सोमवार, 29 सितंबर 2008

बैनर क्लास सेवा की जय - बिहार बाढ़

भाई बाढ़ पीड़ित सुपौल के डपरखा बाढ़ राहत शिविर में इस शिक्षा केन्द्र का बैनर देखने को मिला। मुझे लगता है बाढ़ की वजह से जल्दबाजी में 'आनंदमयी' की जगह कुछ और लिखवा कर लगवा दिया, संयोजकों ने। जो लिखा है वह ठीक है तो कोई गल नहीं, यदि भूल हुई है तो सुधार ली जाए। वैसे भी बिहार के बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों में बैनर का धंधा जोरों पर है। काम भले ही कुछ भी ना हो। लेकिन संस्थाओं ने बैनर लगाने में कोई कोताही नहीं की है। सहरसा में एक बैनर बनाने वाले ने बताया कि उसने एक महीने में १५०० बैनर बनाएं हैं। और सिर्फ़ सहरसा में आप सब की जानकारी के लिए बता दूँ, लगभग आधा दर्जन दूकानों में बैनर बनाने का काम चल रहा है अब इस नए जमाने की बैनर क्लास सेवा के लिए क्या कहूं। शब्द नहीं हैं मेरे पास।

बुधवार, 24 सितंबर 2008

गडियाने को मन करता है ...

आम जन अब तक बिहार की बाढ़ को भूल - भाल गए होंगे। अब मीडिया वालों के लिए बिहार बाढ़ की ख़बर में लस नहीं है। लेकिन जिन लोगों ने इस विभिषिका में अपना सब कुछ खो दिया है, वो कैसे भूला पाएँगे यह सब कुछ. लोकेन्द्र भारतीय बड़े साफ़ शब्द में कहते हैं, कुछ दिनों में तमाम एन जी ओ अपना बोडिया समेट कर बिहार से चले जाएँगे. उस वक़्त यहाँ मदद की असली जरूरत पड़ने वाली है. ज़रा सोचिए कैसे काटेंगे बाढ़ पीड़ित ठण्ड से ठीठूराती काली रातों को . इस परिस्थिति में बिहार के जन प्रतिनिधि और नौकरशाह चैन की नींद सो पाते हैं, तो यह वास्तव में शर्म की बात मानी जानी चाहिए।
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इस रिक्त स्थान में बाढ़ के लिए जिम्मेवार तमाम लोगों को आप जितने अपशब्द बोल सकते हैं, भर लीजिए. वैसे मैं जानता हूँ - उन्हें कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ना इससे भी, क्योंकि वे अब थेथर हो चुके हैं.
जो लोग थेथर शब्द से अपरिचित हों वे इस थेथरपने को निर्लजता का भाई-बंधू ही समझे.







































गुरुवार, 11 सितंबर 2008

मेरठ के एक गाँव से लाया यह तस्वीर

पिछले दिनों मेरठ जाना हुआ, वहीं के एक गाँव से यह तस्वीर लाया हूँ. इसे देखने के बाद लगा, मानों यह तस्वीर कुछ कहना चाहती है, मुझसे - आपसे।
क्या आपको एसा नहीं लगता?

रविवार, 7 सितंबर 2008

उड़नतस्तरी (समीरलाल जी) का निवेदन

समीरलाल जी की यह टिप्पणी, अपने पोस्ट पर टिप्पणी चाहने वाले हर चिट्ठाकार के लिए मुझे लगता है अनुकरणीय है। जो अपनी पोस्ट पर टिप्पणी नहीं चाहते ऐसे बंधू भी यहाँ योगदान करें तो ग़लत नहीं कहा जाएगा।

लिखते हैं, अपने ब्लॉग पर छापते हैं। आप चाहते हैं लोग आपको पढ़ें और आपको बतायें कि उनकी प्रतिक्रिया क्या है। ऐसा ही सब चाहते हैं.कृप्या दूसरों को पढ़ने और टिप्पणी कर अपनी प्रतिक्रिया देने में संकोच न करें.हिन्दी चिट्ठाकारी को सुदृण बनाने एवं उसके प्रसार-प्रचार के लिए यह कदम अति महत्वपूर्ण है, इसमें अपना भरसक योगदान करें.-



समीर लाल-
उड़न तश्तरी

शनिवार, 6 सितंबर 2008

एक 'हिन्दू' चिन्तक का संदेश


अमित दूबे युवा पत्रकार हैं, आज उनका यह मेल आया ... ओर्कूट पर संदेश आया। संदेश आपकी नजर करते हैं। इस विषय पर अपने विचार से अवगत कराए। क्या आप अमित की बात से सहमत हैं या आपकी राय उनसे जुदा है।

कश्मीर में हिंदुओ का सफ़ाया हो गया पर हिंदू सोया रहा, बांग्ला देश में हिंदुओ का सफ़ाया हो रहा है पर हिंदू निंद्रा मगन है, पाकिस्तान में हिंदू तो दूर हिंदुओ के प्रतीक चिन्ह भी नही रहे पर हिंदू विश्राम अवस्था में है, मंदिरो में विस्फोट हों रहे है पर हमारी आँख है की खुलती नही, पाकिस्तानी लाल क़िले और संसद भवन तक आ गये पर हमारा ख़ून है की खौलता नही, अयोध्या में मस्जिद टूटती है तो कोहराम मच जाता है हर नेता वोट के लिए मुस्लिम परस्त बन जाता है लेकिन राम सेतु के लिए कोई नही चिल्लाता, गुजरात दंगो की बार बार CBI जाँच होती है पर गोधरा पीड़ितो की चीखे ना तो सरकार को सुनाई देती है ना CBI को और ना ही स्वयं हिंदुओ को, कश्मीर जल रहा है कुछ हिंदू अमरनाथ का सम्मान पाने के लिए तड़प रहे है पर बाक़ी देश के हिंदू सो रहे है, हिंदू देवी देवताओ की नग्न तस्वीरे बन रही है परंतु हिंदू करवट नही लेता, हमारे ग्रह मंत्री आंतकवादीओ को भाई बताते है, आडवाणी जिन्ना को धरम निरपेक्ष बताते है परंतु नरेंदर मोदी को "मौत का सौदागर" कहते है, अफ़ज़ल गुरु के लिए दया है पर विस्फोट में मरने वालो औरतो और बच्चो पे इन्हे दया नही आती ! कैसे देश वासी है हम !

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

उत्तरांचल : विकास या विनास












'जब अमीर लोग अपनी सुविधा के लिए किसी बड़ी परियोजना के नाम पर गरीबों की बस्तियों को उजाड़ते हैं इसका अर्थ है बस्ती का विकास होने वाला है।' टिहरी के छाम गांव से विस्थापित पूरन सिंह राणा के लिए विकास के मायने यहीं हैं। टिहरी में उनका घर गंगा के ठीक किनारे हुआ करता था। पूरन याद करके बताते हैं,`कई बार हमारे खेत में फसल बिना सींचाई के सूख जाती थी लेकिन हम गंगा से पानी नहीं लेते थे। चूंकि गंगा हमारे लिए सिर्फ नदी मात्र नहीं थी, वह हमारी मां थी. हमारे जीवन का हिस्सा थी।´ उन्हें अपने जीवन के इस हिस्से से काटकर आज अलग कर दिया गया है। टिहरी पर बन रहे बांध की वजह से उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा।
1980 में इंदिरा गांधी के निर्देश पर विज्ञान एवं तकनीकी विभाग की समिति द्वारा अगस्त 1986 में जो रिपोर्ट दी गई थी, उसके आधार पर तो परियोजना पर उसी वक्त रोक लग जानी चाहिए थी। बाद में इस परियोजना को छोड़ देने की सिफारिश वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भी की। लेकिन सरकार इन सिफारिशों की परवाह करे तो हो चुका विकास। टिहरी से उजड़े पूरन को ज्वालापुर (हरिद्वार के पास ) स्थित वन विभाग की जमीन पर बसाया गया है। नई जमीन के मालिकाना हक से संबंधित सिर्फ एक पर्ची सींचाई विभाग ने काट कर उन्हें दी। इस पर्ची के अलावा उनके पास अन्य कोई सबूत नहीं है, जिससे वे साबित कर सकें की पुर्नवास की जमीन के मालिक वे हैं। उनके पास ना इस जमीन से जुड़ा कोई पट्टा है। ना उन्हें अब तक कोई मतदाता पहचान पत्र मिला। ना ही उनका इस नई जगह पर अधिकारी आवासीय प्रमाण पत्र बनाने को तैयार है। वे अपनी जमीन जरूरत पड़ने पर किसी को बेच भी नहीं सकते। इस जमीन पर अपने बच्चों की अच्छी िशक्षा के लिए बैंक से वे कर्ज भी नहीं ले सकते। यह कहानी केवल पूरन की नहीं हैं। यह कहानी है, टिहरी से विस्थापित हुए 5000
'जब अमीर लोग अपनी सुविधा के लिए किसी बड़ी परियोजना के नाम नर गरीबों की बस्तिीयों को उजाड़ते हैं इसका अर्थ है बस्ती का विकास होने वाला है।' टिहरी के छाम गांव से विस्थापित पूरन सिंह राणा के लिए विकास के मायने यहीं हैं। टिहरी में उनका घर गंगा के ठीक किनारे हुआ करता था। पूरन याद करके बताते हैं,`कई बार हमारे खेत में फसल बिना सींचाई के सूख जाती थी लेकिन हम गंगा से पानी नहीं लेते थे। चूंकि गंगा हमारे लिए सिर्फ नदी मात्र नहीं थी, वह हमारी मां थी. हमारे जीवन का हिस्सा थी।´ उन्हें अपने जीवन के इस हिस्से से काटकर आज अलग कर दिया गया है। टिहरी पर बन रहे बांध की वजह से उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा।
1980 में इंदिरा गांधी के निर्देश पर विज्ञान एवं तकनीकी विभाग की समिति द्वारा अगस्त 1986 में जो रिपोर्ट दी गई थी, उसके आधार पर तो परियोजना पर उसी वक्त रोक लग जानी चाहिए थी। बाद में इस परियोजना को छोड़ देने की सिफारिश वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भी की। लेकिन सरकार इन सिफारिशों की परवाह करे तो हो चुका विकास। टिहरी से उजड़े पूरन को ज्वालापुर (हरिद्वार के पास ) स्थित वन विभाग की जमीन पर बसाया गया है। नई जमीन के मालिकाना हक से संबंधित सिर्फ एक पर्ची सींचाई विभाग ने काट कर उन्हें दी। इस पर्ची के अलावा उनके पास अन्य कोई सबूत नहीं है, जिससे वे साबित कर सकें की पुर्नवास की जमीन के मालिक वे हैं। उनके पास ना इस जमीन से जुड़ा कोई पट्टा है। ना उन्हें अब तक कोई मतदाता पहचान पत्र मिला। ना ही उनका इस नई जगह पर अधिकारी आवासीय प्रमाण पत्र बनाने को तैयार है। वे अपनी जमीन जरूरत पड़ने पर किसी को बेच भी नहीं सकते। इस जमीन पर अपने बच्चों की अच्छी िशक्षा के लिए बैंक से वे कर्ज भी नहीं ले सकते। यह कहानी केवल पूरन की नहीं हैं। यह कहानी है, टिहरी से विस्थापित हुए 5000 ग्रामीण और 3000 शहरी परिवारों की। सरकार ने विकास के नाम पर उन्हें घर निकाला दे दिया और वे लोग अपने ही घर में शरणार्थी बनकर जीने को मजबूर हैं।
वर्ष 1977 में टिहरी परियोजना के लिए अनुमानित लागत 197.9 करोड़ था, जो बढ़कर आज 50,000 करोड़ से भी ऊपर चला गया है। विकास की गति वहां तेज है लेकिन किसी को इस बात की चिन्ता नहीं है कि किसी दिन यदि टिहरी बांध क्षतिग्रस्त हो गया तो इसका क्या परिणाम हो सकता है। पर्यावरणशास्त्री और समाजसेवी सुंदरलाल बहुगुणा के अनुसार-यदि बांध क्षतिग्रस्त हुए तो जलाशय 22 मिनट में खाली हो जाएगा, 63 मिनट के अंदर श्रृषिकेश 260 मीटर ऊंची पानी की लहरों के नीचे गोता खाता नजर आएगा। अगले 20 मिनटों में यही दशा हरिद्वार की होगी। 232 मीटर ऊंची पानी के लहरों के कारण। इसी प्रकार बिजनौर, मेरठ, हापुड़, बुलंदशहर आदि 12 घंटों के अंदर 8ण्5 मीटर ऊंची बाढ़नुमा पानी की चादर के नीचे हमेशा-हमेशा के लिए दब जाएंगे। इस वक्त विकास के लिए उत्तरांचल में उठा-पटक बहुत तेज है। एक तरफ टिहरी विस्थापितों को बसाने के लिए वन विभाग ने ज्वालापुर में जंगल की कटाई की। दूसरी तरफ यही सरकार देहरादून के पास हरकीदून (उत्तरकाशी) में गोवन्द विहार, गंगोत्री नेशनल पार्क बनाने के नाम पर बड़ी संख्या में गांव वालों को उजाड़ रही है।
नई टिहरी में पत्रकार देवेन्द्र दुमोगा कहते हैं- पूरे उत्तरांचल में विकास के नाम पर विनाशलीला चल रही है। आम लोग व्यवस्था की नजर में कीड़े-मकोड़ों से अधिक अहमियत नहीं रखते। विकास के नाम पर यहां अव्यवस्था ही फैलाया जा रहा है। जो इस अव्यवस्था के खिलाफ बोले, वह विकास विरोधी है। आज मेरे लिए अपने गांव जाना अधिक मुिश्कल है, दिल्ली पहुंचना आसान हो गया। यह कैसा विकास है? आप कभी उत्तरांचल जाएं तो वहां हर तरफ चल रही मशीनी गतिविधियों को देखकर सोच सकते हैं, यहांं विकास की गति बहुत तेज है। बकौल दुमोगा-`यह विकास नहीं है। यह तो साफ तौर से उत्तरांचल की नदियों पहाड़ों और जंगलों के साथ बलात्कार है। जमकर उत्तरांचल में नदियों का दोहन किया गया। यह नया दौर है, नदियों में सुंरग निकालने का।´ उत्तरांचल फैल रहे लगातार प्रदूषण की वजह स ेअब प्रशासन ने गोमुख तक यात्रियों के जाने पर पाबंदी लगा दी है। गोमुख लगातार सिकुरता जा रहा है। यदि गोमुख नहीं होगा तो गंगा को बचाना मुिश्कल होगा। अब जिन लोगों को गोमुख तक जाना है, उनके लिए परमिट बनाना अनिवार्य कर दिया गया है।
देवप्रयाग स्थित श्री लक्ष्मीधर विद्यामंदिर वेधशाला के प्रभाकर जोशी सामने लगे एक बोर्ड की तरफ इशारा करते हैं, जिसपर लिखा है- `सावधान, नदी के जलस्तर में 1 से 5 मीटर का उतार एवं चढ़ाव किसी भी समय हो सकता है। कृपया घाट पर अत्यधिक सावधानी बरतें।- टिहरी हाइड्रो डेवलमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड´ श्री जोशी बताते हैं- `जिस खतरे से हमें सावधान किया जा रहा है, वह प्राकृतिक नहीं है। वह मानव निर्मित है।´ वे बताते हैं- `टिहरी के पानी को रोकने और छोड़ने के खेल में ना जाने कितने लोग बह गए।´ पूरे उत्तरांचल में सबसे अधिक लोगों का पलायन टिहरी से हुआ। वजह टिहरी का पिछड़ापन है। पूरा देश 1947 में आजाद हुआ लेकिन टिहरी को आजादी मिली 1948 में। यह राज्य राजा के अधिन था। यहां अंग्रजों का शासन नहीं रहा। राजा ने कभी अपने राज्य के लोगों को िशक्षित और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने का प्रयास नहींं किया। इसलिए यह क्षेत्र शिक्षा-दीक्षा के मामले में फिसड्डी रहा। अपने बीच से नीचे उतर कर काम-काज करने वालों को पहाड़ के समाज ने अधिक सम्मान दिया। इससे वहां पलायन का चलन बढ़ा। सामाजिक कार्यकर्ता प्रदीप बहुगुणा कहते हैं, `लोग पलायन कर ही रहे थे। सरकार ने विकास के नाम पर विस्थापन का सिलसिला अलग से शुरू कर दिया। पूरे उत्तरांचल में यह चल रहा है। बड़ी संख्या में लोगों के घर उजाड़े गए हैं।´
विकास, विस्थापन और पुनर्वास उत्तराखण्ड की नीयति बन गई है।




(अफवाह और खबर दोनों है, रतन टाटा सिंगूर छोड़ उत्तराखण्ड आ रहे हैं. वे पन्तनगर में नैनो का मुख्य असेम्बली प्लांट बना सकते हैं. उत्तराखण्ड के लिए इसे सौभाग्य की बात बतानेवाले जरा उत्तराखण्ड के उस टीस को भी अनुभव करें जो टिहरी जैसी बड़ी परियोजनाओं के कारण उसे विरासत में मिली है. उद्योगपतियों को बिना टैक्स प्रदेश में घुसानेवाली सरकारें यह आंकलन क्यों नहीं करती कि इससे आम उत्तराखण्डी को क्या मिला? उनके हिस्से में तो पलायन, विस्थापन और विनाश ही आता है.)
(विस्फोट से : विकास विस्थापन और उत्तराखण्ड)

सोमवार, 1 सितंबर 2008

बाढ़ के लिए एक और अभियान

अभियान इसलिए, क्योंकि उत्तर-पूर्वी बिहार के पांच जिलों में आयी यह तबाही महज साधारण बाढ़ नहीं, बल्कि एक नदी के रास्ता बदल लेने की भीषण आपदा है। इस तबाही के कारण 24 लाख से अधिक लोग बेघर हो गये हैं। ऐसे में पूरे देश के हर जिले से जब तक राहत सामग्री न भेजी जाए विस्थपितों की इतनी बडी संख्या को राहत पहुंचाना मुमकिन नहीं। देश में इस आपदा को लेकर अब तक वैसे अभियान नहीं चलाये जा रहे जैसे पिछ्ली त्रासदियों के दौरान चलाये गये थे। संभवतः केंद्र की 1000 करोड़ रुपए की सहायता को पर्याप्त मान लिया गया है। जबकि केंद्र सरकार का यह पैकेज 24 लाख विस्थापितों के लिए ऊंट के मुंह में जीरा से भी कम है। क्योंकि इन्हीं पैसों से टूटे बांधों की मरम्मत और बचाव अभियान भी चलाये जाने हैं। ऐसे में इन विस्थापितों की राहत और पुनर्वास के लिए दो हजार रुपये प्रति व्यक्ति से भी कम बचता है, और इसलिए भी कि यह एक ऐसी जिम्मेदारी है जिससे मुंह मोड़ना कायरता से भी बुरी बात होगी।मदद करेंअगर आप इन विस्थापितों की मदद करना चाहते हैं तो अपने शहर और आसपास के इलाकों से राहत सामग्री हमें भेज सकते हैं या खुद आकर प्रभावित इलाकों में बांट सकते हैं। अगर आप खुद बांटना चाहेंगे तो हम आपको स्थानीय स्तर पर मदद कर सकते हैं।आवश्यक राहत सामग्री
टेंट, कपड़ा - पहनने-ओढ़ने और बिछाने के लिए, दवाइयां, क्लोरीन की गोलियां, भोजन सामग्री, अनाज, नमक, स्टोव, टार्च व बैटरी, प्लस्टिक शीट, लालटेन, मोमबत्ती व माचिसहमारा सम्पर्क : विनय तरुण 092347702353, पुष्यमित्र 09430862739 (भागलपुर), अजित सिंह 09893122102, आशेंद्र भदौरिया 09425782254 (भोपाल)
(मोहल्ला से - ये कोसी का नहीं, करप्‍शन का कहर है - साभार)

रेडियो पर बाल मजदूर


चेतना के माध्यम से पिछ्ले कई सालों से संजय गुप्ता झुग्गी-झोपडी के बच्चों और बाल मजदूरी करने वाले बच्चों के लिए काम कर रहे हैं. 'बात नन्हें दिलों की' उनका नया साहकार है. अब आप इन बाल मजदूरों की आवाज अपने रेडियो पर सून पाएँगे. १०२.६ मेगा हर्ट्ज़ पर. प्रत्येक शनिवार को शाम ५:१५ से ५:४५ तक. इस कार्यक्रम के लिए जो गीत तैयार हुआ है, उसे भी प. दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाले बच्चों ने ही लिखा है. इस कार्यक्रम में बाल मजदूरी करने वाले बच्चे अपने हक़ की बात खुद करेंगे.






















आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम