शुक्रवार, 30 मई 2008

शूटिंग-स्केटिंग साथ-साथ - बधाई हो बिलाल

१५ अप्रैल २००८ को जी टी वी के एक लोकप्रिय कार्यक्रम 'शाबाश इंडिया' के मंच पर एक दस साल का बच्चा हाथ में रायफल लिय स्केटिंग कर रहा था। उस वक़्त कार्यक्रम देख रहे बहूत सारे लोगों के लिय यह एक अजूबा से कम नहीं था। उनकी सांसे थमी की थमी रह गई जब इस नन्ही सी जान ने स्केटिंग करते हुय फायरिंग की और गोली ठीक निशाने पर जाकर लगी।
यह १० वर्षीय कमाल का निशानेबाज भोपाल का मोहम्मद बिलाल था। आज निशानेबाजी और स्केटिंग मानों उसके जीवन का हिस्सा बन चुके हों। बिलाल कहता है - 'मैंने गर्मी में समर कैम्प स्केटिंग के लिय चुना। मगर अपने कोच साजिद खान की वजह से यह मेरे लिय आज हॉबी से कहीं बढ़कर है।'
बिलाल को शूटिंग सिखाने में मोहम्मद फैजल खान और राजकुमार गुप्ता अहम् भूमिका में रहे। पिछले दिनों बिलाल के पिता मोहम्मद इदरिस ने फ़ोन करके यह सूचना दी कि - 'बिलाल के कर्तव की चर्चा सुनकर लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड वाले भी हमारे पास आय थे। और बिलाल के कारनामे को देखकर वे संतुष्ट हुय। अब बिलाल का नाम लिम्का बुक रिकार्ड में दर्ज हो गया है। '
यह बताते हुय वे बेहद उत्साहित थे।
-बधाई हो बिलाल।-

गुरुवार, 29 मई 2008

ब्रेकिंग न्यूज़




यह मेल एक पत्रकार मित्र की तरफ़ से आया था, सोचा इतनी महत्वपूर्ण सी खबर से साथियों को क्यों महरूम रखा जाय।

तो देखीय ब्रेकिंग न्यूज़ और दीजिय चैनेल के
न्यूज़ सेंस को दाद ।

क्या ख़बर बनाई है?

सूखे सर होंगे तर


आदमी के माथे की गाद हट जाए तो तालाब की गाद साफ होते देर नहीं लगती। बुन्देलखण्ड में जगह-जगह तालाबों के पुनर्जीवन का अभियान जोर पकड़ रहा है।
माथे की गाद हटी तो तालाब चमककर आंचल पसारे पानी धारण करने के लिए फिर से तैयार हो रहे हैं. महोबा का चरखारी तालाबों के आंचल में सिमटा कस्बा है. लेकिन समय बीता तो तालाब के आंचल मटमैले हो गये. इसकी कीमत चरखारी को भी चुकानी पड़ी. लेकिन अब चरखारी के आस-पास के मलखान सागर, जयसागर रपट तलैया, गोलाघाट तालाब, सुरम्य कोठी तालाब, रतन सागर, टोला ताल, देहुलिया तालाब, मंडना और गुमान बिहारी जैसे तालाब चमककर निखरने लगे हैं. चरखारी में तालाबों की सफाई का यह काम समाज अपने से कर रहा है क्योंकि सूखे की मार सरकार पर नहीं समाज पर है. बात फैली तो संचित सहयोग की भावना हिलोरे मारकर जागृत हो गयी. आसपास के लोगों ने सुना कि तालाब की गाद साफ हो रही है तो जालौन, हमीरपुर, बांदा, चित्रकूट, महोबा और झांसी के लोग भी यहां श्रमदान करने आये.

पानी का पुनरोत्थान हो सकता है? शायद व्याकरण के लिहाज से यह थोड़ा अटपटा लगे लेकिन बुन्देलखण्ड में आज का व्यावहारिक व्याकरण यही है. पानी को बाजार से मुक्त कराने और समाज को पानी का हक दिलाने के लिए पुष्पेन्द्र भाई ने पानी पुनरोत्थान पहल की शुरूआत की है. वे बताते हैं-"हां यह पानी का पुनरोत्थान ही है. बाजार पानी छीनना चाहता है. उस पर अपना कब्जा जमाना चाहता है. इसे रोकने के लिए हमने नवयुवकों की एक टोली बनाई है. ये बुन्देली जल प्रहरी पानी बचाएंगे. उसका पुनरोत्थान करेंगे." अरविन्द सिंह चरखारी नगरपालिका से जुड़े हैं. इस तालाब सफाई अभियान को चलाये रखने में उनका बड़ा योगदान है. वे बताते हैं-"तालाब तो हमेशा से साझी धरोहर रही हैं. यह तो समय और सरकार ने तालाबों को निजी संपत्ति में बदल दिया. यह पुनः समाज के हाथ में वापस जाए इसके लिए समाज को जागरूक करने की जरूरत है."
पुष्पेन्द्र भाई केवल चरखारी तक ही अपना अभियान नहीं रखना चाहते. वे पूरे बुन्देलखण्ड के तालाबों का पुनरूत्थान करना चाहते हैं. इस काम में समाज जुटे और इसे अपना काम समझकर इसमें शामिल हो जाए इसके लिए उनके जैसे लोग कई स्तरों पर कोशिश कर रहे हैं.इनमें सर्वोदय सेवा आश्रम के अभिमन्यु सिंह, राजस्थान लोक सेवा आयोग की नौकरी छोड़कर आये प्रेम सिंह, लोकन्द्र भाई, डॉ भारतेन्दु प्रकाश और सरकारी नुमांईदे सरदार प्यारा सिंह जैसे लोग भी हैं जो बुन्देलखण्ड को उसका गौरव पानी उसे वापिस दिलाना चाहते हैं.
छतरपुर (मध्य प्रदेश) जिले में तालाबों की सफाई का अभियान जोरों पर है. छतरपुर नगरपालिका के अध्यक्ष सरदार प्यारा सिंह ने तालाबों की सफाई का जिम्मा अपने हिस्से ले लिया है. वे बताते हैं "छतरपुर में ग्वाल मगरा, प्रताप सागर, रानी तलैया, किशोर सागर जैसे कई तालाब हैं. मैंने संकल्प लिया है कि अपना कार्यकाल खत्म होने के पहले इन सारे तालाबों की सफाई पूरी कराऊंगा." कुछ इसी तरह का संकल्प लोकेन्द्र भाई का भी है. वे झांसी से हैं और बिनोबा भावे के सर्वोदय सत्याग्रह से जुड़े रहे हैं. उन्होंने अपने घर बिजना को केन्द्र बनाकर 25 किलोमीटर के दायरे में जो कुएं और तालाब बनवाएं हैं वे इस भयंकर सूखे के दौर में भी लोगों को तर कर रहे हैं. लोकेन्द्र भाई पानी तलाशने की उस परंपरागत तकनीकि के बारे में भी बताते हैं जिसके सहारे यह समाज हमेशा पानीदार बना रहा है. वे कहते हैं कि मेंहन्दी की लकड़ी, अरहड़ की झाड़ या बेंत के माध्यम से पानी तलाशना सरल है. बस आपको थोड़ी तपस्या करनी होगी कि इन प्राकृतिक औजारों के भरोसे आप पानी तक कैसे पहुंच सकते हैं. जिन्हें यह पता है वे जानते हैं कि धरती मां के गर्भ में कहां पानी है और कितने गहरे पर है।
सर्वोदय सेवा आश्रम के अभिमन्यु सिंह ने तो पाठा के बड़गड़ क्षेत्र को गोद ही ले लिया है. वे और उनके कार्यकर्ता घूम-घूम कर पानी को बचाने की कोशिशों में लगे रहते हैं. उन्होंने जगह किचेन गार्डेन को भी बढ़ावा दिया है. जिसके पौधों की सिंचाई उस पानी से होती है जो बेकार समझकर बहा दिया जाता है. प्रेम सिंह तो सरकारी नौकरी छोड़कर आये हैं. अब रूखे-सूखे बुन्देलखण्ड में वे पानी और खेती दोनों को नयी ताकत देने की कोशिश कर रहे हैं. देर से ही सही बुन्देलखण्ड अपने हिस्से का पानी संजोने में जुट गया है. हो सकता है जल्द ही उसे इसका प्रसाद भी मिलने लगे.
(http://visfot.com/index.php?news=185) विस्फोट से साभार

बुधवार, 28 मई 2008

कवि राजेश चेतन की दोहा-सेवा

कवि राजेश चेतन को दिल्ली और दिल्ली के बाहर भी कविता में रूचि रखने वाले जानते हैं। इन दिनों उन्होंने दिल्ली में रहने वाले अपने परिचितों के लिय एक नई सेवा प्रारम्भ की है, एस एम एस के माध्यम से दोहा और मुक्तकों की सेवा। यदि आप दिल्ली में हैं और आप भी अपने दिन की शुरुआत राजेश चेतन के दोहों से करना चाहते हैं तो उन्हें फ़ोन कर सकते हैं और उनके परिचितों में शुमार हो सकते हैं।
फ़ोन नंबर है - 09811048542

रविवार, 25 मई 2008

एक खतरनाक शादी में आप सब आमंत्रित हैं

यह आमंत्रण नागपुर से हमारे संजय भाई ने भेजा है। संजय भाई वहाँ दैनिक भास्कर में
की नौकरी करते हैं।
मैं अपनी व्यस्तताओं की वजह से शादी में नहीं जा पा रहा हूँ। अगर कोई ब्लौगर साथी जाना चाहते हैं तो यह निमंत्रण पत्र उनके लिय भी है।

शनिवार, 24 मई 2008

दिमागी तौर पर अवयस्क इस पोस्ट को ना देखें


यह तस्वीरें मुझे मेल टुडे के फोटो पत्रकार राहुल ईरानी ने उपलब्ध कराई हैं।

यह एन एस डी (मंड़ी हाउस, दिल्ली) में हुय। एक प्ले (नाटक) का दृश्य है।
यह कलाकार उज़बेकिस्तान से भारत इस प्ले के सिलसिले में आय थे।
जैसा कि आप जानते हैं उज़बेकिस्तान एक इस्लाम बहुल देश है। और हमारे समाज में यह धारणा है कि दुनिया भर में इस्लामिक स्त्रियों को सबसे अधिक डराया- दबाया और
छुपाया (बुर्के में रखा) गया है।

इस प्ले ने इस मीथ को तोडा है।
इन दृश्यों में देखने वालों को अश्लीलता इस नजर नहीं आई क्योंकि यह कलाकार जो दृश्य अभिनीत कर रही है,
वह प्ले की मांग है
आज के हिन्दी फिल्मों की तरह सिर्फ़ दिखावा के लिय यह दृश्य नहीं है।
इस दृश्य में एक स्त्री को देवदूत द्वारा दुग्ध स्नान कराया जा रहा है।



मुझे विश्वास है सुधी ब्लॉग पाठकों को इन तस्वीरों से कोई आपत्ति नहीं होगी।



जो भी है आपके सूझाव मेरे लिय महत्वपूर्ण हैं।

शुक्रवार, 23 मई 2008

जम्मू में १९ साल के बाद गणपति उत्सव

अतुल भाई कोठारी (राष्ट्रिय सह संयोजक, शिक्षा बचाओ आंदोलन) पिछले दिनों जम्मू से लौट कर आए। उन्होंने बताया कि वहां कुछ दिनों पहले गणपति उत्सव का आयोजन किया गया। इस तरह का आयोजन जम्मू में १९ साल के बाद हुआ। सबसे अच्छी बात यह हुई कि वहाँ सभी धर्म के लोग इस आयोजन में शामिल हुये। क्या हिंदू क्या मुस्लिम, सबने मिलकर गणपति बप्पा के जयकारे लगाय।

गुरुवार, 22 मई 2008

खुला पत्र

तुम हर बार देह बनकर मुझसे मिली
और मैं हर बार मिला सिर्फ़ तुमसे,
तुमने हर बार खुद को हसीन समझा
मैंने हर तुम्हे जहीन देखा।

क्रूशेड के नाम पर तुमने कि मेरी हत्या,
और मैं चश्मदीद गवाह बना अपनी ही मौत का।

तुम 'स्त्री विमर्श' से मुक्त हो
'देह विमर्श' में उलझी थी,
मैं भूल गया था शायद
तुम सीमोन बोउआर नहीं हो।
(............ इस कविता पर कुछ भी कहना मेरे लिय मुश्किल है, यह तक कि यह कविता की श्रेणी में रखे जाने के योग्य है भी या नहीं।
जो भी है आपकी अदालत में है।)

मंगलवार, 20 मई 2008

भोपाल में भी है पानी की हाय-तौबा

मैंने नहीं सोचा था कि भोपाल में पानी की किल्लत भी हो सकती है। इस शहर
के लोग गर्व से कहा करते थे, ताल में भोपाल ताल, बाकी सब तलैया। आज भी शायद कहते हों। ख़ैर भोपाल में एक जगह है एम पी नगर, वही है एक सिनेमा हाल - जिसका नाम है सरगम सिनेमा। उसी सिनेमा हाल के पास ही बहने वाले एक नाले से लगकर कुछ लोग रात को लगभग १२ बजे एक पाईप से पानी भरते मिले। इतनी रात को ४-५ लोगों को यहाँ पानी भरते देख उत्सुकता वश उनके पास चला गया। इनमे से एक का नाम था, रमेश उई। भोपाल से १३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक आदिवासी क्षेत्र नयापूरा से ये जनाब यहाँ पानी लेने आए थे। उई कहते हैं, हमारे यहाँ टैंकर में भरकर पानी आता है, लेकिन एक बाल्टी पानी लेने के लिय वहाँ इतनी मार-पीट होती है कि हिम्मत नहीं होती, वहां पानी लेने की।
इसलिय अपने साले के ऑटो पर रोज यहाँ पानी लेने आ जाता हूँ।
उई पेशे से पलंबर हैं।

सोमवार, 19 मई 2008

तेजिंदर, शर्मा (यू के) की एक कविता गिलहरी


तेजिंदर, शर्मा (यू के) जी का पत्र वाया मेल -
आपका ब्लॉग देखा, अभिभूत हुआ। आप जैसे मित्रों के प्रयासों से लन्दन में रह कर भी हम भारत की समस्याओं से परिचित रह पाते हैं। आपके ब्लॉग पर गिलहरी के चित्र (http://ashishanshu.blogspot.com/2008/05/blog-post_05.html) देखे। हाल ही में लन्दन की गिलहरी पर एक कविता लिखी थी। शायद आपको मालूम हो कि लन्दन की गिलहरी भारत की गिलहरी से देखने में एकदम अलग होती है। आप वो कविता यहां पढ़ सकते हैं। क्योंकि आपने गिलहरी नृत्य सराहा है, शायद आपको यह कविता भी पसन्द आए ।

----- ----- ---- ------ ----- ------ ------- -------तेजिंदर जी की कविता विशेष पसंद आई, अब पाठकों के लिय इस उम्मीद में कि वे भी इसे पसंद करेंगे।

गिलहरी
रहती है मेरे घर के पीछे
बाग़ के एक दरख़्त पर
उछलती, कूदती, फरफराती
एक डाल से दूसरी पर
बंदरिया-सी छलांग लगाती।
ये मेरे बाग़ की गिलहरी है।
इस देश के गोरे नागरिकों की
करती है नकल, अपनी
फ़रदार पूंछ को हिलाती है
अलग-अलग दिशा में नचाती है
चेहरे पर रोब लाए
करती है प्रदर्शन, अपनी
अमीरी का, अपनी सुन्दरता का
हां, ये मेरे बाग़ की गिलहरी है।
अपने आगे के पैरों को देती है
हाथों-सी शक्ल और वैसा ही कामकुतरती है सेब,
मेरे ही बाग़ के
ऐंठती हुई करती है अठखेलियां
पेड़ों से टकराती ब्यार से
उफ़! ये मेरे बाग़ की गिलहरी।
जब जी चाहे पहुंच जाती है
मेरे ज़ीने पर,
मेरे स्टोर में
कुतर डालती है,
दिखाई देता है जो भी
मैं, बस सुनता हूं आवाज़ें
घबराता हूं, मांगता हूं दुआ
पुस्तकों की ख़ैरियत की।
मुझे भक्त बना देती है
ये जो है मेरे बाग़ की गिलहरी।
एक दिन सपने में मेरे आ खड़ी होती है
चेहरे पर दंभ, रूप से सराबोर
गदराया बदन, दबी मुस्कुराहट
आज आने वाली है
उससे मिलने
उसकी दूर की एक रिश्तेदार!
उस शहर से जहां बीता था मेरा बचपन
हां, वो भी तो एक गिलहरी ही है।
ग़रीबी के बोझ से दबी
सिमटी, सकुचाई, शरमाई
अपने सलोने रंग से सन्तुष्ट
संग लाई है अपने अमरूद
बस वही ला सकती थी
महक मेरे शहर की मिट्टी की
पाता हूं वही महक कभी अमरूद में
तो कभी उसमे जो मेरे शहर की गिलहरी है।
मेरे बाग़ की गिलहरी को नहीं भाती
गंवई महक अमरूद की, या फिर
मेरे शहर की मिट्टी की वो गंध
जो मेरे शहर की गिलहरी ले आई है
अपने साथ, अपने शरीर अपनी सांसों में।
वह रखती है अपनी मेहमान के सामने
केक, चीज़ और ड्राई फ़्रूट
कितनी भी खा ले, पूरी है छूट
कितने बड़े दिल की मालकिन है
वो जो मेरे बाग़ की गिलहरी है।
मेरे शहर की गिलहरी सीधी है सादी-सीनिकट है
प्रकृति के, सरल और मासूम
बस खाती है पेड़ों के फल, कैसे पचाए
केक, चीज़ और ड्राई-फ़्रूट
देखती है, मुस्कुराती है, पूछती है हाल
अपनी मेज़बान के,
उसके परिवार के।
परिवार यहां नहीं होता,
सब रहते हैं
अलग-अलग, यह मस्त देश है
ऊंचे कुल की दिखती है वो
जो मेरे बाग़ की गिलहरी है।
“सुनो, तुम यह सब नहीं खाती हो
इसी लिये सेहत नहीं बना पाती हो
मुझे देखो, कितना ख़ूबसूरत देश है मेरा
कैसा है मेरा स्वरूप, रंग रूप।॥
देखो
मेरे बाग़ में कितने सुन्दर पेड़ हैं
रंग-बिरंगी पत्तियों वाले पौधे!
यहां का हरा रंग कितना गहरा है!
यहीं आ बसो,
यहां है कितना सुखकितनी शान, मौज है मस्ती है।”
आत्ममुग्ध हो जाती है, जोमेरे बाग़ की गिलहरी है।

चुप नहीं हो पाती है,
जारी हैबोलना उसका और इठलाना।
मेरे देश में इन्सान से अधिक
होती है परवाह हमारी
यही है वो देश जहां कभी
अस्त नहीं होता था सूर्य
जब कभी उदय होता है पूर्व में
तब भी चमकता है मेरा यह
पश्चिम का देश
और चमकने लगता है चेहरा,
मेरे बाग़ की गिलहरी का।
शांत किन्तु दृढ़ आवाज़ में
देती है जवाब, गिलहरी मेरे शहर की।
माना कि तुम हो बहुत सुन्दर और सुगठित
धन और धान्य से भरपूर है शहर तुम्हारा
तुम्हारे देश में हैं सुख,
सुविधाएं और आराम
देखो मेरी ओर,
देखो मेरे इस साधारण बदन को,
यह तीन उंगलियां जिसकी हैं
उसका नाम है राम!
इस तरह देती है सुख
मुझे असीम,
वो जो मेरे शहर की गिलहरी है।

यह कविता यहाँ भी पढी जा सकती है -

रविवार, 18 मई 2008

प्रदीप भाई के घर से अक्ल की चोरी








































इस बार कुछ अपने और अपने ब्लॉग साथियों के मतलब की चीज प्रदीप भाई के भोपाल वाले कमरे से निकाल कर लाया हूँ। प्रदीप भोपाल में ओक्सफेम की तरफ़ से शहरी गरीबों के हालात पर एक अध्यन कर रहे हैं।

ख़ैर, अपन पोस्टर पढ़ते हैं।

शुक्रवार, 16 मई 2008

कुछ अख़बारों के दुर्लभ अंक





















यह तमाम तस्वीर 'माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता
विश्वविद्यालय, भोपाल' से
अपने ब्लॉग मित्रों के लिय मैं लेकर आया हूँ।



































































































































बुधवार, 14 मई 2008

चकमक से तीन बाल कवितायें















भोपाल में शिवनारायण भाई के साथ 'एकलव्य' के दफ्तर जाना हुआ। वही से 'चकमक' में प्रकाशित कुछ कवितायें अपने ब्लॉग बंधुओं के लिय उठा लाया।

जेबकतरों से नहीं कुछ जेब कटों से भी परेशान

भोपाल के ११ नंबर रूट की बस में लिखा यह संदेश थोड़ा दार्शनिक किस्म का नहीं लगता?
जेब कटों से सावधान (जेबकटो को भूलवश जेबकतरों पढ़ने की भूल न करें)।

बुधवार, 7 मई 2008

भारत के लोग अधिक खा रहे हैं


भारत को हमेशा दुष्यंत की नजर से देखा है मैंने। यहाँ तो सिर्फ़ भूखे और नंगे लोग रहते हैं .... वाले दुष्यंत। या फ़िर पी साईनाथ की नजर से, जिन्होंने हमेशा देश के सबसे पिछडे पांच फीसदी लोगों के सम्बन्ध में लिखा, उनके हित की बात की।
लेकिन अब पता चला यह सारी तस्वीर झूठी थी। भारत में गरीबी नहीं हैं। यहाँ के लोग अधिक खाने लगे हैं। फ़िर से यहाँ दूध की नदियाँ बहने लगी हैं।
यह अमेरिकी बुश और भारतीय शरद पवार कहते हैं। वैसे भारतीयों का यह अधिक खाना भी भारत के लिय सम्मान की बात नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रिय शर्म की बात बना दी गई, क्योंकि भारत वाले अधिक खाने लगे इस वजह से दुनिया भर में अनाज का संकट आ गया। ऐसा बताया जा रहा है।
जबकि आंकडों की बात करे तो भारत में दुनिया भर के कुपोषित व्यक्तियों का एक तिहाई हिस्सा रहता है।
अगर इस वर्ग को भर पेट भोजन मिले तो हालत क्या होंगे?

मंगलवार, 6 मई 2008

यह लोग इसी देश में रहते हैं

चित्रकूट जिलान्तर्गत मऊ तहसील के थाना बरगढ़ के गाँव नेवादा में एक महिला मिली। उसका नाम था, द्वीजी।
वह पत्थर उठाने का काम कर रही थी। उसके हाथ बुरी तरह छिले हुय थे। आपके हाथों की यह हालत है फ़िर आप काम क्यों करती हैं, यह पुछने पर उसका जवाब था -

'यदि काम नहीं करूंगी तो खाउँगी क्या?'
ऐसी ही हालत थी गोइयाँ की।

यह लोग यहाँ पत्थर उठाने का काम करते हैं। इन्हे एक ट्रक पत्थर भरने के बदले मिलता है। १५०० रुपया। एक ट्रक पत्थर भरने में पांच लोगों को सुबह ८ बजे से शाम ८ बजे तक काम करने के बाद एक महीना लग जाता है। क्योंकि इन्हे सिर्फ़ पत्थर भरना नहीं होता। बल्कि उसे जमीन से पहले काटकर निकालना भी होता है। इस काम में सबसे बुरी हालत होती है बच्चों की।
क्या इस विषय में कोई सोचने वाला है?

सोमवार, 5 मई 2008

एमएनसीज

वे छीन लेना चाहते हैं
हमारा जल, हमारा जंगल,
हमारी जमीन भी।










वो छीन लेना चाहते हैं
हमारी थाली से रोटी
चुटकी भर नमक
प्याज का एक अदद टूकडा
और अदद एक मिर्च भी।









और पाट देना चाहते हैं
हमारे घरों को
टेलीविजन, रेफ्रिजरेटर, कंप्युटर,
एयर कन्डिशनर और अपने नैनों कारों से।




-आशीष कुमार 'अंशु'

एमएनसीज

मीडिया स्कैन : भावी पत्रकारों का अखबार

-रवि टांक
जनता को जागरूक करने और जनमत का निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ 'मीडिया' के द्वारा किया जाता है। परन्तु आज मीडिया का स्वरूप बदल चुका है और इसी बदलते स्वरूप के चलते जो पत्रकारिता कभी एक मिशन समझी जाती थी, आज वही एक बड़े व्यवसाय में तब्दील हो चुकी है जिसका प्राथमिक उद्देश्य अधिक से अधिक लाभ कमाना हो गया है। इस प्रवृत्ति से बुजुर्ग पत्रकार चिंतित हैं। लेकिन वे बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं।
ऐसे माहौल में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे कुछ विद्यार्थियों ने अपने भावी पेशे को विशुध्द 'बाजारू' बनने से रोकने के लिए कुछ करने का मन बनाया। उन्होंने पत्रकारिता के छात्रों को मीडिया जगत की हकीकत बताने और साथ ही इसके सामाजिक सरोकारों के बारे में सचेत करने के लिए काफी विचार-विमर्श के बाद एक पहल की है। उनकी यह पहल है 'मीडिया स्कैन' नामक चार पृष्ठ वाला मासिक अखबार जिसके द्वारा वे अपनी बात पत्रकारिता के छात्रों तक पहुंचाते हैं। जुलाई 2007 से प्रकाशित होने वाला मीडिया स्कैन दिल्ली विश्वविद्यालय, भारतीय जनसंचार संस्थान, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया, भारतीय विद्या भवन आदि संस्थानों के छात्रों की मेहनत का परिणाम है।
अखबार हाथ में आते ही उफपर दृष्टि जाती है जहां लिखा है - 'जुबान नरम, तासीर गरम'। इससे अखबार से जुड़े लोगों का तेवर साफ समझ में आ जाता है। मीडिया स्कैन का मूल्य रखा गया है सवा रुपया जो वास्तव में बाजार के नियमों का एक तरह से मजाक उड़ाता है। लाभ कमाने की बात अखबार से जुड़े छात्रों के दिमाग में दूर-दूर तक नहीं है। कोई स्पान्सर मिल जाए तो ठीक अन्यथा अपने पैसे लगाकर उन्होंने अखबार को चलाए रखने का निश्चय किया है। विज्ञापन लेने से उन्हें एतराज नहीं लेकिन अपनी शर्तों पर। विज्ञापन जुटाने के लिए अखबार निकालना उनका उद्देश्य नहीं है। छात्र जीवन की आर्थिक मुश्किलों के बीच उनका यह निश्चय हमें आज की युवा पीढ़ी के उस वर्ग से परिचय करवाता है जिसके लिए 'अर्थ' जरूरी है, लेकिन सब कुछ नहीं है।
मीडिया स्कैन में भावी पत्रकारों के साथ-साथ प्रतिष्ठित पत्रकार भी विभिन्न विषयों पर लिखते हैं। छोटी सी अवधि में ही इस अखबार ने कई प्रतिष्ठित लोगों का धयान अपनी ओर खींचा है। प्रख्यात पर्यावरणविद अनुपम मिश्र के अनुसार पत्र का प्रकाशन सराहनीय है। भावी पत्रकारों का मानस निर्माण करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। पत्रकारिता के कुछ जुझारू छात्रों द्वारा संचालित यह पत्र आज केवल दिल्ली में ही नहीं बल्कि विभिन्न प्रदेशों में भी छात्रों के माध्यम से ही पहुंच चुका है। इसके अतिरिक्त इसे इन्टरनेट पर ई-मेल के माध्यम से लगभग साढ़े तीन हजार लोगों तक पहुंचाया जा रहा है। शीघ्र ही इसकी वेबसाइट भी शुरू करने की योजना है। जिस प्रकार छात्रों एवं वरिष्ठ पत्रकारों के साथ-साथ समाज के गणमान्य लोगों ने इस प्रयास को सराहा है, उससे पत्र के संचालकों का आत्मविश्वास बढ़ा है।
अपनी आगे की रणनीति को लेकर मीडिया स्कैन से जुड़े छात्र बहुत स्पष्ट हैं। वे इसे एक सहकारी उद्यम मानते हैं और चाहते हैं कि इस पत्र की पहचान एक ऐसे अखबार के रूप में बने जो मीडिया छात्रों द्वारा मीडिया छात्रों के लिए निकाला जा रहा है, लाभ कमाने के लिए नहीं बल्कि उन्हें यह बताने के लिए कि पत्रकारिता केवल आजीविका का साधन भर नहीं, बल्कि एक मिशन भी है।
- भारतीय पक्ष में छपा

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम