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वर्ष 2008-09 की बात है, जब नेपाल में कुसहा बांध टूटने की वजह से
बिहार में भयावह बाढ़ आई थी। बाढ़ के लगभग छह महीने बाद
दिल्ली से पत्रकारों का एक समूह बिहार-नेपाल के बाढ़ प्रभावित रहे
क्षेत्र का दौरा करने के लिए गया था। उन में इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल
था। बिहार में सीतामढ़ी-सुपौल-सहरसा होते हुए नेपाल पहुंचे।
इसी यात्रा के दौरान एक माओवादी नेता से मुलाकात हुई। नेपाल में भारत की
तरह माओवादी संगठन प्रतिबंधित नहीं हैं। इसलिए मिलने वाले सज्जन ने
सार्वजनिक सभा में जब अपना परिचय माओवादी के रूप में दिया तो चौंकना लाजमी
था। वैसे उस दौरान नेपाल में माओवादी शासन में थे।
वह व्यक्ति फिर यात्रा में हमारे साथ था।
शुभ्राशु चौधरी की किताब
''उसका नाम वासु नहीं'' पढ़ते हुए, उस यात्रा की याद आई। उस बातचीत को कहीं
लिख नहीं पाया था। लेकिन शुभ्रांशु को पढ़ते हुए उस माओवादी नेता से हुई
बातचीत की यादें ताजा हो गईं।
‘भारत में माओवाद से सहानुभूति रखने वाले जितने चेहरों को आप जानते हैं,
उससे कई गुणा अधिक चेहरे छुपे हुए हैं। वे उस वक्त सामने आएंगे, जब भारत पर
माओवाद का राज होगा।’
उस माओवादी नेता का यह अति आत्मविश्वास थोड़ा चौंकाने वाला था। मैंने धीरे से ही कहा- यह कभी संभव नहीं होगा।
जिस गाड़ी पर हम कुसहा के लिए जा रहे थे, उसमें वही हमारा मार्गदर्शक था।
नेपाल में माओवादी सरकार थी। हम दूसरे देश में थे, इन सारी स्थितियों को
समझते हुए, मेरे साथ बैठे एक पत्रकार ने आंखों के इशारे से कहा, बातचीत बंद
कर दो। उस माओवादी नेता ने बिना असहज हुए कहा- आप निसंकोच कुछ भी पूछिए और
आप सब पत्रकार हैं, मुझे हुई हर एक बात को ऑन द रिकॉर्ड समझिए। जहां चाहें
इसे लिखें। फिर वे मेरी तरफ मुखितिब हुए- आपकी उम्र 24-25 साल की होगी,
यकिन जानिए आप अपनी जिन्दगी में भारत में माओ का शासन देखंेगे। फिर बहुत से
चेहरे बेनकाब होंगे।
उन्होंने पटना का एक किस्सा सुनाया, जब वे प्रचंड के साथ पटना हनुमान मंदिर
में थे। पटना में प्रचंड की तलाश हो रही थी। इंटेलीजेन्स के पास खबर थी कि
प्रचंड पटना में हैं। पटना हाई अलर्ट पर था। हर तरफ पुलिस थी और प्रचंड
आसानी से उन सबके बीच से आम आदमी की तरह निकल गए, किसी ने पहचाना नहीं।
उन सज्जन ने बताया था, माओवादी अपनी टीम तीन श्रेणियों में बनाते हैं। एक
वे लोग जो जंगल में रहते हैं और हथियार बंद रहते हैं। एक वे जो जंगल और
बाहरी दुनिया के बीच समन्वय का काम करते हैं। आन्दोलन के लिए पैसा जुटाने
का काम इनका ही होता है। वे सज्जन नेपाल माओवादी आन्दोलन में इसी भूमिका
में थे और तीसरे वे लोग, जो समाज में पत्रकार, एनजीओ, अभिनेता, नेता,
उद्योगपति या दूसरी भूमिका में होते हैं लेकिन उनकी सहानुभूति इस आन्दोलन
के साथ होती है। आन्दोलन के लिए पैसा इन्ही लोगों के पास से आता है। उन
सज्जन ने बताया कि नेपाल में माओवादी आन्दोलन की सफलता के लिए सबसे अधिक
आर्थिक मदद भारत से मिलती है, इसलिए उन्हें अक्सर भारत आना पड़ता है। भारत
में भी दिल्ली में सबसे अधिक मदद करने वाले हैं।
उन्होंने हथियार के संबंध में बताया था- माओवादी आन्दोलन में अधिकतर सस्ते
हथियार इस्तेमाल होते हैं। उन्होंने कुकर बम का उदाहरण दिया। जिसमें पुराने
कुकर को बम की तरह इस्तेमाल करते थे। एक समय तो इस वजह से भारत से कुकर का
आयात भी नेपाल ने बंद कर दिया था। इसी तरह तीन बार झूठा बम रखकर, जब नेपाल
पुलिस बम को लेकर लापरवाह हो जाते थे तो जिन्दा बम रखने की जानकारी
उन्होंने दी। यह सब घटना नेपाल में माओवादी शासन आनंे के पहले की है।
चीन के हथियार नेपाल में माओवादियों के पास कैसंे आते हैं, क्या चीन उन्हें
मदद कर रहा है? इस सवाल पर उन माओवादी नेता ने यही बताया था कि चीन उनका
चोरी-छीपे जाना-आना रहा है। वहां के कई हथियार के सौदागरों से उनका परिचय
है लेकिन वे आन्दोलन के लिए सारे हथियार खरीद कर लाते हैं, चीन कोई भी
हथियार खैरात में नहीं देता। इसके लिए उन्हें पैसा भारतीय मददगारों से चंदा
के तौर पर मिलता है।
यदि मैं सही-सही याद कर पा रहा हूं तो उस दौरान उन सज्जन के छोटे भाई की
पत्नी प्रचंड सरकार में किसी महत्वपूर्ण भूमिका में थी। छोटे भाई भी सक्रिय
राजनीति में थे।
आज शुभ्रांशु चौधरी की किताब पढ़ते हुए लगा, वासु के तौर पर वही नेपाली माओवादी मेरे सामने आ खड़ा हुआ हो।