सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

Open letter to asian human right commission, Hong Kong (China)

my formal complaint against Mr Avinash Pandey alias Samar Anarya

This may be considered as my formal complaint against Mr Avinash Pandey alias Samar Anarya  who works for  Asian Human Rights Commission Hong Kong (China) and is involved in various frivolous activities on social media, notably on the Facebook. I understand that AHRC is an international organization, renowned for its work for human dignity and freedom. However, contrary to prestige and the popular image of AHRC, your staff, Mr Avinash Pandey alias Samar Anarya  has been carrying out, for long, an unseemly and vindictive campaign against me in a manner which is highly unbecoming of the staff of an organization like AHRC. Such conduct not only gives a bad impression of the individual but also tarnishes the reputation built over years by your organization. The foul language used by him, to further his views, is mostly laced with expletives, which speaks volume about him and his conduct in public space. Such an act, which is highly undignified, provides a rather dim view of a reputed organization like AHRC. I surely believe that AHRC does not subscribe to his views and use of foul language, especially in public and social media. I appreciate that an organization like AHRC works in difficult and challenging situations and inappropriate conduct by one of your staff could hamper your work to improve the cause of human rights in different parts of the world. I thought it to bring to your attention the activities of your staff so that you may take suitable steps to protect the reputation of your organization. Thanking you.

Yours sincerely,
Ashish Kr. Anshu
New Delhi (India)

बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

राजेन्द्र यादव की स्वीकारोक्ति और स्त्रीवादी प्रतिबद्धता के सवाल ! संजीव चन्दन

राजेन्द्र यादव को हिन्दी साहित्य अपनी स्पष्ट बयानी के लिए ही जानता है। वे अपने समग्र चिन्तन में ‘हिप्पोक्रेट’ नहीं दिखे। इसलिए श्री यादव के फेसबुक पर साया हुए इस बयान को हमें गंभीरता से लेना चाहिए- ‘बहुत ही अफ़सोस है मुझे कि वेब की दुनिया में मेरे और ज्योति कुमारी के संबंध को लेकर एक से एक कयास लगाये जा रहे है. मैंने हमेशा ज्योति कुमारी को अपनी बेटी की तरह माना है। इस सम्बन्ध में कुछ लोग गैर जिम्मेदाराना टिप्पणी कर रहे है। मै उनकी भर्त्सना करता हूँ। लोगों को सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने के लिये ऐसी वैसी बात करने से परहेज़ करना चाहिये।’’ अब तक के जीवन में श्री यादव अपनी बेबाकी के लिए ही जाने जाते हैं। इसलिए यदि ज्योति और राजेन्द्र यादव के रिश्ते के संबंध जो बाते कही जा रहीं है, वह सच होती तो निश्चित तौर पर राजेन्द्र यादव उसे स्वीकार करते। वैसे ज्योति के मामले में उनकी अब तक की चुप्पी जरूर उन के लिए गंभीर सवाल खड़े करती है। उम्मीद है कि नवम्बर, हंस के संपादकीय में यह चुप्पी टूटेगी। फिलहाल जैसाकि संजीव चंदन के आलेख से जानकारी मिलती है कि कुछ लोग इस मामले में पैसों की बात कर रहे हैं। उन्हें याद रखना चाहिए, पैसों की बात करके वे ना ज्योति का भला कर रहे हैं और ना राजेन्द्र यादव का क्योंकि ज्योति इस मामले में पीड़िता के साथ-साथ एक गवाह भी है। गवाह को पैसे देने की बात करना भारतीय कानून में अपराध माना जाता है। इसलिए इस तरह की बात जो कर रहे हैं, उन्हें बात करनी चाहिए लेकिन बात करने से पहले इस संबंध में पुख्ता जानकारी जरूर जुटा लेनी चाहिए। माने थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए।  यहां प्रस्तुत है संजीव चंदन का आलेखः मॉडरेटर 

ज्योति कुमारी के प्रकरण पर मेरा मत , जो है सो है , और वह फेसबुक पर मैं जाहिर भी कर चुका हूँ . राजेंद्र जी को माफी मांग लेनी चाहिए थी , चुप्पी तोड़नी चाहिए थी , और यदि दोषी उनकी नज़रों में ज्योति हैं , तो प्रमोद के साथ उन्हें खड़ा होना चाहिए . आख़िरकार घटना स्थल राजेन्द्र जी का घर है . लेकिन ज्योति आपको भी सावधान रहना चाहिए . आपके साथ जो लोग दिख रहे हैं , वे क्या चाहते हैं , इस प्रकरण में , उनकी भूम
िका कितनी स्त्रीवादी है ! किसी शख्स का मुझे इस प्रकरण में बार –बार फोन आ रहा था , मैंने उनसे कहा कि राजेंद्र जी अपने सम्पादकीय में ज्योति से माफी मांगने वाले हैं तो उन्होंने , जो आपकी चिंता में दुहरे हुए जा रहे थे , कहा कि ‘पैसों की लें –देन हुई है , इस ,माफीनामें में .’ मुझे खीझ हुई और मैंने कहा कि फिर हम जैसे लोगों को एक शब्द भी क्यों जाया करना चाहिए इस प्रकरण में .

राजेन्द्र जी आपके न बोलने से आपका जो होगा सो होगा , लेकिन ज्यादा नुकसान आपके द्वारा किये गए साहित्यिक –सामाजिक –सांस्कृतिक हस्तक्षेप को है , जो वंचितों के पक्ष में था . फिलहाल मैं मन्नू जी के प्रसंग से लिखे गए अपने एक आलेख को यहाँ लगा रहा हूँ , मित्रों के लिए , प्रभात वार्ता में छपा था यह .
इसी आलेख से ..........
एक लेखिका –अभिनेत्री ने , जो साहित्य जगत की लम्पटता से परेशान रही हैं , मुझ से कभी कहा था कि हिंदी साहित्य के जिन लोगों से वह मिली उनमें से उसे दो ही पुरुष 'कुंठा रहित ' दिखे , राजेन्द्र यादव और उदय प्रकाश. वहीँ पत्नी के साथ अपने निजी व्यवहार में 'घोर पुरुष' के रूप में रहा है, ऐसा हिंदी का हर पाठक मन्नू जी के आत्मकथ्यों से जानता समझता रहा है.सामजिक तौर पर राजेंद्र जी 'मन्नू भंडारी ' को भाजपाई मानसिकता का घोषित करते हुए अपने सरोकारों का एक बरख्स भी खड़ा करते हैं, और मन्नू जी हर बार लगभग ख़ामोशी से 'नीलकंठ ' हो जाती हैं. राजेंद्र जी के व्यक्तित्व में यही 'द्वैध' है और इसी कि स्वीकारोक्ति है कि वे ‘मन्नू’ को संबंधों में अपने जैसे प्रयोगों के लिए माफ़ नहीं करते.



राजेन्द्र यादव युवा पीढ़ी के हम जैसे लोगों को इसी लिए आकर्षित करते हैं कि वे अपनी बात बड़े बेबाकी से कहते हैं, कहे पर बने भी रहते हैं, अपनी आलोचनाएं सुनते हैं.वे हिंदी साहित्य के उन बहुत कम व्यक्तित्वों में से हैं, जो अपनी सरोकारी और वैचारिक प्रतिबद्धता बनाये रखते हैं, राजेंद्र जी को तो इसके लिए कई लानते -मलानते भी झेलनी पडी हैं. राजेन्द्र यादव से आपकी कई असहमतियां हो सकती हैं, असहमतियों के लिए वे स्पेस भी देते हैं, कई बार तो वे विवादों को छेड़ते हैं, असहमत होने के अवसर पैदा करते हैं, और आप यदि उनके हंस के दफ्तर में जाकर उनसे असहमतियां दर्ज कराते हैं, उनकी आलोचना करते हैं तो वे बड़ी संजीदगी से सुनते हैं, जरूरत पड़ने पर ठहाकों से उन असहमतियों पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करा देते हैं, आप उन ठहाकों पर चिढ सकते हैं.
बहरहाल उनसे मिलने जाने के पहले साहित्य के नवागंतुकों को दिल से मजबूत होना पड़ेगा. पहली बार मैं उनसे मिलने 1998-1999 में कभी उनके दरियागंज स्थित कार्यालय गया था. यह जानकार कि मैं गया से आया हूँ, उन्होंने मुझसे पूछा कि संजय सहाय भी तो गया से ही हैं न , उनसे मिलते हैं? फिर कहा कि नीलिमा सिन्हा भी तो गया से ही है. पता नहीं क्यों फिर उन्होंने पूछा कि ' क्या यह सही है कि संजय सहाय की कहानियां शैवाल लिखते हैं ?' मुझे याद नहीं कि मैंने तब क्या जवाब दिया होगा लेकिन 'साहित्यिक अंडरवर्ल्ड' के नव शिखुओं के लिए यह मारक सवाल था . वह भी साहित्य के घोषित डान के द्वारा. संजय जी और राजेन्द्र जी के सम्बन्ध जगजाहिर थे तब तक. खैर इस सवाल के साथ उनका ठहाका !संजय जी की कहानियां मैंने बाद में पढ़ी, और संजय जी को जाना भी, शैवाल को तब तक पढ़ चुका था. आज मैं दावे के साथ दोनों रचनाकार की रचनाओं की शैली और कथ्य के अंतर बता सकता हूँ, लेकिन कसबे से आने वाले 21-22 साल के युवक से यह जानलेवा सवाल राजेंद्र जी ही कर सकते थे. खैर चाय पीकर , कुछ बातें कर मै विदा हुआ.
उसके बाद पिछले 14 सालों में मैं उनसे 7-8 बार जरूर मिला हूँ, लेकिन कभी पहचान नहीं बन पाई . अभी हाल की मुलाकात हंस कार्यालय में रामजी यादव के साथ हुई , इस बार भी मुझे परिचय देना पड़ा. हालांकि 2011 के पहले 2008 में मैं राजेंद्र जी को अर्जुन सिंह के यहाँ एक डेलिगेशन में ले जाने के लिए हंस कार्यालय गया था और इन्साफ के द्वारा मुहैय्या कराइ गई अपनी गाडी में लेकर मैं अर्जुन सिंह के घर उन्हें ले गया, जहाँ रामशरण जोशी, मनेजर पांडे, और जे .एन यू के कुछ प्राध्यापक वहां पहले से पहुँच चुके थे. यह डेलिगेशन मेरे अनुरोध पर हिंदी विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में मंत्री से मुलाकात करने पहुंचा था. राजेंद्र जी जोशी जी के बुलावे पर आये थे.
इन 14 सालों में मैं दो बार अपनी कहानी लेकर उनसे मिला , हर रचनाकार की तरह कहानी लिखने के बाद उसे पहले हंस में छपवाने की मेरी भी आकांक्षा थी, कभी हंस में कहानी नहीं छपी, वे दोनों कहानियां क्रमशः कथादेश और संवेद में छपी .एक बार मैं जब हंस कार्यालय पहुंचा तब वहां गिरिराज किशोर बैठे थे . मैं संभवतः 'स्त्रीकाल ' की प्रति लेकर गया था, उसमें राजेन्द्र जी का असीमा भट्ट के द्वारा लिया गया साक्षात्कार छपा था. गिरिराज किशोर, राजेन्द्र जी को 'आवरण से बाहर आने की नसीहत दे रहे थे. राजेंद्र जी इत्मीनान से अपनी आलोचना सुन रहे थे.विषय था ' विष्णुकांत शास्त्री का निधन और राजेंद्र जी जैसे उनके मित्रों का शास्त्री जी से न मिलने जाना और राजेन्द्र जी मृत्यु स्वाभाविक है के भाव में थे , हालांकि मुझे लगा था कि मृत्यु के प्रति राजेंद्र जी संजीदा हो रहे थे, ऐसा न भी हो सकता है, मैं ऐसा समझ रहा होऊंगा और राजेंद्र जी यथावत खिलंदर अंदाज में होंगे. हालांकि गिरिराज किशोर की आलोचना वे बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे, बीच -बीच में शिरकत करते हुए. इसके बाद मैं कुछ और दफा हंस कार्यालय गया और हर बार कोई आलोचक उन पर हर्वे -हथियार के साथ पिला हुआ मिलता और राजेन्द्र जी आलोचना में मग्न होते, निर्लिप्त भी..कभी अर्चना वर्मा तो कभी मदन कश्यप, कभी कोइ और .....
समाज और हिंदी साहित्य में असहिष्णुता के परिवेश में राजेंद्र जी का यह व्यकतित्व उन्हें अलहदा बनाता है और अपने इस अल्हदापन को बनाये रखने के लिए वे अपनी ओर से प्रयास भी करते रहते हैं, विवाद पैदा कर, विवादों को हवा देकर . व्यक्तिव के इन्हीं द्वैधों के बीच राजेन्द्र यादव का व्यक्तित्व बनता है. जहाँ हंस के प्लेटफोर्म पर वे जिद्द की हद तक अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता बनाये रखते हैं, और इसी निरंतरता के साथ हिंदी साहित्य में स्त्री और दलित विमर्श को स्थापित करते हैं. वहीँ मन्नू भंडारी के मामले में वे निपट अहमन्य पुरुष हो जाते हैं और मैत्रयी के साथ अपनी मित्रता को दावं पर लगाकर भी लेखिकाओं को गाली देने वाले शख्स को ' क्या उसकी रोजी रोटी छिनोगी ' के ओछे तर्क के साथ अपनी भूमिका तय करते हैं. राजेन्द्र जी का यह द्वैध स्त्रीवादियों के लिए एक पाठ भी है- पितृसत्ता की गहरी पैठ का पाठ.

अपने हालिया साक्षात्कार में राजेंद्र जी ने कहा कि यदि उनकी ही तरह मन्नू जी ने भी संबंधों के मामले में स्वच्छंद जीवन जिया होता तो उन्होंने मन्नू को माफ़ नहीं किया होता. स्त्री-दलित मुद्दों के प्रति प्रतिबद्धता के साथ स्त्री और दलित विमर्श को हिंदी साहित्य के केंद्र में लेने वाले राजेंद्र जी की यह स्वीकारोक्ति उनके कई प्रशंसकों को चोट पहुंचा सकती है, या उनके आलोचक उन पर हमलावार हो सकते हैं. 'पर्सनल इज पोलिटिकल' के आधार से स्त्रीवादी चिन्तक राजेन्द्र जी को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं. इस सब से बेफिक्र राजेन्द्र जी ने यह बयांन किया है.
राजेन्द्र जी की यही खासियत है. वे चाहते तो एक हिप्पोक्रेट की तरह यह भी कह सकते थे कि 'उन्हें अपनी पत्नी के ऐसे रिश्तों से बहुत फर्क नहीं पड़ता क्योंकि संबंधो के मामले में जैसा पुरुष और स्त्री दोनों के आचरणों के अलग-अलग मानदंड नहीं हो सकते ,' आखिर राजेंद्र जी अपने समग्र चिंतन में स्त्री की 'दैहिक स्वतंत्रता' की ही तो बात करते हैं, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें मन्नू जी के विवाहेत्तर रिश्तों से ऐतराज होता और वे उन्हें कभी माफ़ नहीं कर पाते. राजेंद्र जी का यह वक्तव्य 'पितृसत्तात्मक समाज ' में अनुकूलित पुरुष का वक्तव्य है, जो स्त्रीवादी होने की प्रक्रिया में तो है लेकिन अपनी संरचना से मुक्त नहीं हो पाया है . यह एक मानसिक द्वैध की स्वीकारोक्ति है- दरअसल यह स्त्रीवाद के लिए एक पाठ भी है, खासकर उस व्यक्ति, साहित्यकार और सम्पादक की स्वीकारोक्ति होने के परिपेक्ष्य मे, जिसने सिद्दत के साथ और बड़ी इमानदारी से अपनी स्त्री और दलित प्रतिबद्धताएं, बनाये रखी है.
एक लेखिका –अभिनेत्री ने , जो साहित्य जगत की लम्पटता से परेशान रही हैं , मुझ से कभी कहा था कि हिंदी साहित्य के जिन लोगों से वह मिली उनमें से उसे दो ही पुरुष 'कुंठा रहित ' दिखे , राजेन्द्र यादव और उदय प्रकाश. वहीँ पत्नी के साथ अपने निजी व्यवहार में 'घोर पुरुष' के रूप में रहा है, ऐसा हिंदी का हर पाठक मन्नू जी के आत्मकथ्यों से जानता समझता रहा है.सामजिक तौर पर राजेंद्र जी 'मन्नू भंडारी ' को भाजपाई मानसिकता का घोषित करते हुए अपने सरोकारों का एक बरख्स भी खड़ा करते हैं, और मन्नू जी हर बार लगभग ख़ामोशी से 'नीलकंठ ' हो जाती हैं. राजेंद्र जी के व्यक्तित्व में यही 'द्वैध' है और इसी कि स्वीकारोक्ति है कि वे ‘मन्नू’ को संबंधों में अपने जैसे प्रयोगों के लिए माफ़ नहीं करते.

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

‘मूकदर्शक बने रहे राजेन्द्र यादव’: ज्योति कुमारी (भागः दो)


जैसा कि इस श्रृंखला के पहले अंक में लिखा गया था कि यह कहानी अधूरी है, जब तक राजेन्द्र यादव का पक्ष इसके साथ नहीं जुड़ जाता। इस संबंध में बतकही की तरफ से राजेन्द्र यादव से उनका पक्ष को जानने के उद्देश्य से फोन किया गया था, श्री यादव के अनुसार- इस संबध में उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं है। राजेन्द्रजी का पक्ष अभी भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। यदि उनका पक्ष नहीं आता तो ज्योति के बयान पर उनका यह मौन, ‘सहमति’ माने जाने का भ्रम उत्पन्न करेगा। वैसे राजेन्द्र यादव के शुभचिन्तक कह रहे हैं कि राजेन्द्र यादव ब्लॉग को गंभीर माध्यम नहीं मानते, यदि उन्हें जवाब देना होगा तो हंस के नवम्बर अंक में अपने संपादकीय के माध्यम से दंेगे। वास्तव में हमारे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उनका पक्ष कहां आता है, किसके माध्यम से हम सबके बीच आता है। महत्वपूर्ण यह है कि उनका पक्ष सबके सामने आए। बहरहाल आशीष कुमार ‘अंशु’ से ज्योति कुमारी की बातचीत का दूसरा भाग यहां प्रकाशित कर रहे हैं। इस बातचीत को साक्षात्कार या रिपोर्ट कहने से अच्छा होगा कि हम बयान कहें। चूंकि पूरी बातचीत एक पक्षीय और घटना केन्द्रित है। यहां गौरतलब है कि दूसरा पक्ष जो राजेन्द्र यादव का है, उन्होंने इस विषय पर बातचीत से इंकार कर दिया है। फिर भी उनका पक्ष उनकी सहमति  से कोई रखना चाहे  तो स्वागत है। यदि राजेन्द्र यादव स्वयं अपनी बात रखें तो इससे बेहतर क्या होगा? :

इन सारी घटनाओं के दौरान जब मैं थाने में बैठी थी। मेरे मित्र मज्कूर आलम के पास फोन किया जा रहा था। मज्कूर आलम उस दिन अपने घर बक्सर (बिहार) में थे। उन्हें फोन पर बताया जा रहा था- ‘ज्योति थाने में है। यह अच्छा नहीं है। उसे वापस बुला लीजिए।’
मैने सुना थाने में  कई लोगों से कह कर फोन कराया गया। दबाव बनाने के लिए। यदि यह बात सच है तो दिल्ली पुलिस की सराहना की जानी चाहिए कि वे किसी के दबाव में नहीं आए।
 मैं अकेली रात एक बजे तक थाने में बैठी रही। इस बीच मेरा एमएलसी (मेडिकल लीगल केस) कराया गया। मैं वहां देर रात तक इसलिए बैठी रही क्योंकि मैंने तय कर लिया था, जब तक मेरा एफआईआर (फर्स्ट इन्फॉरमेशन रिपोर्ट) नहीं हो जाता, मैं वहां से हिलूंगी नहीं। मेरे एमएलसी में आ गया कि चोट है। ईएनटी में दिखलाया, वहां कान के चोट की भी पुष्टी हो गई। एक बजे रात में एक लेडी कांस्टेबल मुझे घर तक छोड़ कर गई।
मुझे जानकारी मिली कि मेरे घर आने के थोड़ी देर बाद ही प्रमोद को छोड़ दिया गया। उसके बाद दो महीने तक केाई कार्यवायी नहीं हुई। मै अपने कान के दर्द से परेशान थी। मुझे चोट लगी थी। दो महीने तक पुलिस की तरफ से कोई कार्यवायी नहीं हुई। पुलिस की जांच पड़ताल चल रही होगी, यह अलग बात है। उन्होंने दो महीने तक एक जुलाई की घटना के लिए सीआरपीसी की धारा 164 में मेरा बयान भी  नहीं कराया।
घटना के अगले दिन दो जुलाई को राजेन्द्र यादव का फोन आया मेरे पास। उन्होंने कहा -‘क्या मिल गया, पुलिस में बयान दर्ज कराके। लड़का छुट गया। लड़का घर आ गया।’
मैने जवाब दिया- ‘क्या हो गया यदि प्रमोद छुट कर आ गया। मैंने वही किया जो मुझे करना चाहिए।’
फिर राजेन्द्र यादव ने कहा- ‘अच्छा ऐसा कर शाम छह बजे मेरे घर आ जा।’
मैंने जवाब में कहा- ‘अब मैं आपके घर कभी नहीं आने वाली।’
राजेन्द्र यादव- ‘कभी नहीं आना, आज आ जा।’
ज्योतिः ‘क्यों आज ऐसा क्या खास है कि मुझे इतना कुछ हो जाने के बाद भी आपके घर आ जाना चाहिए।’
राजेन्द्र यादवः ‘मैने पुलिस वाले को कह दिया है, वकील को भी बुला लिया है। तू भी आ जा। प्रमोद भी रहेगा। वह तुझे सॉरी बोल देगा। बात खत्म हो जाएगी।’
ज्योतिः ‘उसे पब्लिकली सॉरी बोलना होगा। उसने इतनी बूरी हरकत की है मेरे साथ। तब मैं माफ करूंगी। मुझे लगता है कि जिसे वास्तव में महसूस होगा कि उसने गलती की है, वह सार्वजनिक तौर पर माफी मांगेगा। जब कोई महसूस करता है, अपनी गलती तो उसे सार्वजनिक तौर पर गलती की माफी मांगनी चाहिए। यदि वह सार्वजनिक तौर पर माफी मांगेगा तो उसे सुधरने और अच्छा बनने का एक मौका दिया जा सकता है। उस माफी के बाद भी उसकी हरकतें नहीं बदलती तो उस पर फिर कार्यवायी होनी चाहिए लेकिन प्रमोद को एक मौका मिलना चाहिए, इस बात के मैं हक में हूं।’
राजेन्द्र यादवः ‘फिर ऐसा कर, सोनिया गांधी को बुला ले, मनमोहन सिंह को बुला ले, ओबामा को बुला ले। रामलीला मैदान में माफी मांगने का सार्वजनिक कायक्रम रख लेते हैं।’
ज्योतिः ‘आपको जो भी लगे लेकिन जब तक वह सार्वजनिक तौर पर माफी नहीं मांग लेता, मैं माफ नहीं करूंगी।’
जब मेरी और राजेन्द्र यादव की फोन पर यह बात हो रही थी, मीडिया और साहित्य में बहुत से लोगों को इस घटना की जानकारी हो चुकी थी। बहुत से लोगों के फोन आने लगे थे।
एक दिन पहले यानि एक जुलाई को जिस दिन दुर्घटना हुईं, जब मैं पुलिस के आने का इंतजार कर रही थी, उसी वक्त साहित्यिक पत्रिका पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज राजेन्द्र यादव के घर आए थे। प्रेम भारद्वाज जब भी पाखी का नया अंक आता है, उसे देने के लिए वे स्वयं हर महीने राजेन्द्र यादव के घर आते हैं। उस दिन भी वे पाखी देने ही आए थे। जब प्रेम भारद्वाज वहां पहुंचे तो उन्होंने मेरी हालत देखी। राजेन्द्र यादव ने प्रेम भारद्वाज के हाथ से पाखी लेकर बोला- ‘ठीक है, ठीक है। अब जाओ।’
मैने कहा- ‘प्रेम भारद्वाज जाएं क्यों, उन्हें भी पता चलना चाहिए, आपके घर में क्या हुआ है?
प्रेम भारद्वाज ने पूछा - ‘क्या हुआ?’
राजेन्द्र यादव का जवाब था- ‘कुछ नहीं हुआ, तुम जाओ यहां से।’
प्रेम भारद्वाज के जाने के बाद पुलिस आई। पुलिस के आने का जिक्र मैं पहले कर चुकी हूं। राजेन्द्र यादव द्वारा दिया गया, शराब पीने का ऑफर जब दिल्ली पुलिस ने ठुकरा दिया और इस बात पर भी सहमत नहीं हुए कि किसी स्त्री पर हमला छोटी बात होती है तो राजेन्द्र यादव को लगा कि यह बात उनसे अब नहीं संभलेगी। उन्होंने किशन को कहा- ‘भारत भारद्वाज को फोन मिलाओ।’
जब तक भारत भारद्वाज आए, पुलिस दरवाजे तक आ चुकी थी। भारत भारद्वाज ने आते ही कहा- ‘मैं डीआईजी हूं आईबी डिपार्टमेन्ट में। आप पहले मुझसे बात कीजिए, उसके बाद प्रमोद को लेकर जाइएगा। ’
मैने वहीं पर कहा- ‘ये रिटायर हो चुके हैं।’
मैने देखा, प्रेम भारद्वाज गए नहीं थे। वे भारत भारद्वाज के साथ लौट आए थे। हो सकता है कि वे भारत भारद्वाज के पास पत्रिका देने गए हों और राजेन्द्र यादव का फोन आ गया हो।
भारत भारद्वाज ने फिर पूछा- ‘क्या हुआ?’
मैने पूरी कहानी उन्हें बताई, यह भी बताया कि घटना के बाद  मैने शिकायत की है और मेरी शिकायत पर पुलिस आई है।
भारत भारद्वाज फिर राजेन्द्र यादव के लिए, सलाह देने में व्यस्त हो गए। अनंत विजय को बुला लो, उसके एक भाई सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं। पुलिस ने भारत भारद्वाज से कहा- ‘सर आपको जो भी बात करनी है, थाने में आकर करिए।’
जब एक महिला के साथ बलात्कार होता है या फिर बलात्कार की कोशिश होती है। लड़की की इससे सिर्फ शरीर की क्षति नहीं होती। उसका मन भी टूटता है। हमले का मानसिक असर भी गहरा होता है। मेरे साथ जो हुआ, मैं उससे अभी तक बाहर निकल नहीं पाई हूं। यह अलग बात है कि मैं लड़ रही हूं। मैने हिम्मत नहीं हारी है। कानूनी रूप से जो कर सकती थी, कर रही हूं। लेकिन इस घटना का मेरे अंदर जो असर हुआ है, उसे सिर्फ मैं समझ सकती हूं। इस तरह के अपराध के लिए समझौता कभी नहीं हो सकता है। कोई ऐसे मामले में समझौता शब्द का इस्तेमाल करता है, इसका मतलब है कि वह लड़की के साथ अन्याय करता है। मैने इस अन्याय को भोगा है। इस तरह के मामले में समझौते की बात कहीं आनी नहीं चाहिए। मैं ना समझौते के लिए कभी तैयार थी, ना हूं और ना इस मामले में आने वाले समय में समझौता करूंगी। यह संभव है कि कोई गलती करता है और अंदर से इस बात को महसूस करता है और माफी मांगता है तो उसे माफ करके एक मौका दिया जा सकता है। समझौता और माफी देने में अंतर होता है। यदि मैं प्रमोद को माफ करने पर विचार कर रही हूं तो इसे समझौता बिल्कुल ना कहा जाए। यह शब्द एक पीड़ित लड़की के लिए अपमानजनक है। एक तो लड़की के साथ गलत हुआ है। लड़की ने उसे भुगता। उस पीड़ा के शारीरिक मानसिक असर से लड़की गुजरी। अब उस पीड़ा से जुझ रही लड़की से अपराधी को माफ करने के लिए कहा जा रहा है और उसे समझौता नाम दिया जा रहा है। यह ऐसा ही है जैसे किसी ने पीड़ा से गुजर रही लड़की को दो थप्पड़ और मार दिया हो। वही सारी घटनाएं फिर एक बार मेरे साथ दुहराई जा रही हों। इसलिए समझौता नहीं, प्रमोद के लिए माफी शब्द का इस्तेमाल होना चाहिए। यदि उसे अपनी गलती का एहसास है तो जरूर उसे एक मौका मिलना चाहिए।
अकेला प्रमोद इस गुनाह में शामिल है या फिर कुछ और लोग भी प्रमोद के पीछे इस गुनाह में शामिल हैं। इसका सही-सही जवाब राजेन्द्र यादव दे सकते हैं। मान लीजिए प्रमोद ने किसी के बहकाने पर यह सब किया। पैसा लेकर किया। लेकिन सच यह है कि मेरे साथ अपराध प्रमोद ने किया। मेरा अपराधी प्रमोद है। उसने ऐसा कदम क्यों उठाया? इसका जवाब प्रमोद दे सकता है।
सच्चाई है कि राजेन्द्र यादव ने मेरा वीडियो नहीं बनाया, मुझ पर शारीरिक हमला भी नहीं किया। फिर भी मैने हंस का बहिष्कार किया। इसके पीछे वजह यही है कि राजेन्द्र यादव स्त्री सम्मान की बात करते हैं लेकिन जब उनके सामने स्त्री सम्मान पर हमला हुआ तो वे चुप थे। प्रमोद को पहले दिन थाने से निकलवाने में राजेन्द्र यादव की अहम भूमिका रही। प्रमोद के खिलाफ एफआईआर ना हो, इसमें राजेन्द्र यादव की पूरी  भूमिका रही। वह नहीं रूकवा पाए, यह अलग बात है, लेकिन उन्होंने जोर पूरा लगा लिया था। पहले दिन जब प्रमोद थाने से छुट कर आया तो उनके घर में ही था। उनके घर में वह काम करता रहा। उसकी दूसरी बार दो महीने बाद  गिरफ्तारी उनके घर से ही हुई। यदि कोई लड़का आपके यहां काम करता हो तो यह बात समझ में आती है कि वह आपके नियंत्रण में ना हो और उसका अपराध आपकी जानकारी में ना हो। लेकिन जब राजेन्द्र यादव एक जुलाई की घटना के चश्मदीद हैं, सबकुछ उनकी आंखों के सामने घटा है, वे कम से कम प्रमोद से अपना रिश्ता खत्म कर सकते थे। प्रमोद उनके घर में रहा और काम करता रहा। इतना ही नहीं, उलट राजेन्द्र यादव मुझपर ही दबाव बनाते रहे कि समझौता कर लो। केस वापस ले लो। उनकी तरफ से कई लोगों के फोन आ रहे थे- ‘तुम्हारा साहित्यिक कॅरियर चौपट हो जाएगा। तुम साहित्य से बाहर हो जाओगी।’
मैं नहीं मानी।
राजेन्द्र यादव ने तरह-तरह के एसएमएस भी मेरे पास भेजे। वे साहित्यिक व्यक्ति हैं, इसलिए उनकी धमकी भी साहित्यिक भाषा में थी।
‘तुम जो कर रही हो, समझो इसमें सबसे अधिक नुक्सान किसका है?’
‘मूर्ख उसी डाल को काटता है, जिस पर बैठा होता है।’
‘तुम्हें आना तो मेरे पास ही पड़ेगा।’
यह सारे एसएमएस मेरे पास सुरक्षित हैं। 27 जुलाई को राजेन्द्र यादव का फोन आया- ‘प्रमोद माफी मांगने को तैयार है। लेकिन सार्वजनिक माफी से पहले, वहां कौन-कौन से लोग होंगे, यह तय करने के लिए हम लोग मिले। मिलकर बात करते हैं। वह मिलकर भी तुमसे माफी मांग लेगा और सार्वजनिक तौर पर भी माफी मांग लेगा। मिलने की जगह नोएडा (उत्तर प्रदेश), सेक्टर सोलह का मैक डोनाल्ड तय हुआ।
बात हुई थी माफी मांगने की लेकिन प्रमोद वहां भी मुझे धमकाने लगा। अपना केस वापस ले लो वर्ना मार के फेंक देंगे। लाश का भी पता नहीं चलेगा। किशन भी साथ दे रहा था। उस दिन मज्कूर आलम मेरे साथ थे। राजेन्द्र यादव उनके द्वारा सार्वजनिक माफी के लिए सुझाए जा रहे सारे नामों को एक-एक करके खारिज कर रहे थे। मानों घर से राजेन्द्र यादव प्रमोद के साथ सार्वजनिक माफी की बात सोचकर निकले हों और यहां आकर बदल गए हों। नामों को लेकर राजेन्द्र यादव की आपत्ति कायम थी। नहीं यह नहीं होगा। इसे क्यों बुलाएंगे। ऐसा करो कि वकील को बुला लेते हैं। बात खत्म करो।
उनका यह रूख देखकर मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा।
‘जब मैने स्पष्ट कर दिया है कि सार्वजनिक माफी से कम पर बात नहीं होगी और आपको यह स्वीकार्य नहीं है तो मिलने के लिए क्यों बुलाया?’
राजेन्द्र यादव का वहां बयान था- ‘अब मैं और तुम आमने-सामने हैं। अब प्रमोद से तुम्हारी लड़ाई नहीं है। यदि तुमने मेरी बात नहीं मानी तो अब तुम्हारी लड़ाई मुझसे है।’
इस घटना से पहले मैं राजेन्द्र यादव को ई मेल पर हंस और राजेन्द्र यादव के बहिष्कार की सूचना दे दी थी। उन्होंने हंस के अंक में मेरी कहानी की घोषणा की थी। मैने कहानी देने से मना कर दिया। मैं ऐसी पत्रिका को कहानी नहीं दे सकती, जिसका दोहरा चरित्र हो। मेरे ई मेल भेजे जाने के बाद भी उन्होंने मेरी समीक्षा छाप दी। (यह बातचीत हंस, अक्टूबर 2013 अंक आने से पहले हो चुकी थी, उस वक्त हंस में ‘समीक्षा’ के लिए राजेन्द्र यादव की माफी नहीं छपी थी) मैने जो ई मेल राजेन्द्र यादव को भेजा था, उसमें साफ शब्दों में लिख दिया था कि मेरा निर्णय समीक्षा पर भी लागू होता है। इसके बावजूद उन्होंने समीक्षा छाप दी। समीक्षा छापने के बाद उन्होंने मुझे सूचना भी नहीं दी। मेरी लेखकीय प्रति अब तक मेरे पास नहीं आई।
मेरे पास एक परिचित का फोन आया, तुमने हंस का बहिष्कार किया है और तुम्हारी समीक्षा हंस में छपी है। यह फोन आने के बाद  मैने राजेन्द्र यादव को फोन किया। उनकी पत्रिका 20-21 से पहले कभी प्रेस में नहीं जाती है लेकिन राजेन्द्र यादव ने कहा- इस बार पत्रिका 18 को ही प्रेस में चली गई। इसलिए समीक्षा रोक नहीं पाए। मैने कहा- आप अगले अंक में छाप दीजिएगा कि समीक्षा कैसे छप गई? जिससे पाठकों में भ्रम ना रहे। राजेन्द्र यादव ने उस वक्त कहा कि ठीक है। तीन दिनों बाद राजेन्द्र यादव का फोन आया- ‘समीक्षा छापने का निर्णय संजय सहाय का था, इसलिए वही बताएंगे कि क्या जाएगा?’
मैने राजेन्द्र यादव से कहा- ‘आप संजय सहाय से बात करके खबर करवा दीजिएगा।
उनकी तरफ से कोई फोन नहीं आया। मैंने फिर उन्हें ई मेल किया। आपने स्पष्टीकरण की बात कही थी, आप इस बार हंस में क्या छाप रहे हैं, आपका जवाब नहीं आया। इस ई मेल का जवाब नहीं आया तो मैने एक और ई मेल उन्हें लिखा। लेकिन उसका जवाब भी नहीं आया।
जब हंस का सितम्बर अंक हाथ में आया, उसमें राजेन्द्र यादव ने मेरे लिए अपमानजनक बातें लिखी थी। जो उन्हें लिखना था, ज्योति ने हंस का बहिष्कार किया है। वह कहीं नहीं लिखा। उन्होंने मना करने के बावजूद समीक्षा छापने की बात भी कहीं नहीं लिखी। जब तक मैं उनके पास काम कर रही थी, तब तक बहुत अच्छी थी। जब मैने उनके घर में हुए गलत हरकत का विरोध किया तो उन्होंने मेरा साथ नहीं दिया। जब मैने उनका और उनकी पत्रिका का बहिष्कार किया तब उनको याद आया कि मेरा काम दस हजार के लायक भी नहीं था। यदि मेरा काम अच्छा नहीं था तो मुझे हंस में अपने पास रखा क्यों था? निकाला क्यों नहीं? मैंने तो कभी उनसे चंदा नहीं मांगा। क्या राजेन्द्र यादव जबर्दस्ती चंदा बांटते हैं। यदि राजेन्द्र यादव जबर्दस्ती चंदा बांटते है तो फिर यह चंदा सिर्फ ज्योति को क्यों? यदि चंदा ही दे रहे थे तो फिर बदले में इतना काम क्यों लेते थे?

(यह ज्योति के बयान अंतिम भाग नहीं है......कहानी अभी बाकि है साथियो)

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

‘मूकदर्शक बने रहे राजेन्द्र यादव’: ज्योति कुमारी (भाग एक)


जुलाई 2013 में एक खबर आई थी कि राजेन्द्र यादव की प्रिय लेखिका ज्योति कुमारी ने ‘हंस’ का बहिष्कार किया है। सितम्बर के संपादकीय में ज्योति को लेकर श्री यादव का अनर्गल प्रलाप छपा। अक्टूबर संपादकीय में उन्होंने अपनी गलती के लिए युवा लेखिका से क्षमा मांग ली। राजेन्द्र यादव और हंस के बहिष्कार को लेकर आशीष कुमार ‘अंशु’ ने ज्योति कुमारी से लंबी बातचीत की। ज्योति ने विस्तार से पूरी कहानी बयान की। इस कहानी में यदि आने वाले समय में राजेन्द्र यादव का पक्ष शामिल होता है तो यह कहानी पूरी मानी जाएगी। यहां प्रस्तुत है, ज्योति का बयान, जैसा उन्होंने आशीष को बताया।  

‘हंस’ का बहिष्कार करना किसी भी नई लेखिका के लिए आसान फैसला नहीं होता। खास तौर पर जब मेरे लेखन की अभी शुरूआत है। इस बात से कोई इंकार नहीं है कि हंस में जब कहानी छपती है तो अच्छा रिस्पांस मिलता है। मेरी कहानियां ‘हंस’, ‘पाखी’, ‘परिकथा’, ‘नया ज्ञानोदय’ और अभी बहुवचन में छपी है लेकिन हंस में प्रकाशित किसी भी कहानी के लिए सबसे अधिक फोन, एसएमएस और चिट्ठियां मिली हैं। किसी भी लेखक को यह अच्छा लगता है। 
मैं पिछले दो सालों से राजेन्द्र यादव और हंस के लिए काम कर रहीं थी। मेरा वहां काम यादवजी जो बोले, उसे लिखने का था, हंस में अशुद्धियों को दुरुस्त करना और उसके संपादन से जुड़े काम को भी मैं देखती थी। जब ‘स्वस्थ्य आदमी के बीमार विचार’ पर काम शुरू किया, उसके थोड़ा पहले से मैं उनके पास जा रही थी। लगभग दो साल से मैं उनके पास जा रही हूं। इस काम के लिए वे मुझे दस हजार रूपए प्रत्येक महीने दे रहे थे। मैं मुफ्त में उनके लिए काम नहीं कर रही थी। सबकुछ ठीक था। यादवजी का स्नेह भी मिल रहा था। उस स्नेह में कहीं फेवर नहीं था। अपनी कहानियों के लिए कभी मैंने उन्हें नहीं कहा। मैं उन्हें लिखने के बाद कहानी दिखलाती थी और कहती थी कि यह यदि हंस में छपने लायक हो तो छापिए। मेरी पांच-छह कहानियां हंस में छपी। 
यदि किसी लेखिका की पहली कहानी छपना उसे किसी साहित्यिक पत्रिका का प्रोडक्ट बनाता है तो मुझे ‘परिकथा’ का प्रोडक्ट कहा जाना चाहिए। मेरी पहली कहानी ‘परिकथा’ में छपी है। मैं हंस की प्रोडक्ट नहीं हूं। यह सच है कि कथा संसार में मेरी पहचान हंस से बनी। ‘हंस’ मेरे लिए स्त्री विमर्श की पत्रिका रही है। ‘हंस’ से मैने स्त्री अधिकार और स्त्री सम्मान को जाना है। राजेन्द्र यादव जो अपने संपादकीय में लिखते रहे हैं और जो विभिन्न आयोजनों में बोलते रहे हैं। इन सबसे उनकी छवि मेरी नजर स्त्री विमर्श के पुरोधा की बनी। 
एक जुलाई 2013 को उनके घर में जो दुर्घटना हुई, उससे पहले उनसे मेरी कोई शिकायत नहीं थी। सबकुछ उससे पहले अच्छा चल रहा था। मैं उन्हें अपने अभिभावक के तौर पर पितातुल्य मानती रहीं हूं। मेरा उनसे इसके अलावा कोई दूसरा रिश्ता नहीं रहा। इसके अलावा केाई दूसरी बात करता है तो गलत बात कर रहा है। राजेन्द्र यादव मुझसे कहते थे- ‘तुझे देखकर मेेरे अंदर इतना वातशल्य उमरता है, जितना बेटी रचना के लिए भी नहीं उमरा। कभी मैं उन्हें कहती थी कि मुझे हंस छोड़ना है तो वे मुझे बिटिया रानी, गुड़िया रानी बोलकर, हंस ना छोड़ने के लिए मनाते थे। राजेन्द्र यादव हमेशा मेरे साथ पिता की तरह ही व्यवहार करते थे। 
जब से मैं उनके पास काम कर रहीं हूं, प्रत्येक सुबह 8ः00 बजे- 8ः30 बजे उनके फोन से ही मेरी निन्द खुलती थी। फोन उठाते ही वे कहते- अब उठ जा बिटिया रानी। मैं उनके घर 10ः30 बजे सुबह पहुंचती थी। वे रविवार को भी बुलाते थे। रविवार को उनके घर शाम तीन-साढे तीन बजे पहुंचती थी। 
राजेन्द्र यादव का मानना था कि वे हंस कार्यालय में एकाग्र नहीं हो पाते हैं। इसलिए वे संपादकीय लिखवाने के लिए घर ही बुलाते थे। जब मैंने राजेन्द्र यादव के साथ काम करना शुरू किया, उन दिनों राजेन्द्र यादव दफ्तर नहीं जाते थे। वे बीमार थे। तीन-चार महीने तक वे बिस्तर पर ही पड़े रहे। ‘स्वस्थ्य आदमी ......’ वाली किताब उन्होंने घर पर ही लिखवाई। उस दौरान वे हंस नहीं जा रहे थे। जब उन्होंने हंस जाना प्रारंभ किया, उसके बाद भी वे रचनात्मक लेखन घर पर ही करते थे। दफ्तर में वे चिट्ठियां लिखवाते थे। मेरी नौकरी उनके घर से शुरू हुई थी, इस तरह मेरा एक दफ्तर उनका घर भी था। 
30 जून 2013 की रात 10ः00-10ः15 बजे के आस-पास मेरे मोबाइल पर नए नंबर से फोन आया। नए नंबर के फोन इतनी रात को मैं उठाती नहीं। लेकिन एक नंबर से दो-तीन बार फोन आ जाए तो उठा लेती हूं।  जब दूसरी बार में मैंने नए नंबर वाला फोन उठाया तो दूसरी तरफ से आवाज आई- ‘मैं प्रमोद बोल रहा हूं।’ जब मैने पूछा -‘कौन प्रमोद?’ तो उसने राजेन्द्र यादव का नाम लिया। प्रमोद, राजेन्द्र यादव का अटेन्डेन्ट था। ‘हंस’ में मेरी राजेन्द्र यादव और संगम पांडेय से बात होती थी और किसी से कुछ खास बात नहीं होती थी। मैं बातचीत में थोड़ी संकोची हूं, यदि सामने वाला पहल ना करे तो मैं बात शुरू नहीं कर पाती। प्रमोद से मेरी बातचीत सिर्फ इतनी थी कि वह दफ्तर पहुंचने पर राजेन्द्र यादव के लिए और मेरे लिए एक गिलास पानी लाकर रखता था और पूछता था- ‘मैडम आप कैसी हैं?’ इससे अधिक मेरी प्रमोद से कोई बात हुई हो, मुझे याद नहीं।
उसका फोन आना मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। उसने फोन पर कहा- ‘मुझसे आकर मिलो। मैंने तुम्हारा वीडियो बना लिया है। उसे मैं इंटरनेट पर डालने जा रहा हूं।’
यह फोन मेरे लिए झटका था। कोई यदि वीडियो बनाने की बात कर रहा है तो निश्चित तौर पर यह किसी आम वीडियो की धमकी नहीं होगी। वह नेकेड वीडियो की बात कर रहा होगा। मैंने राजेन्द्र यादव को उसी वक्त फोन मिलाया। जब राजेन्द्र यादव से मेरी बात हो रही थी, उस दौरान भी प्रमोद का फोन वेटिंग पर आ रहा था। राजेन्द्र यादव को मैने फोन पर कहा- ‘प्रमोद नेकेड वीडियो की बात कर रहा है, आप देखिए क्या मामला है?’
राजेन्द्र यादव ने कहा- अब मेरे सोने का वक्त हो रहा है। सुबह बात करूंगा। उनसे बात खत्म हुई प्रमोद का फोन जो वेटिंग पर बार-बार आ ही रहा था। फिर आ गया- उसने फिर मुझे धमकाया। 
राजेन्द्र यादव जो दो साल से प्रतिदिन मुझे फोन करके उठाते थे। उस दिन उनका फोन नहीं आया। जब मैंने फोन किया तो उन्होंने कहा- ‘मैं आंख दिखलाने एम्स जा रहा हूं। तुमसे दोपहर में बात करता हूं। फिर राजेन्द्र यादव का फोन नहीं आया। फिर मैंने ही फोन किया, राजेन्द्र यादव ने फोन पर मुझे कहा- प्रमोद कह रहा है, वीडियो सुमित्रा के पास है और सुमित्रा कह रही है वीडियो प्रमोद के पास है। पता नहीं चल पा रहा कि वीडियो किसके पास है। ऐसा करो, इस मसले को अभी रहने दो। इस पर बात 31 जुलाई वाले कार्यक्रम के बीत जाने के बाद बात करेंगे। मुझे यह बात बुरी लगी। मैंने कहा- ‘आज एक जुलाई है। 31 जुलाई में अभी तीस दिन है। इस बीच प्रमोद ने कुछ अपलोड कर दिया तो फिर मेरी बदनामी होगी। आप भारतीय समाज को जानते हैं। मैं कहीं की नहीं रहूंगी। मैंने कई बार राजेन्द्र यादव को फोन किया और एक बार प्रमोद को भी फोन किया- ‘आप सच बोल रहे हैं या कोई मजाक कर रहे हैं। क्या है उस वीडियो में?’
उसने ढंग से बात नहीं की। उसका जवाब था- ‘जब दुनिया देखेगी, तुम भी देख लेना।’ 
जब कई बार फोन करने के बाद भी राजेन्द्र यादव ने मेरी बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया फिर मैंने उन्हें फोन करके कहा कि मैं शाम में आपके घर आ रही हूं। यह छोटी बात नहीं है। आप प्रमोद से बात करिए। 
मेरे साथ जो दुर्घटना हुई, उसके बाद मैने लोगों से बातचीत बंद कर दी थी। अब जब फिर से बातचीत हो रही है तो यह सुनने में आ रहा है कि कुछ लोग कह रहे हैं- ज्योति अगर राजेन्द्र यादव के घर में कुछ गलत काम नहीं कर रही थी, राजेन्द्र यादव के साथ उसके नाजायज संबंध नहीं थे फिर वह वीडियो की बात से डरी क्यों? यहां स्पष्ट कर दूं कि यह वीडियो मेरा और राजेन्द्र यादव का होता तो मैं बिल्कुल नहीं डरती। ना मैं घबरातीं, वजह यह कि प्रमोद राजेन्द्र यादव के पास काम करता था, फिर क्या वह अपने मालिक का वीडियो अपलोड करता? अपलोड करता तो क्या सिर्फ ज्योति की बदनामी होती? क्या राजेन्द्र यादव की नहीं होती। राजेन्द्र यादव का कद बड़ा है। उनकी बदनामी भी बड़ी होती। यदि वे सेफ होते तो मैं भी सेफ होती लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। वे मुझे बेटी तुल्य मानते रहे थे। मेरे लिए वे पितातुल्य थे। इसका मतलब था कि यदि प्रमोद ने कोई वीडियो वास्तव में बनाया था तो वह मेरे अकेले की वीडियो होगी। मैं राजेन्द्र यादव के यहां काम करती थी तो उनका बाथरूम भी इस्तेमाल करती थी। राजेन्द्र यादव से मेरी घनिष्ठता हो ही गई थी। कई बार जब मेरे घर पानी नहीं आया होता तो राजेन्द्र यादव कहते थे- मेरे घर आ जाओ। डिक्टेशन ले लो और यहीें पर नहा लेना। उनके बाथरूम का कई बार मैने इस्तेमाल नहाने के लिए किया है। मेरा डर यही था, बाथरूम में नहाते हुए कैमरा छुपाकर मेरा नेकेड वीडियो प्रमोद, राजेन्द्र यादव के घर में बना सकता है। एक अकेली लड़की का नेकेड वीडियो जब इंटरनेट पर डाला जाता है तो बिल्कुल नहीं देखा जाता कि वह अकेली है या फिर किसी के साथ है। यदि लड़की वीडियों में नेकेड है तो उसकी बदनामी होनी है, उसकी परेशानी होनी है। इस बात से मैं डरी थी। यदि राजेन्द्र यादव के साथ कोई वीडियो होता फिर डर की कोई बात नहीं थी। यदि राजेन्द्र यादव सेफ हैं तो उनके साथ वाला भी सेफ है। 
वीडियो वाली बात से मैं काफी परेशान थी। परेशान होकर मैं राजेन्द्र यादव के घर पहुंची। एक जुलाई को 6ः30-6ः45 बजे शाम में। मैंने राजेन्द्र यादव से कहा- ‘सर आप मेरे सामने प्रमोद से बात करें कि वह क्या वीडियो है? वह दिखलाए।’
मैं राजेन्द्र यादव को सर ही कहती हूं। उनका जवाब था- ‘मैं प्रमोद को कुछ नहीं कहूंगा। उसे बुला देता हूं, तुम खुद ही उससे बात कर लो।’
यह बातचीत राजेन्द्र यादव के कमरे में हुई। वे उस वक्त शराब पी रहे थे। उनके सामने ही प्रमोद ने अपशब्दों का प्रयोग किया। यह मामला अभी न्यायालय में है। प्रमोद यह आलेख लिखे जाने तक जेल में है। इस पूरी घटना में दुखद पहलू यह है कि यह सब एक ऐसे आदमी की नजरों के सामने हुुआ जिसकी छवि देश में स्त्रियों के हक में खड़े व्यक्ति के तौर पर है। वह मुकदर्शक बनकर अपने कर्मचारी द्वारा एक स्त्री के लिए प्रयोग किए जा रहे अशालीन भाषा को सुनता रहा। वे उस वक्त भी शराब पीने में मशगूल थे, जब उनका कर्मचारी स्त्री के साथ अमर्यादित व्यवहार कर रहा था। इस पूरी घटना के दौरान राजेन्द्र यादव बीच में सिर्फ एक वाक्य प्रमोद को बोले- ‘यार कुछ है तो दिखा दे ना...’
मानों छुपन-छुपाई के खेल में चॉकलेट का डब्बा गुम हो गया हो। जबकि प्रमोद कई बार राजेन्द्र यादव के सामने धमका चुका था- वीडियो इंटरनेट पर अपलोड कर दूंगा। फिर भी वे चुप थे। मैं भी चुप हो जाती। कोई कदम नहीं उठाती लेकिन उसके बाद जो प्रमोद ने किया वह किसी भी स्त्री के लिए अपमानजनक था। मामला न्यायालय में है इसलिए उस संबंध में यहां नहीं बता रहीं हूं। मेरे साथ जो हुआ, उसके बाद मैं समझ गई थी कि मेरा अब यहां से बच कर निकलना नामूमकिन है। मैंने राजेन्द्र यादव के कमरे में रखे टेलीफोन से सौ नंबर मिलाया। उस वक्त राजेन्द्र यादव बोले- ‘यह क्या कर रही हो? फोन रख।’ तब तक दूसरी तरफ फोन उठ चुका था। मैंने फोन पर सारी बात बता दी। मेरे साथ क्या हुआ और मुझे मदद की जरूरत है। 
फोन रखने के बाद अब तक शांत पड़े राजेन्द्र यादव फिर बोले- ‘यह सब क्या कर रही हो? पुलिस के आने से क्या हो जाएगा? बेवजह बात ना बढ़ा।’
पुलिस को फोन मिलाने के बाद प्रमोद शांत हो गया था। राजेन्द्र यादव ने अब प्रमोद से कहा- ‘तू जा यहां से।’ उनकी आज्ञा मिलते ही प्रमोद आज्ञाकारी बच्चे की तरह चला गया। अब राजेन्द्र यादव ने मुझसे कहा- पुलिस को कुछ नहीं बताना है। मैंने कहा- ‘यह नहीं होगा सर। आपके सामने, आपके घर में इतनी बुरी हरकत हुई है मेरे साथ। आपसे मैं बार-बार फोन पर कहती रही कि आप प्रमोद से बात कीजिए लेकिन आपने वह भी नहीं किया। अब मैं पुलिस को सारी बात बताऊंगी।’
यदि मेरे मन में कोई चोर होता तो मैं वहां डर जाती। मेरे मन में कोई चोर नहीं था, इसलिए मैं डरी नहीं। मेरे अंदर सिर्फ इतनी बात थी कि मेरे साथ जो हुआ है, वह गलत हुआ है। इसलिए मैं पुलिस में शिकायत करूंगी। 
राजेन्द्र यादव लगातार मुझे समझाते रहे कि पुलिस में शिकायत करने से कुछ नहीं होगा। सौ नंबर पर उन्होंने रिडायल किया, शायद यह कन्फर्म करने के लिए कि उनके घर से पुलिस के पास फोन गया था या नहीं? जब उधर से कहा गया कि फोन आया था तो यादवजी ने कहा- ‘अब पुलिस को भेजने की जरूरत नहीं है। आपसी मारपीट थी। अब सुलझ गया सबकुछ।’ 
मैं वहीं बैठी थी। मैने दुबारा फोन मिलाया कि पुलिस अभी तक नहीं आई? दूसरी तरफ से मुझसे सवाल पूछा गया- ‘मैडम आप इतनी सुरक्षित तो हैं ना, जितनी देर में पुलिस आप तक पहुंच सके?’
मैंने कहा- सुरक्षित हूं। प्रमोद बाहर बैठा है और राजेन्द्र यादव फोन पर किसी से बात कर रहे हैं। 
पुलिस आई। उन्होंने प्रमोद को थाने ले जाने के लिए पकड़ा। साथ में मुझे भी बयान के लिए ले जा रहे थे। राजेन्द्र यादव ने पुलिस वाले से कहा- ‘क्या इतनी छोटी सी बात के लिए ले जा रहे हो? बैठो यहां। स्कॉच लोगे या व्हीस्की? मेरे पास 21 साल पुरानी शराब है। एक से एक अच्छी शराब है। कहो क्या लोगे?’
लेकिन पुलिस वाले ने कहा- ‘सर लड़की के साथ ऐसा हुआ है। यह छोटी बात नहीं है।’
मेरा कुर्ता खींच-तान में फट गया था। मेरे पास ऐसी खबर आ रही है कि कुछ लोग कह रहे हैं कि ज्योति ने खुद ही अपने कपड़े फाड़ लिए। कोई भी लड़की पहली बात इतनी बेशरम नहीं होती कि अपने कपड़े खुद फाड़ ले। यदि फाड़ेगी तो उसका उद्देश्य क्या होगा? सामने वाले पर इल्जाम लगाना। मैने इसके लिए प्रमोद पर आरोप नहीं लगाया है। मैंने कहा है कि यह खींच-तान में फटा है। 
प्रमोद राजेन्द्र यादव के पास अप्रैल में आया है। वह राजेन्द्र यादव के घर में रहता है। उनके कमरे में सोता है। उसकी गिरफ्तारी भी राजेन्द्र यादव के घर से हुई थी।


आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम