विजय अनत जी की तरफ से आज यह मेल आया था. नजीर अकबराबादी मुझे हमेशा प्रिय रहे हैं. उनकी रचना आप सबके नजर कर रहा हूँ.. यह कहने की जरूरत तो नहीं रचना पढने के बाद दाद भी देनी होगी..
बंजारानामा
टुक हिर्सो-हवा को छोड़ मियां, मत देस-बिदेस फिरे मारा
क़ज़्ज़ाक अजल का लुटे है दिन-रात बजाकर नक़्क़ारा
क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतुर क्या गौनें पल्ला सर भारा
क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर, क्या आग, धुआं और अंगारा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
ग़र तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है
ऐ ग़ाफ़िल तुझसे भी चढ़ता इक और बड़ा ब्योपारी है
क्या शक्कर, मिसरी, क़ंद, गरी क्या सांभर मीठा-खारी है
क्या दाख़, मुनक़्क़ा, सोंठ, मिरच क्या केसर, लौंग, सुपारी है
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पच्छिम जावेगा
या सूद बढ़ाकर लावेगा या टोटा घाटा पावेगा
क़ज़्ज़ाक़ अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा
धन दौलत नाती पोता क्या इक कुनबा काम न आवेगा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
शनिवार, 12 सितंबर 2009
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5 टिप्पणियां:
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा....
यही है थीम भैये..यही है..पर कौन समझे..
क्या आप इसमें लिखे हुए उर्दू के शब्दों का अर्थ भी कही लिखकर बता सकते हैं। ऐसे में पढ़ने में ज़्यादा मज़ा आएगा।
@Dipti- हिर्सो हवा – लालच; क़ज़्ज़ाक – डाकू; अजल – मौत; शुतुर – ऊंट; क़ंद – खांड
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
कितने सीधे शब्दों में कितनी गहरी बात
भाई वाह क्या बात है. जिन नज़ीर अकबराबादी पे मैंने शोध किया है उनकी कवितायेँ तुमने अपने ब्लॉग पे लगाई हैं.
बहुत अच्छा लगा भाई.
नजीर की याद मे एक पंक्ति---
आशिक तो कलंदर है, न हिन्दू न मुसलमान!
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