जब पूरी दुनिया की नजर राष्ट्रमंडल खेलों की वजह से दिल्ली पर थी। जहां 77,000 करोड़ रुपए का खेल चल रहा था। उसी दौरान ग्वालियर और भोपाल की मीडिया की नजर शिवपुरी पर आ टिकी थी। यहां पोहरी विकास खंड की पंचायत तोरा की एक सहरिया बस्ती नेहरगढा़ में एक सप्ताह के अंदर तीन बच्चों की कुपोषण से मौत हुई। इसी तरह का एक दूसरा गांव डांगबरवे था, जहां एक सप्ताह के अंदर सात बच्चों की मौत की वजह खसरा, मलेरिया, दस्त जैसी मौसमी बीमारियां बनी। बात शिवपुरी जिले की करें तो लगभग डेढ़ दर्जन बच्चे पिछले दो महीने में सिर्फ खसरा की वजह से मरे हैं। वैसे इस बीमारी को भी कुपोषण से जोड़ कर ही देखना चाहिए। चिकित्सकों के अनुसार कुपोषण से शरीर की रोगों से मुकाबला करने की क्षमता बिल्कुल कम हो जाती है, जिसकी वजह से कमजोर शरीर रोग का आसानी से शिकार हो जाता है।
नेहरगढ़ा और डांगबरवे गांव की वजह से उसके आस पास के गांव के लोगों ने ‘पीप्पली लाइव’ फिल्म को जीवन्त होते हुए देखा। बड़ी बड़ी वातानुकूलित गाड़ियों से पत्रकार-राजनेता -सामाजिक कार्यकर्ता भूख से हुई मौत को रिपोर्ट करने के लिए इकट्ठे हो रहे थे।
ना जाने दिल्ली तक यह खबर पहुंची या नहीं लेकिन मध्य प्रदेश स्तर पर ये खबरें छाई हुई थीं। ग्वालियर और चंबल क्षेत्र में भूख से होने वाली मौत की घटना लगातार घट रही है। प्रदेश सरकार इन घटनाओं को रोकने को लेकर गंभीर है, ऐसा नजर नहीं आता। सरकारी योजनाओं की गंगा शिवपुरी, गुणा, अशोकनगर, दतिया, ग्वालियर, मुरैना, भिण्ड, शिवपुरी में आकर मानों सुख जाती है। ये जिले ग्वालियर-चंबल संभाग में आते हैं।
शिवपुरी से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर करेरा प्रखंड का सहरिया आदिवासियों का एक गांव है उडवाहा। बाहर से देखने पर यह गांव भी देश के अन्य छह लाख गांवों जैसा ही दिखता है। इस गांव में भी अन्य गांवों की तरह एक सरपंच हैं, जिनका नाम महेश गौड़ हैं। आंगन वाड़ी कार्यकर्ता मीरा पाल हैं। उनकी सहायिका राम श्री हैं। लेकिन जब आप इस गांव को देखने निकलते हैं। लोगों से बात करते हैं, तो जानते हैं कि यह गांव इक्कीसवी सदी का अनूठा तीर्थ है। जिस गांव के दर्शन इस देश की ब्यूरोक्रेट्स और शिर्ष के राजनीतिक नेतृत्व को जरुर करना चाहिए। जिससे कभी जब वे किसी मंच पर चढ़कर देश की आर्थिक शक्ति का दम भरें, तो कम से कम उनके अंदर अपने इस झूठ का अहसास जिन्दा रहे।
साथी मनोज सिंह भदोरिया और अशोक मालवीय की मदद से उड़वाहा पहंुचा। शहरिया आदिवासियों के 128 परिवार वाले इस गांव में मेघ सिंह की डेढ़ वर्षिय बच्ची सुखवति, सिया और पप्पू सहरिया की एक वर्षिय बच्ची पूजा, पिस्ता और साहेब सिंह की तीन वर्षिय बच्ची मंजेश की तरह लगभग दो दर्जन के आस पास परिवारों में कुपोषण से ग्रस्त कोई ना कोई सदस्य है। सहरिया परिवारों में ऐसा घर ढूंढ़ना मुश्किल है, जिसमें परिवार के सभी सदस्य स्वस्थ हों और उसे हम उड़वाहा का आदर्श परिवार कह सकें।
यहां यह सवाल उठाना भी लाजमी जान पड़ता है, इस क्षेत्र के लोग सिन्धिया परिवार को अपना माई-बाप मानते हैं। यहां कुपोषण की खबरों को सुनकर दुनिया भर से लोग आए लेकिन आज तक इस क्षेत्र के माई बाप, ना कुपोषण पीड़ित परिवारों से मिलने आए। ना ही कभी राज्य में किसी भी मंच से इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की। बदरवास में जब ट्रेन दुर्घटना हुई तो राजा साहब आए लेकिन जब इसी क्षेत्र में खसरा से पीड़ित 94 बच्चों की पहचान हुई और उनमें चार बच्चों की जान गई। ऐसे समय में आना तो दूर की बात, उनके मुंह से सहानुभूति के एक शब्द भी नहीं निकले।
बहरहाल, इक्कीसवीं सदी में आकर यदि इस तरह के गांव हमारे देश में आज भी कायम हैं तो पर्यटन को लेकर जागरुक मध्य प्रदेश की सरकार को शिवपुरी के उड़वाहा गांव को आधुनिक लोकतांत्रिक देश का अनूठा तीर्थ घोषित करना चाहिए। जिससे दूसरे लोग भी इस शासन की चमक का दूसरा पक्ष भी देख पाएं।
(तस्वीर में पप्पू शहरिया की पत्नी सिया और साथ में उनकी एक वर्षिय बच्ची पूजा है)
सोमवार, 25 अक्तूबर 2010
बुधवार, 6 अक्तूबर 2010
हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में ओमपुरी
राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम हर साल हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में पांच नए निर्देशकों की फिल्में प्रिव्यू के लिए भेजेगा। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम यानी एनएफडीसी के अध्यक्ष और मशहूर फिल्म अभिनेता ओम पुरी ने एक प्रेसवार्ता में यह ऐलान करते हुए कहा कि हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल को हर संभव सहायता देते रहेगे। हरियाणा में यह अच्छी शुरूआत है। इस समारोह के माध्यम सें अंतरराष्ट्रीय स्तर का सिनेमा छोटे शहरों तक पहुंच रहा है। लोगों को ऐसी फिल्में देखने का अवसर मिलेगा, जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा। ओमपुरी ने कहा कि सिनेमा का व्यवसायीकरण हो रहा है। फिल्म नगरी में सार्थक फिल्में कम मात्रा में बनाई जा रही है। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि कमर्शियल फिल्में ज्यादा कमाई करती हैं। अगर टेलीविजन पर उनका प्रदर्शन किया जाए, तो विज्ञापन भी आसानी से मिल जाते हैं। पुरी के मुताबिक पहले फिल्में २५ सप्ताह चलने के उपरांत सिल्वर जुबली मनाती थी, लेकिन अब २५ दिनों में सिल्वर जुबली मना ली जाती है। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि फिल्मों के अधिक प्रिंट रिलीज किए जाते हैं। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। ओमपुरी ने कहा कि डायरेक्टर एक रुपया लगाकर २५ रुपए कमाने की सोचता है। फिलहाल सिनेमा को वह दर्जा नहीं मिला रहा है, जो १९८० के दशक में मिला था। अब सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का साधन बनकर रह गया है। लोगों को जागरूक बनानेे में स्कूल व कालेज जितना योगदान दे रहे हैं, उतना ही योगदान सिनेमा दे सकता है। सिनेमा समाज का आईना बन सकता है। उन्होंने कहा कि शुरूआती दिनों में कला से जुड़े लोग सिनेमा की दुनिया में आए थे, जिसमें साहित्य व थियेटर के लोग भी शामिल थे। लेकिन अब सिनेमा का व्यवसायीकरण हो गया है। मनोरंजन वाली फिल्मों को अवार्ड दिए जा रहे हैं, जबकि सामाजिक व सच्चाई से जुड़े सिनेमा को प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है। ओमपुरी के मुताबिक फिल्म नगरी में गिने चुने लोग ही सार्थक सिनेमा बना रहे हैं, उसमें विशाल भारद्वाज, राजकुमार हिरानी, प्रकाश झा इत्यादि शामिल है। ओमपुरी ने सरकार को सुझाव दिया कि वह ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करे, जो गंभीर सिनेमा बना रहे हैं। उनके मुताबिक सिर्फ पांच फीसदी फिल्में ही अच्छी बन पा रही हैं, इसलिए सिनेमा हाईजेक हो रहा है। पुरी के मुताबिक २५ साल पहले उन्होंने हरियाणवी फिल्म सांझी में काम करने का अवसर मिला था। अगर दोबारा मौका मिला तो वे जरुर करेंगे।
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