बुधवार, 31 मार्च 2010

दुबई में कवित्री हिस्सा का विद्रोह


यहाँ सुनिए अरब की कवित्री हिस्सा हिलाल का साक्षात्कार
यह वह महिला है जिसने दुबई में आयोजित 'पोएट ऑफ मिलानायर'
कार्यक्रम में इसने जड़ मान्यताओं के खिलाफ आग उगलने वाले शब्दों में अपना विरोध दर्ज किया.
आज जहां एक तरफ हिस्सा को दुनिया भर से समर्थन मिल रहा है,
वही उसे जान से मारने की धमकियों की भी कमी नहीं है.
यहाँ प्रस्तुत है एक टी वी चॅनल द्वारा लिए गए उनके साक्षात्कार की
यूं ट्यूब प्रस्तुति.
इसे भी देखें

कोई बोली ना रह जाए 'अनबोली'



क्या हुआ अगर एक भाषा खत्म हो गई
वह अपने झूठ और सच के साथ दफन हो गई,
शब्द नहीं रहे, दुनिया बढ़ती रही
बोआ की दुनिया की खातिर,
कहीं कोई नहीं रोया।’

बाबुई और अर्जून जाना की यह कविता उस 85 वर्षिय अंदमानी महिला बोआ को समर्पित है जो अंदमान में बोली जाने वाली दस भाषाओं में से एक बो भाषा की अन्तिम जानकार थीं। इसी वर्ष 26 जनवरी को उनकी मृत्यु के साथ मानव सभ्यता की 65000 साल पुरानी संस्कृति का ज्ञान भी चला गया। भाषा वैज्ञानिकों के पास इस भाषा से जुड़े तमाम अनुसंधान तो हैं लेकिन उसे संवाद के स्तर पर लाने वाली अन्तिम माध्यम अब हमारे बीच नहीं रही।
यहां बोआ को याद करने की एक खास वजह यह है कि 8 और 9 मार्च को गुजरात के बड़ोदरा में 320 भाषा-बोलियों के प्रतिनिधि के नाते 650 वक्ता भाषा शोध एवं प्रकाशन केन्द्र के द्वारा आयोजित ‘भारत भाषा संगम’ में एक साथ इकट्ठे हुए। भाषा के स्तर पर इतनी विविधता के बीच जो एक बात बार-बार ध्वनित हो रही थी, वह यह कि भाषा हमारे बीच सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं है। बल्कि यह हमारी संस्कृति और सभ्यता का वाहक भी है। संवाद के स्तर पर अपने बोलने वालों के खत्म होने के साथ सिर्फ भाषा खत्म नहीं होती बल्कि एक पूरी संस्कृति उसके साथ खत्म हो जाती है।
प्रसिद्ध भाषाविद और सेन्ट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ इंडियन लैन्गवेजेज के संस्थापक निदेशक डीपी पटनायक के अनुसार सभी भारतीय भाषाओं के लिए यह खतरे की घड़ी है। ना सिर्फ कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली या आदिवासियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा/बोली बल्कि हिन्दी जैसी बड़ी भाषाएं भी इस संकट से बाहर नहीं है। श्री पटनायक के अनुसार हमलोग गवाह बने हैं, अंग्रेजी जैसी भाषा की उन्नति के। आज अंग्रेजी भारत के सबसे अधिक बोली जाने वाली 35 भाषाओं में एक है। अंग्रेजी की यह उन्नति अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के लिए घातक साबित हो रही हैं, वहीं दूसरी तरफ जिन बोलियों और भाषाओं को बोलने वाले कम लोग हैं, उनके लिए अंग्रेजी दूगुनी घातक साबित हुई है।
भाषा का महत्व एक व्यक्ति के जीवन में क्या होता है, इसकी एक मिशाल सोमानी कुरोसी है। जो बुडापेस्ट के पास के एक गांव से अपनी भाषा, बोली, संस्कृति को ढूंढ़ता हुआ अपने पूर्वजो के गांव भारत आया था। कोलकाता, तीब्बत की उसने खाक छानी और यात्रा के दौरान ही उसकी मृत्यु दार्जलिंग में हुई। एक दूसरा उदाहरण ‘द इंडिजेनस लेप्चा ट्राइबल एसोसिएशन’ का है। जो लेप्चा भाषा की सरकारी उपेक्षा के बाद, अपनी संस्कृति से कट रहे लेप्चा बच्चों को अपनी मातृभूमि और मातृभाषा से जोड़ने के लिए बनी। आज यह संगठन आपसी मदद से 40 रात्रि स्कूल चला रहा है। 18 महीने के पाठ्यक्रम में लेप्चा बच्चों को यहां अपनी भाषा, पारंपरिक नृत्य, पारंपरिक वाद्य यंत्र, लोक कथाएं और लोकगीत से परिचय कराया जाता है। इसके लिए प्रतिदिन दो घंटे का समय बच्चों को स्कूल से अलग देना होता है। ऐसोसिएशन के संयुक्त सचिव एनटी लेप्चा के अनुसार- कलिमपोंग, दार्जलिंग, मिरिक, सोनाडा के अलावा दिल्ली में भी उनके केन्द्र चल रहे हैं। वे पश्चिम बंगाल सरकार से खुश नहीं हैं, जो उनपर बांग्ला भाषा जबरन थोप रही है। उन्हें बांग्ला से परहेज नहीं हैं, लेकिन वे चाहते हैं कि उनके बच्चे लेप्चा भाषा भी स्कूल में सीखें। जिससे नई पीढ़ी के युवा लेप्चा कटते जा रहे हैं।
दुनिया के 16 फीसदी आबादी वाले हमारे देश में 1961 की गणना अभिलेख के आधार पर कुल 1652 मातृभाषाएं हैं, जिनमें 103 विदेशी मातृभाषाएं हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में दुनिया भर में बोली जाने वाली लगभग 8000 भाषाओं में लगभग 90 फीसदी भाषाएं 2050 तक विलुप्त होने की कगार पर होंगी। भाषा को लेकर बड़ोदरा में हुए भाषा कुंभ में जिस प्रकार एक-एक कर देश भर से आए प्रतिनिधि अपनी बात रख रहे थे, उससे देश भर में भाषायी स्थिति की भयावहता का थोड़ा अंदाजा लग ही रहा था।
इस पूरे कार्यक्रम को समाजसेवी महाश्वेता देवी और गांधीवादी नारायण भाई देसाई का सान्निध्य प्राप्त हुआ। कार्यक्रम के लेकर नारायण भाई ने कहा कि इस कार्यक्रम में भारत और इंडिया का अंतर कम से कम दिखा। भाषा के स्तर पर जिस प्रकार का लोकतांत्रिक माहौल पूरे कार्यक्रम में दिखा उसे लेकर नारायण भाई ने यह टिप्पणी की। किसी पर भी किसी खास भाषा में अपनी बात को कहने का दबाव नहीं था। सबने खुलकर अपनी-अपनी बात रखी। यह सच है कि जिन लोगों ने अपनी बात हिन्दी में कही उनकी बात को अधिक सुना गया। चूंकि हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी हिन्दी ही समझती है। वे लोग भी इसे समझते है, जो ठीक से बोल नहीं पाते। महाश्वेता देवी ने भी अपनी बात हिन्दी-अंग्रेजी में रखी। भाषा शोध एवं अध्ययन केन्द्र के संस्थापक प्रोफेसर गणेश देवी ने कहा कि हमने इस कार्यक्रम को भाषा स्वाभिमान नाम नहीं दिया। यह भाषा संगम है। संगम माने जहां सभी आकर मिले। लेकिन यह मिलन विलीन होने के लिए नहीं है, बल्कि आगे बढ़ने के लिए है।
इस पूरे आयोजन में कई-कई बार भाषा आधारित सर्वेक्षण की बात उठी। हमारे पास इस समय सही-सही आंकड़े नहीं हैं कि कितनी भाषा और बोलियों को बोलने वाले लोग भारत में बसते हैं। जो भी दावे है, वे सब सिर्फ अनुमान आधारित ही हैं। दस हजार से कम जिन भाषा/बोलियों को बोलने वाले लोग बचे हैं, उनकी तो कहीं गिनती भी नहीं है। भाषा सर्वेक्षण के लिए जो लोग भी जाएं उनके प्रशिक्षण कार्य भी ठीक प्रकार से हो।
भाषा वन को इस पूरे आयोजन की उपलब्धि ही कहा जाएगा, जिसमें देशभर से भाषा प्रतिनिधियों ने अपनी-अपनी भाषा के नाम पर एक वृक्ष लगाया। इस प्रकार लगभग 650 पौधे भाषा वन लगाए गए। हर एक पेड़ किसी ना किसी भाषा का प्रतिनिधित्व करता है। अब आने वाले समय में यही देखना है कि ‘भाषा शोध एवं प्रकाशन केन्द्र’ ‘अंग्रेजी’ की ‘ग्लोबल वार्मिंग’ इस भाषा वन को बचा पाता है या नहीं?
(इसे आप 'विस्फोट' पर भी पढ़ सकते हैं)

