मछिन्द्र जी पिछले ढाई सालों से दिल्ली के जंतर मंतर पर जूता मारो अभियान का बैनर लगा बैठे हैं,
अब जूता पी चिदंबरम, आडवाणी. मनमोहन सिंह, नविन जिंदल से होता हुआ यदुरप्पा तक पहुंचा है. लेकिन आपको मानना होगा कि नेताओं को जूते मारने की जो अवधारणा है उसे महाराष्ट्र के मछिन्द्र जी ही समाज के सामने अपने 'जूता मारो आन्दोलन' के माध्यम से लेकर आए.
गुरुवार, 30 अप्रैल 2009
मंगलवार, 28 अप्रैल 2009
जूतों और पानी की सेवा
रविवार, 26 अप्रैल 2009
अखबार से बाहर एक खबर
शनिवार, 25 अप्रैल 2009
शहर का तापमान ४० डिग्री के आस-पास है
इस तस्वीर में एक बच्चे की तस्वीर देखकर आप यह ना सोचिएगा की मैं यहाँ बालमजदूरी पर कोई भाषण देने वाला हूँ. बालमजदूर मुक्त यह देश कैसे बन सकता है, क्या इसका कोई व्यवहारिक जवाब है किसी के पास. एक तरफ बच्चे मुक्त होते हैं और दूसरी तरफ वे फिर काम पर लगा दिए जाते है.
खैर, यह तस्वीर कल आई टी ओ (दिल्ली) में उस वक्त ली गई जब दिल्ली का तापमान ४० डिग्री के आस-पास था. और यह बच्चा तेज गर्म लू में भी चैन की नींद सो रहा था. चलिए इसकी नींद में खलल ना डालिए. कर सकते हैं तो इतना जरूर कीजिएगा, कि अपने कमरे से निकल कर एक बार जरूर बाहर तक निकल आइएगा, जिससे आप उस गर्मी के ताप को महसूस कर सकें जिससे यह बच्चा इस वक्त गूजर रहा है. शहर का तापमान इस वक्त ४० डिग्री के आस-पास है.
गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
मोहल्ला पर एक बकवास पोस्ट
आज मोहल्ला के एक बकवास से पोस्ट पर संजीव भाई की एक सार्थक टिप्पणी देखी तो लगा इसे आप लोगों के साथ सांझा करना चाहिए:-
कुछ दिनों पहले बीबीसी के साथ एक साक्षात्कार में मकबूल फिदा हुसैन से पूछा गया कि ''सबसे विवादास्पद पेंटिंग:मदर इंडिया'' के बारे में आप क्या कहेंगे और उसमें आपने क्या दिखाने की कोशिश की है, तो उनका उत्तर था: ''मैं बचपन से ही देखता था भारत के नक्शे में गुजरात का हिस्सा मुझे औरत के स्तन जैसा दिखता है, इसलिए मैंने स्तन बनाया, फिर उसके पैर बनाए, उसके बाल बिखरे हैं वह हिमालय बन गया है। ये बनाया है मैंने। और ये जो 'भारत माता' नाम है ये मैंने नहीं दिया है, यह मेरा दिया हुआ नाम नहीं है''।जब बीबीसी के संवाददाता ने उनसे यह प्रश्न किया कि ''आपके आलोचक कहते हैं कि हुसैन साहब अपने धर्म की कोई तस्वीर क्यों नहीं बनाते, मक्का-मदीना क्यों नहीं बनाते?'' तो उनका उत्तर था: 'अरे भाई, कमाल करते हैं। हमारे यहां इमेजेज हैं ही नहीं तो कहां से बनाऊंगा। न खुदा का है न किसी और का।''यहां प्रश्न उपजता है कि जब वह हिंदू धर्म से संबंधित देवी-देवताओं के प्रति अपनी कल्पना की उड़ान भर सकते हैं तो अपने धर्म के प्रति उनकी कल्पना की उड़ान ऊची क्यों नहीं जाती? शायद इसका अंजाम वे अच्छी तरह जानते हैं।भारतीय देवियां सरस्वती व दुर्गा लाखों-करोड़ों भारतीयों की माता ही नहीं, अपनी माता से भी ऊपर अधिक सम्माननीय हैं। अपनी अभिव्यक्ति का बहाना लेकर जब श्री हुसैन हिंदू देवियों के नग्न चित्र बनाकर उन्हें अमर बना रहे है तो उन्होंने अपने इस्लाम मजहब और अपने परिवार में से किसी का भी नग्न चित्र बनाकर उन्हें अमर क्यों नहीं किया? हिंदू देवियां पर ही वह इतने मेहरबान क्यों हैं? इसलिये कि वह स्वयं हिन्दू नहीं हैं? यदि ऐसा नहीं है तो वह बतायें कि सच क्या है? चलो कुछ पल के लिये उनके इस तर्क को ही मान लेते हैं कि कि ''हमारे यहां (मुस्लिम धर्म में) इमेजेज़ हैं ही नहीं ....न खुदा का है। न किसी और का ....'' क्या किसी मुस्लिम महिला का भी कोई चित्र या इमेज नहीं है? तो फिर हुसैन साहिब बतायें कि वह केवल हिन्दू देवियों पर ही क्यों मेहरबान हुये और आज तक उन्हों ने किसी मुस्लिम महिला का नंगा चित्र बनाकर उसे अमर क्यों नहीं बनाया?हुसैन से यह पूछा ही जाना चाहिए कि आपने आज तक अपने धर्म की पवित्र हस्तियों के ऐसे ही चित्र बनाने में अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सहारा क्यों नहीं लिया? वह तो शायद इसका उत्तर न दे पर वास्तविकता यही है कि दूसरे की बीवी या मां से तो छेड़छाड़ अच्छी लगती है पर अपनी बीवी और मां से यदि यही व्यवहार हो तो शायद खून खराबा हो जाये।हुसैन और सैकुलर बुद्धिज़ीवियों की विचारधारा पर तरस ही खाया जा सकता हैं, जिन्होंने हमारी हिंदू-मुस्लिम बिरादरी के बीच आग लगा दी है और जिसकी तपिश में हम नाहक ही झुलसने को मजबूर हो गए हैं।
कुछ दिनों पहले बीबीसी के साथ एक साक्षात्कार में मकबूल फिदा हुसैन से पूछा गया कि ''सबसे विवादास्पद पेंटिंग:मदर इंडिया'' के बारे में आप क्या कहेंगे और उसमें आपने क्या दिखाने की कोशिश की है, तो उनका उत्तर था: ''मैं बचपन से ही देखता था भारत के नक्शे में गुजरात का हिस्सा मुझे औरत के स्तन जैसा दिखता है, इसलिए मैंने स्तन बनाया, फिर उसके पैर बनाए, उसके बाल बिखरे हैं वह हिमालय बन गया है। ये बनाया है मैंने। और ये जो 'भारत माता' नाम है ये मैंने नहीं दिया है, यह मेरा दिया हुआ नाम नहीं है''।जब बीबीसी के संवाददाता ने उनसे यह प्रश्न किया कि ''आपके आलोचक कहते हैं कि हुसैन साहब अपने धर्म की कोई तस्वीर क्यों नहीं बनाते, मक्का-मदीना क्यों नहीं बनाते?'' तो उनका उत्तर था: 'अरे भाई, कमाल करते हैं। हमारे यहां इमेजेज हैं ही नहीं तो कहां से बनाऊंगा। न खुदा का है न किसी और का।''यहां प्रश्न उपजता है कि जब वह हिंदू धर्म से संबंधित देवी-देवताओं के प्रति अपनी कल्पना की उड़ान भर सकते हैं तो अपने धर्म के प्रति उनकी कल्पना की उड़ान ऊची क्यों नहीं जाती? शायद इसका अंजाम वे अच्छी तरह जानते हैं।भारतीय देवियां सरस्वती व दुर्गा लाखों-करोड़ों भारतीयों की माता ही नहीं, अपनी माता से भी ऊपर अधिक सम्माननीय हैं। अपनी अभिव्यक्ति का बहाना लेकर जब श्री हुसैन हिंदू देवियों के नग्न चित्र बनाकर उन्हें अमर बना रहे है तो उन्होंने अपने इस्लाम मजहब और अपने परिवार में से किसी का भी नग्न चित्र बनाकर उन्हें अमर क्यों नहीं किया? हिंदू देवियां पर ही वह इतने मेहरबान क्यों हैं? इसलिये कि वह स्वयं हिन्दू नहीं हैं? यदि ऐसा नहीं है तो वह बतायें कि सच क्या है? चलो कुछ पल के लिये उनके इस तर्क को ही मान लेते हैं कि कि ''हमारे यहां (मुस्लिम धर्म में) इमेजेज़ हैं ही नहीं ....न खुदा का है। न किसी और का ....'' क्या किसी मुस्लिम महिला का भी कोई चित्र या इमेज नहीं है? तो फिर हुसैन साहिब बतायें कि वह केवल हिन्दू देवियों पर ही क्यों मेहरबान हुये और आज तक उन्हों ने किसी मुस्लिम महिला का नंगा चित्र बनाकर उसे अमर क्यों नहीं बनाया?हुसैन से यह पूछा ही जाना चाहिए कि आपने आज तक अपने धर्म की पवित्र हस्तियों के ऐसे ही चित्र बनाने में अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सहारा क्यों नहीं लिया? वह तो शायद इसका उत्तर न दे पर वास्तविकता यही है कि दूसरे की बीवी या मां से तो छेड़छाड़ अच्छी लगती है पर अपनी बीवी और मां से यदि यही व्यवहार हो तो शायद खून खराबा हो जाये।हुसैन और सैकुलर बुद्धिज़ीवियों की विचारधारा पर तरस ही खाया जा सकता हैं, जिन्होंने हमारी हिंदू-मुस्लिम बिरादरी के बीच आग लगा दी है और जिसकी तपिश में हम नाहक ही झुलसने को मजबूर हो गए हैं।
बुधवार, 22 अप्रैल 2009
मंगलवार, 21 अप्रैल 2009
लोकेन्द्र भाई नहीं रहे
कल ही बांदा के पुष्पेन्द्र भाई से पता चला की सर्वोदय आन्दोलन से जुड़े बीजना, मौरानीपुर (झांसी) वाले लोकेन्द्र भाई नहीं रहे. वे बीजना में लम्बे समय से पानी को लेकर काम कर रहे थे.
लगभग २ दर्जन से अधिक कुँए और एक दर्जन से अधिक पोखर अपने आस-पास रहने वाले ग्रामीणों के लिए तैयार किया।
उनकी अवस्था ८० के आस-पास थी। अभी तक अपने लिए आए तमाम पत्रों का जवाब वे खुद देते थे। उन्हें नेवला पालने का शौक था, २००७ में हुई उनसे मुलाक़ात में मैंने उनसे इस अनोखे शौक के सम्बन्ध में पूछा तो उनका जवाब बड़ा रोचक था। 'आज जब आस्तीन में सांप पालने लगे हैं तो नेवला पालना ही होगा अपनी सुरक्षा के लिए।' नेवला से उनको इतना प्रेम था कि जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाईं तो लोकेन्द्र भाई नेवले के साथ जेल गए। उन जैसे सहृदय पुरूष का जाना मन व्यथित कर गया.
जी बी रोड कथा - 02
कल तरुणा की जी बी रोड कथा आपने पढ़ी। उसी कड़ी में http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan डाले गए लेख पर आई दो प्रतिक्रिया विषय को विस्तार देती है। उन दोनों प्रतिक्रियाओं को आप ब्लॉग पाठकों तक रख रहा हूँ, जिससे बात आगे बढे-
01
मेरा अनुभव कुछ दूसरा है। 1996 की बात है, तब मैं शावक पत्रकार था, अमर उजाला ग्रुप के आर्थिक अखबार अमर उजाला कारोबार में मेरी नई-नई नौकरी लगी थी। तब के संपादक ने नौकरी देते वक्त मुझसे ट्रेड यूनियन और साहित्यिक-सांस्कृतिक रिपोर्टिंग कराने का वादा किया था। लेकिन बाद में उन्होंने मंडी रिपोर्टिंग में काम पर लगा दिया। मेरे तत्कालीन बॉस ने एक दिन मुझसे कहा कि आप जाकर एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट पर स्टोरी करके
उमेश चतुर्वेदी
मैंने पता लगाया कि वह मार्केट नई दिल्ली स्टेशन के पास स्वामी श्रद्धानंद मार्ग पर है। अजमेरी गेट की तरफ से मैंने आगे बढ़कर स्वामी श्रद्धानंद मार्ग का रास्ता वहां तैनात एक सिपाही से पूछा। सिपाही ने मुझे ऐसे घूरा- जैसे मुझे खा जाएगा। मैं माजरा नहीं समझ पाया तो छूटते ही बता दिया कि मैं पत्रकार हूं। सिपाही का रवैया बदल गया। उसने मुझे आंख के इशारे से रास्ता बता दिया। उसके बताए रास्ते पर आगे बढ़ने के पहले तक मुझे उसकी हकीकत पता नहीं थी। लेकिन वहां जाते ही मेरी हैरत का ठिकाना नहीं था। श्रद्धानंद जैसे क्रांतिकारी संन्यासी के नाम पर बनी सड़क के ग्राउंड फ्लोर पर सचमुच एशिया का सबसे बड़ा हार्डवेयर मार्केट फैला पड़ा है। इसी रास्ते से घर-परिवार वाले वे लोग जो आसपास के इलाके में रहते हैं - रिक्शे और पैदल वैसे ही गुजरते हैं – जैसे दूसरे इलाके के लोग गुजरते हैं। बाजार की चमक के बीच अंधेरी सीढ़ियां भी दिख रही थीं और उनसे होकर उपर जो रास्ता जाता है, वहां कोई और ही दुनिया थी। छतों पर खड़ी लड़कियां और महिलाएं बार-बार कुछ वैसे ही बुला रही थीं – जैसे सब्जी बाजार में सब्जी वाले तरकारी और जिंस का भाव लगाते हुए ग्राहकों को बुलाते हैं। तब जाकर मुझे पता चला कि एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर बाजार के छत पर देह का बाजार लगता है। मेरे लिए ये नया अनुभव था। मेरा मन घृणा और बिछोभ से भर गया। रोटी के लिए अपनी अस्मत की बोली लगाते हुए देखना मेरे लिए ये पहला अनुभव था। उस रात मैं सो नहीं पाया। सारी रात मनुष्य जीवन की मजबूरियां मुझे बेधती रहीं।
बहरहाल मैं रिपोर्टर की हैसियत से गया था और मुझे हार्डवेयर बाजार पर स्टोरी करनी ही थी। लिहाजा मैं मार्केट एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष के पास पहुंचा, लेकिन उनके किसी रिश्तेदार की मौत हो गई थी। लिहाजा उनसे मुलाकात नहीं हुई। तब मैं पूर्व अध्यक्ष के पास पहुंचा। वहां पहुंचा तो श्रद्धानंद मार्ग पुलिस चौकी का हेडकांस्टेबल उनकी चंपूगिरी में मसरूफ था। मैंने पूर्व अध्यक्ष जी को अपना परिचय बताया और मार्केट के बारे में जानकारी मांगी। जानकारी देने की बजाय अपनी दुकान से बाहर लेकर वे निकल पड़े। वे मुझे लेकर नई दिल्ली से सदर जाने वाली रेलवे लाइन और हार्डवेयर मार्केट के बीच वाले इलाके की ओर लेकर चले। ये वाकया नवंबर महीने का है। लेकिन उस खाली जगह में पतझड़ जैसा माहौल था। वहां प्रयोग किए जा चुके कंडोम ऐसे बिखरे पड़े थे, जैसे पतझड़ के दिनों में पेड़ों के नीचे पत्तियां बिखरी होती हैं। एक साथ इतने यूज्ड कंडोम देखकर मुझे उबकाई आने लगी। मैं उल्टे पांव लौट पड़ा। पीछे-पीछे मार्केट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष की आवाज थी, पहले हमारी इस समस्या पर लिखो तब जाकर कोई दूसरी खबर दूंगा।
एशिया का सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट की चमक-दमक के पीछे कितना कचरा है और उसके छत पर कितना स्याह अंधेरा है। ये मैंने तभी जाना। उसी दिन मुझे हेड कांस्टेबल ने बताया कि वहां आनेवाले ज्यादातर ग्राहक रिक्शे-ठेले वाले या फिर स्कूलों के जवान होते छात्र होते हैं। ये भी पता चला कि सेना के जवान भी अच्छी-खासी संख्या में यहां दिल बहलाने आते हैं। आप उन्हें रोकते नहीं – मेरे इस सवाल के जवाब में हेड कांस्टेबल ने बताया कि उनकी यानी पुलिस वालों की कोशिश होती है कि छात्र कोठों पर जा नहीं पाएं। लेकिन लगे हाथों वह ये भी जोड़ने से नहीं चूका कि यहां आने वाले को कोई रोक पाया है भला।
मैं गांव का हूं...वह भी एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार से ..पारिवारिक संस्कारों ने कोठों के अंधेरे कोने की तहकीकात से रोक दिया। लिहाजा वहां नहीं जा पाया, लेकिन स्याह अंधेरे के पीछे की दुनिया का दर्द समझने में कोई चूक नहीं हुई। दर्द समझने में संस्कार भी कभी बाधक बनते हैं भला .......
02
12 बजे के बाद कोठे बंद हो जाते हैं,ऐसा कहकर पुलिसवाले ने या तो झूठ कहा या फिर सरकारी समय बताया।
एक बार करीब डेढ़ बजे रात को पार्किंग के ठेके को लेकर गोली चली। मैं वहां स्टोरी कवर करने गया। डेढ़ घंटे तक
उस इलाके का चक्कर लगाया। पहाड़गंज पुलिस थाने में किसी ने नहीं बताया कि यहां कुछ ऐसा हुआ है। जीबी रोड़ में
दो बजे रात,कैमरामैन आगे औऱ मैं पीछे, बुकिंग करनेवाले हम उम्र
विनीत कुमार
लौंड़ों ने मुझे पकड़ लिया- कैसा चाहिए,एक बार
आओ तो साहब,खुश कर देंगे। बड़ी मुश्किल से मैं बचकर निकला, बाद में गाड़ी तक आने पर उन्हें पता चल गया कि
हमलोग किसी दूसरे मकसद से आए हैं तो किसी और ग्राहक की तलाश में जुट गया। एसटीडी बूथ के सामने खड़े एक लड़के को किसी तरह पटाया जिसने मुझे गोली लगनेवाले शख्स तक पहुंचाया। कहना सिर्फ इतना चाहता हूं कि दर्द भरी इन गलियों की चीख को दफन करने में दुर्भाग्य से आसपास की मशीनरी मजबूती से शामिल है। मेरा प्रसंग शायद इस पोस्ट से अलग हो लेकिन कोठे रातभर चलते हैं....अगर आनेवालों का आना जारी रहे।
01
मेरा अनुभव कुछ दूसरा है। 1996 की बात है, तब मैं शावक पत्रकार था, अमर उजाला ग्रुप के आर्थिक अखबार अमर उजाला कारोबार में मेरी नई-नई नौकरी लगी थी। तब के संपादक ने नौकरी देते वक्त मुझसे ट्रेड यूनियन और साहित्यिक-सांस्कृतिक रिपोर्टिंग कराने का वादा किया था। लेकिन बाद में उन्होंने मंडी रिपोर्टिंग में काम पर लगा दिया। मेरे तत्कालीन बॉस ने एक दिन मुझसे कहा कि आप जाकर एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट पर स्टोरी करके
उमेश चतुर्वेदी
मैंने पता लगाया कि वह मार्केट नई दिल्ली स्टेशन के पास स्वामी श्रद्धानंद मार्ग पर है। अजमेरी गेट की तरफ से मैंने आगे बढ़कर स्वामी श्रद्धानंद मार्ग का रास्ता वहां तैनात एक सिपाही से पूछा। सिपाही ने मुझे ऐसे घूरा- जैसे मुझे खा जाएगा। मैं माजरा नहीं समझ पाया तो छूटते ही बता दिया कि मैं पत्रकार हूं। सिपाही का रवैया बदल गया। उसने मुझे आंख के इशारे से रास्ता बता दिया। उसके बताए रास्ते पर आगे बढ़ने के पहले तक मुझे उसकी हकीकत पता नहीं थी। लेकिन वहां जाते ही मेरी हैरत का ठिकाना नहीं था। श्रद्धानंद जैसे क्रांतिकारी संन्यासी के नाम पर बनी सड़क के ग्राउंड फ्लोर पर सचमुच एशिया का सबसे बड़ा हार्डवेयर मार्केट फैला पड़ा है। इसी रास्ते से घर-परिवार वाले वे लोग जो आसपास के इलाके में रहते हैं - रिक्शे और पैदल वैसे ही गुजरते हैं – जैसे दूसरे इलाके के लोग गुजरते हैं। बाजार की चमक के बीच अंधेरी सीढ़ियां भी दिख रही थीं और उनसे होकर उपर जो रास्ता जाता है, वहां कोई और ही दुनिया थी। छतों पर खड़ी लड़कियां और महिलाएं बार-बार कुछ वैसे ही बुला रही थीं – जैसे सब्जी बाजार में सब्जी वाले तरकारी और जिंस का भाव लगाते हुए ग्राहकों को बुलाते हैं। तब जाकर मुझे पता चला कि एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर बाजार के छत पर देह का बाजार लगता है। मेरे लिए ये नया अनुभव था। मेरा मन घृणा और बिछोभ से भर गया। रोटी के लिए अपनी अस्मत की बोली लगाते हुए देखना मेरे लिए ये पहला अनुभव था। उस रात मैं सो नहीं पाया। सारी रात मनुष्य जीवन की मजबूरियां मुझे बेधती रहीं।
बहरहाल मैं रिपोर्टर की हैसियत से गया था और मुझे हार्डवेयर बाजार पर स्टोरी करनी ही थी। लिहाजा मैं मार्केट एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष के पास पहुंचा, लेकिन उनके किसी रिश्तेदार की मौत हो गई थी। लिहाजा उनसे मुलाकात नहीं हुई। तब मैं पूर्व अध्यक्ष के पास पहुंचा। वहां पहुंचा तो श्रद्धानंद मार्ग पुलिस चौकी का हेडकांस्टेबल उनकी चंपूगिरी में मसरूफ था। मैंने पूर्व अध्यक्ष जी को अपना परिचय बताया और मार्केट के बारे में जानकारी मांगी। जानकारी देने की बजाय अपनी दुकान से बाहर लेकर वे निकल पड़े। वे मुझे लेकर नई दिल्ली से सदर जाने वाली रेलवे लाइन और हार्डवेयर मार्केट के बीच वाले इलाके की ओर लेकर चले। ये वाकया नवंबर महीने का है। लेकिन उस खाली जगह में पतझड़ जैसा माहौल था। वहां प्रयोग किए जा चुके कंडोम ऐसे बिखरे पड़े थे, जैसे पतझड़ के दिनों में पेड़ों के नीचे पत्तियां बिखरी होती हैं। एक साथ इतने यूज्ड कंडोम देखकर मुझे उबकाई आने लगी। मैं उल्टे पांव लौट पड़ा। पीछे-पीछे मार्केट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष की आवाज थी, पहले हमारी इस समस्या पर लिखो तब जाकर कोई दूसरी खबर दूंगा।
एशिया का सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट की चमक-दमक के पीछे कितना कचरा है और उसके छत पर कितना स्याह अंधेरा है। ये मैंने तभी जाना। उसी दिन मुझे हेड कांस्टेबल ने बताया कि वहां आनेवाले ज्यादातर ग्राहक रिक्शे-ठेले वाले या फिर स्कूलों के जवान होते छात्र होते हैं। ये भी पता चला कि सेना के जवान भी अच्छी-खासी संख्या में यहां दिल बहलाने आते हैं। आप उन्हें रोकते नहीं – मेरे इस सवाल के जवाब में हेड कांस्टेबल ने बताया कि उनकी यानी पुलिस वालों की कोशिश होती है कि छात्र कोठों पर जा नहीं पाएं। लेकिन लगे हाथों वह ये भी जोड़ने से नहीं चूका कि यहां आने वाले को कोई रोक पाया है भला।
मैं गांव का हूं...वह भी एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार से ..पारिवारिक संस्कारों ने कोठों के अंधेरे कोने की तहकीकात से रोक दिया। लिहाजा वहां नहीं जा पाया, लेकिन स्याह अंधेरे के पीछे की दुनिया का दर्द समझने में कोई चूक नहीं हुई। दर्द समझने में संस्कार भी कभी बाधक बनते हैं भला .......
02
12 बजे के बाद कोठे बंद हो जाते हैं,ऐसा कहकर पुलिसवाले ने या तो झूठ कहा या फिर सरकारी समय बताया।
एक बार करीब डेढ़ बजे रात को पार्किंग के ठेके को लेकर गोली चली। मैं वहां स्टोरी कवर करने गया। डेढ़ घंटे तक
उस इलाके का चक्कर लगाया। पहाड़गंज पुलिस थाने में किसी ने नहीं बताया कि यहां कुछ ऐसा हुआ है। जीबी रोड़ में
दो बजे रात,कैमरामैन आगे औऱ मैं पीछे, बुकिंग करनेवाले हम उम्र
विनीत कुमार
लौंड़ों ने मुझे पकड़ लिया- कैसा चाहिए,एक बार
आओ तो साहब,खुश कर देंगे। बड़ी मुश्किल से मैं बचकर निकला, बाद में गाड़ी तक आने पर उन्हें पता चल गया कि
हमलोग किसी दूसरे मकसद से आए हैं तो किसी और ग्राहक की तलाश में जुट गया। एसटीडी बूथ के सामने खड़े एक लड़के को किसी तरह पटाया जिसने मुझे गोली लगनेवाले शख्स तक पहुंचाया। कहना सिर्फ इतना चाहता हूं कि दर्द भरी इन गलियों की चीख को दफन करने में दुर्भाग्य से आसपास की मशीनरी मजबूती से शामिल है। मेरा प्रसंग शायद इस पोस्ट से अलग हो लेकिन कोठे रातभर चलते हैं....अगर आनेवालों का आना जारी रहे।
रविवार, 19 अप्रैल 2009
जी बी रोड कथा
जी बी रोड जिसका नाम लेते हुए भी सभ्य समाज में रहने वाले लोगों की जुबान लड़खड़ा जाती है, वहां रहने वाली महिलाओं की जिन्दगी के पीछे छिपे दर्द को शब्द देने की कोशिश की है युवा पत्रकार तरुणा गौड़ ने. उनका यह लेख एक पत्रिका में प्रकाशित भी हुआ है।तरुणा ने अपनी पत्रकारिता की शुरूआत झांसी दैनिक भास्कर से की. फिर दैनिक महामेधा और विराट वैभव में काम किया. बहरहाल यहाँ प्रस्तुत है, तरुणा के अनुभव :-
हमारे समाज में एक जगह ऐसी भी है जहाँ बेटी पैदा होने पर खुशियाँ मनाई जाती है और बेटा पैदा होने पर मुंह सिकुड़ जाता है, ये बदनाम गलियों की दास्ताँ है। दिल्ली के जी बी रोड की अँधेरी जर्जर खिड़कियों में पीली रोशनी से इशारा करती लड़कियों के विषय में जानने की फुर्सत शायद ही किसी के पास हो। भारी व्यावसायिक गतिविधियों और भीड़ भरे इस बाजार में वहां के व्यापारियों के लिए यह कुछ नया नहीं है। शरीफ लोग मुंह उठाकर ऊपर नहीं देखते। महिलाएं तो शायद ही ऐसा करती हों ।
जब हमने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर जीबी रोड जाने का रास्ता पूछा तो लोगों के चेहरे पर कई भाव आये और गए। तिरछी मुस्कान से लोग दायें और बाएं जाना बताते रहे। हमारे लिए यह एकदम नया अनुभव था। टूटे -फूटे दुमंजिले मकान की खिड़कियों से अधखुले कंधे दिखाते गाउन पहने इशारा करती महिलाओं को देखकर समझ मे आ गया कि हमारा गंतव्य स्थल आ गया है। परन्तु एक बड़ी समस्या थी की इन महिलाओं (वेश्याओं) से संपर्क किस तरह किया जाय। इसके लिए हमने पहले वहां के दुकानदार से बातचीत करना तय किया। रामशरण (बदला हुआ नाम) इस इलाके में 48 साल से दुकान चला रहे हैं। वो इस विषय पर काफी सहज नजर आए। वो कहते हैं "ना तो ये महिलाएं हमसे बात करती है ना हीं हम हम लोग इनके काम में दखल अंदाजी नहीं करते। यदि इन्हें कभी काम पड़ता है तो किसी बच्चे या नौकर के जरिये कहलवा दिया जाता है। जीबी रोड मेटल और मेवे का बड़ा बाजार है। यहाँ हमेशा चहल पहल रहती है। आगे रामशरण कहते हैं बाजार होने से ये वेश्याएं सुरक्षित महसूस करती हैं। ग्राहक इनके साथ ज्यादती नहीं कर पाते और यहाँ के व्यवसायी भी सुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि कोठों की गुंडों की वजह से कोई हमारे साथ गलत हरकत नहीं करता। रामशरण यह भी दावा करते हैं की जिस बाजार में भी वेश्यावृत्ति होती है वह बाजार काफी फलता फूलता है।
जब हमने उनसे पूछा कि आपको कभी कुछ असहज लगता है तो उनका जवाब था कि वो अपना काम करती है बस अजीब यह लगता है कि कल जो छोटी सी बच्ची फ्रॉक पहने यहाँ टॉफी बिस्किट खरीदती थी वो आज खिड़की के पीछे से ग्राहकों की बाट जोहती है, इशारे करती है। वो वेश्यावृत्ति में लग जाती है। इन्ही के माध्यम से हम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। रामशरण धर्मेन्द्र (बदला हुआ नाम) नाम के एक व्यक्ति को हमारे साथ कर देते हैं जो हमें आगे का रास्ता दिखाता है। घनी दुकानों के बीच कोठे पर जाने के रास्ते का अनुमान लगाना काफी कठिन था। धर्मेन्द्र आगे चला और दुकानों के बीच से एक संकरी और अँधेरी सीढियों से ऊपर ले गया। ऊपर एक अलग ही दुनिया थी। एक बड़े से हालनुमा कमरे में मुजरे की एक बड़ी तस्वीर लगी थी और सामने एक दलाल बैठा था।18 से 30 साल की लड़कियां इधर से उधर घूम रही थी। शाम के करीब 5 बजे थे उनके लिए यह सुबह का समय था। सभी लड़कियां नींद से जागी थी और दिनचर्या शुरू ही की थी। नाईटी और गाउन में लड़कियां साबुन ब्रश लिए बार-बार उस कमरे से गुजरती जिस कमरे में हम बैठे थे और हम पर नजर डालती। लेकिन बात करने के लिए कोई तैयार नहीं होती थी।
सीढियों से अन्दर घुसते ही पहले वो खूबसरत कमरा था जिसमे ऊपर फानूस लटक रहा था। नीचे बिछे गद्दे पर बड़े गोल तकिये लगे थे। इसी खूबसूरती के पीछे छुपी थी काली असलियत। संजीव दलाल (बदला हुआ नाम) जो सभी लड़कियों की निगरानी कर रहा था और हमसे बात भी कर रहा था, उसने बताया कि एक बिल्डिंग में कई कोठे हैं और सबके मालिक अलग अलग होते हैं। इसी बीच वहां पर कुछ ग्राहक भी आ गए जिनको दलाल ने उस वक्त डांट कर भगा दिया। जब हमने लड़कियों के रहन सहन के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि एक कमरे में आठ से दस लड़कियां रहती है। उसने दिल्ली के कई पाश इलाके के नाम बताए जहाँ पर खुले आम वेश्यावृत्ति होती है। उसने बताया कि पहड्गंज, लक्ष्मी नगर, पटेल नगर के अलावा और भी कई अच्छे इलाको मे यह करोबार यहा से ज्यादा चलता है।
बातचीत के दौरान ही हम हॉलनुमा कमरे के सामने दिख रही अँधेरी गली से अन्दर जाने में सफल रहे, जहाँ इन महिलाओं के रहने के लिए कोठरीनुमा कमरे बने हुए थे। वहां पर बेहद छोटी जगह में बनी रसोई में बैठी माला देवी से बात हुई। 40 साल की मालादेवी अब धंधा नहीं करती वो नई लड़कियों के लिए खाना बनाने का काम करती है। उसकी माँ भी इसी कोठे का हिस्सा थी। अन्दर की स्थिती काफी अमानुषिक थी। एक मंजिले मकान में नीची छत पाटकर दो मंजिल में विभाजित कर दिया गया था। कमरे से ही लकडी की खड़ी सीढ़ी ऊपर जाने के लिए लगी थी। जिसे ग्राहक के ऊपर जाने के बाद हटा लिया जाता है। ऊपर से कुछ महिलाओं ने हमें झाँक कर देखा। हमारे प्यार से हैलो कहने का जवाब इनके पास नहीं था। यहाँ हमसे कोई भी लड़की बात करने के लिए तैयार नहीं हुई। हम वापस दलाल के पास आए उसने कई तरह के बहाने बनाए कि कोठा मालकिन अभी शादी में गयी है। उसकी आज्ञा के बिना यहाँ कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिये वेश्याओं से बात करने के लिए हम दूसरी मंजिल पर बने एक अन्य कोठे में गए। यहाँ भी हमें वैसा ही माहौल मिला पहले-पहल कोई भी लड़की बात करने के लिए राजी नहीं हुई लेकिन उन्हें समझाने के बाद कुछ ने अपने दिल के राज खोले। देखने में मासूम और खूबसूरत ये लड़कियां कहीं से भी आम लड़कियों से जुदा नहीं थी। यहाँ पर हम वेश्यावृत्ति करने वाली आरजू से मिले। आरजू जितना खूबसूरत नाम है उतनी ही वो खूबसूरत भी थी। लेकिन उसकी हकीकत कहीं ज्यादा बदसूरत थी। राजस्थान के छोटे से गांव से आई आरजू की शादी हो चुकी है, पति और पारिवार गांव मे ही रहते हैं आरजू वहां तीज त्योहारों पर जाती है। आरजू हंस कर बात कर रही थी उससे जब हमने पूछा कि उनकी दिनचर्या क्या होती है तो उनका कहना था कि "रात भर काम करने के बाद हम सुबह में सो पाती हैं और शाम को जागती हैं। ब्रश करती हैं, नहाने और नाश्ते के बाद हम मुजरे के लिए तैयार होते हैं। इसी बीच इन्हें खाना और व्यक्तिगत काम निबटाने होते। कुछ ज्यादा ना बोल दे इसलिए बीच में प्रिया आ गयी, थोड़े गठीले बदन कि प्रिया इन सबसे ज्यादा तेज दिखी लेकिन किस्मत उसकी भी धीमी थी। पास में ही बैठी बिंदिया के एक लड़का और एक लड़की है। फ़िलहाल दोनों दूर कही पढ़ाई कर रहे हैं। लेकिन बिंदिया को डर है कि उसकी बेटी को भी यहीं न आना पड़े। तीज त्यौहार किस तरह मनाती है पर प्रिया ने बताया कि वो दोस्तों के साथ पार्टी करती हैं। घूमने जाती हैं।
इनकी आँखों में भी सपने थे लेकिन वो सपने थे जो रात को ग्राहक दिखाते हैं और सुबह उनके साथ ही कही गुम हो जाते हैं। इससे ज्यादा ये लड़कियां खुलने को तैयार नहीं हुई। शाम को मुजरे में शामिल होने का वादा भी इन्होने हमसे लिया। हम उसी अँधेरी सीढियों से नीचे आने लगे तो आरजू कि आवाज कानों में पड़ी थी -"नाईस मीटिंग यू" उनके लिये शायद जरूर नाईस मीटिंग होगी लेकिन हम खुद को उन्हीं तंग कोठरियों में घिरा महसूस कर रहे थे। हमें लग रहा था कि वो दीवारे हमारे साथ चली आ रही है। जहाँ सिर्फ अँधेरा है और छलावा देने वाली रोशनी है।
जब हमने उनसे पूछा कि आपको कभी कुछ असहज लगता है तो उनका जवाब था कि वो अपना काम करती है बस अजीब यह लगता है कि कल जो छोटी सी बच्ची फ्रॉक पहने यहाँ टॉफी बिस्किट खरीदती थी वो आज खिड़की के पीछे से ग्राहकों की बाट जोहती है, इशारे करती है। वो वेश्यावृत्ति में लग जाती है। इन्ही के माध्यम से हम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। रामशरण धर्मेन्द्र (बदला हुआ नाम) नाम के एक व्यक्ति को हमारे साथ कर देते हैं जो हमें आगे का रास्ता दिखाता है। घनी दुकानों के बीच कोठे पर जाने के रास्ते का अनुमान लगाना काफी कठिन था। धर्मेन्द्र आगे चला और दुकानों के बीच से एक संकरी और अँधेरी सीढियों से ऊपर ले गया। ऊपर एक अलग ही दुनिया थी। एक बड़े से हालनुमा कमरे में मुजरे की एक बड़ी तस्वीर लगी थी और सामने एक दलाल बैठा था।18 से 30 साल की लड़कियां इधर से उधर घूम रही थी। शाम के करीब 5 बजे थे उनके लिए यह सुबह का समय था। सभी लड़कियां नींद से जागी थी और दिनचर्या शुरू ही की थी। नाईटी और गाउन में लड़कियां साबुन ब्रश लिए बार-बार उस कमरे से गुजरती जिस कमरे में हम बैठे थे और हम पर नजर डालती। लेकिन बात करने के लिए कोई तैयार नहीं होती थी।
सीढियों से अन्दर घुसते ही पहले वो खूबसरत कमरा था जिसमे ऊपर फानूस लटक रहा था। नीचे बिछे गद्दे पर बड़े गोल तकिये लगे थे। इसी खूबसूरती के पीछे छुपी थी काली असलियत। संजीव दलाल (बदला हुआ नाम) जो सभी लड़कियों की निगरानी कर रहा था और हमसे बात भी कर रहा था, उसने बताया कि एक बिल्डिंग में कई कोठे हैं और सबके मालिक अलग अलग होते हैं। इसी बीच वहां पर कुछ ग्राहक भी आ गए जिनको दलाल ने उस वक्त डांट कर भगा दिया। जब हमने लड़कियों के रहन सहन के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि एक कमरे में आठ से दस लड़कियां रहती है। उसने दिल्ली के कई पाश इलाके के नाम बताए जहाँ पर खुले आम वेश्यावृत्ति होती है। उसने बताया कि पहड्गंज, लक्ष्मी नगर, पटेल नगर के अलावा और भी कई अच्छे इलाको मे यह करोबार यहा से ज्यादा चलता है।
बातचीत के दौरान ही हम हॉलनुमा कमरे के सामने दिख रही अँधेरी गली से अन्दर जाने में सफल रहे, जहाँ इन महिलाओं के रहने के लिए कोठरीनुमा कमरे बने हुए थे। वहां पर बेहद छोटी जगह में बनी रसोई में बैठी माला देवी से बात हुई। 40 साल की मालादेवी अब धंधा नहीं करती वो नई लड़कियों के लिए खाना बनाने का काम करती है। उसकी माँ भी इसी कोठे का हिस्सा थी। अन्दर की स्थिती काफी अमानुषिक थी। एक मंजिले मकान में नीची छत पाटकर दो मंजिल में विभाजित कर दिया गया था। कमरे से ही लकडी की खड़ी सीढ़ी ऊपर जाने के लिए लगी थी। जिसे ग्राहक के ऊपर जाने के बाद हटा लिया जाता है। ऊपर से कुछ महिलाओं ने हमें झाँक कर देखा। हमारे प्यार से हैलो कहने का जवाब इनके पास नहीं था। यहाँ हमसे कोई भी लड़की बात करने के लिए तैयार नहीं हुई। हम वापस दलाल के पास आए उसने कई तरह के बहाने बनाए कि कोठा मालकिन अभी शादी में गयी है। उसकी आज्ञा के बिना यहाँ कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिये वेश्याओं से बात करने के लिए हम दूसरी मंजिल पर बने एक अन्य कोठे में गए। यहाँ भी हमें वैसा ही माहौल मिला पहले-पहल कोई भी लड़की बात करने के लिए राजी नहीं हुई लेकिन उन्हें समझाने के बाद कुछ ने अपने दिल के राज खोले। देखने में मासूम और खूबसूरत ये लड़कियां कहीं से भी आम लड़कियों से जुदा नहीं थी। यहाँ पर हम वेश्यावृत्ति करने वाली आरजू से मिले। आरजू जितना खूबसूरत नाम है उतनी ही वो खूबसूरत भी थी। लेकिन उसकी हकीकत कहीं ज्यादा बदसूरत थी। राजस्थान के छोटे से गांव से आई आरजू की शादी हो चुकी है, पति और पारिवार गांव मे ही रहते हैं आरजू वहां तीज त्योहारों पर जाती है। आरजू हंस कर बात कर रही थी उससे जब हमने पूछा कि उनकी दिनचर्या क्या होती है तो उनका कहना था कि "रात भर काम करने के बाद हम सुबह में सो पाती हैं और शाम को जागती हैं। ब्रश करती हैं, नहाने और नाश्ते के बाद हम मुजरे के लिए तैयार होते हैं। इसी बीच इन्हें खाना और व्यक्तिगत काम निबटाने होते। कुछ ज्यादा ना बोल दे इसलिए बीच में प्रिया आ गयी, थोड़े गठीले बदन कि प्रिया इन सबसे ज्यादा तेज दिखी लेकिन किस्मत उसकी भी धीमी थी। पास में ही बैठी बिंदिया के एक लड़का और एक लड़की है। फ़िलहाल दोनों दूर कही पढ़ाई कर रहे हैं। लेकिन बिंदिया को डर है कि उसकी बेटी को भी यहीं न आना पड़े। तीज त्यौहार किस तरह मनाती है पर प्रिया ने बताया कि वो दोस्तों के साथ पार्टी करती हैं। घूमने जाती हैं।
इनकी आँखों में भी सपने थे लेकिन वो सपने थे जो रात को ग्राहक दिखाते हैं और सुबह उनके साथ ही कही गुम हो जाते हैं। इससे ज्यादा ये लड़कियां खुलने को तैयार नहीं हुई। शाम को मुजरे में शामिल होने का वादा भी इन्होने हमसे लिया। हम उसी अँधेरी सीढियों से नीचे आने लगे तो आरजू कि आवाज कानों में पड़ी थी -"नाईस मीटिंग यू" उनके लिये शायद जरूर नाईस मीटिंग होगी लेकिन हम खुद को उन्हीं तंग कोठरियों में घिरा महसूस कर रहे थे। हमें लग रहा था कि वो दीवारे हमारे साथ चली आ रही है। जहाँ सिर्फ अँधेरा है और छलावा देने वाली रोशनी है।
इसके बाद हम जीबी रोड पर बनी पुलिस चौकी पर पहुंचे। वहां पर तीन चार कांस्टेबल और हेड कांस्टेबल मौजूद थे। जब हमने वहां पर हो रही वेश्यावृत्ति और कोठों के बारे में जानकारी मांगी तो सभी पुलिस वाले बेतहाशा हंसने लगे व मजाकिया लहजे में बात करने लगे। उन्होंने बड़ी शान से कहा जीबी रोड पर 64 नंबर कोठा सबसे शानदार है। वहां पर अच्छे व बड़े घरों के रसूखदार लोग आते हैं। हमने अपनी जिज्ञासा दिखाते हुए कहा कि हम किसी वेश्या से बात करना चाहते हैं तो उन्होने आसान रास्ता बताया कि "सीधे चले जाओ, पहले कोठा मालकिन को 200-250 फीस देनी पड़ेगी फिर तुम्हें लड्की मिल जायेगी और आप उससे आराम से बात करना। ग्राहक बनने का रास्ता सुझाते हुए तीनों पुलिस वाले ने एक दूसरे को कनखियों से देखा और जोर से हंसने लगे। जब हमने गंभीरता से प्रश्न पूछे तो उन्होने हमारा परिचय जानना चाहा। मीडिया की बात जानकर अब वो पूरी मुस्तैदी से बात करने लगे। उन्होने बताया कि जब लड़कियां यहाँ जबरन लाई जाती है और हमें शिकायत मिलती है तो हम तुंरत कार्रवाई करते हैं, या फिर नाबालिग़ लड़की कि सूचना मिलती है तो रेड करते हैं। अभी हाल ही में एक एनजीओ की शिकायत पर दो तीन लड़कियों को रेस्क्यू करा कर हमने नारी निकेतन भिजवाया है। हम जैसे ही यहाँ से वापसी के लिए आगे बढे एक ग्राहक हमारे पास आकर गिडगिडाने लगा की वह कोठे पर गया था, वहां पर कुछ वेश्याओं ने मिलकर उसके तीन हजार रुपये छीन लिए और मारा पीटा। हमारे लिए यह तस्वीर का दूसरा पहलू था। वेश्यावृत्ति भारत में अपराध की श्रेणी में आती है लेकिन प्रश्न यह है कि फिर क्यों जीबी रोड पर रजिस्टर्ड कोठे स्थित हैं। दरअसल यह कोठे राजा महाराजाओं के ज़माने से यहाँ पर स्थित है। तब इनकी शान और रंगीनियाँ अलग रुतबा रखा करती थी।
यहाँ रहने वाली महिलाएं बाई जी कहलाती थी लेकिन ये लोग देह व्यापार नहीं करती थी। यहाँ पर राजा, महाराजा मनोरंजन के लिए आया करता थे। गाना बजाना हुआ करता था। इनके संगीत और कला को सराहा जाता था। कइ बाईयाँ तो अपनी आवाज़ और शायरी के लिये दूर्-दूर तक मशहूर थी। धीरे-धीरे यहाँ पर कोठों की संख्या भी काफी हो गयी थी। इसके अलावा जीबी रोड के पास ही सदर बाजार खारी बावली और चांदनी चौक जैसे प्रतिष्ठित मंडियां और बाजार स्थित हैं। यहाँ पर बड़े पैमाने पर व्यापार होता था और आज यह व्यापार काफी फल फूल चुका है। पहले दूर दूर से व्यापारी यहाँ आकर रुकते थे। आधुनिक मनोरंजन के साधन नहीं होने के कारण दूर से भी शौकीन लोग यहाँ पर मनोरंजन के लिए आया करते थे। बाजार आज भी वैसा ही है। लेकिन मुजरे के नाम पर देह व्यापार होने लगा है। मुजरे आज भी होते हैं क्योंकि सरकार की ओर से इन कोठों को मुजरा करने के लिए लाइसेंस मिले हुए हैं और यहाँ हर रात 9 से 12 बजे तक मुजरा होता है। पुलिस के अनुसार 12 बजे के बाद कोई भी व्यक्ति कोठे में नहीं जा सकता। 12 बजते ही पुलिस कोठों को बंद करा देती है।
यहाँ रहने वाली महिलाएं बाई जी कहलाती थी लेकिन ये लोग देह व्यापार नहीं करती थी। यहाँ पर राजा, महाराजा मनोरंजन के लिए आया करता थे। गाना बजाना हुआ करता था। इनके संगीत और कला को सराहा जाता था। कइ बाईयाँ तो अपनी आवाज़ और शायरी के लिये दूर्-दूर तक मशहूर थी। धीरे-धीरे यहाँ पर कोठों की संख्या भी काफी हो गयी थी। इसके अलावा जीबी रोड के पास ही सदर बाजार खारी बावली और चांदनी चौक जैसे प्रतिष्ठित मंडियां और बाजार स्थित हैं। यहाँ पर बड़े पैमाने पर व्यापार होता था और आज यह व्यापार काफी फल फूल चुका है। पहले दूर दूर से व्यापारी यहाँ आकर रुकते थे। आधुनिक मनोरंजन के साधन नहीं होने के कारण दूर से भी शौकीन लोग यहाँ पर मनोरंजन के लिए आया करते थे। बाजार आज भी वैसा ही है। लेकिन मुजरे के नाम पर देह व्यापार होने लगा है। मुजरे आज भी होते हैं क्योंकि सरकार की ओर से इन कोठों को मुजरा करने के लिए लाइसेंस मिले हुए हैं और यहाँ हर रात 9 से 12 बजे तक मुजरा होता है। पुलिस के अनुसार 12 बजे के बाद कोई भी व्यक्ति कोठे में नहीं जा सकता। 12 बजते ही पुलिस कोठों को बंद करा देती है।
रविवार, 12 अप्रैल 2009
समाजवाद ना माओवाद- नेपाल में 'प्रेम वाद'
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
क्या तुम्हें मुसलमानों के बीच में जाते हुए डर नहीं लगता?
कल संत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर एक साथी के साथ जाना हुआ.
साथी ने अन्दर जाते हुए एक सवाल पूछा- 'क्या तुम्हें मुसलमानों के बीच में जाते हुए डर नहीं लगता?' अजीब तरह का सवाल था, उनसे इस तरह के सवाल की उम्मीद नहीं थी.
मैं देर तक हंसता रहा. उन्हें शायद अपने अजीब तरह के सवाल का इल्म हो गया था.
'नहीं आशीष, पूरी दुनिया में इस समय इस तरह का माहौल बन गया है कि सारे गलत कामों में मुसलमान शामिल हैं. मैं सिर्फ तुम्हारी राय जानना चाहता हूँ.'
सवाल का जवाब इतना आसान नहीं था. मेरा जवाब 'मैं इस तरह की राय नहीं रखता.' बिल्कुल इस सवाल के साथ न्याय नहीं था. साथी के सवाल पर आपकी क्या राय है, जरूर बताएं.
'नहीं आशीष, पूरी दुनिया में इस समय इस तरह का माहौल बन गया है कि सारे गलत कामों में मुसलमान शामिल हैं. मैं सिर्फ तुम्हारी राय जानना चाहता हूँ.'
सवाल का जवाब इतना आसान नहीं था. मेरा जवाब 'मैं इस तरह की राय नहीं रखता.' बिल्कुल इस सवाल के साथ न्याय नहीं था. साथी के सवाल पर आपकी क्या राय है, जरूर बताएं.
गुरुवार, 9 अप्रैल 2009
आर.के लक्ष्मन स्पेसल
आर के लक्ष्मन द्वारा तैयार ये सभी कार्टून मेरे दोस्त रितेश की जानिब से वाया मेल आई है। सोचा इन तीखे व्यंग्यों का आनन्द मैं अकेला भला क्यों लूँ? इस वजह से आप सबों को भी शामिल कर रहा हूँ. हो सकता है आप में से कइयों ने इसे 'टाइम्स आफ़ इंडिया' या कहीं और भी देखा हो. खैर...
बुधवार, 8 अप्रैल 2009
आप सहमत हैं या नहीं - खुल के बोलिए
आज कोलकाता से पत्रकार और सामजिक कार्यकर्ता द्वय शंकर दादा का मेल आया. मेल में उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है कि 'पत्नी तो पत्नी ही होती है, इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि वह क्या है और कौन है।'
इस मेल का सबसे दिलचस्प पहलू इसके साथ सलग्न तस्वीर थी. तस्वीर देखकर बताइए- क्या आप शंकर दादा की बात से सहमत हैं-या नहीं?
इस मेल का सबसे दिलचस्प पहलू इसके साथ सलग्न तस्वीर थी. तस्वीर देखकर बताइए- क्या आप शंकर दादा की बात से सहमत हैं-या नहीं?
रविवार, 5 अप्रैल 2009
एक बेतिया (प. चम्पारण) वाले का बयान
बेतिया के अपने गजोधर भइया से अभी कुछ ही दिन पहले ही बातचीत हुई। वह वर्तमान राजनीति की स्थिति को लेकर बेहद चिन्तित दिखे। उन्होंने फोन से जो कहा, उस बातचीत के मुख्य हिस्से को आपके सामने रख रहा हूं।
"क्या बताएं सर अब चुनाव वगैरह में रुचि बिल्कुले खत्म हो गया है। किसका नाम लें, किसको छोड़े। सब एक ही जैसे हैं। कोई सज्जन नहीं है। वैसे भी सज्जन-सज्जन भाई नहीं होते, लेकिन चोर-चोर मौसेरे भाई साबित होते हैं। बेजाय हो जाती है जनता। अब देखिए ना रामविलास और लालू दोनों एक-दूसरे को बिहार में देखना नहीं चाहते थे। आज दोनों में दांत काटी रोटी हो गई है। साधु अपने जीजा (लालू प्रसाद) और दीदी (राबड़ी देवी) को छोड़कर कांग्रेस के साथ खड़े हो गए हैं। सिर्फ टिकट नहीं मिलने की वजह से। सर, जो सत्ताा के लिए अपनी बहन का नहीं हुआ, वह उम्मीद रखता है कि जनता उसकी होगी। दूसरी तरफ लालूजी का सोचिए, जो अपने साले का विश्वास नहीं जीत पाए। वे जनता का ‘विश्वास’ जीत रहे हैं।
बेतिया सीट पर इस बार कांटे की टक्कर है। सब धुरंधर योध्दा खड़े हैं। लेकिन हम सोचते हैं कि बैलेट पेपर पर एक ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प होता तो वहीं मोहर मार आते। साधु यादवजी कांग्रेस से खड़े हैं। उनके संबंध में क्या बताएं? उनको सब कोई जानता है। बिहार में कौन है, जो शाहबुद्दीन, सूरजभान, पप्पू यादव, साधु यादव को नहीं जानता हो। बिहार में रहने वाले व्यावसायियों के लिए तो ये नाम प्रात: स्मरणीय हैं।
"क्या बताएं सर अब चुनाव वगैरह में रुचि बिल्कुले खत्म हो गया है। किसका नाम लें, किसको छोड़े। सब एक ही जैसे हैं। कोई सज्जन नहीं है। वैसे भी सज्जन-सज्जन भाई नहीं होते, लेकिन चोर-चोर मौसेरे भाई साबित होते हैं। बेजाय हो जाती है जनता। अब देखिए ना रामविलास और लालू दोनों एक-दूसरे को बिहार में देखना नहीं चाहते थे। आज दोनों में दांत काटी रोटी हो गई है। साधु अपने जीजा (लालू प्रसाद) और दीदी (राबड़ी देवी) को छोड़कर कांग्रेस के साथ खड़े हो गए हैं। सिर्फ टिकट नहीं मिलने की वजह से। सर, जो सत्ताा के लिए अपनी बहन का नहीं हुआ, वह उम्मीद रखता है कि जनता उसकी होगी। दूसरी तरफ लालूजी का सोचिए, जो अपने साले का विश्वास नहीं जीत पाए। वे जनता का ‘विश्वास’ जीत रहे हैं।
बेतिया सीट पर इस बार कांटे की टक्कर है। सब धुरंधर योध्दा खड़े हैं। लेकिन हम सोचते हैं कि बैलेट पेपर पर एक ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प होता तो वहीं मोहर मार आते। साधु यादवजी कांग्रेस से खड़े हैं। उनके संबंध में क्या बताएं? उनको सब कोई जानता है। बिहार में कौन है, जो शाहबुद्दीन, सूरजभान, पप्पू यादव, साधु यादव को नहीं जानता हो। बिहार में रहने वाले व्यावसायियों के लिए तो ये नाम प्रात: स्मरणीय हैं।
लोकजनशक्ति पार्टी रामविलास पासवान की पार्टी है। इनकी पार्टी से उम्मीदवार हैं प्रकाश झा। ये नीतिश के खास लोगों में गिने जाते थे। कहा जाता है, बेतिया से इनकी टिकट पक्की थी। लेकिन यह भी सच है कि राजनीति में कुछ भी पक्का नहीं होता और यहां कोई किसी का सगा नहीं होता। प्रकाश झा वही हैं, जिन्होंने पिछली दफा लोकसभा चुनाव में निर्दलीय चुनाव लड़कर 25,700 मतों से अपनी जमानत जप्त कराई थी। वे अपने एनजीओ और जमीन संबंधी विवादों को लेकर चर्चा में रहे हैं। सर, बेतिया के लोगों का तो साफ मानना है कि वे एक नंबर का पैसा बनाएं हैं या दो नम्बर का, यदि उस कमाई का एक हिस्सा वे जिला के विकास पर खर्च कर रहे हैं तो भले आदमी हैं। पहली बार जब वे चुनाव लड़े थे तो बिल्कुल नौसिखुए थे। इस बार बेतिया के मुस्लिम बस्ती मंशा टोला के एक मस्जिद से जब उन्होंने चुनाव प्रचार का शंखनाद किया तो इस बात में कोई संदेह नहीं रहा कि अब वे भी राजनीति के दांव-पेंच अर्थात् वोट बैंक पॉलिटिक्स समझ गए हैं।
संजय जायसवाल बेतिया से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार हैं। संजय पार्टी प्रत्याशी कैसे बन गए, यह तो अरुणजी जेटली के भी लिए संशय का विषय है। राजनाथजी ने सोचा होगा कि हाल ही में पिताजी (स्व. मदन प्रसाद जायसवाल) की मृत्यु हुई है, सहानुभूति के वोट के सहारे संजय वैतरणी पार कर जाएंगे। लेकिन बेतिया की जनता बहूत कन्फ्यूजन में है। यह संजय भाजपा उम्मीदवार है या लालटेन का। हो सकता है संजय के बहुत से चाहने वाले बैलेट पर उन्हें लालटेन में तलाशें। और वहां लालटेन ना मिलने पर निराश होकर लौट आएं। ज्यादा मुश्किल उन भाजपाइयों के लिए भी है, जिन्होंने पार्टी छोड़कर जानेपर जायसवाल परिवार को पानी पी-पी कर कोसा है। संजय के पिता डा. मदन प्रसाद जायसवाल को भाजपा उम्मीदवार के तौर पर बेतिया की जनता ने सिर आंखों पर रखा, उस दौर में जब राज्य में राजद का बोलबाला था। विधानसभा में ‘इन्हीं ंसंजय’ को टिकट ना मिलने की वजह से ‘इन्हीं संजय’ के दबाव में आकर पिता ने राजद का दामन थामा था। और आज भाजपा ‘इन्हीं संजय’ को अपना उम्मीदवार बना रही है। इस फैसले से बिहार में पार्टी कितनी लाचार है, यही बात साबित होती है।इन तीन बड़े उम्मीदवारों के बाद कुल जमा बचे दो ‘टक्कर’ में शामिल उम्मीदवार। एक गुप्ता फोटो स्टेट वाले शंभू प्रसाद गुप्ता। जो बहुजन समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार हैं। दूसरे हैं सीपीएम की तरफ से चुनाव लड़ रहे सुगौली विधानसभा क्षेत्र से पांच बार विधायक रहे रामाश्रय प्रसाद सिंह। यह उम्मीदवार द्वय चुनाव जीतने के लिए चुनाव लड़ ही नहीं रहे हैं। जमानत बचाने के लिए मैदान में है। यदि इन दोनों ने अपनी जमानत बचा ली, यही उनकी सबसे बड़ी जीत होगी। जय हो!!!"
शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009
लोहिया जी- ना बाबा ना- तो पहचान कौन???
बिहार के सुपौल में इस प्रतिमा से साक्षात्कार हुआ. यह प्रतिमा देखने में साधारण प्रतिमाओ की तरह ही थी. इसकी तरफ ध्यान आकर्षित हो ऐसी कोई बात नहीं थी इसमें सिवाय एक बात के. वह यह कि
यह राममनोहर जी लोहिया की प्रतिमा है और इसका अनावरण महान समाजवादी नेता श्री मुलायम सिंह यादव के हाथों हुआ. भाई साहब इस मूर्ति को देखने के बाद अपन तो नहीं पहचान पाय लोहिया जी को. अब अनावरण करते वक्त मुलायम जी ने कैसे पहचाना अपने अराध्य को. यह तो वही ज्यादा बेहतर बता सकते हैं. वैसे आपलोगों का क्या ख्याल है. इस प्रतिमा पर.
गुरुवार, 2 अप्रैल 2009
मॉडल -ए- बिहार (माल्या जी तनिक देखिए ना...)
इस तस्वीर में दिख रहे यह सभी मॉडल बिहार के बाढ़ग्रस्त सहरसा जिले के महपूरा गाँव के रहने वाले हैं. ये सभी मॉडल मिलिंद सोमन या बिपाशा से कम नहीं है. इनके साथ गलत सिर्फ इतना हुआ कि इन पर किसी अलिक पद्मसी या इब्राहम अलका जी की नजर नहीं पड़ी. यदि अपने किंगफिशर वाले विजय जी माल्या ही इन बच्चों के देख लेते तो अपने वार्षिक कैलेंडर के लिए मॉडल तलाशने उन्हें देश-विदेश नहीं जाना पड़ता. और यदि अनुराग कश्यप की नजर इन पर पड़ जाती तो विश्वास मानिए पटना एक नाम से किसी फिल्म की घोषणा वे कर देते. और उसमें प्रसून जोशी का गेंदा फूल के माफिक धतूरे के फूल पर एक बिंदास गीत होता.
बुधवार, 1 अप्रैल 2009
ए भौजी के सिस्टर
हाल में ही बिहार यात्रा के दौरान जगह-जगह अर्थात कई जगह इस फिल्म का पोस्टर देखने को मिला. नाम आकर्षक था. बस्स फिर क्या फोटो उडा लाए आप लोगन के वास्ते. पुणे में लोकसत्ता में कार्यरत अभिजीत घोडपडे के साथ फिल्म देखने का इरादा भी बना था, लेकिन वहां कार्यक्रम की व्यस्तता की वजह से यह भोजपुरी फिल्म देखने से रह गए. भोजपुरी फिल्मों के सम्बन्ध में मेरे समझने में मुन्ना (पांडे) की समझ अच्छी है. कभी मुलाक़ात हुई तो उसी से फिल्म की कहानी जान लेंगे. बहरहाल 'ए भौजी के सिस्टर' का अर्थ हुआ 'दीदी तेरा देवर' का अपोजीट.
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