बुधवार, 30 सितंबर 2009
आजादी का वो जश्न मनाए तो किस तरह
'आजादी का वो जश्न मनाए तो किस तरह - जो आ गए फूटपाथ पर घर की तलाश में'
इस तस्वीर को देखने के बाद अदम गोंडवी साहब की यह पंक्तियाँ याद आई.
मंगलवार, 29 सितंबर 2009
शुक्रवार, 25 सितंबर 2009
झूठी खबर- और खंडन छापने से इंकार
मामला इंदौर का है, जहां एक बौबी छाबरा नाम के छोटे व्यवसाई के मामले को बौबी छाबरा नामक एक बड़े बिल्डर की कहानी बनाकर राजस्थान पत्रिका ने छाप दिया.जब बौबी ने इसका खंडन छापने के लिए अखबार के स्थानीय प्रबंधको से
निवेदन किया तो उन्होंने उसकी बात अनसुनी कर दी.मजबूरीवश उसे इस घटना से समबन्धित विज्ञापन अखबारों में देना पडा .खैर अखबार के खंडन ना छापने के रूख को उचित नहीं ठहराया जा सकता. इसका खामियाजा उसे दूसरे अखबारों में इस विज्ञापन के छपने के बाद चुकाना पड़ रहा है. इंदौर के साथियों के अनुसार बाद में उसने इस खबर के लिए माफी मांग ली है.
बुधवार, 23 सितंबर 2009
छोटे चैनलों का सच
यह लेख तो मीडिया स्कैन के लिए लिखा गया था, लेकिन लेखक नहीं चाहते थे कि लेख के साथ उनका नाम भी जाए, इसलिए इसे ब्लौग पर डाल रहा हूँ. चूकि बात आप लोगों तक पहुँचे.
दिल्ली के खजुरीखास इलाके की स्कूल में हुए भगदड़ में सात छात्राओं की मौत की खबर क्या आई... इलेक्ट्रानिक मीडिया के कई दुकानों में जैसे खलबली सी मच गई... जिन चैनलों के पास अपने संसाधन है... उन ने तो जमकर खबर को बेचा... लेकिन कुछ छोटे दर्जे के चैनल को भी तो अपनी दुकान चलानी है.... अभी मैं चैनल पहुंचा ही था कि आउटपुट एडिटर की आवाज मेरे कानो में गुंजी... अरे यार काट लो काट लो... अब आप सोच में पड़ गए होंगे कि आखिर काटना क्या है... चलिए हम ही बता देते है... दरअसल ये सारी कवायद दूसरे चैनल पर आ रहे विजुअल को कैप्चर करने या बिंदास कहे तो उसे चुराने की चल रही थी...अरे भईया मैं ये क्या कह गया.... आखिर मैं भी तो इसी दुकान में काम करता हूं... तो फिर मालिक के खिलाफ ऐसी नाफरमानी... चलिए जब कुछ भड़ास निकलना ही है तो जमकर निकाला जाए... मुझे न तो अपने संस्थान से शिकायत है और न ही इस ग्लैमर की दुनिया से ही कोई गिला... शिकायत तो बस कुकरमुत्ते की तरह उपज रहे इन छोटे दर्जे की चैनलों से है... चैनल के नाम पर इन्हे लाइसेंस तो मिल जाता है लेकिन इनकी पहुंच बस चैनल के मालिकों तक ही सिमटी होती है... कुछ तो ऐसे चैनल भी है जिसका नाम कभी नहीं सुना पर कहने को नेशनल चैनल है...ऐसा नहीं कि इस चैनल में काम करने वालों को सैलरी नहीं मिलती... मिलती है पर कब मिलती और कब खत्म हो जाती इसका तो पता ही नहीं चलता...मतलब नहीं समझे तो लिजिए समझ लिजिए... दरअसल इन चैनलों में वैसे लोग ही आते है जिनकी सोच यहां आने से पहले तो क्लियर रहती है लेकिन जैसे जैसे मीडिया के वास्तवित रुप से रु-ब-रु होते है... एक अलग ही सोच विकसित हो जाती है... फिर भी नहीं समझे... अरे भाई ये लोग इन चैनलों को सफलता की पहली सीढ़ी समझकर इस पर चढ़ तो जाते है लेकिन अगली सीढ़ी के लिए बस तरसते रह जाते है....उसके बाद उम्र से पहले ही बुजुर्ग की तरह मीडिया में आए बस आए नए छात्रों को उपदेश ही देते रह जाते है... कि भईया अभी भी समय है सभंल जाओ... नहीं तो बस फंस गए तो फंस गए।
( लेखक परिचय- लेखक एम एच वन, एस वन, फोकस, आजाद, प्रज्ञा में से किसी एक चॅनल में कार्यरत हैं...)
शनिवार, 12 सितंबर 2009
बंजारानामा और दूर से आए थे साकी: 'नज़ीर' अकबराबादी
विजय अनत जी की तरफ से आज यह मेल आया था. नजीर अकबराबादी मुझे हमेशा प्रिय रहे हैं. उनकी रचना आप सबके नजर कर रहा हूँ.. यह कहने की जरूरत तो नहीं रचना पढने के बाद दाद भी देनी होगी..
बंजारानामा
टुक हिर्सो-हवा को छोड़ मियां, मत देस-बिदेस फिरे मारा
क़ज़्ज़ाक अजल का लुटे है दिन-रात बजाकर नक़्क़ारा
क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतुर क्या गौनें पल्ला सर भारा
क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर, क्या आग, धुआं और अंगारा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
ग़र तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है
ऐ ग़ाफ़िल तुझसे भी चढ़ता इक और बड़ा ब्योपारी है
क्या शक्कर, मिसरी, क़ंद, गरी क्या सांभर मीठा-खारी है
क्या दाख़, मुनक़्क़ा, सोंठ, मिरच क्या केसर, लौंग, सुपारी है
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पच्छिम जावेगा
या सूद बढ़ाकर लावेगा या टोटा घाटा पावेगा
क़ज़्ज़ाक़ अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा
धन दौलत नाती पोता क्या इक कुनबा काम न आवेगा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
बंजारानामा
टुक हिर्सो-हवा को छोड़ मियां, मत देस-बिदेस फिरे मारा
क़ज़्ज़ाक अजल का लुटे है दिन-रात बजाकर नक़्क़ारा
क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतुर क्या गौनें पल्ला सर भारा
क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर, क्या आग, धुआं और अंगारा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
ग़र तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है
ऐ ग़ाफ़िल तुझसे भी चढ़ता इक और बड़ा ब्योपारी है
क्या शक्कर, मिसरी, क़ंद, गरी क्या सांभर मीठा-खारी है
क्या दाख़, मुनक़्क़ा, सोंठ, मिरच क्या केसर, लौंग, सुपारी है
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पच्छिम जावेगा
या सूद बढ़ाकर लावेगा या टोटा घाटा पावेगा
क़ज़्ज़ाक़ अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा
धन दौलत नाती पोता क्या इक कुनबा काम न आवेगा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
गुरुवार, 10 सितंबर 2009
हम ना बोलें_ बोलेगी तस्वीर
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