बुधवार, 17 जून 2009

सब धोबी के कुत्ते निकले


यह कविता यूथ फॉर जस्टिस के विक्रम शील के जानिब से आई है...बात में वजन गहरा था तो आप बलौग बंधुओ की नजर कर रहा हूँ...

सिर पर आग
पीठ पर पर्वत
पाँव में जूते काठ के
क्या कहने इस ठाठ के।।

यह तस्वीर
नयी है भाई
आज़ादी के बाद की
जितनी कीमत
खेत की कल थी
उतनी कीमत
खाद की

सब
धोबी के कुत्ते निकले
घर के हुए न घाट के
क्या कहने इस ठाठ के।।


बिना रीढ़ के
लोग हैं शामिल
झूठी जै-जैकार में
गूँगों की
फरियाद खड़ी है
बहरों के दरबार में

खड़े-खड़े
हम रात काटते
खटमल
मालिक खाट के
क्या कहने इस ठाठ के।।


मुखिया
महतो और चौधरी
सब मौसमी दलाल हैं
आज
गाँव के यही महाजन
यही आज खुशहाल हैं

रोज़
भात का रोना रोते
टुकड़े साले टाट के
क्या कहने इस ठाठ के।।

3 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

आशीशजी मुझे लगता है अब तक ब्लोग पर पधी सब कविताओं मे से उमदा रचना हैऐसे पढ्वाने के लिये बहित बहित धन्य्वाद्

नीरज गोस्वामी ने कहा…

लाजवाब रचना है...बेमिसाल....एक एक शब्द गहरी चोट करता है आज के मौजूदा हालात पर...इस रचना की जितनी तारीफ की जाये कम है...शुक्रिया आपका इसे पढ़वाने के लिए....
नीरज

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

कहां से निकले
घर और घाट पर
तो मिलते नहीं है
कुत्‍ते नहीं ...
मुगालता हुआ होगा
कुत्‍ते वैसे भी
नहीं करते ठाठ
कहा जाएगा
सोलह दूनी आठ।

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम