बुधवार, 28 अप्रैल 2010
शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010
गुरुवार, 22 अप्रैल 2010
साढ़े तीन साल की कैसी डाक्टरी आजाद साहब??
डीडीएस कम्यूनिटी सेन्टर के लिए काम करने वाली पूण्यम्मा जो किसानों की समस्या पर डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाती हैं, आन्ध्र प्रदेश में बीटी कॉटन पर फिल्म बनाने के दौरान अपनी खुली जीप से नीचे गिर पड़ी। उन्हें चोट आई, जिससे उनकी कलाई की हड्डी टूट गई। उसके बाद वह अपनी टूटी हुई हड्डी को जुड़वाने के लिए हैदराबाद के एक सरकारी अस्पताल ‘निजाम इंस्टीटयूट फॉर मेडिकल साइंस’ में गई। सरकारी अस्पताल होने की वजह से उनका ईलाज तो यहां मुफ्त में हो रहा था लेकिन दवा और दूसरी सामग्रियों का खर्च 30,000 रुपए आ रहा था। यह ईलाज के लिए एक बड़ी रकम थी इसलिए उन्होंने पिटला जाने का निर्णय लिया। पिटला उस गांव का नाम है, जो टूटी हड्डी को जोड़ने के लिए उस क्षेत्र में प्रसिध्द है। उस गांव में देसी तरिके से ईलाज कराने के बाद उनका एक पैसा खर्च नहीं हुआ और तीन महीने में वे तंदरुस्त हो गईं।
पूण्यम्मा का अनुभव आप में से कइयों का होगा। इस देश में सरकारी अस्पताल में ईलाज कराने का अर्थ बिल्कुल यह नहीं है कि आपका ईलाज निशुल्क हो रहा है। पटना के एक प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल में मरीजों को दवा की पर्ची एक खास दुकान से दवा लाने की हिदायत के साथ दी जाती थी और उस दुकान पर सारी दवाएं एमआरपी पर मिलती थी। जबकि बाकि कोई भी दवा दुकानदार उन्हीं दवाओं पर तीस फीसद तक की छूट आसानी से दे देता था।
अब सरकार पूरे देश में ग्रामीण एमबीबीएस डॉक्टरों का नेटवर्क खड़ा करने वाली है। ऐसे में स्वास्थ की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठना लाजमी है। एमसीआई (मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) के प्रस्ताव को गंभीरता से लेते हुए स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 300 जिलों में मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा कर दी है। गांव की स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करने के लिए खुलने वाले इस कॉलेज में किसी प्रकार की प्रवेश परीक्षा नहीं होगी। बच्चों का दाखिला 10वी और 12वीं के प्राप्त अंकों के आधार पर किया जाएगा। हर एक मेडिकल कॉलेज में 30 से 50 तक सीटें होंगी। मेडिकल स्कूल से स्नातक अपने गृह राज्य के गांवों में कम से कम पांच साल के लिए पदस्थापित किए जाएंगे। पहले पांच सालों तक के लिए उन्हें राज्य का मेडिकल काउंसिल लायसेंस देगा। जिसे पांच सालों तक प्रत्येक साल नवीकृत कराना अनिवार्य होगा। पांच साल के बाद उनका यह लायसेंस स्थायी हो जाएगा। लायसेंस मिलने के बाद यह ग्रामीण डॉक्टर अपने राज्य के गांवों में या किसी शहर में क्लिनिक खोल पाएंगे। इन पांच सालों में गांवों में जाने के लिए नया बैच तैयार हो चुका होगा। इस तरह गांव की स्वास्थ व्यवस्था को तंदरुस्त करने की एक स्थायी व्यवस्था एमसीआई और स्वास्थ मंत्रालय के संयुक्त प्रयासों से की जा रही है।
बीएचआरसी (बैचलर ऑफ रुरल हेल्थ केयर) के नाम से तैयार किया गया साढ़े तीन साल का यह पाठयक्रम ग्रामीण एमबीबीएस के नाम से लोगों के बीच पहचान पा रहा है। यह ग्रामीण डॉक्टर गांव के प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र और उपकेन्द्र स्वास्थ्य केन्द्रों पर तैनात होंगे। वर्तमान स्थिति यह है कि देश के 80 फीसद डॉक्टर 20 फीसद शहरी जनता की सेवा में लगे हैं, और बाकि बचे 80 फीसद गांव और छोटे शहर के लोगों को 20 फीसद डॉक्टरों के भरोसे छोड़ दिया गया है। अब ऐसे में गांव वालों का विश्वास झाड़-फूंक, और झोला छाप डॉक्टरों पर ना बढ़े तो क्या हो? एक अनुमान के अनुसार हमारे देश की 75 फीसद आबादी अब भी झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे ही है। देश में सरकार की तरफ से दी जा रही स्वास्थ सुविधाओं में असंतुलन दिखता है। गांव-शहर का असंतुलन। राज्य-राज्य का असंतुलन।
स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2008 में जारी विज्ञप्ति के अनुसार देश में मेडिकल कॉलेजों की कुल संख्या 271 है। राज्यवार यदि इन कॉलेजों की उपस्थिति का आंकड़ा देखें तो यह बेहद असंतुलित है। 19 करोड़ आबादी वाले उत्तार प्रदेश में कुल 19 मेडिकल कॉलेज हैं और 03 करोड़ आबादी वाले केरल में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 18 है। खैर, बात पूरे भारत की करें तो यहां प्रति 1500 लोगों पर एक डॉक्टर नियुक्त है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन 1:250 के अनुपात की अनुशंसा करता है। अब ऐसे समय में अपने अनुपात को दुरुस्त करने की जल्दबाजी में साढे तीन साल की पढ़ाई कराके ग्रामीण एमबीबीएस के नाम पर जो पढ़े लिखे झोला छाप डॉक्टर बनाने की कवायद सरकार कर रही है, उसकी जगह पर यदि वह थोड़ा ध्यान हमारे वैकल्पिक चिकित्सा पध्दतियों मसलन आयुर्वेद, यूनानी चिकित्सा पध्दति, एक्युप्रेशर, एक्यूपंक्चर पर देती तो वह अधिक कारगर साबित हो सकता है। वर्तमान में यदि हम पारंपरिक तरह से ईलाज करने वालों की संख्या भी एमबीबीएस डॉक्टरों के साथ जोड़ लें तो 1:1500 का अनुपात घटकर 1:700 का हो जाएगा।
यदि सरकार की तरफ से अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए किसी नई योजना पर काम करने की जगह सिर्फ अपने स्वास्थ के मौजूदा ढांचे को मजबूत करने की कोशिश की जाए तो यह देश की स्वास्थ व्यवस्था को दुरुस्त करने की राह में बड़ी पहल होगी। देश में 10 लाख के आस-पास प्रशिक्षित नर्स हैं, 03 लाख के आस-पास सहायक नर्स हैं। 07 लाख से अधिक आशा (एक्रेडिएटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) हैं। गांवों के लिए नर्स, पुरुष कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। यदि इन लोगों की सहायता ही सही तरह से ली जाए तो देश की स्वास्थ समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है।
बहरहाल सन् 1946 में सर जोसेफ भोर की कमिटी की रिपोर्ट भी मेडिकल की शिक्षा के लिए कम से कम साढ़े पांच साल अवधि की अनुशंसा करती है। अचानक साढ़े तीन साल में डॉक्टर बनाने की कौन सी कीमिया हमारे स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्री ढूंढ़ लाएं हैं, इस संबंध में उन्हें देश को दो-चार शब्द अवश्य कहना चाहिए।
शनिवार, 10 अप्रैल 2010
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010
पेंटिंग्स
कनालन रजा का मेल मिला, चेन्नई में ६-१८ अप्रैल तक रमेश गोर्जाल की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगाने वाली है. पता है - ३३, वूड्स रोड, चेन्नई (मोबाईल न. ०९८४१०३७८१०).
अगर आप चेन्नई में हैं तो प्रदर्शनी में जा सकते हैं, नहीं हैं तो उनके पेंटिंग्स की एक छोटी प्रदर्शनी अपने ब्लॉग पर ही लगा देते हैं...
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
सोमवार, 5 अप्रैल 2010
कल मुझे कोर्ट जाना पडा
रविशंकर भाई ने जी मेल बज पर कल कोर्ट में आर सी छुड़ाने के दौरान उनके साथ जो हुआ उसका संक्षिप्त विवरण लिखा था. इसमे उन्होंने देश में वकील व्यवस्था पर सवाल उठाया है.
कल मुझे अपनी बाइक की आर सी छुडवाने के लिए कोर्ट जाना पडा। 2-3 वकीलों ने मुझे घेरने की कोशिश की। एक ने कहा कि 2000 रू फाइन लगता है, मैं 1000 सा 1200 करवा दूंगा। 200 मुझे दे देना। दूसरे ने 300 मांगे और 1200 रू तक करवाने की बात कही। मैं उन्हें नजरअंदाज करके सीधा मजिस्ट्रेट से मिला। केवल 700 रू लगे। क्या वास्तव में वकील न्याय प्रणाली को सरल बना रहे हैं या फिर वे इसे आम व्यक्ति के लिए दुर्लभ और मंहगा बनाने में जुटे हैं? आप ही बताएं।
कल मुझे अपनी बाइक की आर सी छुडवाने के लिए कोर्ट जाना पडा। 2-3 वकीलों ने मुझे घेरने की कोशिश की। एक ने कहा कि 2000 रू फाइन लगता है, मैं 1000 सा 1200 करवा दूंगा। 200 मुझे दे देना। दूसरे ने 300 मांगे और 1200 रू तक करवाने की बात कही। मैं उन्हें नजरअंदाज करके सीधा मजिस्ट्रेट से मिला। केवल 700 रू लगे। क्या वास्तव में वकील न्याय प्रणाली को सरल बना रहे हैं या फिर वे इसे आम व्यक्ति के लिए दुर्लभ और मंहगा बनाने में जुटे हैं? आप ही बताएं।
शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010
मृत प्रेमिका से शादी
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010
आज एक साल का हो गया, किन्नरों का ब्यूटी पार्लर
पार्लर की मुख्य ब्यूटिशियन सिमी अपने ग्राहक के साथ
हमारे पास कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है कि इस देश में कितने किन्नर हैं। क्योंकि वे जनगणना में या तो पुरुष होते हैं या अधिक मामलों में स्त्री। किन्नर शब्द हमारे समाज में गाली की तरह ही इस्तेमाल होता रहा है। यदि किसी ‘मर्द’ को किन्नर कह दो तो वह मरने-मारने पर उतारू हो जाएगा। नीलम गुरु को कैसे आप भूल सकते हैं, जिन पर अपने बयान को बदलने के लिए लगातार अपराधी तत्वों का दबाव था, लेकिन उन्होंने अपना बयान नहीं बदला। उनकी हत्या तीस हजारी कोर्ट में कर दी गयी। जबकि जान के डर से अदालत में अपने बयान बदलने वाले तथाकथित मर्दों की कमी नहीं। फिर ‘मर्द’ कौन, और किन्नर कौन?
सच तो यह है कि किन्नरों को इस समाज में दलितों से अधिक अपमान सहना पड़ा है, लेकिन यह जमात हमेशा से उपेक्षित है। क्या कभी हमें इस बात का ख्याल आया कि जरा इन किन्नरों के हित की बात भी करें, जिनके लिए बैंक में अकाउंट खोलना तो दूर की बात, पहचान पत्र से लेकर राशन कार्ड बनवाना तक बेहद चुनौतीपूर्ण है। इन तमाम चुनौतियों के बावजूद समलैंगिकों और किन्नरों के एक समूह ‘पहल’ ने जब फरीदाबाद में किन्नर के लिए एक विशेष पार्लर की शुरुआत की तो आशा की एक किरण नजर आयी। भड़ास वाले रूपेश भाई (जिन्हें पनवेल वाले रूपेश पनवेलकर और पनवेल से बाहर वाले रूपेश श्रीवास्तव के नाम से जानते हैं) की चिंता यही है कि कभी किन्नरों से जुड़े मसलों को गंभीरता से नहीं उठाया गया। खैर आइए, फरीदाबाद में खुले किन्नरों द्वारा, किन्नरों के लिए चलाये जा रहे इस पार्लर का स्वागत करें।
फरीदाबाद के सेक्टर 35 के मेन मार्केट में स्थित उन दो कमरों को आप सैलून कह सकते हैं या फिर ब्यूटी पार्लर कह सकते हैं। लेकिन ‘पहल’ फाउंडेशन द्वारा चलाये जा रहे उस पार्लर की खासियत उसके पार्लर होने में नहीं बल्कि भारत में किन्नरों के लिए चल रहे अपनी तरह के पहले पार्लर के रूप में है। इनके ग्राहकों की संख्या अधिक नहीं है। प्रतिदिन लगभग 8-10 ग्राहक ही इन्हें मिल पाते हैं। यदि किसी पर्व त्योहार का मौसम रहा है तो बात दूसरी है। पार्लर की एक ब्यूटिशियन कहती हैं – ‘यदि मौका किसी त्योहार का हो तो सांस लेने की भी फुर्सत नहीं होती है।’
पार्लर की योजना ‘पहल’ के निदेशक यशविंदर सिंह की है। यशविंदर बताते हैं- ‘यह पार्लर मुख्य रूप से किन्नरों के लिए ही है। वैसे उनके दोस्त या कोई और भी यहां आना चाहें तो हमारे दरवाजे उनके लिए भी खुले हैं।’
इस वक्त पार्लर में मुख्य ब्यूटिशियन सिमी के साथ लगभग एक दर्जन ब्यूटिशियन काम कर रहे हैं। पिछले साल दो अप्रैल से शुरू हुआ यह पार्लर एक साल के अंदर दिल्ली और फरीदाबाद के किन्नरों के डेरों (जहां किन्नर समुदाय के लोग समूह में रहते हैं) में चर्चा का विषय बना है। अच्छी संख्या में वे न सिर्फ पार्लर तक आ रहे हैं बल्कि विशेष अवसरों पर यहां से ब्यूटिशियनों को अपने साथ भी ले जा रहे हैं। पार्लर की मुख्य ब्यूटिशियन सिमी एक किन्नर हैं। उन्होंने 11वीं तक की पढ़ाई दिल्ली से की है और इन दिनों वह फरीदाबाद में अपने परिवार के साथ रहते हैं। सिमी ने बताया, पार्लर में अपने काम को वह खूब इन्जॉय कर रहे हैं।
मामला सिर्फ किन्नरों की खूबसूरती से जुड़ा नहीं है बल्कि यहां किन्नरों को अच्छी-खासी वैचारिक खुराक भी दी जाती है। किन्नरों में स्वास्थ और स्वच्छता को लेकर जागरूकता की बेहद कमी है। इन दोनों विषयों पर ‘पहल’ के कार्यकर्ता ब्यूटिशियन अपने किन्नर ग्राहकों के साथ चर्चा करते हैं। उनकी राय जानते हैं और इन विषयों पर उनकी जिज्ञासा का निराकरण भी करते हैं। समय-समय पर इसके लिए चौपाल का भी आयोजन किया जाता है, जहां किन्नर और सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग इकट्ठा होते हैं और हर बार किसी एक विषय पर विस्तार से चर्चा होती है।
पार्लर की मुख्य ब्यूटिशियन सिमी के अनुसार उसके पास अभी कई जगहों से नौकरी के ऑफर है, जहां निश्चित तौर पर यहां से अच्छी आमदनी हो सकती है। लेकिन यहां काम करना उसे अच्छा लगता है।
पार्लर की आगामी योजना के संबंध में यशविंदर बताते हैं कि वे इस तरह का पार्लर देश के दूसरे हिस्सों में भी खोलना चाहते हैं। उनका उद्देश्य पार्लर के माध्यम से किन्नरों को सिर्फ सुंदर बनाना नहीं है। वे चाहते हैं, समाज इस तीसरे जेंडर को स्वीकार करे। उसी प्रकार जिस प्रकार वह स्त्री और पुरुष को स्वीकार करता है। यदि ईश्वर ने इन्हें तीसरे जेंडर के रूप में इस संसार में भेजा है, तो इसमें इनका कोई कसूर तो नहीं है। यशविंदर जानना चाहते हैं, फिर उसकी सजा किन्नरों को समाज में हाशिये पर डाल कर क्यों दी जा रही है? जिस प्रकार एक स्त्री और पुरुष की भावना होती है, उनकी संवेदना होती है, उसी प्रकार की भावना और संवेदना किन्नर समाज के लोगों में भी होती है। यह समाज को समझना होगा।
हमारे पास कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है कि इस देश में कितने किन्नर हैं। क्योंकि वे जनगणना में या तो पुरुष होते हैं या अधिक मामलों में स्त्री। किन्नर शब्द हमारे समाज में गाली की तरह ही इस्तेमाल होता रहा है। यदि किसी ‘मर्द’ को किन्नर कह दो तो वह मरने-मारने पर उतारू हो जाएगा। नीलम गुरु को कैसे आप भूल सकते हैं, जिन पर अपने बयान को बदलने के लिए लगातार अपराधी तत्वों का दबाव था, लेकिन उन्होंने अपना बयान नहीं बदला। उनकी हत्या तीस हजारी कोर्ट में कर दी गयी। जबकि जान के डर से अदालत में अपने बयान बदलने वाले तथाकथित मर्दों की कमी नहीं। फिर ‘मर्द’ कौन, और किन्नर कौन?
सच तो यह है कि किन्नरों को इस समाज में दलितों से अधिक अपमान सहना पड़ा है, लेकिन यह जमात हमेशा से उपेक्षित है। क्या कभी हमें इस बात का ख्याल आया कि जरा इन किन्नरों के हित की बात भी करें, जिनके लिए बैंक में अकाउंट खोलना तो दूर की बात, पहचान पत्र से लेकर राशन कार्ड बनवाना तक बेहद चुनौतीपूर्ण है। इन तमाम चुनौतियों के बावजूद समलैंगिकों और किन्नरों के एक समूह ‘पहल’ ने जब फरीदाबाद में किन्नर के लिए एक विशेष पार्लर की शुरुआत की तो आशा की एक किरण नजर आयी। भड़ास वाले रूपेश भाई (जिन्हें पनवेल वाले रूपेश पनवेलकर और पनवेल से बाहर वाले रूपेश श्रीवास्तव के नाम से जानते हैं) की चिंता यही है कि कभी किन्नरों से जुड़े मसलों को गंभीरता से नहीं उठाया गया। खैर आइए, फरीदाबाद में खुले किन्नरों द्वारा, किन्नरों के लिए चलाये जा रहे इस पार्लर का स्वागत करें।
फरीदाबाद के सेक्टर 35 के मेन मार्केट में स्थित उन दो कमरों को आप सैलून कह सकते हैं या फिर ब्यूटी पार्लर कह सकते हैं। लेकिन ‘पहल’ फाउंडेशन द्वारा चलाये जा रहे उस पार्लर की खासियत उसके पार्लर होने में नहीं बल्कि भारत में किन्नरों के लिए चल रहे अपनी तरह के पहले पार्लर के रूप में है। इनके ग्राहकों की संख्या अधिक नहीं है। प्रतिदिन लगभग 8-10 ग्राहक ही इन्हें मिल पाते हैं। यदि किसी पर्व त्योहार का मौसम रहा है तो बात दूसरी है। पार्लर की एक ब्यूटिशियन कहती हैं – ‘यदि मौका किसी त्योहार का हो तो सांस लेने की भी फुर्सत नहीं होती है।’
पार्लर की योजना ‘पहल’ के निदेशक यशविंदर सिंह की है। यशविंदर बताते हैं- ‘यह पार्लर मुख्य रूप से किन्नरों के लिए ही है। वैसे उनके दोस्त या कोई और भी यहां आना चाहें तो हमारे दरवाजे उनके लिए भी खुले हैं।’
इस वक्त पार्लर में मुख्य ब्यूटिशियन सिमी के साथ लगभग एक दर्जन ब्यूटिशियन काम कर रहे हैं। पिछले साल दो अप्रैल से शुरू हुआ यह पार्लर एक साल के अंदर दिल्ली और फरीदाबाद के किन्नरों के डेरों (जहां किन्नर समुदाय के लोग समूह में रहते हैं) में चर्चा का विषय बना है। अच्छी संख्या में वे न सिर्फ पार्लर तक आ रहे हैं बल्कि विशेष अवसरों पर यहां से ब्यूटिशियनों को अपने साथ भी ले जा रहे हैं। पार्लर की मुख्य ब्यूटिशियन सिमी एक किन्नर हैं। उन्होंने 11वीं तक की पढ़ाई दिल्ली से की है और इन दिनों वह फरीदाबाद में अपने परिवार के साथ रहते हैं। सिमी ने बताया, पार्लर में अपने काम को वह खूब इन्जॉय कर रहे हैं।
मामला सिर्फ किन्नरों की खूबसूरती से जुड़ा नहीं है बल्कि यहां किन्नरों को अच्छी-खासी वैचारिक खुराक भी दी जाती है। किन्नरों में स्वास्थ और स्वच्छता को लेकर जागरूकता की बेहद कमी है। इन दोनों विषयों पर ‘पहल’ के कार्यकर्ता ब्यूटिशियन अपने किन्नर ग्राहकों के साथ चर्चा करते हैं। उनकी राय जानते हैं और इन विषयों पर उनकी जिज्ञासा का निराकरण भी करते हैं। समय-समय पर इसके लिए चौपाल का भी आयोजन किया जाता है, जहां किन्नर और सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग इकट्ठा होते हैं और हर बार किसी एक विषय पर विस्तार से चर्चा होती है।
पार्लर की मुख्य ब्यूटिशियन सिमी के अनुसार उसके पास अभी कई जगहों से नौकरी के ऑफर है, जहां निश्चित तौर पर यहां से अच्छी आमदनी हो सकती है। लेकिन यहां काम करना उसे अच्छा लगता है।
पार्लर की आगामी योजना के संबंध में यशविंदर बताते हैं कि वे इस तरह का पार्लर देश के दूसरे हिस्सों में भी खोलना चाहते हैं। उनका उद्देश्य पार्लर के माध्यम से किन्नरों को सिर्फ सुंदर बनाना नहीं है। वे चाहते हैं, समाज इस तीसरे जेंडर को स्वीकार करे। उसी प्रकार जिस प्रकार वह स्त्री और पुरुष को स्वीकार करता है। यदि ईश्वर ने इन्हें तीसरे जेंडर के रूप में इस संसार में भेजा है, तो इसमें इनका कोई कसूर तो नहीं है। यशविंदर जानना चाहते हैं, फिर उसकी सजा किन्नरों को समाज में हाशिये पर डाल कर क्यों दी जा रही है? जिस प्रकार एक स्त्री और पुरुष की भावना होती है, उनकी संवेदना होती है, उसी प्रकार की भावना और संवेदना किन्नर समाज के लोगों में भी होती है। यह समाज को समझना होगा।
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