इस बात को अब कुछ साल हो गए जब कवि अशोक चक्रधर को हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया था। उस वक्त उनके नाम को लेकर काफी शोर शराबा हुआ था। साहित्यकारों का एक समूह उन्हें हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष के पद पर नहीं देखना चाहता था। अब अशोक चक्रधर हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष नहीं हैं। हिन्दी अकादमी की यह नई जिम्मेवारी भाषाविद विमलेश कांति वर्मा के पास है।
वैसे हिन्दी अकादमी जैसे महत्वपूर्ण संस्थान में जब उपाध्यक्ष का चयन किया जाता है, उस वक्त संस्थान को यह बातें जरूर सार्वजनिक करनी चाहिए कि उपाध्यक्ष के नाम के लिए किन किन बुद्धिजीवियों के नाम पर विचार किया गया। उपाध्यक्ष के नाम के चयन के लिए चयन समिति में कौन-कौन शामिल थे? सबसे महत्वपूर्ण पिछले उपाध्यक्ष की अपने कार्यकाल में उपलब्ध्यिां क्या-क्या रहीं? सार्वजनिक करते हुए यह बातें भी जोड़ी जा सकती हैं कि पिछले उपाध्यक्ष ने अकादमी के खर्चे से कितनी विदेश यात्राएं की और उन यात्राओं की उपलब्धि क्या-क्या रहीं? अर्थात उनकी यात्रा से अकादमी को और हिन्दी को क्या लाभ मिला?
यह सारी जानकारी दिल्ली सरकार अपनी वेवसाइट पर डाल सकती है या फिर अकादमियां अपनी?
बीते महीने नए उपाध्यक्ष का चुनाव हिन्दी अकादमी में हो गया और संचालन समिति भी कम महत्वपूर्ण नामों से भर दिया गया। कमाल की बात यह रही कि इस बार आकदमी की नई बहाली को लेकर कहीं से एक शब्द सुनने को नहीं मिला। इस बार अकादमी के संचालन समिति में एच बालासुब्रमण्यम, विभास चंद्र वर्मा, भानु भारती, गोरखनाथ, सुरजीत सिंह जोबन, बीएल गौड़, उमा मिश्रा, रंजना अग्रवाल, रीता सिन्हा, अरुण कुमार श्रीवास्तव, ममता सिंगला, दुर्गा प्रसाद गुप्त, सुषमा भटनागर, नारायण सिंह समीर, सत्यप्रिय पांडेय आदि आदि हैं। ना जाने इस समिति में हिन्दी साहित्य का कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति क्यांे नहीं रखा गया?
संचालन समिति के एक सदस्य डा हरनेक सिंह गिल कहते हैं- महत्वपूर्ण व्यक्तियों को विदेश घूमने, सेमिनारों में जाने से फूर्सत कहां है कि वे हिन्दी अकादमी के लिए समय निकालेंगे। श्री गिल के अनुसार यह सच्चाई है कि अशोकजी के समय कोई मीटिंग नहीं हो पाई लेकिन अब यह समय पर हुआ करेंगी।
हिन्दी अकादमी के वर्तमान उपाध्यक्ष इस समय विदेश दौरे पर हैं, उनके लौटते ही पहली मीटिंग तय की जाएगी। यह जानकारी भी डा गिल से मिली।
इस वक्त हिन्दी का बुद्धिजीवी वर्ग बिल्कुल शांत है। इसकी वजह हिन्दी जगत में अकादमियों और हिन्दी संस्थानों को छाया गहरा निराशा का भाव है। या फिर साहित्यकारों को लगता है कि उनके लिखने-पढ़ने से कुछ होने वाला नहीं है। अच्छा है कि अच्छे से सबसे निभाई जाए। चूंकि एक समय लेखकों के एक बड़े वर्ग ने अशोक चक्रधर का जमकर विरोध किया था और आज जब उनके काम काज से असंतुष्ट होकर अकादमी से उनकी विदाई हुई है, ऐसे में वे सभी साहित्यकार चुप हैं, जो कल तक अशोकजी को लेकर मुखर थे तो यह बात अचरज में जरूर डालती है। बताया यही जा रहा है कि अकादमी से उनकी विदाई उनके काम काज से असंतुष्ट होकर की गई है। यह भी कहा जा रहा है कि अशोकजी ने अकादमी के संचालन समिति को बिल्कुल निष्क्रिय बनाकर रखा। अपने कार्यकाल के दौरान संचालन समिति की एक भी बैठक अशोकजी ने नहीं कराई। जबकि अकादमी के सूत्रों के अनुसार कायदे से अकादमी का सारा खर्च और आने वाले समय की सारी योजनाएं समिति की सहमति की मुहर के बाद ही पास होनी चाहिए। लेकिन पिछले तीन सालों में जो कुछ अकादमी में हुआ है, उसमें संचालन समिति के अनुमोदन जैसा कुछ भी नहीं है।
मई में जब विभिन्न अकादमियों के संचालन समिति के पुनर्गठन को लेकर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बैठक ली थी। बताया जाता है कि उसमें अशोकजी शामिल नहीं हो पाए थे। वहां पंजाबी अकादमी और उर्दू अकादमी से मुख्यमंत्री दीक्षित संतुष्ट नजर आईं लेकिन हिन्दी अकादमी के काम काज की शैली से वे निराश थीं।
वैसे अब हिन्दी अकादमी को नया उपाध्यक्ष मिल गया। बेदाग छवि वाला। साथ-साथ संचालन समिति का पुनर्गठन भी हो गया है। फिर भी सवाल बनता ही है कि इसके बाद साहित्य जगत में क्यों इतनी शान्ति शान्ति है। क्या डा गिल सही कहते हैं- वरिष्ठों को विदेश यात्राओं और सेमिनारों से फूर्सत नहीं है, जो इन मसलों पर विचार करें?