सीता की जन्मभूमि ये बिहार, गांधी की कर्मभूमि ये बिहार,
सम्राट अशोक की शक्तिभूमि-धर्मभूमि ये बिहार-ये बिहार।
वाल्मिकी ने रची रामायण, लव कूश को जाने संसार
ये है मेरा बिहार हां ये मेरा बिहार
ई टीवी के दर्शक इस बिहार गीत से जरूर परिचित होंगे। यह गीत किसी भी बिहारी को गौरवान्वित करता है। लेकिन क्या 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के जो परिणाम आए हैं, उसके बाद ऐसा नहीं लग रहा है कि यह जीत महागठबंधन की है लेकिन बिहार हार गया।
लालू प्रसाद के जंगलराज की वजह से ही बिहार से पलायन बढ़ा। बिहारी संबोधन को गाली बना देना लालूराज की एक बड़ी देन है बिहार को। उसी जंगलराज के खिलाफ नीतीश कुमार को बिहार की जनता ने चुना। उनके काम काज की वजह से ही उन्हें पूरे देश ने सुशासन बाबू के तौर पर स्वीकार किया। लेकिन यह कॉकटेल किसकी समझ में आ सकता था कि सुशासन बाबू और जंगलराज के मुखिया सत्ता के लिए मिल सकते हैं। यह राजनीति है यहां ना कोई परमानेन्ट दुश्मन है और ना दोस्त। यदि कल को नीतीश और भारतीय जनता पार्टी फिर मिल जाएं तो आश्चर्य ना कीजिएगा।
वास्तव में यह सब इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि बिहार में नई सरकार की जीत को सभी सेलीब्रेट कर रहे हैं। ऐसे समय में हमें बिहार की हुई हार को नहीं भूलना चाहिए। इस चुनाव के बाद बीजेपी गठबंधन की जीत भी होती तो भी बिहार की हार होती।
यह पूरा चुनाव लड़ा किन मुद्दों पर गया है? गाय, अखलाक जैसे मुद्दे। शिक्षा, रोजगार, सुरक्षा जैसे मुद्दों की मानों किसी को सुध ही नहीं थी। भारतीय जनता पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण के मास्टर इस देश में धर्म निरपेक्षता के पैरोकार हैं। उन्होंने पिछले साठ से अधिक सालों में देश में हिन्दू विरोधी माहौल ही बनाया है। तस्लीमा भी कहती है कि भारत में धर्म निरपेक्षता का अर्थ मुस्लिम तुष्टीकरण है। देश में सरकार किसी भी पार्टी की बनती हो, ध्रूव दो ही हैं। एक भारतीय जनता पार्टी और दूसरी भारतीय जनता पार्टी विरोधी। यह स्थिति उस समय भी थी जब पार्टी के खाते में गिनती के सांसद होते थे।
नरेन्द्र मोदी की जीत की बड़ी वजह 2014 में यही थी कि उन्होंने धर्म और जाति को चुनाव का मुद्दा नहीं बनने दिया। बिहार चुनाव में अखलाक की मौत और असहिष्णुता के नाम पर जो माहौल देश में बनाया गया और उससे जिस तरह महागठबंधन को फायदा मिला, उससे संदेह यही होता है कि कथित हिन्दू संगठन को पैसे देकर खड़ा तो नहीं किया गया था। पैसों के दम पर यह कर पाना बहुत मुश्किल काम नहीं है आज के समय में।
जगत झा ने सही लिखा है बिहार के चुनाव का विश्लेषण करते हुए कि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय नेता नरेन्द्र मोदी के चुनावी सभाओं की तैयारी में लगे रहे। जमीनी कार्यकर्ताओं की बात नेतृत्व तक पहुंच ही नहीं पाई। वास्तव में केन्द्रिय नेतृत्व के भरोसे विधायकी का चुनाव नहीं जीता जाता। क्षेत्रीय नेतृत्व को उभरने नहीं दिया गया।
कहा यह भी जा रहा है कि अमित शाह ने गुजरात के चुनाव की तरह बिहार के चुनाव को लड़ा। चुनाव की नीति में स्थानीय नेताओं से समन्वय पर अध्यक्षजी का प्रबंधन हावी रहा। वास्तव में यह चुनाव अपने रंग रूप से भारतीय जनता पार्टी गठबंधन के राष्ट्रीय नेता बनाम महागठबंधन के क्षेत्रीय नेता हो गया था। अमित शाह बिहार को और बिहार की राजनीति को सही प्रकार से नहीं समझते और लालू प्रसाद-नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के पुराने उस्ताद हैं।
बिहार के स्थानीय नेताओं को हासिए पर डाल कर बिहार फतह कैसे किया जा सकता है? सिन्हा साहब और सिंह साहब की नाराजगी चुनाव प्रचार के दौरान ही मीडिया में आ गई थी। उसके बाद भी इसे गम्भीरता से नही लिया गया।
बिहार चुनाव 2015 एक ऐसी हारी हुई बाजी बनती गई अन्तिम चरण के चुनाव तक, जिसमें जीत की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी।
वैसे नीतीश-लालू गठबंधन के सामने चुनौतीयां कई है। आने वाले पांच साल आसान नहीं है। खबर यह भी आ रही है कि नीतीश और लालू मिलकर नई पार्टी बनाएंगे। आने वाले सालों में नीतीश केन्द्र की राजनीति के लिए तैयार किए जाएंगे और लालूजी के दोनों लाल बिहार पर राज करने की तैयारी करेंगे।
सम्राट अशोक की शक्तिभूमि-धर्मभूमि ये बिहार-ये बिहार।
वाल्मिकी ने रची रामायण, लव कूश को जाने संसार
ये है मेरा बिहार हां ये मेरा बिहार
ई टीवी के दर्शक इस बिहार गीत से जरूर परिचित होंगे। यह गीत किसी भी बिहारी को गौरवान्वित करता है। लेकिन क्या 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के जो परिणाम आए हैं, उसके बाद ऐसा नहीं लग रहा है कि यह जीत महागठबंधन की है लेकिन बिहार हार गया।
लालू प्रसाद के जंगलराज की वजह से ही बिहार से पलायन बढ़ा। बिहारी संबोधन को गाली बना देना लालूराज की एक बड़ी देन है बिहार को। उसी जंगलराज के खिलाफ नीतीश कुमार को बिहार की जनता ने चुना। उनके काम काज की वजह से ही उन्हें पूरे देश ने सुशासन बाबू के तौर पर स्वीकार किया। लेकिन यह कॉकटेल किसकी समझ में आ सकता था कि सुशासन बाबू और जंगलराज के मुखिया सत्ता के लिए मिल सकते हैं। यह राजनीति है यहां ना कोई परमानेन्ट दुश्मन है और ना दोस्त। यदि कल को नीतीश और भारतीय जनता पार्टी फिर मिल जाएं तो आश्चर्य ना कीजिएगा।
वास्तव में यह सब इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि बिहार में नई सरकार की जीत को सभी सेलीब्रेट कर रहे हैं। ऐसे समय में हमें बिहार की हुई हार को नहीं भूलना चाहिए। इस चुनाव के बाद बीजेपी गठबंधन की जीत भी होती तो भी बिहार की हार होती।
यह पूरा चुनाव लड़ा किन मुद्दों पर गया है? गाय, अखलाक जैसे मुद्दे। शिक्षा, रोजगार, सुरक्षा जैसे मुद्दों की मानों किसी को सुध ही नहीं थी। भारतीय जनता पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण के मास्टर इस देश में धर्म निरपेक्षता के पैरोकार हैं। उन्होंने पिछले साठ से अधिक सालों में देश में हिन्दू विरोधी माहौल ही बनाया है। तस्लीमा भी कहती है कि भारत में धर्म निरपेक्षता का अर्थ मुस्लिम तुष्टीकरण है। देश में सरकार किसी भी पार्टी की बनती हो, ध्रूव दो ही हैं। एक भारतीय जनता पार्टी और दूसरी भारतीय जनता पार्टी विरोधी। यह स्थिति उस समय भी थी जब पार्टी के खाते में गिनती के सांसद होते थे।
नरेन्द्र मोदी की जीत की बड़ी वजह 2014 में यही थी कि उन्होंने धर्म और जाति को चुनाव का मुद्दा नहीं बनने दिया। बिहार चुनाव में अखलाक की मौत और असहिष्णुता के नाम पर जो माहौल देश में बनाया गया और उससे जिस तरह महागठबंधन को फायदा मिला, उससे संदेह यही होता है कि कथित हिन्दू संगठन को पैसे देकर खड़ा तो नहीं किया गया था। पैसों के दम पर यह कर पाना बहुत मुश्किल काम नहीं है आज के समय में।
जगत झा ने सही लिखा है बिहार के चुनाव का विश्लेषण करते हुए कि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय नेता नरेन्द्र मोदी के चुनावी सभाओं की तैयारी में लगे रहे। जमीनी कार्यकर्ताओं की बात नेतृत्व तक पहुंच ही नहीं पाई। वास्तव में केन्द्रिय नेतृत्व के भरोसे विधायकी का चुनाव नहीं जीता जाता। क्षेत्रीय नेतृत्व को उभरने नहीं दिया गया।
कहा यह भी जा रहा है कि अमित शाह ने गुजरात के चुनाव की तरह बिहार के चुनाव को लड़ा। चुनाव की नीति में स्थानीय नेताओं से समन्वय पर अध्यक्षजी का प्रबंधन हावी रहा। वास्तव में यह चुनाव अपने रंग रूप से भारतीय जनता पार्टी गठबंधन के राष्ट्रीय नेता बनाम महागठबंधन के क्षेत्रीय नेता हो गया था। अमित शाह बिहार को और बिहार की राजनीति को सही प्रकार से नहीं समझते और लालू प्रसाद-नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के पुराने उस्ताद हैं।
बिहार के स्थानीय नेताओं को हासिए पर डाल कर बिहार फतह कैसे किया जा सकता है? सिन्हा साहब और सिंह साहब की नाराजगी चुनाव प्रचार के दौरान ही मीडिया में आ गई थी। उसके बाद भी इसे गम्भीरता से नही लिया गया।
बिहार चुनाव 2015 एक ऐसी हारी हुई बाजी बनती गई अन्तिम चरण के चुनाव तक, जिसमें जीत की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी।
वैसे नीतीश-लालू गठबंधन के सामने चुनौतीयां कई है। आने वाले पांच साल आसान नहीं है। खबर यह भी आ रही है कि नीतीश और लालू मिलकर नई पार्टी बनाएंगे। आने वाले सालों में नीतीश केन्द्र की राजनीति के लिए तैयार किए जाएंगे और लालूजी के दोनों लाल बिहार पर राज करने की तैयारी करेंगे।