रविवार, 28 मार्च 2010

पिंकी और गीता: इन बेटियों की फिक्र किसे है?-- मुन्ना झा


गीता और पिंकी दोनों लगभग हम उम्र है, दोनों के बिच बड़ी जमती है गीता और पिंकी रांची जैसे बड़े शहर मे अकेले रहती है, न कोई उनका आगे है और न कोई उनका पीछे उन्हें यह भी पता नहीं की माँ की ममता और पिता का प्यार आखिर होता क्या है। मैंने उन दोनों को एक सप्ताह पहले रांची के फिरायालाल चौक के नजदीक लगने वाले छोले भठूरे की दूकान मे देखा,तो अचानक से हिंदी फिल्मो की एक मशहूर डायेलोंग याद आ गयी ,भूख कुछ भी करने पर मजबूर कर देती है.सचमुच उस वक़्त गीता और पिंकी की हालत भी लगभग ऐसी ही थी,छोले भठूरे वाला अभद्र भाषा मे उन दोनों बच्चियों को जल्दी से प्लेटे साफ़ करने को केह रहा था. दरअसल पिंकी और गीता अपनी पेट की आग बुझाने के लिए रांची जैसे बड़े शहर को पैदल ही नाप लेती है,जहा -जहा ठेले मिलते है वहा -वहा वो दोनों अपना ठिकाना बना लेती है. पेट भरने के लिया वो दोनों उन ठेलो मे प्लेटे साफ़ करती है,उसके बदले गीता और पिंकी को ठेले मे बने खाने के सामन से एक आद प्लेटे मिल जाती है,और कुछ दस पांच रूपये भी इसके साथ -साथ मुफ्त की कुछ गालिया भी गीता और पिंकी के नसीब मे आ जाती है. गीता और पिंकी को देख कर मे अपने आप को शायद नहीं रोक पाया मेरे मित्र के लाख मना करने पर की, क्या सड़क की लड़की से बात करोगे मैंने गीता और पिंकी से बात की.

बकौल गीता हम दोनों बहने हर रोज ऐसे ही ठेलो पर जा जा कर अपनी पेट भर लेते है इसी बहाने कुछ पैसे भी बन जाते है जो जरूरत पड़ने पर अपने काम आती है। यहाँ कोई अच्छा नहीं है सब लोग हमे अब तो घूर घूर कर देखते है हम जहा जाते है वहा हमे अब डर लगता है लेकिन क्या करे पेट भरने के लिए ये सब तो सुनना ही पड़ेगा और अब तो ये सब हम दोनों की किस्मत ही बन गयी है.
यह पूछने पर की सरकार कुछ नहीं करती तो पिंकी ने कहां हम ना पढ़े है ना ही कुछ सरकार के बारे मे जानते है,हमारे लिए कौन क्या करेगा बस ठीक है हमे तो ऐसे ही मजा आता है, कहा सपने देख सकते है हम, बेहतर होगा की हम दोनों जैसे जीते है वैसे ही जिए बाकी मालुम नहीं क्या होगा ?
यह पूछने पर की पढने का दिल नहीं करता, गीता कहती है हा हमे भी पढने का मन तो करता है, पर कैसे पढ़े? कौन पढ़ायेगा हमे? तब बहुत मन करता है जब स्कूल बस मे बच्चो को जाते हुए देखती हूँ तब ऐसा लगता है के हम भी ऐसे ही स्कूल जाते तो कितना अच्छा होता. आजकल वर्णमाला ज्ञान की एक किताब तो ख़रीदा है लेकिन समझ नहीं पाते, हम दोनों का पूरा वक़्त ऐसे ही चला जाता है पर नहीं समझ मे आता. अब तो हमारे लिए पढना शायद सपने जैसा है.
(मुन्ना चाईबासा ( झारखंड ) में है, और दलित बच्चों को पढ़ाने के लिए दो स्कूल अपने साथियों की मदद से चला रहा है.)

शनिवार, 27 मार्च 2010

भाषा के सवाल पर झारखण्ड में जुटान


अभी-अभी एक भारतीय भाषा विलुप्त हो गई है!
और दुनिया की 7000 भाषाओं में से
एक भाषा अभी-अभी ही कहीं मरने वाली है!!
भाषाओं को विलुप्त होने से बचाइए
16-17 अप्रैल 2010 को रांची में आयोजित
झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा
के द्वितीय महासम्मेलन में शामिल हों
महासम्मेलन में शामिल होने की सूचना
और अपना न्यूनतम आर्थिक सहयोग रु. 100/-
इस पते पर अविलंब भेजें:
झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा
द्वारा जोहार सहिया, 203, एमजी टॉवर,
23, पूर्वी जेल रोड, राँची (झारखण्ड) 834001
फोन: 9234678580, 9234301671, 9431109429
टेलीफैक्स: 0651-2562565 वेब पताः www.akhra.co.in
ई-मेल: pkfranchi@gmail.com
एकाउंट नं.: 106010100016861
एकाउंट नाम: Pyara Kerketta Foundation
बैंक: AXIS BANK LTD., Main Road, Ranchi Branch

महासम्मेलन की विस्तृत जानकारी और रजिस्ट्रेशन फार्म के लिए यहां जाएं:
www.akhra.co.in/Akhrasammelan2010.html
हासा (माटी) और भासा के आंदोलन में आपके सक्रिय रचनात्मक समर्थन और सहयोग की अपेक्षाओं के साथ।
वंदना टेटे
महासचिव, झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा
संपर्क: 9234678580

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

पत्रकार मित्रों को निमंत्रण


पंजाब में जल प्रदूषक यूरेनियम आर्सेनिक आदि के खतरे पर कार्यशाला
पंजाब के दक्षिण-पश्चिम मालवा इलाके में मानव स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरों के मूल्यांकन सम्बन्धी सेमिनार (30-31 मार्च 2010, सर्किट हाउस, भटिण्डा)
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मित्रों,
पंजाब के मालवा इलाके (भटिंण्डा, मंशा, फरीदकोट, मुक्तसर) के विभिन्न हिस्सों के पानी में यूरेनियम पाया गया है। दक्षिण – पश्चिम पंजाब में सेरेब्रल पाल्सी जो मस्तिष्क को पूरी तरह कुंद कर देता है, यह बीमारी पानी में यूरेनियम की वजह से हो रही है।
पत्रकार मित्रों आपसे निवेदन है कि यदि इस कार्यशाला में चलना चाहते हैं। तो 29 मार्च की दोपहर दिल्ली से एक टीम जायेगी। आप चल सकते हैं। आप अपने चलने की सूचना सिराज केशर को दे सकते हैं। उनका मोबाइल नं. 9211530510, 9250725116 है। कार्यशाला पंजाब के भटिंण्डा में होगी। 30-31 मार्च को होने वाली कार्यशाला का मुख्य उद्देश्य लोगों और विशेषज्ञों खासकर जल विशेषज्ञों को एक मंच पर लाना है। हम चाहते हैं कि पानी में यूरेनियम की वजह से हो रही समस्याओं से लोगों को निजात मिल सके।
(यह मेल आज ही एक मित्र की तरफ से आया है)

गुरुवार, 25 मार्च 2010

धुम्रपान निषेध हेतु अदभुत विज्ञापन


यह विज्ञापन चंडीदत्त भाई साहब ने उपलब्ध कराया है
जो ना जाने चैटिंग के दौरान 'चंडी' से 'चांदी' कैसे हो गए?

मंगलवार, 23 मार्च 2010

भगत सिंह की याद में, उनकी शहादत के 75 वर्ष पूरे होने पर

यह आलेख इंदौर से विनीत भाई ने उपलब्ध कराया.

ब्रिटिश सरकार ने 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फाँसी दी तो वे केवल तेईस साल के थे। लेकिन आज तक वे हिन्दुस्‍तान के नौजवानों के आदर्श बने हुए हैं। इस छोटी सी उम्र में उन्होंने जितना काम किया और जितनी बहादुरी दिखायी, उसे केवल याद कर लेना काफी नहीं है। हम उन्हें श्रध्दांजलि देते हैं। 1926 में भगत सिंह ने नौजवान भारत सभा का गठन किया। नौजवानों का यह संगठन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शोषण के कारनामे लोगों के सामने रखने के लिए बनाया गया था। मुजफ्फर अहमद, जो कि कम्युनिस्ट पार्टी के स्थापना सदस्य थे, अठारह साल के भगत सिंह के साथ अपनी मुलाकात को याद करते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1925 में कानपुर में हुआ था और कानपुर बोल्शेविक कान्‍स्पिरेसी केस के तहत अब्दुल मजीद और मुजफ्फर अहमद गिरफ्तार कर लिए गये थे। भगत सिंह कॉमरेड अब्दुल मजीद के घर उन दोनों का सम्मान करने गये। जाहिर है, अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत से ही भगत सिंह का रुझान कम्युनिस्ट आंदोलन की तरफ था।

1930 में जब भगत सिंह जेल में थे, और उन्हें फाँसी लगना लगभग kkkkतय था, उन्होंने एक पुस्तिका लिखी, “मैं नास्तिक क्यों हूँ।” यह पुस्तिका कई बार छापी गयी है और खूब पढ़ी गयी है। इसके 1970 के संस्करण की भूमिका में इतिहासकार विपिन चंद्र ने लिखा है कि 1925 और 1928 के बीच भगत सिंह ने बहुत गहन और विस्‍तृत अध्ययन किया। उन्होंने जो पढ़ा, उसमें रूसी क्रांति और सोवियत यूनियन के विकास संबंधी साहित्‍य प्रमुख था। उन दिनों इस तरह की किताबें जुटाना और पढ़ना केवल कठिन ही नहीं बल्कि एक क्रांतिकारी काम था। भगत सिंह ने अपने अन्य क्रांतिकारी नौजवान साथियों को भी पढ़ने की आदत लगायी और उन्हें सुलझे तरीके से विचार करना सिखाया।

1924 में जब भगत सिंह 16 साल के थे, तो वे हिन्दुस्‍तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) में शामिल हो गये। यह एसोसिएशन सशस्त्र आंदोलन के जरिये ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खत्‍म करना चाहता था। 1927 तक HRA के अधिकतर नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे और कुछ तो फाँसी के तख्‍ते तक पहुँच चुके थे। HRA का नेतृत्‍व अब चंद्रशेखर आजाद और कुछ अन्य नौजवान साथियों के कंधों पर आ पड़ा। इनमें से प्रमुख थे भगत सिंह। 1928 बीतते भगत सिंह और उनके साथियों ने यह तयk कर लिया कि उनका अंतिम लक्ष्‍य समाजवाद कायम करना है। उन्होंने संगठन का नाम HRA से बदलकर हिन्दुस्‍तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) रख लिया। यह सोशलिस्ट शब्द संगठन में जोड़ने से एक महत्त्वपूर्ण तब्‍दीली आयी और इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ था भगत सिंह का। सोशलिज्म शब्द की समझ भगत सिंह के जेहन में एकदम साफ थी। उनकी यह विचारधारा मार्क्सवाद की किताबों और सोवियत यूनियन के अनुभवों के आधार पर बनी थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ तब तक जो सशस्त्र संघर्ष हुए थे, उन्हें भगत सिंह ने मार्क्सवादी नजरिये से गहराई से समझने की कोशिश की।
दिल्ली असेम्बली में बम फेंकने के बाद 8 अप्रैल 1929 के दिन भगत सिंह बटुकेश्वर दत्त के साथ जेल पहुँचे। बम फेंककर भागने के बजाय उन्होंने गिरफ्तार होने का विकल्प चुना। जेल में उनकी गतिविधियों का पूरा लेखा-जोखा आज हमें उपलब्ध है। उन दिनों भगत सिंह का अध्ययन ज्यादा सिलसिलेवार और परिपक्व हुआ। लेकिन अध्ययन के साथ-साथ भगत सिंह ने जेल में राजनैतिक कैदियों के साथ होने वाले बुरे सलूक के खिलाफ एक लम्बी जंग भी छेड़ी। यह जंग सशस्त्र क्रांतिकारी जंग नहीं थी, बल्कि गांधीवादी किस्म की अहिंसक लड़ाई थी। कई महीनों तक भगत सिंह और उनके साथी भूख हड़ताल पर डटे रहे। उनके जेल में रहते दिल्ली एसेम्बली बम कांड और लाहौर षडयंत्र के मामलों की सुनवाई हुई। बटुकेश्वर दत्त को देशनिकाले की और भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरू को फाँसी की सजा हुई।
बेहिसाब क्रूरता के बावजूद ब्रिटिश सरकार उनके हौसलों को पस्‍त नहीं कर पायी। सुश्री राज्यम सिन्हा ने अपने पति विजय कुमार सिन्हा की याद में एक किताब लिखी। किताब का नाम है “एक क्रांतिकारी के बलिदान की खोज।” इस पुस्‍तक में उन्होंने विजय कुमार सिन्हा और उनके दोस्‍त भगत सिंह के बारे में कुछ मार्मिक बातें लिखी हैं। इन क्रांतिकारी साथियों ने कोर्ट में हथकड़ी पहनने से इन्कार कर दिया था। कोर्ट मान भी गयी, लेकिन अपने दिये हुए वादे का आदर नहीं कर पायी। जब कैदी कोर्ट में घुसे तो झड़प शुरू हो गयी और फिर बेहिसाब क्रूरता और हिंसा हुई। - “जब पुलिस को यह लगा कि उनकी इज्जत पर बट्टा लग रहा है तो पठान पुलिस के विशेष दस्‍ते को बुलाया गया जिन्होंने निर्दयता के साथ कैदियों को पीटना शुरू किया। पठान पुलिस दस्‍ता अपनी क्रूरता के लिए खास तौर पर जाना जाता था। भगत सिंह के ऊपर आठ पठान दरिंदे झपटे और अपने कँटीले बूटों से उन्हें ठोकर मारने लगे। यही नहीं, उनपर लाठियाँ भी चलाई गयीं। एक यूरोपियन अफसर राबर्टस ने भगत सिंह की ओर इशारा करते हुए कहा कि यही वो आदमी है, इसे और मारो। पिटाई के बाद वे इन क्रांतिकारियों को घसीटते हुए ऐसे ले गये, जैसे भगत सिंह लकड़ी के ठूँठ हों। उन्हें एक लकड़ी की बेंच पर पटक दिया गया। ये सारा हँगामा कोर्ट कंपाउंड के भीतर बहुतेरे लोगों के सामने हुआ। मजिस्ट्रेट खुद भी यह नजारा देख रहे थे। लेकिन उन्होंने इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने बाद में बहाना यह बनाया कि वे कोर्ट के प्रमुख नहीं थे, इसलिए पुलिस को रोकना उनकी जिम्मेदारी नहीं थी।
शिव वर्मा, जो बाद में सीपीएम के सीनियर कॉमरेड बने और अजय कुमार घोष, जो सीपीआई के महासचिव हुए, इस वारदात में बेहोश हो गये। तब भगत सिंह उठे और अपनी बुलंद आवाज में कोर्ट से कहा, “मैं कोर्ट को बधाई देना चाहता हूँ ! शिव वर्मा बेहोश पड़े हैं। यदि वे मर गये तो ध्यान रहे, जिम्मेदारी कोर्ट की ही होगी।”

भगत सिंह उस समय केवल बाईस वर्ष के थे लेकिन उनकी बुलंद शख्सियत ने ब्रिटिश सरकार को दहला दिया था। ब्रिटिश सरकार उन आतंकवादी गुटों से निपटना तो जानती थी, जिनका आतंकवाद उलझी हुई धार्मिक व राष्ट्रवादी विचारधारा पर आधारित होता था। लेकिन जब हिन्दुस्‍तान रिपब्लिक एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्‍तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन हो गया और भगत सिंह उसके मुख्य विचारक बन गये तो ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार दहशत में आ गयी। भगत सिंह के परिपक्व विचार जेल और कोर्ट में उनकी निर्भीक बुलंद आवाज के सहारे सारे देश में गूँजने लगे। देश की जनता अब उनके साथ थी। राजनीतिक कैदियों के साथ जेलों में जिस तरह का अमानवीय बर्ताव किया जाता था, उसके खिलाफ भगत सिंह ने जंग छेड़ दी और बार-बार भूख हड़ताल की। उनका एक प्यारा साथी जतिन दास ऐसी ही एक भूख हड़ताल के दौरान लाहौर जेल में अपने प्राण गँवा बैठा। जब उसके शव को लाहौर से कलकत्ता ले जाया गया, तो लाखों का हुजूम कॉमरेड को आखिरी सलामी देने स्टेशन पर उमड़ आया।
कांग्रेस पार्टी का इतिहास लिखने वाले बी. पट्टाभिरमैया के अनुसार इस दौरान भगत सिंह और उनके साथियों की लोकप्रियता उतनी ही थी, जितनी महात्‍मा गांधी की !
जेल में अपनी जिन्दगी के आखिरी दिनों में भगत सिंह ने बेहिसाब पढ़ाई की। यह जानते हुए भी कि उनके राजनीतिक कर्मों की वजह से उन्हें फाँसी होने वाली है, वे लगातार पढ़ते रहे। यहाँ तक कि फाँसी के तख्‍ते पर जाने के कुछ समय पहले तक वे लेनिन की एक किताब पढ़ रहे थे, जो उन्होंने अपने वकील से मँगायी थी। पंजाबी क्रांतिकारी कवि पाश ने भगत सिंह को श्रध्दांजलि देते हुए लिखा है, “लेनिन की किताब के उस पन्ने को, जो भगत सिंह फाँसी के तख्‍ते पर जाने से पहले अधूरा छोड़ गये थे, आज के नौजवानों को पढ़कर पूरा करना है।” गौरतलब है कि पाश अपने प्रिय नेता के बलिदान वाले दिन, 23 मार्च को ही खालिस्‍तानी आतंकवादियों द्वारा मार दिये गये।
भगत सिंह ने जेल में रहते हुए जो चिट्ठियॉं लिखते थे, उनमें हमेशा किताबों की एक सूची रहती थी। उनसे मिलने आने वाले लोग लाहौर के द्वारकादास पुस्‍तकालय से वे पुस्‍तकें लेकर आते थे। वे किताबें मुख्य रूप से मार्क्सवाद, अर्थशास्त्र, इतिहास और रचनात्‍मक साहित्‍य की होती थीं। अपने दोस्‍त जयदेव गुप्‍ता को 24 जुलाई 1930 को जो ख़त भगत सिंह ने लिखा, उसमें कहा कि अपने छोटे भाई कुलबीर के साथ ये किताबें भेज दें : 1) मिलिटेरिज्‍म (कार्ल लाईबनि), 2) व्हाई मेन फाईट (बर्न्टेड रसेल), 3) सोवियत्‍स ऐट वर्क 4) कॉलेप्स ऑफ दि सेकेण्ड इंटरनेशनल 5) लेफ्ट विंग कम्यूनिज्म (लेनिन) 6) म्युचुअल एज (प्रिंस क्रॉप्टोकिन) 7) फील्ड, फैक्टरीज एण्ड वर्कशॉप्स, 8) सिविल वार इन फ्रांस (मार्क्स), 9) लैंड रिवोल्यूशन इन रशिया, 10) पंजाब पैजेण्ट्स इन प्रोस्पेरिटी एण्ड डेट (डार्लिंग) 11) हिस्टोरिकल मैटेरियलिज्म (बुखारिन) और 12) द स्पाई (ऊपटॉन सिंक्लेयर का उपन्यास)
भगत सिंह औपचारिक रूप से ज्यादा पढ़ाई या प्रशिक्षण हासिल नहीं कर पाए थे, फिर भी उन्हें चार भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने पंजाबी, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में लिखा है। जेल से मिले उनके नोटबुक में 108 लेखकों के लेखन और 43 किताबों में से चुने हुए अंश मौजूद हैं। ये अंश मुख्य रूप से मार्क्स और एंगेल्स के लेखन से लिए गए हैं। उनके अलावा उन्होंने थॉमस पाएन, देकार्ट, मैकियावेली, स्पिनोजा, लार्ड बायरन, मार्क ट्वेन, एपिक्यूरस, फ्रांसिस बेकन, मदन मोहन मालवीय और बिपिन चंद्र पाल के लेखन के अंश भी लिए हैं। उस नोटबुक में भगत सिंह का मौलिक एवं विस्‍तृत लेखन भी मिलता है, जो “दि साईंस ऑफ दि स्टेट” शीर्षक से है। ऐसा लगता है कि भगत सिंह आदिम साम्यवाद से आधुनिक समाजवाद तक समाज के राजनीतिक इतिहास पर कोई किताब या निबंध लिखने की सोच रहे थे।
जिस बहादुरी और दृढ़ता के साथ भगत सिंह ने मौत का सामना किया, आज के नौजवानों के सामने उसकी दूसरी मिसाल चे ग्वारा ही हो सकते हैं। चे ग्वारा ने क्रांतिकारी देश क्यूबा में मंत्री की सुरक्षित कुर्सी को छोड़कर बोलिविया के जंगलों में अमेरिकी साम्राज्यवाद से लड़ने का विकल्प चुना। चे ग्वारा राष्ट्रीय सीमाएँ लाँघकर लातिनी अमेरिका के लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाते थे। ये सच है कि चे ग्वारा का व्यक्तिगत अनुभव भगत सिंह की तुलना में बहुत ज्यादा विस्‍तृत था, और उसी वजह से उनके विचार भी अधिक परिपक्व थे। लेकिन क्रांति के लिए समर्पण और क्रांति का उन्माद दोनों ही नौजवान साथियों में एक जैसा था। दोनों ने साम्राज्यवाद और पूँजीवादी शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ी। दोनों ने ही अपने उस मकसद के लिए जान दे दी, जो उन्हें अपनी जिन्दगी से भी ज्यादा प्यारा था।
20 मार्च 1931 को, अपने शहादत के ठीक तीन दिन पहले भगत सिंह ने पंजाब के गवर्नर को एक चिट्ठी लिखी, “हम यह स्पष्ट घोषणा करें कि लड़ाई जारी है। और यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक हिन्दुस्‍तान के मेहनतकश इंसानों और यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा का कुछ चुने हुए लोगों द्वारा शोषण किया जाता रहेगा। ये शोषक केवल ब्रिटिश पूँजीपति भी हो सकते हैं, ब्रिटिश और हिन्दुस्‍तानी एक साथ भी हो सकते हैं, और केवल हिन्दुस्‍तानी भी। शोषण का यह घिनौना काम ब्रिटिश और हिन्दुस्‍तानी अफसरशाही मिलकर भी कर सकती है, और केवल हिन्दुस्‍तानी अफसरशाही भी कर सकती है। इनमें कोई फर्क नहीं है। यदि तुम्हारी सरकार हिन्दुस्‍तान के नेताओं को लालच देकर अपने में मिला लेती है, और थोड़े समय के लिए हमारे आंदोलन का उत्‍साह कम भी हो जाता है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि हिन्दुस्‍तानी आंदोलन और क्रांतिकारी पार्टी लड़ाई के गहरे अँधियारे में एक बार फिर अपने-आपको अकेला पाती है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लड़ाई फिर भी जारी रहेगी। लड़ाई फिर से नये उत्‍साह के साथ, पहले से ज्यादा मुखरता और दृढ़ता के साथ लड़ी जाएगी। लड़ाई तबतक लड़ी जाएगी, जबतक सोशलिस्ट रिपब्लिक की स्थापना नहीं हो जाती। लड़ाई तब तक लड़ी जाएगी, जब तक हम इस समाज व्यवस्था को बदल कर एक नयी समाज व्यवस्था नहीं बना लेते। ऐसी समाज व्यवस्था, जिसमें सारी जनता खुशहाल होगी, और हर तरह का शोषण खत्‍म हो जाएगा। एक ऐसी समाज व्यवस्था, जहाँ हम इंसानियत को एक सच्ची और हमेशा कायम रहने वाली शांति के दौर में ले जाएँगे......... पूँजीवादी और साम्राज्यवादी शोषण के दिन अब जल्द ही खत्‍म होंगे। यह लड़ाई न हमसे शुरू हुई है, न हमारे साथ खत्‍म हो जाएगी। इतिहास के इस दौर में, समाज व्यवस्था के इस विकृत परिप्रेक्ष्‍य में, इस लड़ाई को होने से कोई नहीं रोक सकता। हमारा यह छोटा सा बलिदान, बलिदानों की श्रृंखला में एक कड़ी होगा। यह श्रृंखला मि. दास के अतुलनीय बलिदान, कॉमरेड भगवतीचरण की मर्मांतक कुर्बानी और चंद्रशेखर आजाद के भव्य मृतयुवरण से सुशोभित है।”
उसी 20 मार्च्र के दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने दिल्ली की एक आम सभा में कहा, “आज भगत सिंह इंसान के दर्जे से ऊपर उठकर एक प्रतीक बन गया है। भगत सिंह क्रांति के उस जुनून का नाम है, जो पूरे देश की जनतापर छा गया है।”
फ्री प्रेस जर्नल ने अपने 24 मार्च 1931 के संस्करण में लिखा, “शहीद भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव आज जिन्दा नहीं हैं। लेकिन उनकी कुर्बानी में उन्हीं की जीत है, यह हम सबको पता है। ब्रिटिश अफसरशाही केवल उनके नश्वर शरीर को ही खत्‍म कर पायी, उनका जज्बा आज देश के हर इंसान के भीतर जिन्दा है। और इस अर्थ में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव अमर हैं। अफसरशाही उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। इस देश में शहीद भगत सिंह और उनके साथी स्वतंत्रता के लिए दी गयी कुर्बानी के लिए हमेशा याद किए जाएँगे। “सचमुच, 1931 के ब्रिटिश राज के उन आकाओं और कारिंदों की याद आज किसी को नहीं, लेकिन तेईस साल का वह नौजवान, जो फाँसी के तख्‍ते पर चढ़ा, आज भी लाखों दिलों की धड़कन है।”
आज अगर हम भगत सिंह की जेल डायरी और कोर्ट में दिये गये वक्‍तव्य पढ़ें, और उसमें से केवल “ब्रिटिश” शब्द को हटाकर उसकी जगह “अमेरिकन” डाल दें, तो आज का परिदृश्य सामने आ जाएगा। भगत सिंह के जेहन में यह बात बिल्कुल साफ थी, कि शोषक ब्रिटिश हों या हिन्दुस्‍तानी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आज लालच के मारे हिन्दुस्‍तानी नेता और अफसर अमरीकी खेमे में जा घुसे हैं। लेकिन भगत सिंह के ये शब्द हमारे कानों में गूँज रहे हैं - “लड़ाई जारी रहेगी।” आज के बोलिविया में चे ग्वारा और अलान्दे फिर जीवित हो उठे हैं। लातिनी अमेरिका की इस नयी क्रांति से अमरीका सहम गया है। उसी तरह हिन्दुस्‍तान में भगत सिंह के फिर जी उठने का डर बुशों और ब्लेयरों को सताता रहे।
विपिन चंद्र ने सही लिखा है कि हम हिन्दुस्‍तानियों के लिए यह बड़ी त्रासदी है कि इतनी विलक्षण सोच वाले व्यक्ति के बहुमूल्य जीवन को साम्राज्यवादी शासन ने इतनी जल्दी खत्‍म कर डाला। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद ऐसे घिनौने काम करता ही है, चाहे हिन्दुस्‍तान हो या वियतनाम, इराक हो, फिलीस्‍तीन हो या लातिन अमरीका। लेकिन लोग इस तरह के जुर्मों का बदला अपनी तरह से लेते हैं। वे अपनी लड़ाई और ज्यादा उग्रता से लड़ते हैं। आज नहीं तो कल, लड़ाई और तेज होगी, और ताकतवर होगी। हमारा काम है क्रांतिकारियों की लगाई आग को अपने जेहन में ताजा बनाए रखना। ऐसा करके हम अपनी कल की लड़ाई को जीतने की तैयारी कर रहे होते हैं।
(लेखक, श्री चमनलाल, प्राध्यापक, जे एन यू, दिल्ली
अनुवादक सुश्री जया मेहता)

सोमवार, 22 मार्च 2010

शहीदों को नमन


आइए एक पल को महान शहीद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को याद करें जो आज के ही दिन फंसी पर झूल गए...

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

एक कलाकार मक्खी मार की कलाकारी

मक्खी सिर्फ मारे जाने के काम नहीं आता_ समझे नहीं, आप तो सोच रहे होंगे.
मक्खी मारने में रचनात्मक क्या है, यहाँ प्रस्तुत है एक कलाकार मक्खी मार की कलाकारी.
यह तस्वीर युवा पत्रकार पूनम ने उपलब्ध कराई हैं.










मंगलवार, 16 मार्च 2010

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

आजा हँस ले हमारे संग


विनीत पाण्डेय कवि हैं, हास्य की कविता लिखते हैं. मुखर्जी नगर (दिल्ली) रहते हैं. आज ही उनका स्क्रेप मिला. खास यह था कि स्क्रेप में सिर्फ कविता नहीं थी, एक तस्वीर भी थी. उनकी कविता और यह तस्वीर सिर्फ गुदगुदाती नहीं, कुछ सोचने के लिए भी विवश करती है. विनीत के लिए शुभकामना. यूं ही हंसते हंसाते रहे.

ये अनोखा जॉब देखो साब का रुआब देखो
कंधे पे बिठाये हुए लिए जा रहा है वो
जो आदेश होगा उसे पालन तो करना है
जी हुज़ूर जी हुज़ूर किये जा रहा है वो
घोडा गधा समझ के भूल नहीं करना जी
सच्चा इंसान सेवा दिए जा रहा है वो
लोग हरिद्वार बस अस्थियाँ ही ले के जाते
देखो पूरा अफसर लिए जा रहा है वो

गुरुवार, 4 मार्च 2010

फोटो एक्जीबिशन

मंगलवार, 2 मार्च 2010

चीनी रेस्तराँ - “Translate सर्वर Error :सुयश


चीन में एक रेस्तराँ का नाम अंग्रेज़ी में “Translate Server Error" लिख
दिया गया। हुआ यह था कि किसी तकनीकी समस्या के कारण कंप्यूटर पर चीनी नाम
के अनुवाद के बदले “Translate Server Error" का संदेश दिखा और अंग्रेज़ी
नहीं जानने के कारण या हड़बड़ी में यही अनुवाद रेस्तराँ के साइन बोर्ड पर
लिख दिया गया।

मशीन अनुवाद पर कभी ज़रूरत से अधिक भरोसा नहीं करें!!!

http://www.globalization-group.com/edge/2010/02/chinese-restaurant-translate-server-error
(हिंदी भारत सहित सुयश का आभार )

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम