच्चों की अच्छी िशक्षा के लिए बैंक से वे कर्ज भी नहीं ले सकते। यह कहानी केवल पूरन की नहीं हैं। यह कहानी है, टिहरी से विस्थापित हुए 5000
'जब अमीर लोग अपनी सुविधा के लिए किसी बड़ी परियोजना के नाम नर गरीबों की बस्तिीयों को उजाड़ते हैं इसका अर्थ है बस्ती का विकास होने वाला है।' टिहरी के छाम गांव से विस्थापित पूरन सिंह राणा के लिए विकास के मायने यहीं हैं। टिहरी में उनका घर गंगा के ठीक किनारे हुआ करता था। पूरन याद करके बताते हैं,`कई बार हमारे खेत में फसल बिना सींचाई के सूख जाती थी लेकिन हम गंगा से पानी नहीं लेते थे। चूंकि गंगा हमारे लिए सिर्फ नदी मात्र नहीं थी, वह हमारी मां थी. हमारे जीवन का हिस्सा थी।´ उन्हें अपने जीवन के इस हिस्से से काटकर आज अलग कर दिया गया है। टिहरी पर बन रहे बांध की वजह से उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा।
1980 में इंदिरा गांधी के निर्देश पर विज्ञान एवं तकनीकी विभाग की समिति द्वारा अगस्त 1986 में जो रिपोर्ट दी गई थी, उसके आधार पर तो परियोजना पर उसी वक्त रोक लग जानी चाहिए थी। बाद में इस परियोजना को छोड़ देने की सिफारिश वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भी की। लेकिन सरकार इन सिफारिशों की परवाह करे तो हो चुका विकास। टिहरी से उजड़े पूरन को ज्वालापुर (हरिद्वार के पास ) स्थित वन विभाग की जमीन पर बसाया गया है। नई जमीन के मालिकाना हक से संबंधित सिर्फ एक पर्ची सींचाई विभाग ने काट कर उन्हें दी। इस पर्ची के अलावा उनके पास अन्य कोई सबूत नहीं है, जिससे वे साबित कर सकें की पुर्नवास की जमीन के मालिक वे हैं। उनके पास ना इस जमीन से जुड़ा कोई पट्टा है। ना उन्हें अब तक कोई मतदाता पहचान पत्र मिला। ना ही उनका इस नई जगह पर अधिकारी आवासीय प्रमाण पत्र बनाने को तैयार है। वे अपनी जमीन जरूरत पड़ने पर किसी को बेच भी नहीं सकते। इस जमीन पर अपने बच्चों की अच्छी िशक्षा के लिए बैंक से वे कर्ज भी नहीं ले सकते। यह कहानी केवल पूरन की नहीं हैं। यह कहानी है, टिहरी से विस्थापित हुए 5000 ग्रामीण और 3000 शहरी परिवारों की। सरकार ने विकास के नाम पर उन्हें घर निकाला दे दिया और वे लोग अपने ही घर में शरणार्थी बनकर जीने को मजबूर हैं।
वर्ष 1977 में टिहरी परियोजना के लिए अनुमानित लागत 197.9 करोड़ था, जो बढ़कर आज 50,000 करोड़ से भी ऊपर चला गया है। विकास की गति वहां तेज है लेकिन किसी को इस बात की चिन्ता नहीं है कि किसी दिन यदि टिहरी बांध क्षतिग्रस्त हो गया तो इसका क्या परिणाम हो सकता है। पर्यावरणशास्त्री और समाजसेवी सुंदरलाल बहुगुणा के अनुसार-यदि बांध क्षतिग्रस्त हुए तो जलाशय 22 मिनट में खाली हो जाएगा, 63 मिनट के अंदर श्रृषिकेश 260 मीटर ऊंची पानी की लहरों के नीचे गोता खाता नजर आएगा। अगले 20 मिनटों में यही दशा हरिद्वार की होगी। 232 मीटर ऊंची पानी के लहरों के कारण। इसी प्रकार बिजनौर, मेरठ, हापुड़, बुलंदशहर आदि 12 घंटों के अंदर 8ण्5 मीटर ऊंची बाढ़नुमा पानी की चादर के नीचे हमेशा-हमेशा के लिए दब जाएंगे। इस वक्त विकास के लिए उत्तरांचल में उठा-पटक बहुत तेज है। एक तरफ टिहरी विस्थापितों को बसाने के लिए वन विभाग ने ज्वालापुर में जंगल की कटाई की। दूसरी तरफ यही सरकार देहरादून के पास हरकीदून (उत्तरकाशी) में गोवन्द विहार, गंगोत्री नेशनल पार्क बनाने के नाम पर बड़ी संख्या में गांव वालों को उजाड़ रही है।
नई टिहरी में पत्रकार देवेन्द्र दुमोगा कहते हैं- पूरे उत्तरांचल में विकास के नाम पर विनाशलीला चल रही है। आम लोग व्यवस्था की नजर में कीड़े-मकोड़ों से अधिक अहमियत नहीं रखते। विकास के नाम पर यहां अव्यवस्था ही फैलाया जा रहा है। जो इस अव्यवस्था के खिलाफ बोले, वह विकास विरोधी है। आज मेरे लिए अपने गांव जाना अधिक मुिश्कल है, दिल्ली पहुंचना आसान हो गया। यह कैसा विकास है? आप कभी उत्तरांचल जाएं तो वहां हर तरफ चल रही मशीनी गतिविधियों को देखकर सोच सकते हैं, यहांं विकास की गति बहुत तेज है। बकौल दुमोगा-`यह विकास नहीं है। यह तो साफ तौर से उत्तरांचल की नदियों पहाड़ों और जंगलों के साथ बलात्कार है। जमकर उत्तरांचल में नदियों का दोहन किया गया। यह नया दौर है, नदियों में सुंरग निकालने का।´ उत्तरांचल फैल रहे लगातार प्रदूषण की वजह स ेअब प्रशासन ने गोमुख तक यात्रियों के जाने पर पाबंदी लगा दी है। गोमुख लगातार सिकुरता जा रहा है। यदि गोमुख नहीं होगा तो गंगा को बचाना मुिश्कल होगा। अब जिन लोगों को गोमुख तक जाना है, उनके लिए परमिट बनाना अनिवार्य कर दिया गया है।
देवप्रयाग स्थित श्री लक्ष्मीधर विद्यामंदिर वेधशाला के प्रभाकर जोशी सामने लगे एक बोर्ड की तरफ इशारा करते हैं, जिसपर लिखा है- `सावधान, नदी के जलस्तर में 1 से 5 मीटर का उतार एवं चढ़ाव किसी भी समय हो सकता है। कृपया घाट पर अत्यधिक सावधानी बरतें।- टिहरी हाइड्रो डेवलमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड´ श्री जोशी बताते हैं- `जिस खतरे से हमें सावधान किया जा रहा है, वह प्राकृतिक नहीं है। वह मानव निर्मित है।´ वे बताते हैं- `टिहरी के पानी को रोकने और छोड़ने के खेल में ना जाने कितने लोग बह गए।´ पूरे उत्तरांचल में सबसे अधिक लोगों का पलायन टिहरी से हुआ। वजह टिहरी का पिछड़ापन है। पूरा देश 1947 में आजाद हुआ लेकिन टिहरी को आजादी मिली 1948 में। यह राज्य राजा के अधिन था। यहां अंग्रजों का शासन नहीं रहा। राजा ने कभी अपने राज्य के लोगों को िशक्षित और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने का प्रयास नहींं किया। इसलिए यह क्षेत्र शिक्षा-दीक्षा के मामले में फिसड्डी रहा। अपने बीच से नीचे उतर कर काम-काज करने वालों को पहाड़ के समाज ने अधिक सम्मान दिया। इससे वहां पलायन का चलन बढ़ा। सामाजिक कार्यकर्ता प्रदीप बहुगुणा कहते हैं, `लोग पलायन कर ही रहे थे। सरकार ने विकास के नाम पर विस्थापन का सिलसिला अलग से शुरू कर दिया। पूरे उत्तरांचल में यह चल रहा है। बड़ी संख्या में लोगों के घर उजाड़े गए हैं।´
विकास, विस्थापन और पुनर्वास उत्तराखण्ड की नीयति बन गई है।
(अफवाह और खबर दोनों है, रतन टाटा सिंगूर छोड़ उत्तराखण्ड आ रहे हैं. वे पन्तनगर में नैनो का मुख्य असेम्बली प्लांट बना सकते हैं. उत्तराखण्ड के लिए इसे सौभाग्य की बात बतानेवाले जरा उत्तराखण्ड के उस टीस को भी अनुभव करें जो टिहरी जैसी बड़ी परियोजनाओं के कारण उसे विरासत में मिली है. उद्योगपतियों को बिना टैक्स प्रदेश में घुसानेवाली सरकारें यह आंकलन क्यों नहीं करती कि इससे आम उत्तराखण्डी को क्या मिला? उनके हिस्से में तो पलायन, विस्थापन और विनाश ही आता है.)
(विस्फोट से : विकास विस्थापन और उत्तराखण्ड)
(विस्फोट से : विकास विस्थापन और उत्तराखण्ड)
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