शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन से लौटकर...

दिल्ली में जनवरी का महीना गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन का महीना होता है। हिन्दी कवि सम्मेलन, उर्दू कवि सम्मेलन, भोजपुरी-मैथिली कवि सम्मेलन, पंजाबी कवि सम्मेलन, किसी भी कवि सम्मेलन में चले जाइए, मंच की कविता के कद्रदानों की कमी नहीं मिलेगी, अच्छे कवि और अच्छी कविता की कमी महसूस हो सकती है।
कहते हैं जनवरी महीने में लाल किले में होने वाला कवि सम्मेलन देश का सबसे प्रतिष्ठित कवि सम्मेलन होता है और कभी इस कवि सम्मेलन को सुनने के लिए प्रधानमंत्री रहते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू पूरी-पूरी रात बैठते थे। यह बात दूसरी है कि अब इसी कवि सम्मेलन के लिए दिल्ली की मुख्यमंत्री तक के पास वक्त नहीं है। दिल्ली सरकार में शिक्षा मंत्री प्रो. किरण वालिया ने जरूर इस बार लाल किले पर बैठकर पूरी कविता सुनी और गिनकर सताइस बार कवियों का आभार भी स्वीकार किया। जिस तरह मंच पर अच्छे कवि दूर होते जा रहे हैं, आने वाले समय में यह भी कवियों के लिए किस्सा ही ना बन जाए कि दिल्ली सरकार की मंत्री पूरी रात बैठकर यहां कविता सुनती थीं।
इस बार गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन में मंच पर आया पहला कवि ही हरी ओम पंवार की फोटो कॉपि होने की कोशिश कर रहा था। फोटो कॉपि होने में कोई बुराई नहीं है। ओम प्रकाश आदित्य की  एक कवि कार्बन कॉपि हो रहे थे लेकिन दुर्घटना में हुई मृत्यु के बाद ओम प्रकाश आदित्य ंमंच पर नहीं आ सकते। उनकी नकल मंच पर सुनने वालों को आगे भी उनकी याद दिलाती रहेगी लेकिन सुरेन्द्र शर्मा और हरी ओम पंवार की कॉपि करने वालों को मंच पर बिठाने की क्या जरूरत है, जबकि यह दोनों कवि अकादमी को उपलब्ध हो सकते हैं और यह दोनों कवि मंचिय कवि समाज के लिए उपलब्धि भी हैं।
इस कवि सम्मेलन में नौशा खां, पवन जैन, नन्दलाल और सविता असीम को मानों हूट करवाने के लिए ही बुलवाया गया था, यदि यह चार नहीं होते तो जुगाड़ तंत्र से अंदर आए दीपक गुप्ता और कुछ कवियों का हाल यही होना था। वैसे कवि सम्मेलन में यह देखना दिलचस्प था, कि कई कवि जिन्हें सुनने वाले हूट कर रहे थे, वे इसे अपनी तारिफ समझ कर दुगुने उत्साह में दो कविता अधिक सुना कर जा रहे थे। वैसे भी मंच पर आगे वालों की ही सुनी जाती है, पिछे वालों की कौन सुनता है? उन्हें तो अनसुना भी किया जा सकता है।
दर्शको में इस बार कवि सम्मेलन को लेकर भारी निराशा थी, मदन मोहन समर ने इस निराशा से दर्शकों को निकाला। उन्होंने जब मंच से कहा कि मेरी कविता सतरह मीनट बारह सेकेन्ड की है तो कुछ लोगों ने इस बात को चुटकुला समझा और कुछ इस कविता को उबाउ समझकर कॉफी पीने चले गए लेकिन इस कविता ने लाल किले में ऐसा माहौल बनाया कि एक-एक श्रोता उनकी कविता पर झूम उठा। उन्होंने अपना वादा पूरा भी किया, सतरह मिनट कुछ सेेकेन्ड में अपनी कविता पूरी करके। यदि समर की वह कविता आपको पढ़ने को मिले तो आप उसे साधारण कविता की श्रेणी में भी ना रखें लेकिन मंच का समीकरण अलग होता है और उस समीकरण में समर का अंदाज ए बयां कुछ और। लोगों ने समर की कविता से अधिक उनके अंदाज ए बयां को सराहा। पसंद किया और झूमे। समर कवि सम्मेलन को जिस उंचाई पर ले गए थे, वहां से कवि सम्मेलन को बचाकर लाना बहुत बडी चुनौति होती है। इस चुनौति में मंच संचालक की परीक्षा होती है क्योंकि कवि सम्मेलन में मंच संचालक की भूमिका कप्तान की होती है। संचालक शशिकांत यादव जो संचालक जैसे भी थे लेकिन उन्होंने साबित किया कि वे एक अच्छे संयोजक और समन्वयक हैं। समर की कविता के बाद जिस खुबसूरती के साथ उन्होंने महेन्द्र अजनबी को मंच पर प्लेस किया, वास्तव में इसके लिए उनकी तारिफ की जानी चाहिए। मंच पर गिनती के नाम थे, जिन्हें सुना जा सकता था, आसकरण अटल, सीता सागर, वेद प्रकाश, कविता किरण, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, विष्णु सक्सेना, अरूण जैमिनी। अशोक चक्रधर कोे मंचिय कवियों के बीच सुपर स्टार स्टेटस हासिल है। वे पिछले पचास सालों से लाल किले के कवि सम्मेलन में आ रहे हैं। अब वे सुनने वालों की शक्ल देखकर पहचान जाते हैं कि उस पर किस तरह की कविता काम करेगी।
लाल किले पर कुछ कवि सालों से आ रहे हैं, क्या वे लाल किले के लिए पूरे साल में एक नई कविता भी नहीं लिख सकते। जिस कविता ने उन्हें पहचान दिलाई है, वे डरते क्यों है कि नई कविता से वह पहचान छीन जाएगी। यह भी संभव है कि नई कविता उन्हें सुनने वालों के बीच फिर से एक नई पहचान दे। इसबार भी सालों से लाल किले पर  आ रहे अधिक कवियों ने अपनी पुरानी कविता ही सुनाई। कुछ लोगो ने जरूर मंच पर लिखी हुई और रास्ते में आते हुए लिखी हुई कविता सुनाई। सुनने वालों ने उन कविताओं को भी पसंद किया। फिर कवियों के मन में यह डर क्यों कि नई कविता सुनने वालों के बीच में जगह नहीं पाती। वैसे मंच पर लिखी हुई और रास्ते में लिखने की बात जिस कविता के लिए कही गई, उसे मंच पर प्रस्तुत करने की वजह वे चार नौजवान भी हो सकते हैं, जिन्होंने यह कहते हुए कवि सम्मेलन का बहिष्कार किया कि कविता के इस मंच से दामिनी को याद क्यों नहीं किया गया और वे चार नौजवान कवियों को धिक्कारते हुए कार्यक्रम से बाहर हो गए। कवि सम्मेलन में मौजूद श्रोताओं की माने तो यदि ये चार युवकों ने आयोजन का बहिष्कार नहीं किया होता तो कवि सम्मेलन का स्वरूप कुछ और होना था। वैसे अनुशासित तरिके से चल रहे कार्यक्रम में इस तरह बाधा डालना भी किसी सभ्य समाज की निशानी नहीं है। जिन युवकों ने विरोध किया, जिस तरह आनन-फानन में उन्होंने अपनी कार्यवायी को अंजाम दिया, उससे साफ पता चलता था कि उनका मकसद कविता सुनना नहीं था, वे अंदर आए ही थे, कवि सम्मेलन में बाधा बनने के लिए।
कविता किरण कविता सुनाने के दौरान श्रोताओं से बार-बार आग्रह कर रही थी, कि उन्हें शांत होकर कविता सुननी चाहिए। कई बार यह दोहराने के बाद उन्होंने मंच की तरफ मुखातिब होकर कहा- जब मंच पर ही लोग कविता नहीं सुन रहे और आपस मेे बात कर रहे हैं फिर मैं आप श्रोताओं से क्या कहूं?
मंच के कवि चाहते हैं कि उन्हें लोग गंभीरता से सुने तो कम से कम मंच पर उन्हें खुद दूसरे कवियों को सुनना होगा लेकिन दिल्ली के लाल किला कवि सम्मेलन को माहल्ले के कवि सम्मेलन से अधिक महत्व देने को कवि खुद तैयार नहीं थे। एक एक कर कवि कविता पढ़ रहे थे और अपना लिफाफा लेकर बाहर निकल रहे थे। क्या यह लाल किले के कवि सम्मेलन का अनुशाशन है। कवि कहते हैं कि यहां जवाहर लाल नेहरू सुबह तक कविता सुनते थे और आज कवि ही दूसरे कवि को सुनने को राजी नहीं है। दूसरे शहरों से आए कवियों की वजह से मंच की गरीमा थोड़ी बच गई, बेचारे इतनी ठंड में और इतनी रात को कहां जाते? वर्ना अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह की बारी-बारी आते पूरा मंच खाली हो जाना था।
इस साल मंच पर सुरेन्द्र शर्मा, हरिओम पंवार, राजगोपाल सिंह, दिनेश रघुवंशी, कुंवर बेचैन, कुमार विश्वास, शैलेश लोढ़ा की कमी लोगों ने मंच पर महसूस की। गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन में किसी मंत्री संतरी से पर्ची लेकर प्रवेश पाने वाले कवि पहले भी हुआ करते थे लेकिन अब ऐेसे कवियों की संख्या बढ़ सीगई है। अब मानों कवि की कविता अकादमी की प्राथमिकता में नहीं है, अकादमी के कवियों को बुलाने के मानक अब मानों बदल गए हैं।
इस बार गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन का ‘मैन ऑफ द सम्मेलन’ का खिताब देने की बात यदि हो तो निसंदेह वह मध्य प्रदेश के खाकी वर्दी वाले मदन मोहन समर को जाता है।
कवियों का नेता सबसे प्रिय विषय होता है, जहां वीर रस के कवि हमेशा पाकिस्तान के खून के प्यासे होते हैं, वहीं किसी रस का कवि हो, उसकी एक आध कविता नेताआंे पर निकल ही आएगी। ऐसे में पूरे कवि सम्मेलन में बैठे रहना दिल्ली सरकार में मंत्री किरण वालिया के लिए कितना मुश्किल रहा होगा, इसका अंदाजा कोई भी सहज ही लगा सकता है। कवि एक के बाद एक देश के नेताआंे की क्लास लेते रहे और पिछे नेताजी मुस्कुराती रहीं। यह अच्छा हुआ कि कविता में नेताओं से पूछे गए सवाल का जवाब देने के लिए बाद में संचालक शशिकांत ने मंत्रीजी को फिर से आमंत्रित नहीं किया।
यह मेरी बात थोड़ी काल्पनिक है, लेकिन इसे ंसभव किया जा सकता है।
क्या दिल्ली में उर्दू अकादमी और हिन्दी अकादमी मिलकर एक इंडियन कवि सम्मेलन-मुशायरा लीग जैसा कुछ नहीं कर सकती। दिल्ली के रामलीला मैदान मंे एक तरफ कवि सम्मेलन इलेवन के ग्यारह कवि और दूसरी तरफ मुशायरा इलेवन के ग्यारह शायर। एक तरफ सुरेन्द्र शर्मा या अशोक चक्रधर कप्तानी कर रहे हैं और दूसरी तरफ वसीम बरेलवी या मुनव्वर राणा ने कमान संभाली है। कवियों की तरफ से हरि ओम पंवार परफॉर्म करके लौटे और दूसरी तरफ मंच पर आने के लिए नवाज देवबंदी उतावले हुए जा रहे हैं। एक बार ऐसा एक प्रयोग करके देखिए फिर मैं देखा जाए कि कौन कहता है कि कविता और शायरी के कद्रदान कम हो गए हैं।

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

आशीष कुमार 'अंशु' की तीन कवितायेँ

                                                                          01
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संपादकजी,
छापकर आवरण पर
नग्न स्त्रियों की तस्वीर
ललकारते हैं रात में
यही है तुम्हारी संस्कृति
देख लो खजुराहो

याद आते ही मनु स्मृति
कहते हैं
जला दो,
इसमें दलित विरोधी बातें लिखी हैं
दलित अधिकार, आदिवासी अधिकार में
शामिल नहीं है
दलित महिला, आदिवासी महिला,
का अधिकार,
यह जानते हैं हम
पर मानते नहीं।

स्त्री जो घर में छुपाई गई
बाजार में उघाड़ी गई
ना छुपना स्त्री की नियत थी,
ना उघड़ना उसकी मर्जी,
उसका छुपना पुरूष की इच्छा थी
और उघड़ना पुरूष की कुंठा।

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पत्नी को बेटी को सात पर्दों में रखा
और प्रेमिका के लिए स्त्री मुक्ति आन्दोलन
तुम दोगले हो और तुम्हारा आंदोलन खोखला
होना-खोना दर्जन भर औरतों के साथ
तुम्हारा पुरूषार्थ है
इसमें तुम्हारी स्त्री मुक्ति है, तुम्हारा स्त्री विमर्श है
यदि बेटी लिखे सोना दस मर्दों के साथ
बीवी लिखे पाना-खोना दर्जन भर मर्दों का हाथ
तुम्हारे पांव तले जमीन निकल जाएगी
हर आंदोलन की शुरूआत घर से क्यों नहीं
मुक्त करो बहनों को, बीवियों को, बेटियों को
अपने नजरों के चंगुल से
जातिय दंभ की तरह पुरूष होना भी दंभी  बनाता है
श्रेष्ठता का बोध कराता है
तुम भी तो पुरूष हो, दंभ और श्रेष्ठता से भरे हुए।

पहले अपने ‘पुरूष’ होने के झूठे दंभ से बाहर आओ
वर्ना स़्त्री मुक्ति की बात उस लोमड़ी की चालाकी है
जिसने भेड़ खाने के लिए भेड़ खाने का कानून बनाया
स्त्री मुक्ति के नाम पर स्त्री शोषण की राह तलाशते तुम
हे! महान साहित्यकार तुम्हारी स्त्री मुक्ति को प्रणाम।

                                                                 03
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आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम