क्या तीर मारा भाई। जाने अनजाने में मोदी का भला ही हो गया। पुन्य प्रसून वाजपेयी का साक्षात्कार नए वाले चॅनल समय पर देखा, कितने अच्छे सवाल पूछे उन्होने, वाह-वाह। गुजरात की सच्ची तस्वीर समाज के सामने आई। दूसरी तरफ वह तेजपाल जी, गडे ही मुर्दे उखारने में लगे है। कल ही बस में एक भाई को बोलते ही सूना, इनसे मोदी का कुछ नहीं उखरेगा, सिर्फ ये गडे मुर्दे ही उखार सकते हैं।
नाम से भी फर्क आ जाता है, तरुण भाई ने जो काम किया, उसमे उनकी तरुनाई नजर आती है, अती उत्साह में आकर उन्होने एक ऐसी सीडी बनाई जिससे देश में एक बार फिर से सांप्रदायिक दंगे भड़क सकते थे, (खैर, लोग समझदार हो गए हैं, इसलिय 'आज तक' की बातों में नहीं आय।) पुण्य का काम किया पुण्य प्रसून वाजपयी ने जो अपने नए चॅनल की शुरूआत ही एक नेक साक्षात्कार से किया।
भाई बाबू बजरंगी ने चॅनल पर अपने वीरता के किस्से सुने, हद कर दी उन्होने बेशर्मी की। ऐसे ना जाने कितने लोग है। बताया जा रहा है तरुण जी के कैमरे के जाल में फंसे ज्यादा नेता वे थे जो गुजरात में भाजपा की सरकार आने के बाद मलाई खाना चाहते थे, मगर मोदी के नेतृत्व में यह मौका उन्हें नसीब नहीं हुआ, मेरी बात सुन कर मेरे कई मित्र परेशान होंगे, यह एक नरभक्षी की वकालत क्यों कर रहा है? मगर मोदी की यह तस्वीर मीडिया ने गढी है। मैं गुजरात होकर आया हूँ, मुसलमानों से बात की है मैंने। वह खुश है मोदी के राज में। क्या कोई छापेगा इसे। हाँ जहाँ तक नैतिकता की बात है मोदी को मुख्यमंत्री के नाते सांप्रदायिक दंगों की जिम्मेवारी लेनी चाहिय, लेकिन भाई तरुण जी को यह सब चुनाव के समय क्यों याद आ रहा है। वह नहीं जानते जाने-अनजाने में वे मोदी की मदद ही कर रहे हैं।
-कुछ दिनों पहले ही मैंने तहलका के संघर्ष की कहानी अपने ब्लोग पर प्रस्तुत किया था, इस घटना के बाद मुझे इस बात का अफ़सोस है, मैंने ऐसा लेख क्यों दिया।
बुधवार, 31 अक्तूबर 2007
सोमवार, 29 अक्तूबर 2007
बिना वेबसाइट का है, इंटरनेट वाला गाँव - भाग २
वेबसाइट वाले गाँव का पता - http://www.smartvillages.org/hansdehar/index.htm
ज़रा क्लीक करके नजारा कर लो -
आज बात करते हैं, गाँव तक पहुचाने की। हरियाणा के नरवाना कसबे तक जाय। उसके बाद ज़रा सी परेशानी उठा कर दतासिन्ह्वाला पहुचे। उसके बाद के २-३ किलोमीटर के लिय हो सकता है आपको कोई सवारी ना मिले। कोई गाँव वाला आपकी हालत पर तरस खा कर आपको लिफ्ट दे-दे तो यह एक अलग बात होगी।
बताया जा रहा है, हंसदेहर मॉडल पर देश के ६ लाख ४० हजार गाँव को जोड़े की योजना है। लेकिन जबतक गाँव वाले इंटरनेट की तकनीक नहीं समझेगे, यह नहीं समझेगे कि यह इंटरनेट है क्या? वह इसका लाभ कैसे उठा पायेगे?
एक किस्सा और इस वेबसाइट गाँव से। संतो देवी गाँव की सरपंच है। लेकिन सरपंच के तौर पर उसके पति हीं गाँव में जाने जाते हैं। बकौल संतो गाँव में ऐसा हीं होता है।
बात यहाँ सरपंच की नहीं है। बात है जागरूकता की कमी की। इंटरनेट और वेबसाइट जैसे शब्द जिस गाँव के साथ जुड़ जाय। उस गाँव से लोगों की इतनी अपेक्षा तो स्वाभाविक है कि उस गाँव के लोग शिक्षित हों। अधिकारों के प्रति जागरूक हों। शायद अशिक्षा और जागरूकता की कमी की वजह से हीं यह गाँव पिछड़ा रह गया।
ज़रा क्लीक करके नजारा कर लो -
आज बात करते हैं, गाँव तक पहुचाने की। हरियाणा के नरवाना कसबे तक जाय। उसके बाद ज़रा सी परेशानी उठा कर दतासिन्ह्वाला पहुचे। उसके बाद के २-३ किलोमीटर के लिय हो सकता है आपको कोई सवारी ना मिले। कोई गाँव वाला आपकी हालत पर तरस खा कर आपको लिफ्ट दे-दे तो यह एक अलग बात होगी।
बताया जा रहा है, हंसदेहर मॉडल पर देश के ६ लाख ४० हजार गाँव को जोड़े की योजना है। लेकिन जबतक गाँव वाले इंटरनेट की तकनीक नहीं समझेगे, यह नहीं समझेगे कि यह इंटरनेट है क्या? वह इसका लाभ कैसे उठा पायेगे?
एक किस्सा और इस वेबसाइट गाँव से। संतो देवी गाँव की सरपंच है। लेकिन सरपंच के तौर पर उसके पति हीं गाँव में जाने जाते हैं। बकौल संतो गाँव में ऐसा हीं होता है।
बात यहाँ सरपंच की नहीं है। बात है जागरूकता की कमी की। इंटरनेट और वेबसाइट जैसे शब्द जिस गाँव के साथ जुड़ जाय। उस गाँव से लोगों की इतनी अपेक्षा तो स्वाभाविक है कि उस गाँव के लोग शिक्षित हों। अधिकारों के प्रति जागरूक हों। शायद अशिक्षा और जागरूकता की कमी की वजह से हीं यह गाँव पिछड़ा रह गया।
बिना इंटरनेट का वेबसाइट वाला गाँव
अपना यह लेख मैंने ग्रामीण विकास की पत्रिका 'सोपान स्टेप' से साभार लिया है-
हरियाणा के हंसदेहर (जिला - जींद) गाँव को जिले भर में लोग इंटरनेट वाले गाँव के नाम से जानते हैं। यह पुरा गाँव अपनी वेबसाइट http://www.smartvillage.org पर ऑनलाइन है। इस तरह हंसदेहर देश का पहला मॉडल इंटरनेट विलेज बन गया है। इस गाँव का नाम जिले तक ही नहीं, गाँव के बाहर भी लोग जानने लगे हैं। अपनी इस उपलब्धी की वजह से गाँव को २००६ का i4d अवार्ड मिला। जिसे गाँव वालों की तरफ से हंसदेहर स्मार्ट विलेज प्रोजेक्ट के सूत्रधार कँवल सिंह ने भारत सरकार के पंचायती राज मंत्री मणिशंकर अय्यार्ण के हाथों से लिया। आप इस वेबसाइट को हंसदेहर गाँव का encyclopedia कह सकते हैं। गाँव के समबन्ध में हर छोटी बड़ी जानकारी यहाँ उपलब्ध है। मसलन गाँव का इतिहास, गाँव के संबंध में संक्षिप्त जानकारी, गाँव के १,०१७ नागरिकों के संबंध में तमाम जानकारी मसलन वह क्या रोजगार करते हैं, उनकी शिक्षा कहाँ तक हुई है।
लेकिन इतना कुछ वेबसाइट पर होने के बाद कमाल की बात यह है कि आपको पूरे गाँव में एक भी इंटरनेट कनेक्शन नहीं मिलेगा। गाँव वाले इंटरनेट और वेबसाइट जैसे शब्द से ठीक तरीके से परिचित नहीं हैं। इस गाँव के १२वी कक्षा के एक छात्र से जब इंटरनेट का मतलब पूछा गया तो उसने कहा, वह नहीं जनता। शब्द उसके लिय जरूर जाना पहचाना था। उसने बताया कि वेबसाइट पर गाँव के संबंध में जानकारी दी जाती है और इस पर गाँव इस पर गाँव वालों की फोटो लगाई जाती है। उसने यह भी बताया कि यह रोजगार दिलवाने में भी मददगार है। उसे इस बात कि जानकारी थी कि उसका गाँव कंप्यूटर स्क्रीन पर पर नजर आता है।
गाँव की वेबसाइट बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले कँवल सिंह की माँ चाँद कौर कहती हैं, ''समन्वय डॉट कॉम सोसायटी" की देखरेख में गाँव को इंटरनेट से जोड़ने का प्रयास किया गया था। जो असफल रहा। चाँद कौर के अनुसार समन्वय ने कुछ दिनों तक गाँव में कंप्यूटर प्रशिक्षण केन्द्र चलाया। यहाँ कंप्यूटर सीखने अच्छी संख्या में बच्चे आयें। पर गाँव वालों में इस विषय में जागरूकता में कमी की वजह से यह चल नहीं सका।
शेष कथा अगले पोस्ट में-
हरियाणा के हंसदेहर (जिला - जींद) गाँव को जिले भर में लोग इंटरनेट वाले गाँव के नाम से जानते हैं। यह पुरा गाँव अपनी वेबसाइट http://www.smartvillage.org पर ऑनलाइन है। इस तरह हंसदेहर देश का पहला मॉडल इंटरनेट विलेज बन गया है। इस गाँव का नाम जिले तक ही नहीं, गाँव के बाहर भी लोग जानने लगे हैं। अपनी इस उपलब्धी की वजह से गाँव को २००६ का i4d अवार्ड मिला। जिसे गाँव वालों की तरफ से हंसदेहर स्मार्ट विलेज प्रोजेक्ट के सूत्रधार कँवल सिंह ने भारत सरकार के पंचायती राज मंत्री मणिशंकर अय्यार्ण के हाथों से लिया। आप इस वेबसाइट को हंसदेहर गाँव का encyclopedia कह सकते हैं। गाँव के समबन्ध में हर छोटी बड़ी जानकारी यहाँ उपलब्ध है। मसलन गाँव का इतिहास, गाँव के संबंध में संक्षिप्त जानकारी, गाँव के १,०१७ नागरिकों के संबंध में तमाम जानकारी मसलन वह क्या रोजगार करते हैं, उनकी शिक्षा कहाँ तक हुई है।
लेकिन इतना कुछ वेबसाइट पर होने के बाद कमाल की बात यह है कि आपको पूरे गाँव में एक भी इंटरनेट कनेक्शन नहीं मिलेगा। गाँव वाले इंटरनेट और वेबसाइट जैसे शब्द से ठीक तरीके से परिचित नहीं हैं। इस गाँव के १२वी कक्षा के एक छात्र से जब इंटरनेट का मतलब पूछा गया तो उसने कहा, वह नहीं जनता। शब्द उसके लिय जरूर जाना पहचाना था। उसने बताया कि वेबसाइट पर गाँव के संबंध में जानकारी दी जाती है और इस पर गाँव इस पर गाँव वालों की फोटो लगाई जाती है। उसने यह भी बताया कि यह रोजगार दिलवाने में भी मददगार है। उसे इस बात कि जानकारी थी कि उसका गाँव कंप्यूटर स्क्रीन पर पर नजर आता है।
गाँव की वेबसाइट बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले कँवल सिंह की माँ चाँद कौर कहती हैं, ''समन्वय डॉट कॉम सोसायटी" की देखरेख में गाँव को इंटरनेट से जोड़ने का प्रयास किया गया था। जो असफल रहा। चाँद कौर के अनुसार समन्वय ने कुछ दिनों तक गाँव में कंप्यूटर प्रशिक्षण केन्द्र चलाया। यहाँ कंप्यूटर सीखने अच्छी संख्या में बच्चे आयें। पर गाँव वालों में इस विषय में जागरूकता में कमी की वजह से यह चल नहीं सका।
शेष कथा अगले पोस्ट में-
शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2007
चाहे अंगरेजी में सर्व करों, पर हिन्दी पर गर्व- अशोक चक्रधर
तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था,
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था।
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था।
वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था।
न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था।
हमेशा बात वो करता था घर बनाने की,
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था।
मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था।
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था।
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था।
वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था।
न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था।
हमेशा बात वो करता था घर बनाने की,
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था।
मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था।
गुरुवार, 25 अक्तूबर 2007
चार पन्नों की एक जीवंत विचार अखबार “मीडिया स्कैन”
दिल्ली के पत्रकारिता के कुछ छात्रों ने मिलकर इस चार पेज को शुरू किया है। उन छात्रों में मेरी भी कुछ भूमिका तय है। अब इस चार पेज ने अपने पांच महीने पूरे कर लिय। इसकी शुरुआत करते वक़्त एक डर था कि कहीं साथियों का यह जोश अपनी दैनिक कार्यक्रमों की वजह से बाद में मंद ना पर जाय। आपको बताते हुय हर्ष हो रहा है कि अब तक ऐसी स्थिति नहीं आई है। साथियों का उत्साह देख कर लगता है। ऐसी स्थिति आने वाली नहीं है। बाकि भविष्य को किसने देखा है। खैर यहाँ हम दे रहे है, मीडिया स्कैन के पहले अंक के साथ ब्लोगेर गिरीन्द्र के टिप्पणी को। सुधि पाठको की प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा। - आशीष कुमार 'अंशु'
15 जून, शाम 6 बजे, कुछ युवा छात्रों, पत्रकारों को सेन्ट्रल पार्क (सी।पी -दिल्ली) में जमा होना था। मौसम सुहाना था, रिम-झिम बारिस बंद हो चुकी थी। इस कारण युवा छात्रों, पत्रकारों की संख्या बढ़ गयी। तकरीबन 35-40 की संख्या हो गयी। इन सभी में उत्साह की कमी नहीं थी, अपितु कुछ करने का जज्बा इन लोगों में साफ झलक रहा था। कह सकते हैं कि सभी की जुबान तो नरम थी लेकिन तासिर एकदम गरम॥। अब बात पते की हो जाए, दरअसल सभी के इकट्ठा होने का खास मकसद था। चार पन्नों की एक जीवंत विचार अखबार का लोकार्पण होना था।अखबार को सबके सामने पेश किया गया। “मीडिया स्कैन” नाम का यह अखबार खासतौर पर इन्हीं लोगों का है। पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने वाले इन नौजवानों की कलम मीडिया स्कैन के पहले अंक में जलवा बिखेरती नजर आयी। “मीडिया स्कैन” के अंतिम पृष्ट पर दो लेख किसी का भी ध्यान अपनी ओर खिंच सकते हैं। “पत्रकारिता के छात्र की डायरी” और “शोषण वाया बेगार गाथा....” एक अलग दुनिया से पढ़ने वालों को रु-ब-रु करा सकता है। आनंद कुमार और रुद्रेश नारायण की यह प्रस्तुति सचमुच लाजबाब है।दिल्ली जैसे महानगर में जिसे मीडिया का मक्का कहा जाता है, वहां मीडिया का स्कैन करना आखिर क्या कहता है.... ? दरअसल इस क्षेत्र में पांव पसारने के लिए कैसे-कैसे पापड़ बेलने पड़ते हैं...(वाकिफ तो होंगे हीं॥)। वहां आए एक पत्रकारिता के छात्र ने बेबाक लहजे में बताया- “दिल्ली ऊंचा सुनती है ........।” यह पहला अंक है, अभी इसे काफी आगे बढ़ना है। कुछ भी कहना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन इन नौजवानों के आंखों में उमड़ते सपने साफ तौर पर इशारा कर रही थी कि मीडिया स्कैन काफी दूर तक अपना जलवा बिखेरेगी।अंत में-“गज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते वो सब के सब परीशां है,वहां पर क्या हुआ होगायहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैंखुदा जाने यहां पर किस तरह का जलसा हुआ होगा॥”-दुष्यंत कुमार-
यदि आप इच्छुक हैं-
मीडिया स्कैन की निशुल्क प्रति के लिए, आप संपर्क कर सकते हैं-
हिमांशु शेखर (संपादक- मीडिया स्कैन ) - 09891323387
अथवा
चिराग जैन (कला संपादक- मीडिया स्कैन) - ०९८६८५७३६१२
(यह चार पेज दिल्ली के पत्रकारिता के छात्रों द्वारा निकाला जा रहा है। )
15 जून, शाम 6 बजे, कुछ युवा छात्रों, पत्रकारों को सेन्ट्रल पार्क (सी।पी -दिल्ली) में जमा होना था। मौसम सुहाना था, रिम-झिम बारिस बंद हो चुकी थी। इस कारण युवा छात्रों, पत्रकारों की संख्या बढ़ गयी। तकरीबन 35-40 की संख्या हो गयी। इन सभी में उत्साह की कमी नहीं थी, अपितु कुछ करने का जज्बा इन लोगों में साफ झलक रहा था। कह सकते हैं कि सभी की जुबान तो नरम थी लेकिन तासिर एकदम गरम॥। अब बात पते की हो जाए, दरअसल सभी के इकट्ठा होने का खास मकसद था। चार पन्नों की एक जीवंत विचार अखबार का लोकार्पण होना था।अखबार को सबके सामने पेश किया गया। “मीडिया स्कैन” नाम का यह अखबार खासतौर पर इन्हीं लोगों का है। पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने वाले इन नौजवानों की कलम मीडिया स्कैन के पहले अंक में जलवा बिखेरती नजर आयी। “मीडिया स्कैन” के अंतिम पृष्ट पर दो लेख किसी का भी ध्यान अपनी ओर खिंच सकते हैं। “पत्रकारिता के छात्र की डायरी” और “शोषण वाया बेगार गाथा....” एक अलग दुनिया से पढ़ने वालों को रु-ब-रु करा सकता है। आनंद कुमार और रुद्रेश नारायण की यह प्रस्तुति सचमुच लाजबाब है।दिल्ली जैसे महानगर में जिसे मीडिया का मक्का कहा जाता है, वहां मीडिया का स्कैन करना आखिर क्या कहता है.... ? दरअसल इस क्षेत्र में पांव पसारने के लिए कैसे-कैसे पापड़ बेलने पड़ते हैं...(वाकिफ तो होंगे हीं॥)। वहां आए एक पत्रकारिता के छात्र ने बेबाक लहजे में बताया- “दिल्ली ऊंचा सुनती है ........।” यह पहला अंक है, अभी इसे काफी आगे बढ़ना है। कुछ भी कहना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन इन नौजवानों के आंखों में उमड़ते सपने साफ तौर पर इशारा कर रही थी कि मीडिया स्कैन काफी दूर तक अपना जलवा बिखेरेगी।अंत में-“गज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते वो सब के सब परीशां है,वहां पर क्या हुआ होगायहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैंखुदा जाने यहां पर किस तरह का जलसा हुआ होगा॥”-दुष्यंत कुमार-
यदि आप इच्छुक हैं-
मीडिया स्कैन की निशुल्क प्रति के लिए, आप संपर्क कर सकते हैं-
हिमांशु शेखर (संपादक- मीडिया स्कैन ) - 09891323387
अथवा
चिराग जैन (कला संपादक- मीडिया स्कैन) - ०९८६८५७३६१२
(यह चार पेज दिल्ली के पत्रकारिता के छात्रों द्वारा निकाला जा रहा है। )
बुधवार, 24 अक्तूबर 2007
अंग्रेजी से विभाजित होता समाज :
मुझे लेख एक मित्र ने ई-मेल के माध्यम से भेजा था। लगा बात आगे पहुचनी चाहिय। इसी गरज से बरखा दत्त जी का लेख साभार दे रहा हूँ। पर कहाँ से इसकी जानकारी खाकसार के पास नहीं है। दोस्त का आभार जिसने मेल भेजा।
- आशीष कुमार 'अंशु'
[९८६८४१९४५३]
लगभग सोलह वर्ष की एक लड़की उस दिन एक टीवी चैनल पर इंटरव्यू दे रही थी। 97 प्रतिशत अंक मिले भी उसे परीक्षा में, पर राजधानी के एक ऊंचे स्कूल में प्रवेश नहीं मिला। लेकिन उस लड़की की बातों ने विख्यात टीवी एंकर बरखा दत्त को ठहर कर सोचने के लिए विवश कर दिया। बरखा दत्त ने जो सोचा है , वह यह है
पत्रकारिता की एक कष्टदायक लेकिन जरूरी विशेषता यह है कि कभी-कभी आपका काम ही आपको अपनी जिंदगी के सामने आईना लेकर खड़ा कर देता है। एक शांत लेकिन दृढ़ निश्चयी 16 वर्षीया युवती ने अचानक मेरी शिक्षा को ऐसा ही आईना दिखा दिया था। मेरा यह मानना है कि मेरे स्कूल व कॉलेज के वर्ष मेरे व्यक्तित्व के प्रारंभिक निर्माता थे , हर मध्यमवर्गीय भारतीय की तरह मैंने जहां पढ़ाई की और जो मुझे पढ़ाया गया उस पर गर्व किया है, तथापि इस युवा लड़की के विनम्र आदर्शवाद ने मुझे ठहरकर सोचने को विवश कर दिया है - क्या मेरी पब्लिक स्कूल की शिक्षा शर्मनाक रूप से अभिजातवर्गीय थी ?
पहली नजर में बात सीधी-सादी थी , 97.6 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाली सीबीएसई की टॉपर गरिमा गोदारा ने अपने गांव के सबसे नजदीक दिल्ली स्थित द्वारका दिल्ली पब्लिक स्कूल के लिए प्रवेश परीक्षा दी। 6 हजार रुपए प्रतिमाह से भी कम पाने वाले पुलिस के सिपाही, उसके पिता के लिए इस स्कूल की फीस बड़ी समस्या रही होगी। लेकिन परिवार अविचलित था। छात्रवृत्ति या ऋण की आस थी। निश्चय ही स्कूल भी ऐसी छात्रा को प्रवेश देना ही चाहेगा जिसने राष्ट्रीय राजधानी की योग्यता सूची में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। गरिमा के पिता ने अपने बुजुर्गों की संस्थापित पितृसत्तात्मकता और इन तांकू-झांकू पड़ोसियों से जूझने में महीनों खपाए थे जो यह बकवास करते थे कि लड़की रसोई में काम क्यों नहीं करती। अपनी बेटी को उसे प्राप्तांकों के अनुरूप शिक्षा दिलाने का उनका इरादा और भी मजबूत होता गया था। यह नए भारत और इसके मध्यम वर्ग का एक व्याख्यान हो सकता था। सपने देखने का दुस्साहस करने वाले देश का मील का पत्थर हो सकता था। लेकिन इसकी बजाय हुआ यह कि दिल्ली पब्लिक स्कूल ने उसे मना कर दिया। ठीक है। परिणाम अच्छा है लेकिन स्कूल के प्रिंसीपल ने कहा , अंक ही तो सब कुछ नहीं होते। फिर इसकी तो अंग्रेजी भी अच्छी नहीं है। बाद में गरिमा को सुनते हुए क्रुध्द या विचलित न होना मुश्किल था। जाहिर अन्याय के कारण क्रुध्द। वह अपने परिणाम के अनुरूप ही मेधावी थी और जैसी अंग्रेजी वह बोल रही थी उससे स्पष्ट था कि वह पाठयक्रम को समझने पूरी तरह सक्षम थी। हां , उसके उच्चारण में जरूर क्षेत्रीय स्पर्श था। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वह न केवल जटिल विमर्श को समझ सकती थी, उसका बोला हुआ किसी भी अंग्रेजी वक्ता की समझ में भी आ सकता था।
उसका शांत भाव परेशान करने वाला था। एक मौन साहस था जो उसकी किशोरावस्था के कतई अनुरूप नहीं था। ऐसा लग रहा था मानो उसकी तुलना में हम ही अधिक अपमानित और क्रुध्द थे। कार्यक्रम के बीच देहरादून के एक सुपरिचित स्कूल के प्रिंसीपल ने फोन कर उसे छात्रवृत्ति सहित प्रवेश देने की पेशकश की तो अन्य ने डीपीएस का निर्णय बदलवाने के वादे किए। लेकिन आहत होने का किंचित भी आभास दिए बगैर उसने दृढ़ता से कहा कि अब तो उसका लक्ष्य दिल्ली पब्लिक स्कूल को यह बताना मात्र है कि वह अपने किसी भी विद्यार्थी से बेहतर हो सकती है। उसने एक अन्य स्कूल में प्रवेश ले लिया और दिल्ली पब्लिक स्कूल अब उसे भूल जाए। जब वह टीवी पर बोल रही थी , दर्शक भी स्पष्टत: मेरी ही तरह क्रुध्द थे। तात्कालिक ऑनलाइन जनमत संग्रह के अनुसार 90 प्रतिशत दर्शकों का खयाल था कि अंग्रेजी भाषा हमारी शिक्षा व्यवस्था पर एक असंतुलित प्रभाव डाल रही है। लेकिन क्या हम सबका बरताव पाखंडी और बेईमानों जैसा नहीं है? इस बार डीपीएस सामने आ गया, लेकिन क्या हममें से कोई भी उससे भिन्न है? कल्पना कीजिए, वह स्कूल में भी बहुत उम्दा प्रदर्शन करती है। अगला मुकाम है कॉलेज, मैं कल्पना करती हूं कि वह मेरे पुराने कॉलेज , दिल्ली के सेंट स्टीफेंस में दाखिले के लिए इंटरव्यू दे रही है। क्या उसे ले लिया जाएगा? क्या वे उसकी अकादमिक प्रखरता की सराहना करेंगे? या वे उसके उच्चारण का मजाक उड़ाएंगे और वह जब भी कोई व्याकरणिक गलती करेगी, उसका उपहास करेंगे और फिर उसे अपने दोस्त खोजते रहने के लिए अकेला छोड़ जाएंगे ?
गरिमा का यह उदाहरण भविष्य के साथ भारत के विकृत साक्षात्कार का एक रूपक है। कार्यक्रम खत्म होने के बाद मुझे पता चला और यह महत्वपूर्ण है कि यह बात उसने या उसके मां-बाप ने नहीं बताई कि वह अन्य पिछड़ा वर्ग से है। पिछले कुछ अर्से से आरक्षण पर बहस गर्म है। इसके विरोधियों ने बार-बार वही बात दुहराई है कि हमें योग्यता की कद्र करने वाला समाज बनाना चाहिए। निश्चय ही यह एक वजनदार तर्क है और मैं भी इसी के पक्ष में रही हूं।
लेकिन गलियों में आरक्षण विरोध की लड़ाई लड़ने वाले अब क्या कहेंगे ? यहां है वह लड़की जिसने मुख्यधारा में प्रतिस्पर्धा की है। उसका अपना दिल्ली पब्लिक स्कूल भी चमचमाते, अमीर , बड़े नामों के सामने टिका रहा है। लेकिन उसकी योग्यता तो उच्च वर्ग के धूर्तों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा एक धोखे भरा शब्द मात्र है। यह किस्सा भारत के वर्ग भेद पर भी एक कटु टिप्पणी है। तेजी से बढ़ रहे मध्यमवर्ग की बात करना बाजारबाजों और अर्थशास्त्रियों के लिए फैशन में शुमार हो चला है। भारतीय बाजार और नए मध्यमवर्ग के आकार को दर्शाने वाला कोई न कोई आंकड़ा रोज उछाला जाता है। हम इन आंकड़ों को गले लगाते हैं क्योंकि हमें भी यह विचार लुभाता है कि भारत नई शताब्दी का लोकप्रिय आर्थिक मुकाम बन रहा है। जब 'टाइम' पत्रिका अपने मुख पृष्ठ पर हमारे देश को सजाती है तो हम गर्वित होते हैं और खास तौर पर विदेशियों के सामने, धड़ल्ले से सामाजिक गतिशीलता और अमीर-गरीब के बीच संकुचित होती जा रही खाई की बात करने लगते हैं। हम कहते हैं कि भारत के भविष्य का निर्माण इसका उद्यमी और साहसी मध्यमवर्ग कर रहा है और महसूस करते हैं कि मानों अभी इसी वक्त वह भविष्य हमारे सामने साकार हो रहा है। लेकिन एक सच हम कभी स्वीकार नहीं करते। पिछले दशक की सामाजिक गतिशीलता का अर्थ है कि नया मध्यमवर्ग हम जैसों से निर्मित नहीं है। इसकी बजाय , यह गरिमा जैसे लोगों से बना है, जिन्हें अलग रखने के बहाने अभी भी हमारे पास है। हम पाश्चात्य सॉफिस्टिकेशन के उनके अभाव पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, उनके उच्चारण का मजाक उड़ाते हैं और यह सुनिश्चित करने की भरसक कोशिश करते हैं कि हमारे बच्चे उनके बच्चों से अलग रहें , अलग दिखें।
और अंत में , गरिमा का आख्यान अंग्रेजी भाषा से भारत के रिश्ते की विडम्बना को भी उजागर करता है। पूरी दुनिया में कहीं भी हमारे जैसी अंग्रेजी नहीं बोली जाती। हमारा अपना मुहावरा है, अपनी शब्दावली और अपना उच्चारण। हम अपनी शैली की अंग्रेजी से प्यार का ढोंग करते हैं और इस बात की डींग हांकते हैं कि इसी कारण भारत ने विश्व के आउट सोर्सिंग बाजार में अपनी धाक जमा रखी है। लेकिन निश्चय ही अंतरमन में हम जानते हैं कि वाकई पश्चिम जिसे चाहता है वैसी अंग्रेजी हमारी नहीं है। और इसीलिए , जब भी हम किसी ब्रिटिश या अमेरिकी से बात करते हैं, अपनी शैली और उच्चारण के उतार-चढ़ाव में फेरबदल कर लेते हैं। जब हम अपने कॉल सेंटर स्थापित करते हैं तो हमारे अपने समाज के वाणी व्यवहार को पूरी तरह तिलांजलि दे देते हैं और भाषाई रूप से मध्य अमेरिका में प्रव्रजन कर ऐसे लोगों का छद्म-प्रतिरूप बन जाते हैं , जिनसे कभी हमारी मुलाकात तक नहीं होगी।
लेकिन भारत में हम अपनी अंग्रेजी को ही सामाजिक नियंता मानते हैं। हम क्षेत्रीय उच्चारणों पर हंसते हैं , व्याकरण की गलतियां करने वालों का मजाक उड़ाते हैं और उनके साथ सहज अनुभव करते हैं तो हमारी तरह से बोलते हैं। शेष सभी तो अंग्रेजी की इस विभाजक रेखा के उस पार हैं। स्वाभाविक ही है कि जो दूसरी तरफ हैं , उनकी जाति भी भिन्न है, वर्ग भी। शायद इस लघु समुदाय से हमारे मजबूती से चिपकने के मूल में हमारी असुरक्षा है। हमारे छोटे-से बुलबुले के बाहर भारत बदल रहा है। ताजा समय में हर बड़ा संस्थान चाहे वह संसद हो , नौकरशाही हो, सेना हो, स्कूल-कॉलेज हो, अपने नियमों का पुनर्लेखन करने को बाध्य हैं। भारतीयों की एक नई नस्ल जो अपनी स्वीकृति के लिए पश्चिम की मुखापेक्षी नहीं है , अपनी उपस्थिति महसूस कर रही है। हम इसे गुणवत्ता की कमी कहते हैं। लेकिन असल में तो यह शेष भारत के अंदर आने की कोशिश है। हम कब तक दरवाजे बंद रखेंगे?
- आशीष कुमार 'अंशु'
[९८६८४१९४५३]
लगभग सोलह वर्ष की एक लड़की उस दिन एक टीवी चैनल पर इंटरव्यू दे रही थी। 97 प्रतिशत अंक मिले भी उसे परीक्षा में, पर राजधानी के एक ऊंचे स्कूल में प्रवेश नहीं मिला। लेकिन उस लड़की की बातों ने विख्यात टीवी एंकर बरखा दत्त को ठहर कर सोचने के लिए विवश कर दिया। बरखा दत्त ने जो सोचा है , वह यह है
पत्रकारिता की एक कष्टदायक लेकिन जरूरी विशेषता यह है कि कभी-कभी आपका काम ही आपको अपनी जिंदगी के सामने आईना लेकर खड़ा कर देता है। एक शांत लेकिन दृढ़ निश्चयी 16 वर्षीया युवती ने अचानक मेरी शिक्षा को ऐसा ही आईना दिखा दिया था। मेरा यह मानना है कि मेरे स्कूल व कॉलेज के वर्ष मेरे व्यक्तित्व के प्रारंभिक निर्माता थे , हर मध्यमवर्गीय भारतीय की तरह मैंने जहां पढ़ाई की और जो मुझे पढ़ाया गया उस पर गर्व किया है, तथापि इस युवा लड़की के विनम्र आदर्शवाद ने मुझे ठहरकर सोचने को विवश कर दिया है - क्या मेरी पब्लिक स्कूल की शिक्षा शर्मनाक रूप से अभिजातवर्गीय थी ?
पहली नजर में बात सीधी-सादी थी , 97.6 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाली सीबीएसई की टॉपर गरिमा गोदारा ने अपने गांव के सबसे नजदीक दिल्ली स्थित द्वारका दिल्ली पब्लिक स्कूल के लिए प्रवेश परीक्षा दी। 6 हजार रुपए प्रतिमाह से भी कम पाने वाले पुलिस के सिपाही, उसके पिता के लिए इस स्कूल की फीस बड़ी समस्या रही होगी। लेकिन परिवार अविचलित था। छात्रवृत्ति या ऋण की आस थी। निश्चय ही स्कूल भी ऐसी छात्रा को प्रवेश देना ही चाहेगा जिसने राष्ट्रीय राजधानी की योग्यता सूची में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। गरिमा के पिता ने अपने बुजुर्गों की संस्थापित पितृसत्तात्मकता और इन तांकू-झांकू पड़ोसियों से जूझने में महीनों खपाए थे जो यह बकवास करते थे कि लड़की रसोई में काम क्यों नहीं करती। अपनी बेटी को उसे प्राप्तांकों के अनुरूप शिक्षा दिलाने का उनका इरादा और भी मजबूत होता गया था। यह नए भारत और इसके मध्यम वर्ग का एक व्याख्यान हो सकता था। सपने देखने का दुस्साहस करने वाले देश का मील का पत्थर हो सकता था। लेकिन इसकी बजाय हुआ यह कि दिल्ली पब्लिक स्कूल ने उसे मना कर दिया। ठीक है। परिणाम अच्छा है लेकिन स्कूल के प्रिंसीपल ने कहा , अंक ही तो सब कुछ नहीं होते। फिर इसकी तो अंग्रेजी भी अच्छी नहीं है। बाद में गरिमा को सुनते हुए क्रुध्द या विचलित न होना मुश्किल था। जाहिर अन्याय के कारण क्रुध्द। वह अपने परिणाम के अनुरूप ही मेधावी थी और जैसी अंग्रेजी वह बोल रही थी उससे स्पष्ट था कि वह पाठयक्रम को समझने पूरी तरह सक्षम थी। हां , उसके उच्चारण में जरूर क्षेत्रीय स्पर्श था। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वह न केवल जटिल विमर्श को समझ सकती थी, उसका बोला हुआ किसी भी अंग्रेजी वक्ता की समझ में भी आ सकता था।
उसका शांत भाव परेशान करने वाला था। एक मौन साहस था जो उसकी किशोरावस्था के कतई अनुरूप नहीं था। ऐसा लग रहा था मानो उसकी तुलना में हम ही अधिक अपमानित और क्रुध्द थे। कार्यक्रम के बीच देहरादून के एक सुपरिचित स्कूल के प्रिंसीपल ने फोन कर उसे छात्रवृत्ति सहित प्रवेश देने की पेशकश की तो अन्य ने डीपीएस का निर्णय बदलवाने के वादे किए। लेकिन आहत होने का किंचित भी आभास दिए बगैर उसने दृढ़ता से कहा कि अब तो उसका लक्ष्य दिल्ली पब्लिक स्कूल को यह बताना मात्र है कि वह अपने किसी भी विद्यार्थी से बेहतर हो सकती है। उसने एक अन्य स्कूल में प्रवेश ले लिया और दिल्ली पब्लिक स्कूल अब उसे भूल जाए। जब वह टीवी पर बोल रही थी , दर्शक भी स्पष्टत: मेरी ही तरह क्रुध्द थे। तात्कालिक ऑनलाइन जनमत संग्रह के अनुसार 90 प्रतिशत दर्शकों का खयाल था कि अंग्रेजी भाषा हमारी शिक्षा व्यवस्था पर एक असंतुलित प्रभाव डाल रही है। लेकिन क्या हम सबका बरताव पाखंडी और बेईमानों जैसा नहीं है? इस बार डीपीएस सामने आ गया, लेकिन क्या हममें से कोई भी उससे भिन्न है? कल्पना कीजिए, वह स्कूल में भी बहुत उम्दा प्रदर्शन करती है। अगला मुकाम है कॉलेज, मैं कल्पना करती हूं कि वह मेरे पुराने कॉलेज , दिल्ली के सेंट स्टीफेंस में दाखिले के लिए इंटरव्यू दे रही है। क्या उसे ले लिया जाएगा? क्या वे उसकी अकादमिक प्रखरता की सराहना करेंगे? या वे उसके उच्चारण का मजाक उड़ाएंगे और वह जब भी कोई व्याकरणिक गलती करेगी, उसका उपहास करेंगे और फिर उसे अपने दोस्त खोजते रहने के लिए अकेला छोड़ जाएंगे ?
गरिमा का यह उदाहरण भविष्य के साथ भारत के विकृत साक्षात्कार का एक रूपक है। कार्यक्रम खत्म होने के बाद मुझे पता चला और यह महत्वपूर्ण है कि यह बात उसने या उसके मां-बाप ने नहीं बताई कि वह अन्य पिछड़ा वर्ग से है। पिछले कुछ अर्से से आरक्षण पर बहस गर्म है। इसके विरोधियों ने बार-बार वही बात दुहराई है कि हमें योग्यता की कद्र करने वाला समाज बनाना चाहिए। निश्चय ही यह एक वजनदार तर्क है और मैं भी इसी के पक्ष में रही हूं।
लेकिन गलियों में आरक्षण विरोध की लड़ाई लड़ने वाले अब क्या कहेंगे ? यहां है वह लड़की जिसने मुख्यधारा में प्रतिस्पर्धा की है। उसका अपना दिल्ली पब्लिक स्कूल भी चमचमाते, अमीर , बड़े नामों के सामने टिका रहा है। लेकिन उसकी योग्यता तो उच्च वर्ग के धूर्तों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा एक धोखे भरा शब्द मात्र है। यह किस्सा भारत के वर्ग भेद पर भी एक कटु टिप्पणी है। तेजी से बढ़ रहे मध्यमवर्ग की बात करना बाजारबाजों और अर्थशास्त्रियों के लिए फैशन में शुमार हो चला है। भारतीय बाजार और नए मध्यमवर्ग के आकार को दर्शाने वाला कोई न कोई आंकड़ा रोज उछाला जाता है। हम इन आंकड़ों को गले लगाते हैं क्योंकि हमें भी यह विचार लुभाता है कि भारत नई शताब्दी का लोकप्रिय आर्थिक मुकाम बन रहा है। जब 'टाइम' पत्रिका अपने मुख पृष्ठ पर हमारे देश को सजाती है तो हम गर्वित होते हैं और खास तौर पर विदेशियों के सामने, धड़ल्ले से सामाजिक गतिशीलता और अमीर-गरीब के बीच संकुचित होती जा रही खाई की बात करने लगते हैं। हम कहते हैं कि भारत के भविष्य का निर्माण इसका उद्यमी और साहसी मध्यमवर्ग कर रहा है और महसूस करते हैं कि मानों अभी इसी वक्त वह भविष्य हमारे सामने साकार हो रहा है। लेकिन एक सच हम कभी स्वीकार नहीं करते। पिछले दशक की सामाजिक गतिशीलता का अर्थ है कि नया मध्यमवर्ग हम जैसों से निर्मित नहीं है। इसकी बजाय , यह गरिमा जैसे लोगों से बना है, जिन्हें अलग रखने के बहाने अभी भी हमारे पास है। हम पाश्चात्य सॉफिस्टिकेशन के उनके अभाव पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, उनके उच्चारण का मजाक उड़ाते हैं और यह सुनिश्चित करने की भरसक कोशिश करते हैं कि हमारे बच्चे उनके बच्चों से अलग रहें , अलग दिखें।
और अंत में , गरिमा का आख्यान अंग्रेजी भाषा से भारत के रिश्ते की विडम्बना को भी उजागर करता है। पूरी दुनिया में कहीं भी हमारे जैसी अंग्रेजी नहीं बोली जाती। हमारा अपना मुहावरा है, अपनी शब्दावली और अपना उच्चारण। हम अपनी शैली की अंग्रेजी से प्यार का ढोंग करते हैं और इस बात की डींग हांकते हैं कि इसी कारण भारत ने विश्व के आउट सोर्सिंग बाजार में अपनी धाक जमा रखी है। लेकिन निश्चय ही अंतरमन में हम जानते हैं कि वाकई पश्चिम जिसे चाहता है वैसी अंग्रेजी हमारी नहीं है। और इसीलिए , जब भी हम किसी ब्रिटिश या अमेरिकी से बात करते हैं, अपनी शैली और उच्चारण के उतार-चढ़ाव में फेरबदल कर लेते हैं। जब हम अपने कॉल सेंटर स्थापित करते हैं तो हमारे अपने समाज के वाणी व्यवहार को पूरी तरह तिलांजलि दे देते हैं और भाषाई रूप से मध्य अमेरिका में प्रव्रजन कर ऐसे लोगों का छद्म-प्रतिरूप बन जाते हैं , जिनसे कभी हमारी मुलाकात तक नहीं होगी।
लेकिन भारत में हम अपनी अंग्रेजी को ही सामाजिक नियंता मानते हैं। हम क्षेत्रीय उच्चारणों पर हंसते हैं , व्याकरण की गलतियां करने वालों का मजाक उड़ाते हैं और उनके साथ सहज अनुभव करते हैं तो हमारी तरह से बोलते हैं। शेष सभी तो अंग्रेजी की इस विभाजक रेखा के उस पार हैं। स्वाभाविक ही है कि जो दूसरी तरफ हैं , उनकी जाति भी भिन्न है, वर्ग भी। शायद इस लघु समुदाय से हमारे मजबूती से चिपकने के मूल में हमारी असुरक्षा है। हमारे छोटे-से बुलबुले के बाहर भारत बदल रहा है। ताजा समय में हर बड़ा संस्थान चाहे वह संसद हो , नौकरशाही हो, सेना हो, स्कूल-कॉलेज हो, अपने नियमों का पुनर्लेखन करने को बाध्य हैं। भारतीयों की एक नई नस्ल जो अपनी स्वीकृति के लिए पश्चिम की मुखापेक्षी नहीं है , अपनी उपस्थिति महसूस कर रही है। हम इसे गुणवत्ता की कमी कहते हैं। लेकिन असल में तो यह शेष भारत के अंदर आने की कोशिश है। हम कब तक दरवाजे बंद रखेंगे?
शनिवार, 20 अक्तूबर 2007
मेरे बारे में कोई राय ना कायम करना
- राज नाथ सिंह सूर्य
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बयासी साल का हो गया है। संस्थापक डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार के समय का अब शायद ही कोई स्वयंसेवक शेष हो, लेकिन उनसे प्रेरणा लेकर आज भी संघ के पास स्वयंसेवकों की बड़ी फौज है। संघ कार्य का विस्तार देश की सीमाओं को लांघ चुका है और विश्व का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां हिंदुओं की पर्याप्त संख्या में आबादी हो और वह संघ कार्य से अछूती रह गई हो। डाक्टर हेडगेवार ने जिस संघ को शाखा के रूप में मूर्तमान किया था, अब उसके बहुविधि स्वरूप हो गए हैं। जीवन का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो जिसको स्पर्श करने के लिए संघ के स्वयंसेवक कार्यरत न हों। डॉ। हेडगेवार ने संघ का गठन हिंदुओं को संगठित करने के लिए किया था, लेकिन अब गैर हिंदू यानी ईसाइयों और मुसलमानों के बीच भी संघ का विस्तार हो चुका है। संघ संस्कारों के फलस्वरूप राष्ट्रीय चेतना के लिए इतने संगठन क्रियाशील हैं, जिनकी गणना के लिए संघ को एक अलग विभाग सृजित करना पड़ सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संसार का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन तो है ही, उसके स्वयंसेवकों द्वारा संचालित भारतीय शिक्षा परिषद दुनिया की सबसे बड़ा शिक्षण संस्थान बन चुकी है। वनवासी कल्याण आश्रम, विवेकानंद केंद्र आदि के माध्यम से उसने उपेक्षित क्षेत्रों में अपेक्षित राष्ट्रीय चेतना का संचार किया है। शिक्षा के साथ-साथ कृषि, व्यापार, उद्योग आदि क्षेत्रों में उसके स्वयंसेवक महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। धर्म जागरण मंच कर्मकांड के वास्तविक महत्व को समझाने में लगा हुआ है, वहीं संस्कृत भारती अत्यंत सरलतापूर्वक संस्कृत के पठन-पाठन और उसमें अभिव्यक्ति के लिए क्रियाशील है। इतना अधिक विस्तारित होने के कारण कभी-कभी उसकी शाखाओं को ही मूल संगठन समझने का भ्रम हो जाता है और कुछ लोग यह मानकर चलते भी हैं कि संघ स्वयं में मूल संगठन न होकर विश्व हिंदू परिषद या भारतीय जनता पार्टी का सहायक संगठन है। इसका मुख्य कारण यह हो सकता है कि जहां संघ प्रेरित शेष संस्थाएं सेवा और संस्कार के कार्यो में लगी रहने के कारण संवाद और विवाद से परे रहने से चर्चा का विषय नहीं बनतीं वहीं राजनीति में रहने के कारण भाजपा और आंदोलित रहने के कारण विश्व हिंदू परिषद के बारे में निरंतर संवाद और विवाद का क्रम बना रहता है। संघ कभी इन विवादों का समाधान करने के लिए चर्चित होता है तो कभी उनकी क्षमता बढ़ाने में योगदान देने के लिए। इन दोनों ही चर्चाओं में संघ का मूल्यांकन सीमित हो जाने के कारण डाक्टर हेडगेवार ने जिस सामाजिक चेतना के लिए संघ की स्थापना की थी वह गौण हो जाती है। संघ की कार्यपद्धति संस्कार की है। इसलिए संघ एक संगठनात्मक आधार की संस्था है, आंदोलनात्मक आधार की नहीं। संघ संगठन में आज भी जितनी संख्या में स्वयंसेवक निस्वार्थ भाव से योगदान कर रहे हैं, वैसे निष्ठा से काम करने वाले दुर्लभ हैं। संघ के द्वितीय सरसंघ चालक श्री गुरुजी ने ऐसे कार्यकर्ताओं को देव दुर्लभ की संज्ञा प्रदान की थी। जिस संस्था के पास ऐसे कार्यकर्ताओं की निरंतरता बनी हुई हो, उसका प्रभाव घटने लगे तो यह आश्चर्य की बात है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सक्रिय लोगों को भले ही प्रभाव कम होने का आभास न होता हो लेकिन जो आम धारणा है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। विस्तार के अनुरूप संघ का प्रभाव न होने के कारणों में जाना चाहिए। संघ को यह भी समझना होगा कि उसके संस्थापक ने क्यों राजनीति से परे ऐसे संगठन की आवश्यकता महसूस की। संभवत: यह घटना साठ के दशक की है। कानपुर के संघ शिक्षा वर्ग में द्वितीय सरसंघ चालक गुरुजी ने तमाम वरिष्ठ प्रचारकों और पंडित दीनदयाल उपाध्याय सहित तमाम जनसंघ नेताओं की उपस्थिति में एक सवाल किया था। उन्होंने अपने भाषण के दौरान जानना चाहा कि संघ हिंदुओं का संगठित करने में लगा है तो क्या हिंदू सिर्फ जनसंघ में हैं? आज जब संघ गैर हिंदुओं में भी कार्य कर रहा है तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या हिंदू सिर्फ भारतीय जनता पार्टी में ही हैं? संघ शक्ति का जितना अपव्यय भाजपा को संवारने और विश्व हिंदू परिषद को संभालने में हो रहा है उतना ही उसका प्रभाव सीमित होता जा रहा है। श्री गुरुजी के जन्मशताब्दी वर्ष में इतने व्यापक और विशाल समरसता आयोजन उसी प्रकार विफल हो गए, जैसे दूध से भरे पात्र में नींबू की एक बूंद निचोड़ दी जाए। क्या कारण है कि संघ के सभी आयोजनों का आकलन भाजपा के साथ जोड़कर देखा जाना आम बात हो गई है। संघ की जिन बैठकों में भाजपा के पदाधिकारियों की उपस्थिति नहीं होती उनका भी आकलन भाजपा को केंद्र बिंदु मानकर किया जाता है। इसके लिए मीडिया में सनसनी की भावना को दोष देना स्थिति के सही आकलन से मुंह मोड़ना होगा। एक अन्य संगठन विश्व हिंदू परिषद के क्रियाकलाप को संघ का क्रियाकलाप मानकर चलाया जा रहा है। यह ठीक है कि संघ के संस्थापक हेडगेवार ने 1930 के असहयोग आंदोलन में भाग लिया और जेल भी गए, लेकिन उन्होंने संघ को सदैव आंदोलन से अलग रखा। यही नहीं, सत्याग्रह में जाने पर सरसंघ चालक का दायित्व भी छोड़ दिया था। उसके पीछे उनका उद्देश्य था, संघ कार्य की दिशा को ठीक रखना। आज संघ विश्व हिंदू परिषद के प्रत्येक आंदोलन में भाग लेने लगा है। जब कोई संगठन आंदोलनों की श्रृंखला में उलझ जाता है, उसका संगठनात्मक ढांचा ध्वस्त हो जाता है। महात्मा गांधी ने 1920 के बाद 1930 में और फिर 1942 में ही व्यापक जन आंदोलन का आह्वान किया था। विश्व हिंदू परिषद को आकार देने वाले श्री गुरुजी ने तो 1948 में संघ स्वयंसेवकों पर अत्याचार करने वालों को भी दांत के बीच जीभ आ जाने, पर कोई दांत नहीं तोड़ डालता कहकर संयमित आचरण के लिए प्रेरित किया था लेकिन उनके प्रति आस्थावान जब किसी के लिए अशालीन भाषा का प्रयोग करें या सिर काट लाने पर संतों द्वारा सोने की भाषा बोलने लगें तो यह विचार उठना स्वाभाविक है कि मूल संगठन की दिशा और दृष्टि उसके पदाधिकारियों व स्वयंसेवकों की भी है या नहीं? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भले ही बयासी वर्ष का संगठन हो गया हो, लेकिन वह बूढ़ा नहीं हुआ। इसमें नूतनता का क्रम बना हुआ है, लेकिन जैसे पावर हाउस में उत्पादन ठप हो जाने के कारण विस्तारित लाइन में बिजली के संचार में कमी आ जाती है, संघ भी वैसी स्थिति में पहुंच रहा है। उसके विस्तार के प्रभाव पर राजनीतिक छाया गहराने के कारण अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहा है। संघ के प्रथम और द्वितीय सरसंघ चालक ने संघ के दैनंदिन कार्य को ही सर्वोपरि समझा था। संघ आर्यसमाज के समान संस्थाओं पर अधिकार के झमेले में फंसकर अपनी पहचान न खो दे, इसके लिए आवश्यक है कि दो प्रथम सरसंघ चालकों द्वारा निर्धारित दिशा और दृष्टि उसके संगठन का आधार बनी रहे। संघ की स्थापना न तो किसी तात्कालिक समस्या के समाधान के लिए हुई थी और न ही किसी व्यक्ति की महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए। संघ समाज का ही दूसरा स्वरूप है उससे पृथक कुछ भी नहीं। इस सोच के साथ राष्ट्रीय चैतन्यता के लिए संघ की स्थापना का उद्देश्य आज भी उतना ही सार्थक है, जितना उसकी स्थापना के समय था। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)
शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2007
बिन्दास बोल - कैसे बोलें बिन्दास?
नवम्बर में इसी साल लन्दन में पहली बार 'अन्तरराष्ट्रीय जनसंपर्क एजेन्सी' और संयुक्त राष्ट्र के संयुक्त तत्वावधान में एक भारतीय जनसंपर्क एजेन्सी को 'आईपीआरए गोल्डन अवार्ड' से सम्मानित किया जाएगा। सम्मानित भी क्यों न किया जाए! उसने भारत जैसे संस्कार-संस्कृति पर गर्व करने वाले देश में कंडोम जैसे उत्पाद का इतना बड़ा बाजार खड़ा करने का चमत्कार कर दिखाया है। कंपनी का नाम है, 'कारपोरेट वाइस/वेबर शैंडवीक।' भारत में कंडोम की बिक्री बढ़ाने के लिए इसने एक नायाब तरीका ढूंढा। यह तरीका था, 'बिन्दास बोल-कंडोम बोल' के विज्ञापन का। आपने भी यह विज्ञापन जाने-अंजाने में देखा होगा। इस कैम्पेन में कंडोम की बिक्री करने वाली दुकानों पर कुछ उपहार की व्यवस्था की गई थी। यदि ग्राहक बिना किसी संकोच के दुकान पर आकर कंडोम की मांग करता था तो उसे दुकानदार पुरस्कार देते थे। यह कैम्पेन हिट हुआ और कंडोम के भारतीय बाजार में 22 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। जिन 8 राज्यों दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड को केन्द्र में रखकर यह कंडोम कैम्पेन चलाया गया था, वहां वृद्धि 45 फीसदी रही।
प्राइवेट सेक्टर पार्टनरशिप फार बेटर हेल्थ (पीएसपी-वन), यूनाइटेड स्टेट एजेन्सी फार इंटरनेशनल डेवलपमेन्ट (यूएसएआईडी), प्रोजेक्ट, आईसीआईसीआई बैंक और भारतीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की सहायता से 'वेबर शैंडवीक' ने भारत में अपना कैम्पेन चलाया। एजेन्सी अपने कैम्पेन के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहती है कि ''कंडोम उपेक्षा का शब्द नहीं है। लोग इस बात को समझें और इसके संबंध में बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वतंत्रता पूर्वक बात करें। दूसरे लोग इस बात को समझें कि यह व्यक्ति विशेष के लिए नहीं बना, हर खासों-आम इसका इस्तेमाल कर सकता है।''
अतुल अहलुवालिया कारपोरेट वर्ल्ड/वेबर शैंडवीक के पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्रीय प्रमुख हैं। बकौल अहलुवालिया- ''यूएन अवार्ड का मिलना सिर्फ वेबर शैंडवीक की उपलब्धि नहीं है। हमें खुशी इस बात की है कि हमारे प्रयास को अंतरराष्ट्रीय मंच पर सराहा जा रहा है।'' आईपीआरए निर्णायकों ने कुल 21 श्रेणियों में पुरस्कार की घोषणा की। वेबर शैंडवीक को एनजीओ श्रेणी में यह पुरस्कार मिला है। इस प्रतियोगिता में 46 देशों से 405 प्रविष्टियां आई थीं। इसमें से 107 पुरस्कार के अन्तिम दौड़ में शामिल हुई थीं।
यह तो कंडोम कथा का एक पक्ष है। अब आइए आपका कथा के भारतीय-पक्ष से परिचय कराएं। वास्तव में बिन्दास बोल 'सेफ सेक्स' के पश्चिमी पैटर्न को वाया कंडोम भारत में लाने की साजिश जैसा ही है। हमें इस बात से संभल जाना चाहिए। हाल ही में राजधानी में आयोजित एक कार्यक्रम में आर्कबिशप मुम्बई की प्रतिनिधि बनकर डा। थाइलामा आई थीं। उन्होंने साफ शब्दों में कहा, ''भारत के अंदर जिस कंडोम का बाजार बढ़ाने के लिए तमाम तरह की कवायद हो रही है, वैज्ञानिक दृष्टि से यह भी एचआईवी से सौ फीसदी सुरक्षा नहीं देता। अनैच्छिक गर्भ से भी यह सौ फीसदी मुक्ति नहीं देता।'' जहां तक एड्स से बचाव और सुरक्षा का सवाल है तो इसके लिए एक नायाब तरीका सुझाया सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर.एस. लाहौटी ने। वे कहते हैं, ''यदि दुनिया एक पति-एक पत्नी की भारतीय परंपरा को अपनाए तो एड्स नामक बीमारी का अपने आप दुनियां से खात्मा हो जाएगा।'' वे ब्रिटेन का उदाहरण देकर बताते हैं कि सन् 1998 तक वहां 64.8 फीसदी लड़कियां 18 साल से कम उम्र में गर्भवती हो गईं थीं। यह आंकड़ा 4 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ता जा रहा है। अमेरिका में यह आंकड़ा 83 फीसदी का है। कनाडा में हालत और भी बुरी है। पश्चिमी देशों में समलैंगिकों और रक्त संबंधियों में यौन संबंध का चलन भी बढ़ता जा रहा है। क्या हम कभी चाहेंगे कि यह सब कुछ भारत में भी हो। यदि नहीं तो हमें तथाकथित समाजसेवियों के 'सेक्स एजुकेशन' और 'बिन्दास बोल' जैसे कैम्पेन का पुरजोर विरोध करना ही चाहिए।'
(यह लेख आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं - http://www.bhartiyapaksha.com/mag-issues/2007/oct07/kaisaboaibindas.html )
प्राइवेट सेक्टर पार्टनरशिप फार बेटर हेल्थ (पीएसपी-वन), यूनाइटेड स्टेट एजेन्सी फार इंटरनेशनल डेवलपमेन्ट (यूएसएआईडी), प्रोजेक्ट, आईसीआईसीआई बैंक और भारतीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की सहायता से 'वेबर शैंडवीक' ने भारत में अपना कैम्पेन चलाया। एजेन्सी अपने कैम्पेन के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहती है कि ''कंडोम उपेक्षा का शब्द नहीं है। लोग इस बात को समझें और इसके संबंध में बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वतंत्रता पूर्वक बात करें। दूसरे लोग इस बात को समझें कि यह व्यक्ति विशेष के लिए नहीं बना, हर खासों-आम इसका इस्तेमाल कर सकता है।''
अतुल अहलुवालिया कारपोरेट वर्ल्ड/वेबर शैंडवीक के पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्रीय प्रमुख हैं। बकौल अहलुवालिया- ''यूएन अवार्ड का मिलना सिर्फ वेबर शैंडवीक की उपलब्धि नहीं है। हमें खुशी इस बात की है कि हमारे प्रयास को अंतरराष्ट्रीय मंच पर सराहा जा रहा है।'' आईपीआरए निर्णायकों ने कुल 21 श्रेणियों में पुरस्कार की घोषणा की। वेबर शैंडवीक को एनजीओ श्रेणी में यह पुरस्कार मिला है। इस प्रतियोगिता में 46 देशों से 405 प्रविष्टियां आई थीं। इसमें से 107 पुरस्कार के अन्तिम दौड़ में शामिल हुई थीं।
यह तो कंडोम कथा का एक पक्ष है। अब आइए आपका कथा के भारतीय-पक्ष से परिचय कराएं। वास्तव में बिन्दास बोल 'सेफ सेक्स' के पश्चिमी पैटर्न को वाया कंडोम भारत में लाने की साजिश जैसा ही है। हमें इस बात से संभल जाना चाहिए। हाल ही में राजधानी में आयोजित एक कार्यक्रम में आर्कबिशप मुम्बई की प्रतिनिधि बनकर डा। थाइलामा आई थीं। उन्होंने साफ शब्दों में कहा, ''भारत के अंदर जिस कंडोम का बाजार बढ़ाने के लिए तमाम तरह की कवायद हो रही है, वैज्ञानिक दृष्टि से यह भी एचआईवी से सौ फीसदी सुरक्षा नहीं देता। अनैच्छिक गर्भ से भी यह सौ फीसदी मुक्ति नहीं देता।'' जहां तक एड्स से बचाव और सुरक्षा का सवाल है तो इसके लिए एक नायाब तरीका सुझाया सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर.एस. लाहौटी ने। वे कहते हैं, ''यदि दुनिया एक पति-एक पत्नी की भारतीय परंपरा को अपनाए तो एड्स नामक बीमारी का अपने आप दुनियां से खात्मा हो जाएगा।'' वे ब्रिटेन का उदाहरण देकर बताते हैं कि सन् 1998 तक वहां 64.8 फीसदी लड़कियां 18 साल से कम उम्र में गर्भवती हो गईं थीं। यह आंकड़ा 4 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ता जा रहा है। अमेरिका में यह आंकड़ा 83 फीसदी का है। कनाडा में हालत और भी बुरी है। पश्चिमी देशों में समलैंगिकों और रक्त संबंधियों में यौन संबंध का चलन भी बढ़ता जा रहा है। क्या हम कभी चाहेंगे कि यह सब कुछ भारत में भी हो। यदि नहीं तो हमें तथाकथित समाजसेवियों के 'सेक्स एजुकेशन' और 'बिन्दास बोल' जैसे कैम्पेन का पुरजोर विरोध करना ही चाहिए।'
(यह लेख आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं - http://www.bhartiyapaksha.com/mag-issues/2007/oct07/kaisaboaibindas.html )
पलायन के लिए मजबूर महिलाएं
- आशीष कुमार ‘अंशु’
(मेरा यह लेख राष्ट्रिय सहारा में प्रकाशीत हो चुका है। वहीं से साभार लिया है।)
बुधवार, 17 अक्तूबर 2007
मंझधार से अखबार तक
29 जनवरी 2004 को तहलका के अखबारी अवतार से ठीक एक दिन पहले शोमा चौधरी द्वारा लिखा गया ये लेख तहलका के संघर्षों की कहानी है...
तहलका के पहले अंक तक का इंतजार हमारे लिए बहुत लंबा रहा। इंतजार के इससफर में काफी मुश्किलें भी आईं। दो बार तो ऐसा हुआ कि पूरी तैयारी केबावजूद हम शुरुआत में ही लड़खड़ा गए। महीने गुजरते गए और मुश्किलों काअंधेरा कम होने के बजाय और घना होता गया। लेकिन अब तीस जनवरी को हम फिरएक नई शुरुआत कर रहे हैं। नये आफिस में टाइपिंग की खटखट शुरू हो चुकी है।खिड़की से नजर आ रहा अमलतास का पेड़ मुझे पुराने और बंद हो चुके आफिस कीयाद दिला रहा है। हर किसी को बेसब्री से कल का इंतजार है। कल सुबह लोग जबतहलका अखबार पढ़ रहे होंगे तो यह केवल हमारी जीत नहीं होगी, ये उन हजारोंभारतीयों की भी जीत होगी जिन्होंने हम पर भरोसा किया। इस जीत के मायनेमहज एक अखबार निकाल लेने की सफलता से कहीं ज्यादा गहरे होंगे।शायद इस जीत का मतलब उस सफर से भी निकलता है जो हमने तय किया। तहलका अबसिर्फ एक अखबार की कहानी नहीं रही। जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया, तहलका केसाथ हुई घटनाओं ने तहलका शब्द को लोगों के दिल में बसा दिया। तहलका कासफर गुस्सा, निराशा, ऊर्जा और सपनों के मेल से बना है। ये सिर्फ हमारीकहानी नहीं है। ये उम्मीद, आत्मविश्वास और आदर्शवाद की ताकत की कहानी है।उससे भी ज्यादा ये एकता और सकारात्मक सोच की ताकत का सबूत है। तहलका काअखबार के रूप में लोगों तक पहुंचना कोई छोटी बात नहीं है। इससे यह साबितहोता है कि आम लोग सही चीजों के लिए लड़ सकते हैं, और न केवल लड़ सकतेहैं बल्कि जीत भी सकते हैं। तहलका का अखबार के रूप में लोगों तक पहुंचनाकोई छोटी बात नहीं है। इससे यह साबित होता है कि आम लोग सही चीजों के लिएलड़ सकते हैं, और न केवल लड़ सकते हैं बल्कि जीत भी सकते हैं।पिछले दो साल के दरम्यान ऐसे कई ऐसे लम्हे आए जब तहलका का नामोनिशां मिटसकता था। रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार को उजागर करते स्टिंग आपरेशन सेहमें सुर्खियां तो मिलीं पर दूसरी तरफ हमें सरकार से दुश्मनी की कीमत भीचुकानी पड़ी। जान से मारने की धमकियां, छापे, गिरफ्तारियां और पूछताछ केउस भयावह सिलसिले की याद आज भी रूह में सिहरन पैदा कर देती है। बढ़तेकर्ज के बोझ के बाद ऑफिस भी बस किसी तरह चल पा रहा था। लेकिन जिस चीज नेहमें सबसे ज्यादा तोड़कर रख दिया वो थी 'बड़े' लोगों का डर और हमारे मकसदके प्रति उनकी शंका।हमें बधाइयां और तारीफें तो मिलीं लेकिन ऎसे कम ही लोग मिले जिन्हें यकीनथा कि हमने ये काम देश और जनता की भलाई के लिए किया। लोग पूछते थे किहमने इस स्टिंग आपरेशन से कितना मुनाफा बटोरा। कइयों ने ये भी पूछा कितहलका में किस बड़े आदमी का पैसा लगा है। कोई ये यकीन करने को तैयार नहींथा कि ये काम केवल पत्रकारिता की मूल भावना के तहत किया गया जिसका मकसदहै सच दिखाना। सरकार ने हम पर सीधा हमला तो नहीं किया लेकिन हमेंकानूनी कार्रवाई के एक ऎसे जाल में उलझा दिया जिससे हमारा सांस लेनामुश्किल हो जाए। तहलका में पैसा निवेश करने वाले शंकर शर्मा को बगैर कसूरजेल में डाल दिया गया और कानूनी कार्रवाई की आड़ में उनका धंधा चौपट करनेकी हरमुमकिन कोशिश की गई।हमने कई बार खुद से पूछा कि तहलका और उसके अंजाम को कौन सी चीज खास बनातीहै। जवाब बहुत सीधा है- शायद इसका असाधारण साहस। भ्रष्टाचार को इस कदरनिडरता से उजागर करने की कोशिश ने ही शायद तहलका को तहलका जैसा बना दिया।तहलका लोगों के जेहन में रचबस गया। अरुणाचल की यात्रा कर रहे एक दोस्तने हमें बताया कि उसने एक गांव की दुकान में कुछ साड़ियां देखीं जिन परतहलका का लेबल लगा हुआ था। एक और मित्र ने हमें बीड़ी के एक विज्ञापन केबारे में बताया जिसमें तहलका शब्द का प्रमुखता से इस्तेमाल किया गया था।हमें ऎसा लगा कि लोग अब हमें कम से कम जानने तो लगे हैं। तहलका नैतिकताकी लड़ाई की एक कहानी बन चुका था। हमें लगा कि बिना लड़े और बगैरप्रतिरोध हारने का कोई मतलब नहीं। इसी विचार ने हमें ताकत दी।हालांकि ये काम आसान नहीं था। सरकार के हमारे खिलाफ रुख के चलते लोगहमसे कतराते थे। थोड़े शुभचिंतक-जिनमें कुछ वकील और कुछ दोस्त शामिलथे-हमारे साथ खड़े रहे लेकिन ज्यादातर प्रभावशाली लोग तहलका का नाम सुनतेही किनारा कर लेते थे। उद्योगपति, बैंक, बड़े लोग.....हमने सब जगह कोशिशकी लेकिन चाय के लिए पूछने से ज्यादा तकलीफ हमारे लिए कोई नहीं उठानाचाहता था। तहलका का नाम अगर लोगों को खींचता था तो उसका अंजाम हमारे लिएअभिशाप भी बन जाता था। इस बात पर सब एकराय थे कि तहलका एक तूफानी ब्रांडहै लेकिन तूफान से दोस्ती कर कौन मुसीबत मोल ले। लगातार मिल रहीनाकामयाबी ने हमारे भीतर कहीं न कहीं फिर से वापसी का जज्बा पैदा करदिया। मुझमें, सबमें, लेकिन खासकर तरुण में। तरुण फिर से वापसी के लिएइरादा पक्का कर चुके थे।लेकिन इस काम में कोई थोड़ी सी भी मदद के लिए तैयार नहीं था।हमें बधाइयां और तारीफें तो मिलीं लेकिन ऎसे कम ही लोग मिले जिन्हें यकीनथा कि हमने ये काम देश और जनता की भलाई के लिए किया। लोग पूछते थे किहमने इस स्टिंग आपरेशन से कितना मुनाफा बटोरा।फिर से वापसी के बुलंद इरादे और इसमें आ रही मुसीबतों ने हमारे भीतर कुछबदलाव ला दिए। मुश्किलें जैसे-जैसे बढती गईं, गुस्से और हताशा की जगहउम्मीद लेने लगी। हर एक मुश्किल को पार कर हम हैरानी से खुद को देखते थेऔर सोचते थे "अरे ये तो हो गया, हम ऎसा कर सकते हैं।"कहानी आगे बढ रही थी। तरुण जमकर यात्रा कर रहे थे। त्रिवेंद्रम, उज्जैन,नागपुर, भोपाल, गुवाहाटी, कोच्चि, राजकोट, भिवानी, इंदौर में वो लोगों सेमिलकर समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे। तरुण के जोश की बदौलत तहलका कोलोगों की ऊर्जा मिलती गई। यह एक कैमिकल रिएक्शन की तरह हुआ। लोगों कीऊर्जा और उम्मीदों ने हमारे इरादे को ताकत दी। ये अब केवल हमारी लड़ाईनहीं रह गई थी। इसने एक बड़ी शक्ल अख्तियार कर ली थी।मुझे आज भी वो दिन अच्छी तरह याद है जब तरुण ने हमें बुलाया और कहा कि हमअखबार निकालने वाले हैं। ये काफी हिम्मत का काम था। पैसे तो बहुत पहले हीखत्म हो गए थे। जनवरी 2002 तक तो ऎसा कोई भी दोस्त नहीं था जिससे हम उधारन ले चुके हों। मई आते-आते आफिस भी बंद हो गया। उसके बाद कई महीने पैसेजुटाने की भागादौड़ी और जांच कमीशन से निपटने के लिए कानूनी रणनीति बनानेमें निकल गए। अब हम केवल छह लोग रह गए थे। तरुण, उनकी बहन नीना, मैं,हमारे एकाउंटेंट बृज, डेस्कटाप आपरेटर प्रवाल और स्टेनोग्राफर अरुण नायर।सबका मकसद एक ही था। तहलका का वजूद अब हमारे जेहन में ही सही, पर काफीमजबूत हो चुका था। तब तक हम पुराने वाले आफिस में ही थे यानी D-1,स्वामीनगर। लेकिन हमारे पास दो छोटे से कमरे ही बचे थे और पेट्रोल काखर्चा चुकाने के लिए हमें कुर्सियां बेचनी पड़ रही थीं। मकान मालिक केभले स्वभाव का हम काफी इम्तहान ले चुके थे। हमें जगह बदलनी थी और कोईहमें रखने के लिए तैयार नहीं था।लेकिन हमारा उत्साह कम नहीं हुआ। हम एक महत्वपूर्ण मोड़ के पार निकल चुकेथे। एक हफ्ता पहले हमने जांच कमीशन से अपना पल्ला झाड़ लिया था।रामजेठमलानी ने बड़ी ही कुशलता से तहलका और इसकी निवेशक कंपनी फर्स्टग्लोबल के खिलाफ सरकारी केस के परखच्चे उड़ा दिए थे। जस्टिस वेंकटस्वामीअपनी अंतरिम रिपोर्ट तैयार कर चुके थे। डरी हुई सरकार ने जस्टिसवेंकटस्वामी को बदलकर जांच की कमान जस्टिस फूकन को थमा दी। खबरें आ रहींथीं कि जांच एक बार फिर से शुरू होगी। लेकिन हमारे लिए अब और बर्दाश्तकरना मुमकिन नहीं था। हमने जांच में पूरा सहयोग किया था। लेकिन सरकारये गतिरोध खत्म करने के मूड में ही नहीं थी। हमने फैसला किया कि बहुत होचुका, अब इस अन्याय को बर्दाश्त करने का कोई मतलब नहीं। हमने नये कमीशनसे हाथ पीछे खींच लिए। ये तहलका की कहानी के पहले अध्याय या कहें कितहलका-1 का अंत था। इसने एक तरह से हमें बड़ी राहत दी। हम मानो मौत केचंगुल से आजाद हो गए। बचाव के लिए दौड़धूप करने में ऊर्जा बरबाद करने कीबजाय हम अब अपने मकसद पर ध्यान दे सकते थे।पैसा जुटाने के लिए एक साल की दौड़धूप के बाद तरुण को दो आफर मिले जिसमेंसे हर एक में दस करोड़ रुपये की पेशकश की गई थी। लेकिन तरुण ने उन्हेंठुकरा दिया क्योंकि वे तहलका की मूल भावना के खिलाफ जाते थे। अब तरुण नेकुछ नया करने की सोची। उन्होंने सुझाव दिया कि लोगों के पास जाया जाए औरएक राष्ट्रीय अभियान चलाकर आम लोगों से तहलका शुरू करने के लिए पैसाजुटाया जाए। मैंने कमरे में एक नजर डाली। हम सब लोग तो लगान की टीम जितनेभी नहीं थे।वो एक अजीब सा दौर था। कुछ समय पहले हमारी जिंदगी में गुजरात के एकव्यापारी और राजनीतिक कार्यकर्ता निरंजन तोलिया का आगमन हुआ था।( तहलकाकी कहानी में ऎसे कई सुखद पल आए जब अलग-अलग लोगों ने इस लड़ाई में हमारेसाथ अपना कंधा लगाया। इससे हमें कम से कम ये आभास हुआ कि हम अकेले नहींहैं। ) तोलियाजी ने साउथ एक्सटेंशन स्थित अपने आफिस में हमें दो कमरे देदिए। तहलका को फिर से शुरुआत के लिए थोड़ी सी जमीन मिली। हम रोज आफिस मेंजमा होते, चर्चा करते और योजनाएं बनाते। हमें यकीन था कि अखबार शुरूकरने के लिए लाखों लोग पैसा देने के लिए तैयार हो जाएंगे। अब सवाल था किउन तक पहुंचा कैसे जाए। कई आइडिये सामने आए-स्कूलों, पान की दुकानों,एसटीडी बूथ्स और एसएमएस के जरिये कैंपेन, मानव श्रंखला अभियान आदि। रोजएक नया आइडिया सामने आता था। इनमें से कुछ तो अजीबोगरीब भी होते थे,मिसाल के तौर पर गुब्बारे और स्माइली बटन जिन पर तहलका लिखा हो। हमने उनलोगों की सूची बनाना शुरू किया जिनसे मदद मिल सकती थी। रोज होती बहस केसाथ हमारा प्लान भी बनता जाता था। आखिरकार एक दिन हमारा मास्टर प्लानतैयार हो गया। जोश की हममें कोई कमी नहीं थी। दिल्ली में सब्सक्रिप्शनका टारगेट रखा गया 75,000 कापियां। तहलका का नाम अगर लोगों को खींचता थातो उसका अंजाम हमारे लिए अभिशाप भी बन जाता था। इस बात पर सब एकराय थेकि तहलका एक तूफानी ब्रांड है लेकिन तूफान से दोस्ती कर कौन मुसीबत मोलले।लेकिन असली इम्तहान तो इसके बाद होना था। हमारे पास न पैसा था और न हीसंसाधन। यहां तक कि आफिस में एक एसटीडी लाइन भी नहीं थी। इसके बगैर योजनाको अमली जामा पहनाने के बारे में सोचना भी मुश्किल था। कल जब अखबारनिकलेगा तो डेढ़ लाख एडवांस कापियों का आर्डर चार महानगरों के जरिये पूरेदेश के पाठकों तक पहुंचेगा। तहलका का पुनर्जन्म बिना थके आगे बढ़ने कीभावना की जीत है।देखा जाए तो कर्ज में डूबे चंद लोगों द्वारा दो कमरों से एक राष्ट्रीयअखबार निकालने की बात किसी सपने जैसी ही लगती है। लेकिन हमारे भीतर एकअजीब सा उत्साह भरा हुआ था। कभी भी ऎसा नहीं लगा कि ये नहीं हो पाएगा।इसका कुछ श्रेय तरुण के बुलंद इरादों को भी जाता है और कुछ हमारे जोश को।कभी-कभार हम अपनी इस हिमाकत पर खूब हंसते भी थे। सच्चाई यही थी कि हमेंआने वाले कल का जरा भी अंदाजा नहीं था। तरुण ने एक मंत्र अपना लिया था।वे अक्सर कहते थे- ये होगा, जरूर होगा, शायद उन्होंने सकारात्मक रहने कीकला विकसित कर ली थी।लेकिन 26 जनवरी 2003 की तारीख हमारे लिए एक बड़ा झटका लेकर आई। हमारेस्टेनोग्राफर अरुण नायर की एक सड़क हादसे में मौत हो गई। दुख का एकसाथी, जिसने तहलका के भविष्य के लिए हमारे साथ ही सपने देखे थे, महजसत्ताईस साल की उम्र में हमारा साथ छोड़ गया। इस घटना ने हमें तोड़कर रखदिया। अखबार निकालने की तैयारी कर रहे हम लोगों को उस समय पहली बार लगाकि शायद अब ये नहीं हो पाएगा। हमें महसूस हुआ मानो कोई अभिशाप तहलका कापीछा कर रहा है।तहलका की कहानी के कई मोड़ हैं। इनमें एक वो मोड़ भी है जब जनवरी केदौरान बैंगलोर की एक मार्केटिंग कंपनी एरवोन ने हमसे संपर्क किया। कंपनीके पार्टनर्स में से एक राजीव नारंग तरुण के कालेज के दिनों के दोस्त थे।तरुण के इरादों से प्रभावित होकर उन्होंने तहलका को अपनी सेवाएं देने काप्रस्ताव रखा। हमारी उम्मीद को कुछ और ताकत मिली। राजीव ने जब हमाराप्लान देखा तो उन्होंने कहा कि इसे फिर से बनाने की जरूरत है। उन्होंनेसुझाव दिया कि हम बैंगलोर जाएं और उनके पार्टनर्स को तहलका कैंपेन कीजिम्मेदारी लेने के लिए राजी करें।अब कमान एरवोन के प्रोफेशनल्स के हाथ में थी। ये हमारे साथ तब हुआ जबहमें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। एरवोन के काम करने के तरीके ने हममेंनया जोश भर दिया। योजना बनी कि पूरे देश में एक जबर्दस्त सब्सक्रिप्शनअभियान शुरू किया जाए। मार्केटिंग के मामले में अनुभवी एरवोन की टीम नेअनुमान लगाया कि तहलका के नाम पर ही कम से कम तीन लाख एडवांससब्सक्रिप्शंस मिल जाएंगे। लेकिन कैंपेन चलाने के लिए भी तो पैसे कीजरूरत थी। ऎसे में हमारे दोस्त और शुभचिंतक अलिक़ पदमसी ने हमें एकरास्ता सुझाया। ये था- फाउंडर सब्सक्राइबर्स का, यानी ऎसे लोग जो इस कामके लिए एक लाख रुपये का योगदान कर सकें।एक बार फिर तरुण की देशव्यापी यात्रा शुरू हुई। महीने में 25 दिन तरुण नेलोगों से बात करते हुए बिताए। नाइट क्लबों, आफिसों और ऎसी तमाम जगहोंमें, जहां कुछ फाउंडर सब्सक्राइबर्स मिल सकते थे, बैठकें रखी गईं।हालांकि उस वक्त तक भी सरकार से पंगा लेने का डर लोगों के दिलों में तैररहा था। अप्रैल में हमें विक्रम नायर के रूप में पहला फाउंडरसब्सक्राइबर मिला। इसके बाद दूसरा फाउंडर सब्सक्राइबर मिलने में तीनहफ्ते लग गए। फिर धीरे-धीरे ये सिलसिला बढने लगा। हालांकि इस दौरान तरुणलगभग अकेले ही थे। मां बनने की वजह से मैं घर पर ही रहती थी। तोलिया जीजगह बदलकर पंचशील आ गए थे इसलिए हमें भी आफिस बदलना पड़ा था। येजिम्मेदारी नीना के कंधों पर आ गई थी। तरुण की पत्नी गीतन घर संभालने कीपूरी कोशिश कर रही थीं। बृज और प्रवाल भी अपनी जिम्मेदारी संभाल रहे थे।इसके बाद मोर्चा संभालने का काम एरवोन का था।हम केवल छह लोग रह गए थे। तरुण, उनकी बहन नीना, मैं, हमारे एकाउंटेंटबृज, डेस्कटाप आपरेटर प्रवाल और स्टेनोग्राफर अरुण नायर। सबका मकसद एकही था। तहलका का वजूद अब हमारे जेहन में ही सही, पर काफी मजबूत हो चुकाथा।धीरे-धीरे एरवोन की योजना रंग लाने लगी। मई के आखिर में जब मैंने फिर सेज्वाइन किया तब तक चौदह अच्छी खासी कंपनियों ने तहलका कैंपेन के लिएमचबूती से मोर्चा संभाल लिया था। इनमें O&M, Bill Junction, Encompassजैसे बड़े नाम शामिल थे। एडवरटाइजिंग कंपनियां, कॉल सेंटर्स, SMS सेवाएं,साफ्टवेयर कंपनियां हमारे इस अभियान को सफल बनाने के लिए तैयार थीं। औरइसके लिए उन्हें सफलता में अपना हिस्सा चाहिए था। जिस अंधेरी सुरंग सेहम गुजर कर आए थे उसे देखते हुए ये उम्मीद की किरण नहीं बल्कि आशाओं कीबड़ी दीवाली थी। मैंने थोड़ा राहत की सांस ली। हमने अपनी नियति को कुशलप्रोफेशनल्स के हाथ में सौंप दिया था। आखिरकार हम उस अंधेरी सुरंग केबाहर निकल आए थे।कैंपेन की तारीख 15 अगस्त 2003 तय की गई। फिर शुरू हुआ तैयारी का दौर।प्लान बना कि इस मिशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए चार हजार जागरूकनागरिकों की फौज तैयार की जाए। इन लोगों को हमने 'क्रूसेडर' नाम दियायानी अच्छाई के लिए लड़ने वाले लोग। क्रूसेडर्स को ट्रेनिंग दी जानी थीऔर तहलका के प्रचार के साथ उन्हें सब्सक्रिप्शन जुटाने का काम भी करनाथा जिसके लिए कमीशन दिया जाना तय हुआ। अभियान सात शहरों में चलाया जानाथा। हवा बनने लगी। ट्रेनिंग मैन्युअल्स, प्रोडक्ट ब्राशर, टीशर्ट जैसीप्रचार सामग्रियां तैयार की गईं। उधर फाउंडर सब्सक्राइबर्स अभियान भीठीकठाक चल रहा था। यानी अभियान को सफल बनाने के लिए कोई कोर कसर नहींछोड़ी गई।तारीख कुछ आगे खिसकाकर 22 अगस्त कर दी गई। अखबार 30 अक्टूबर को आना था।21 अगस्त को दिल्ली में कुछ होर्डिंग्स लगाए गए। उन पर लिखा था कि तहलकाएक अखबार के रूप में वापस आ रहा है। हम पूरी रात शहर में घूमे और इनहोर्डिंग्स को देखकर बच्चों की तरह खुश होते रहे। अगले दिन प्रेसकांफ्रेंस के बाद हम एक स्कूल आडिटोरियम में इकट्ठा हुए। जोशोखरोश के साथ1200 क्रूसेडर्स की टीम को संबोधित किया गया। अगले दो दिन तक हमेंसब्सक्रिप्शंस का इंतजार करना था।लेकिन हमारी सारी उम्मीदें औंधे मुंह गिरीं। 1200 क्रूसेडर्स की जिस टीमको बनाने में छह महीने लगे थे वह जल्द ही गायब हो गई। किसी भी कंपनी काप्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा। आने वाले हफ्तों में हम लांचअभियान के तहत चंडीगढ़, मुंबई, पुणे, बेंगलौर, चेन्नई गए मगर सब जगह वहीकहानी देखने को मिली। आशाओं का महल भरभराकर गिर गया। इससे बुरा हमारे साथकुछ नहीं हो सकता था। हर एक ने अपना हिस्सा मांगा और अलग हो गया।हालांकि एरवोन हमारे साथ खड़ी रही। लेकिन तहलका का दूसरा अध्याय पहले सेज्यादा कष्टकारी था। एक साल बीत चुका था और हमारा आत्मविश्वास लगभग टूटचुका था। हमें लगा कि हम और भी अंधेरी सुरंग में फंस गए हैं। ये सुरंगपहली वाली से कहीं ज्यादा लंबी थी।तहलका-3, यानी अखबार शुरू होने की कहानी के तीसरे भाग की अवधि सिर्फ तीनमहीने है। किसी को भी पूरी तरह ये अंदाजा नहीं था कि हार कितनी पास आ गईथी।मंझधार से अखबार तक भाग-3ये सितंबर का आखिर था। और हम सभी अब भी यकीन नहीं कर पा रहे थे कि हमाराकैंपेन नाकामयाब हो चुका है। सच्चाई तो ये थी कि कैंपने ढंग से शुरू हीनहीं हो पाया था। तहलका में पहली बार ऎसा दौर आया था कि जी हल्का करने केलिए हंसना भी बड़ी हिम्मत का काम था। हमें मालूम था कि अब हमारे पास कोईमौका नहीं है। धीरे-धीरे हमारी ताकत खत्म हो रही थी। हालात काफी अजीब होगए थे। अब ऎसा कोई नहीं था जिसका दरवाजा खटखटाया जाए। एरवोन ने दिल सेहमारे लिए काम किया था। वे ऎसे वक्त में हमसे जुड़े थे जब कोई भी हमारेपास आने की हिम्मत नहीं कर रहा था। बिना कोई फीस लिए उन्होंने हमारे लिएकाफी कुछ करने की कोशिश की थी। लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। लड़ाई जारी थी और हमारे हथियार खत्म हो चुके थे। अक्टूबर आते-आते हमग्रेटर कैलाश स्थित अपने आफिस में जस्टिस वेंकटस्वामी अपनी अंतरिमरिपोर्ट तैयार कर चुके थे। डरी हुई सरकार ने जस्टिस वेंकटस्वामी कोबदलकर जांच की कमान जस्टिस फूकन को थमा दी। खबरें आ रहीं थीं कि जांच एकबार फिर से शुरू होगी। लेकिन हमारे लिए अब और बर्दाश्त करना मुमकिन नहींथा।आ गए। दलदल में गहरे धंसने के बावजूद हमें आगे बढ़ना था। इसलिए कि हमेंअपने वादों की लाज रखनी थी। कुछ अच्छे पत्रकार हमारे साथ जुड़े। फाउंडरसब्सक्राइबर्स से अब भी कुछ पैसा आ रहा था। लेकिन ज्यादातर पैसा कैंपेनमें खर्च हो चुका था। 15 अक्टूबर को तरुण ने हम सबको बुलाया और कहा किहम 15 नवंबर को अखबार निकालेंगे। तब ये मानना मुश्किल था लेकिन अब लगताहै कि ये हताशा में उठाया गया हिम्मत भरा कदम था। हमें लग रहा था कि अबइस लड़ाई का अंत निकट है। लेकिन हमारे लिए और उन सभी लोगों के लिएजिन्होंने हम पर भरोसा जताया था, अखबार का एक इश्यू निकालना तो कम से कमजरूरी था। दिल के किसी कोने में ये उम्मीद भी थी कि किसी तरह अगर हमअखबार निकालने में कामयाब हो जाएं तो शायद कोई चमत्कार हो जाए।आशावाद को हमने जीवन का मंत्र बना लिया। एरवोन ने प्लान बी का सुझाव दियालेकिन तब तक हम बंद कमरे में लैपटाप पर बनाए गए प्लान के नाम से ही डरनेलगे थे। हमारे पास सिर्फ योजनाओं के बूते अच्छे सपने देखने की ऊर्जाखत्म हो गई थी। हम 15 नवंबर की तरफ बढते गए। अचानक तरुण के एक दोस्तसत्या शील का हमारी जिंदगी में आगमन हुआ। दिल्ली के इस व्यवसायी ने बुरेवक्त के दौरान कई बार तरुण की मदद की थी। सत्या को ये जानकर धक्का लगाकि हम कहां पहुंच गए थे। उन्होंने तरुण को को सुझाव दिया कि तीन साल कीमेहनत और मुसीबतों को यूं ही हवा में उड़ाना ठीक नहीं और बेहतर है कि एकनए प्लान पर काम किया जाए। हमने सभी पार्टनर्स के साथ एक मीटिंग की।सत्या इसमें मौजूद थे। ये शोरशराबे से भरी मीटिंग थी जिसके बाद हमारेकुछ दिन बेकार की दौड़धूप में बीते। हालांकि इसका एक फायदा ये हुआ किहमारी अफरातफरी और डर खत्म हो गया। एक बार फिर हमारा ध्यान बड़े लक्ष्यपर केंद्रित हो गया।तहलका के अनुभव इससे जुड़े हर एक शख्स के लिए कई मायनों में कायापलट कीतरह रहे। इन अनुभवों ने हमें कई चीजें सिखाईं। तहलका-2 से सबसेमहत्वपूर्ण बात जो हमने सीखी वो ये थी कि बड़े सपनों को साकार करने केलिए अच्छी योजनाओं के साथ-साथ काम करने वाले लोग भी चाहिए। हमने इसी दिशामें काम शुरू किया।अक्टूबर के आखिर तक हम अपने बिखरे सपनों के टुकड़े समेटने में लगे थे।एरवोन भी अब तक जा चुकी थी। हमने फिर से लांच की एक नई तारीख तय की-30जनवरी 2004। धीरे-धीरे, कदम दर कदम काम शुरू होने लगा। अफरातफरी का दौरअब पीछे छूट चुका था। संसाधन बहुत ज्यादा नहीं थे लेकिन अब हमारे साथ कईलोगों की किस्मत भी जुड़ी थी। तरुण ने एक बार फिर हमें बिना थके आगे बढनेका संकल्प याद दिलाया। हम सब ने फिर कंधे मिला लिए। पत्रकारों,डिजाइनर्स, प्रोडक्शन-प्रिंटिंग-सरकुलेशन एक्सपर्ट्स, एड सेल्समैन आदि कीएक टीम तैयार की गई। ये एक जुआ था। लेकिन इसमें जीत की अगर थोड़ी सी भीसंभावना थी तो वो तभी थी जब हम मैदान छोड़े नहीं। हमें लग रहा था कि अबइस लड़ाई का अंत निकट है। लेकिन हमारे लिए और उन सभी लोगों के लिएजिन्होंने हम पर भरोसा जताया था, अखबार का एक इश्यू निकालना तो कम से कमजरूरी था। दिल के किसी कोने में ये उम्मीद भी थी कि किसी तरह अगर हमअखबार निकालने में कामयाब हो जाएं तो शायद कोई चमत्कार हो जाए।फाउंडर सब्सक्राइबर्स का सिलसिला बना हुआ था। ये सचमुच किसी ऎतिहासिकघटना की तरह हो रहा था। अक्सर हमें तहलका में भरोसा जताती चिट्ठियांमिलती थीं। एक रिटायर कर्नल ने तो फाउंडर सब्सक्राइबर बनने के लिए अपनेपेंशन फंड से एक लाख रुपये दे दिये। दूसरी तरफ चांदनी नाम की एक बीस सालकी लड़की ने सब्सक्रिप्शंस कमीशन से मिलने वाली रकम से फाउंडरसब्सक्राइबर बनने जैसा अनूठा कारनामा कर दिखाया। इन अनुभवों ने हमें आगेबढने की ताकत दी। हमें महसूस हुआ कि हम अकेले नहीं हैं।नए साल की शुरुआत के साथ ही हमारी किस्मत के सितारे भी फिरने लगे। अब कामज्यादा कुशलता से होने लगा था। 17 जनवरी यानी पहला एडिशन लॉंच होने सेठीक बारह दिन पहले हमें एक युवा जोड़ा मिला जो तहलका के विचारों सेप्रभावित होकर इसमें पैसा लगाना चाहता था। कुछ दूसरे निवेशकों की भीचर्चा चल रही थी। लगने लगा था कि बुरे दिन बीत चुके हैं।कल तहलका का विचार एक अखबार की शक्ल अख्तियार कर लेगा। कौन जाने वक्त केसाथ ये कमजोर पड़ जाए या फिर धीरे-धीरे, खबर दर खबर, इश्यू दर इश्यू इसकीताकत बढ़ती जाए। हालांकि अभी ये ठीक वैसा नहीं है जैसा हमने सोचा था,लेकिन ये काफी कुछ वैसा ही है जैसा इसे होना चाहिए। हम फिर एक नए सफर कीशुरुआत कर रहे हैं और अंधेरी सुरंग पीछे छूट चुकी है। फिलहाल हमारे लिएउम्मीद का ये हल्का उजाला ही किसी बड़ी जीत से कम नहीं .....
तहलका के पहले अंक तक का इंतजार हमारे लिए बहुत लंबा रहा। इंतजार के इससफर में काफी मुश्किलें भी आईं। दो बार तो ऐसा हुआ कि पूरी तैयारी केबावजूद हम शुरुआत में ही लड़खड़ा गए। महीने गुजरते गए और मुश्किलों काअंधेरा कम होने के बजाय और घना होता गया। लेकिन अब तीस जनवरी को हम फिरएक नई शुरुआत कर रहे हैं। नये आफिस में टाइपिंग की खटखट शुरू हो चुकी है।खिड़की से नजर आ रहा अमलतास का पेड़ मुझे पुराने और बंद हो चुके आफिस कीयाद दिला रहा है। हर किसी को बेसब्री से कल का इंतजार है। कल सुबह लोग जबतहलका अखबार पढ़ रहे होंगे तो यह केवल हमारी जीत नहीं होगी, ये उन हजारोंभारतीयों की भी जीत होगी जिन्होंने हम पर भरोसा किया। इस जीत के मायनेमहज एक अखबार निकाल लेने की सफलता से कहीं ज्यादा गहरे होंगे।शायद इस जीत का मतलब उस सफर से भी निकलता है जो हमने तय किया। तहलका अबसिर्फ एक अखबार की कहानी नहीं रही। जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया, तहलका केसाथ हुई घटनाओं ने तहलका शब्द को लोगों के दिल में बसा दिया। तहलका कासफर गुस्सा, निराशा, ऊर्जा और सपनों के मेल से बना है। ये सिर्फ हमारीकहानी नहीं है। ये उम्मीद, आत्मविश्वास और आदर्शवाद की ताकत की कहानी है।उससे भी ज्यादा ये एकता और सकारात्मक सोच की ताकत का सबूत है। तहलका काअखबार के रूप में लोगों तक पहुंचना कोई छोटी बात नहीं है। इससे यह साबितहोता है कि आम लोग सही चीजों के लिए लड़ सकते हैं, और न केवल लड़ सकतेहैं बल्कि जीत भी सकते हैं। तहलका का अखबार के रूप में लोगों तक पहुंचनाकोई छोटी बात नहीं है। इससे यह साबित होता है कि आम लोग सही चीजों के लिएलड़ सकते हैं, और न केवल लड़ सकते हैं बल्कि जीत भी सकते हैं।पिछले दो साल के दरम्यान ऐसे कई ऐसे लम्हे आए जब तहलका का नामोनिशां मिटसकता था। रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार को उजागर करते स्टिंग आपरेशन सेहमें सुर्खियां तो मिलीं पर दूसरी तरफ हमें सरकार से दुश्मनी की कीमत भीचुकानी पड़ी। जान से मारने की धमकियां, छापे, गिरफ्तारियां और पूछताछ केउस भयावह सिलसिले की याद आज भी रूह में सिहरन पैदा कर देती है। बढ़तेकर्ज के बोझ के बाद ऑफिस भी बस किसी तरह चल पा रहा था। लेकिन जिस चीज नेहमें सबसे ज्यादा तोड़कर रख दिया वो थी 'बड़े' लोगों का डर और हमारे मकसदके प्रति उनकी शंका।हमें बधाइयां और तारीफें तो मिलीं लेकिन ऎसे कम ही लोग मिले जिन्हें यकीनथा कि हमने ये काम देश और जनता की भलाई के लिए किया। लोग पूछते थे किहमने इस स्टिंग आपरेशन से कितना मुनाफा बटोरा। कइयों ने ये भी पूछा कितहलका में किस बड़े आदमी का पैसा लगा है। कोई ये यकीन करने को तैयार नहींथा कि ये काम केवल पत्रकारिता की मूल भावना के तहत किया गया जिसका मकसदहै सच दिखाना। सरकार ने हम पर सीधा हमला तो नहीं किया लेकिन हमेंकानूनी कार्रवाई के एक ऎसे जाल में उलझा दिया जिससे हमारा सांस लेनामुश्किल हो जाए। तहलका में पैसा निवेश करने वाले शंकर शर्मा को बगैर कसूरजेल में डाल दिया गया और कानूनी कार्रवाई की आड़ में उनका धंधा चौपट करनेकी हरमुमकिन कोशिश की गई।हमने कई बार खुद से पूछा कि तहलका और उसके अंजाम को कौन सी चीज खास बनातीहै। जवाब बहुत सीधा है- शायद इसका असाधारण साहस। भ्रष्टाचार को इस कदरनिडरता से उजागर करने की कोशिश ने ही शायद तहलका को तहलका जैसा बना दिया।तहलका लोगों के जेहन में रचबस गया। अरुणाचल की यात्रा कर रहे एक दोस्तने हमें बताया कि उसने एक गांव की दुकान में कुछ साड़ियां देखीं जिन परतहलका का लेबल लगा हुआ था। एक और मित्र ने हमें बीड़ी के एक विज्ञापन केबारे में बताया जिसमें तहलका शब्द का प्रमुखता से इस्तेमाल किया गया था।हमें ऎसा लगा कि लोग अब हमें कम से कम जानने तो लगे हैं। तहलका नैतिकताकी लड़ाई की एक कहानी बन चुका था। हमें लगा कि बिना लड़े और बगैरप्रतिरोध हारने का कोई मतलब नहीं। इसी विचार ने हमें ताकत दी।हालांकि ये काम आसान नहीं था। सरकार के हमारे खिलाफ रुख के चलते लोगहमसे कतराते थे। थोड़े शुभचिंतक-जिनमें कुछ वकील और कुछ दोस्त शामिलथे-हमारे साथ खड़े रहे लेकिन ज्यादातर प्रभावशाली लोग तहलका का नाम सुनतेही किनारा कर लेते थे। उद्योगपति, बैंक, बड़े लोग.....हमने सब जगह कोशिशकी लेकिन चाय के लिए पूछने से ज्यादा तकलीफ हमारे लिए कोई नहीं उठानाचाहता था। तहलका का नाम अगर लोगों को खींचता था तो उसका अंजाम हमारे लिएअभिशाप भी बन जाता था। इस बात पर सब एकराय थे कि तहलका एक तूफानी ब्रांडहै लेकिन तूफान से दोस्ती कर कौन मुसीबत मोल ले। लगातार मिल रहीनाकामयाबी ने हमारे भीतर कहीं न कहीं फिर से वापसी का जज्बा पैदा करदिया। मुझमें, सबमें, लेकिन खासकर तरुण में। तरुण फिर से वापसी के लिएइरादा पक्का कर चुके थे।लेकिन इस काम में कोई थोड़ी सी भी मदद के लिए तैयार नहीं था।हमें बधाइयां और तारीफें तो मिलीं लेकिन ऎसे कम ही लोग मिले जिन्हें यकीनथा कि हमने ये काम देश और जनता की भलाई के लिए किया। लोग पूछते थे किहमने इस स्टिंग आपरेशन से कितना मुनाफा बटोरा।फिर से वापसी के बुलंद इरादे और इसमें आ रही मुसीबतों ने हमारे भीतर कुछबदलाव ला दिए। मुश्किलें जैसे-जैसे बढती गईं, गुस्से और हताशा की जगहउम्मीद लेने लगी। हर एक मुश्किल को पार कर हम हैरानी से खुद को देखते थेऔर सोचते थे "अरे ये तो हो गया, हम ऎसा कर सकते हैं।"कहानी आगे बढ रही थी। तरुण जमकर यात्रा कर रहे थे। त्रिवेंद्रम, उज्जैन,नागपुर, भोपाल, गुवाहाटी, कोच्चि, राजकोट, भिवानी, इंदौर में वो लोगों सेमिलकर समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे। तरुण के जोश की बदौलत तहलका कोलोगों की ऊर्जा मिलती गई। यह एक कैमिकल रिएक्शन की तरह हुआ। लोगों कीऊर्जा और उम्मीदों ने हमारे इरादे को ताकत दी। ये अब केवल हमारी लड़ाईनहीं रह गई थी। इसने एक बड़ी शक्ल अख्तियार कर ली थी।मुझे आज भी वो दिन अच्छी तरह याद है जब तरुण ने हमें बुलाया और कहा कि हमअखबार निकालने वाले हैं। ये काफी हिम्मत का काम था। पैसे तो बहुत पहले हीखत्म हो गए थे। जनवरी 2002 तक तो ऎसा कोई भी दोस्त नहीं था जिससे हम उधारन ले चुके हों। मई आते-आते आफिस भी बंद हो गया। उसके बाद कई महीने पैसेजुटाने की भागादौड़ी और जांच कमीशन से निपटने के लिए कानूनी रणनीति बनानेमें निकल गए। अब हम केवल छह लोग रह गए थे। तरुण, उनकी बहन नीना, मैं,हमारे एकाउंटेंट बृज, डेस्कटाप आपरेटर प्रवाल और स्टेनोग्राफर अरुण नायर।सबका मकसद एक ही था। तहलका का वजूद अब हमारे जेहन में ही सही, पर काफीमजबूत हो चुका था। तब तक हम पुराने वाले आफिस में ही थे यानी D-1,स्वामीनगर। लेकिन हमारे पास दो छोटे से कमरे ही बचे थे और पेट्रोल काखर्चा चुकाने के लिए हमें कुर्सियां बेचनी पड़ रही थीं। मकान मालिक केभले स्वभाव का हम काफी इम्तहान ले चुके थे। हमें जगह बदलनी थी और कोईहमें रखने के लिए तैयार नहीं था।लेकिन हमारा उत्साह कम नहीं हुआ। हम एक महत्वपूर्ण मोड़ के पार निकल चुकेथे। एक हफ्ता पहले हमने जांच कमीशन से अपना पल्ला झाड़ लिया था।रामजेठमलानी ने बड़ी ही कुशलता से तहलका और इसकी निवेशक कंपनी फर्स्टग्लोबल के खिलाफ सरकारी केस के परखच्चे उड़ा दिए थे। जस्टिस वेंकटस्वामीअपनी अंतरिम रिपोर्ट तैयार कर चुके थे। डरी हुई सरकार ने जस्टिसवेंकटस्वामी को बदलकर जांच की कमान जस्टिस फूकन को थमा दी। खबरें आ रहींथीं कि जांच एक बार फिर से शुरू होगी। लेकिन हमारे लिए अब और बर्दाश्तकरना मुमकिन नहीं था। हमने जांच में पूरा सहयोग किया था। लेकिन सरकारये गतिरोध खत्म करने के मूड में ही नहीं थी। हमने फैसला किया कि बहुत होचुका, अब इस अन्याय को बर्दाश्त करने का कोई मतलब नहीं। हमने नये कमीशनसे हाथ पीछे खींच लिए। ये तहलका की कहानी के पहले अध्याय या कहें कितहलका-1 का अंत था। इसने एक तरह से हमें बड़ी राहत दी। हम मानो मौत केचंगुल से आजाद हो गए। बचाव के लिए दौड़धूप करने में ऊर्जा बरबाद करने कीबजाय हम अब अपने मकसद पर ध्यान दे सकते थे।पैसा जुटाने के लिए एक साल की दौड़धूप के बाद तरुण को दो आफर मिले जिसमेंसे हर एक में दस करोड़ रुपये की पेशकश की गई थी। लेकिन तरुण ने उन्हेंठुकरा दिया क्योंकि वे तहलका की मूल भावना के खिलाफ जाते थे। अब तरुण नेकुछ नया करने की सोची। उन्होंने सुझाव दिया कि लोगों के पास जाया जाए औरएक राष्ट्रीय अभियान चलाकर आम लोगों से तहलका शुरू करने के लिए पैसाजुटाया जाए। मैंने कमरे में एक नजर डाली। हम सब लोग तो लगान की टीम जितनेभी नहीं थे।वो एक अजीब सा दौर था। कुछ समय पहले हमारी जिंदगी में गुजरात के एकव्यापारी और राजनीतिक कार्यकर्ता निरंजन तोलिया का आगमन हुआ था।( तहलकाकी कहानी में ऎसे कई सुखद पल आए जब अलग-अलग लोगों ने इस लड़ाई में हमारेसाथ अपना कंधा लगाया। इससे हमें कम से कम ये आभास हुआ कि हम अकेले नहींहैं। ) तोलियाजी ने साउथ एक्सटेंशन स्थित अपने आफिस में हमें दो कमरे देदिए। तहलका को फिर से शुरुआत के लिए थोड़ी सी जमीन मिली। हम रोज आफिस मेंजमा होते, चर्चा करते और योजनाएं बनाते। हमें यकीन था कि अखबार शुरूकरने के लिए लाखों लोग पैसा देने के लिए तैयार हो जाएंगे। अब सवाल था किउन तक पहुंचा कैसे जाए। कई आइडिये सामने आए-स्कूलों, पान की दुकानों,एसटीडी बूथ्स और एसएमएस के जरिये कैंपेन, मानव श्रंखला अभियान आदि। रोजएक नया आइडिया सामने आता था। इनमें से कुछ तो अजीबोगरीब भी होते थे,मिसाल के तौर पर गुब्बारे और स्माइली बटन जिन पर तहलका लिखा हो। हमने उनलोगों की सूची बनाना शुरू किया जिनसे मदद मिल सकती थी। रोज होती बहस केसाथ हमारा प्लान भी बनता जाता था। आखिरकार एक दिन हमारा मास्टर प्लानतैयार हो गया। जोश की हममें कोई कमी नहीं थी। दिल्ली में सब्सक्रिप्शनका टारगेट रखा गया 75,000 कापियां। तहलका का नाम अगर लोगों को खींचता थातो उसका अंजाम हमारे लिए अभिशाप भी बन जाता था। इस बात पर सब एकराय थेकि तहलका एक तूफानी ब्रांड है लेकिन तूफान से दोस्ती कर कौन मुसीबत मोलले।लेकिन असली इम्तहान तो इसके बाद होना था। हमारे पास न पैसा था और न हीसंसाधन। यहां तक कि आफिस में एक एसटीडी लाइन भी नहीं थी। इसके बगैर योजनाको अमली जामा पहनाने के बारे में सोचना भी मुश्किल था। कल जब अखबारनिकलेगा तो डेढ़ लाख एडवांस कापियों का आर्डर चार महानगरों के जरिये पूरेदेश के पाठकों तक पहुंचेगा। तहलका का पुनर्जन्म बिना थके आगे बढ़ने कीभावना की जीत है।देखा जाए तो कर्ज में डूबे चंद लोगों द्वारा दो कमरों से एक राष्ट्रीयअखबार निकालने की बात किसी सपने जैसी ही लगती है। लेकिन हमारे भीतर एकअजीब सा उत्साह भरा हुआ था। कभी भी ऎसा नहीं लगा कि ये नहीं हो पाएगा।इसका कुछ श्रेय तरुण के बुलंद इरादों को भी जाता है और कुछ हमारे जोश को।कभी-कभार हम अपनी इस हिमाकत पर खूब हंसते भी थे। सच्चाई यही थी कि हमेंआने वाले कल का जरा भी अंदाजा नहीं था। तरुण ने एक मंत्र अपना लिया था।वे अक्सर कहते थे- ये होगा, जरूर होगा, शायद उन्होंने सकारात्मक रहने कीकला विकसित कर ली थी।लेकिन 26 जनवरी 2003 की तारीख हमारे लिए एक बड़ा झटका लेकर आई। हमारेस्टेनोग्राफर अरुण नायर की एक सड़क हादसे में मौत हो गई। दुख का एकसाथी, जिसने तहलका के भविष्य के लिए हमारे साथ ही सपने देखे थे, महजसत्ताईस साल की उम्र में हमारा साथ छोड़ गया। इस घटना ने हमें तोड़कर रखदिया। अखबार निकालने की तैयारी कर रहे हम लोगों को उस समय पहली बार लगाकि शायद अब ये नहीं हो पाएगा। हमें महसूस हुआ मानो कोई अभिशाप तहलका कापीछा कर रहा है।तहलका की कहानी के कई मोड़ हैं। इनमें एक वो मोड़ भी है जब जनवरी केदौरान बैंगलोर की एक मार्केटिंग कंपनी एरवोन ने हमसे संपर्क किया। कंपनीके पार्टनर्स में से एक राजीव नारंग तरुण के कालेज के दिनों के दोस्त थे।तरुण के इरादों से प्रभावित होकर उन्होंने तहलका को अपनी सेवाएं देने काप्रस्ताव रखा। हमारी उम्मीद को कुछ और ताकत मिली। राजीव ने जब हमाराप्लान देखा तो उन्होंने कहा कि इसे फिर से बनाने की जरूरत है। उन्होंनेसुझाव दिया कि हम बैंगलोर जाएं और उनके पार्टनर्स को तहलका कैंपेन कीजिम्मेदारी लेने के लिए राजी करें।अब कमान एरवोन के प्रोफेशनल्स के हाथ में थी। ये हमारे साथ तब हुआ जबहमें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। एरवोन के काम करने के तरीके ने हममेंनया जोश भर दिया। योजना बनी कि पूरे देश में एक जबर्दस्त सब्सक्रिप्शनअभियान शुरू किया जाए। मार्केटिंग के मामले में अनुभवी एरवोन की टीम नेअनुमान लगाया कि तहलका के नाम पर ही कम से कम तीन लाख एडवांससब्सक्रिप्शंस मिल जाएंगे। लेकिन कैंपेन चलाने के लिए भी तो पैसे कीजरूरत थी। ऎसे में हमारे दोस्त और शुभचिंतक अलिक़ पदमसी ने हमें एकरास्ता सुझाया। ये था- फाउंडर सब्सक्राइबर्स का, यानी ऎसे लोग जो इस कामके लिए एक लाख रुपये का योगदान कर सकें।एक बार फिर तरुण की देशव्यापी यात्रा शुरू हुई। महीने में 25 दिन तरुण नेलोगों से बात करते हुए बिताए। नाइट क्लबों, आफिसों और ऎसी तमाम जगहोंमें, जहां कुछ फाउंडर सब्सक्राइबर्स मिल सकते थे, बैठकें रखी गईं।हालांकि उस वक्त तक भी सरकार से पंगा लेने का डर लोगों के दिलों में तैररहा था। अप्रैल में हमें विक्रम नायर के रूप में पहला फाउंडरसब्सक्राइबर मिला। इसके बाद दूसरा फाउंडर सब्सक्राइबर मिलने में तीनहफ्ते लग गए। फिर धीरे-धीरे ये सिलसिला बढने लगा। हालांकि इस दौरान तरुणलगभग अकेले ही थे। मां बनने की वजह से मैं घर पर ही रहती थी। तोलिया जीजगह बदलकर पंचशील आ गए थे इसलिए हमें भी आफिस बदलना पड़ा था। येजिम्मेदारी नीना के कंधों पर आ गई थी। तरुण की पत्नी गीतन घर संभालने कीपूरी कोशिश कर रही थीं। बृज और प्रवाल भी अपनी जिम्मेदारी संभाल रहे थे।इसके बाद मोर्चा संभालने का काम एरवोन का था।हम केवल छह लोग रह गए थे। तरुण, उनकी बहन नीना, मैं, हमारे एकाउंटेंटबृज, डेस्कटाप आपरेटर प्रवाल और स्टेनोग्राफर अरुण नायर। सबका मकसद एकही था। तहलका का वजूद अब हमारे जेहन में ही सही, पर काफी मजबूत हो चुकाथा।धीरे-धीरे एरवोन की योजना रंग लाने लगी। मई के आखिर में जब मैंने फिर सेज्वाइन किया तब तक चौदह अच्छी खासी कंपनियों ने तहलका कैंपेन के लिएमचबूती से मोर्चा संभाल लिया था। इनमें O&M, Bill Junction, Encompassजैसे बड़े नाम शामिल थे। एडवरटाइजिंग कंपनियां, कॉल सेंटर्स, SMS सेवाएं,साफ्टवेयर कंपनियां हमारे इस अभियान को सफल बनाने के लिए तैयार थीं। औरइसके लिए उन्हें सफलता में अपना हिस्सा चाहिए था। जिस अंधेरी सुरंग सेहम गुजर कर आए थे उसे देखते हुए ये उम्मीद की किरण नहीं बल्कि आशाओं कीबड़ी दीवाली थी। मैंने थोड़ा राहत की सांस ली। हमने अपनी नियति को कुशलप्रोफेशनल्स के हाथ में सौंप दिया था। आखिरकार हम उस अंधेरी सुरंग केबाहर निकल आए थे।कैंपेन की तारीख 15 अगस्त 2003 तय की गई। फिर शुरू हुआ तैयारी का दौर।प्लान बना कि इस मिशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए चार हजार जागरूकनागरिकों की फौज तैयार की जाए। इन लोगों को हमने 'क्रूसेडर' नाम दियायानी अच्छाई के लिए लड़ने वाले लोग। क्रूसेडर्स को ट्रेनिंग दी जानी थीऔर तहलका के प्रचार के साथ उन्हें सब्सक्रिप्शन जुटाने का काम भी करनाथा जिसके लिए कमीशन दिया जाना तय हुआ। अभियान सात शहरों में चलाया जानाथा। हवा बनने लगी। ट्रेनिंग मैन्युअल्स, प्रोडक्ट ब्राशर, टीशर्ट जैसीप्रचार सामग्रियां तैयार की गईं। उधर फाउंडर सब्सक्राइबर्स अभियान भीठीकठाक चल रहा था। यानी अभियान को सफल बनाने के लिए कोई कोर कसर नहींछोड़ी गई।तारीख कुछ आगे खिसकाकर 22 अगस्त कर दी गई। अखबार 30 अक्टूबर को आना था।21 अगस्त को दिल्ली में कुछ होर्डिंग्स लगाए गए। उन पर लिखा था कि तहलकाएक अखबार के रूप में वापस आ रहा है। हम पूरी रात शहर में घूमे और इनहोर्डिंग्स को देखकर बच्चों की तरह खुश होते रहे। अगले दिन प्रेसकांफ्रेंस के बाद हम एक स्कूल आडिटोरियम में इकट्ठा हुए। जोशोखरोश के साथ1200 क्रूसेडर्स की टीम को संबोधित किया गया। अगले दो दिन तक हमेंसब्सक्रिप्शंस का इंतजार करना था।लेकिन हमारी सारी उम्मीदें औंधे मुंह गिरीं। 1200 क्रूसेडर्स की जिस टीमको बनाने में छह महीने लगे थे वह जल्द ही गायब हो गई। किसी भी कंपनी काप्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा। आने वाले हफ्तों में हम लांचअभियान के तहत चंडीगढ़, मुंबई, पुणे, बेंगलौर, चेन्नई गए मगर सब जगह वहीकहानी देखने को मिली। आशाओं का महल भरभराकर गिर गया। इससे बुरा हमारे साथकुछ नहीं हो सकता था। हर एक ने अपना हिस्सा मांगा और अलग हो गया।हालांकि एरवोन हमारे साथ खड़ी रही। लेकिन तहलका का दूसरा अध्याय पहले सेज्यादा कष्टकारी था। एक साल बीत चुका था और हमारा आत्मविश्वास लगभग टूटचुका था। हमें लगा कि हम और भी अंधेरी सुरंग में फंस गए हैं। ये सुरंगपहली वाली से कहीं ज्यादा लंबी थी।तहलका-3, यानी अखबार शुरू होने की कहानी के तीसरे भाग की अवधि सिर्फ तीनमहीने है। किसी को भी पूरी तरह ये अंदाजा नहीं था कि हार कितनी पास आ गईथी।मंझधार से अखबार तक भाग-3ये सितंबर का आखिर था। और हम सभी अब भी यकीन नहीं कर पा रहे थे कि हमाराकैंपेन नाकामयाब हो चुका है। सच्चाई तो ये थी कि कैंपने ढंग से शुरू हीनहीं हो पाया था। तहलका में पहली बार ऎसा दौर आया था कि जी हल्का करने केलिए हंसना भी बड़ी हिम्मत का काम था। हमें मालूम था कि अब हमारे पास कोईमौका नहीं है। धीरे-धीरे हमारी ताकत खत्म हो रही थी। हालात काफी अजीब होगए थे। अब ऎसा कोई नहीं था जिसका दरवाजा खटखटाया जाए। एरवोन ने दिल सेहमारे लिए काम किया था। वे ऎसे वक्त में हमसे जुड़े थे जब कोई भी हमारेपास आने की हिम्मत नहीं कर रहा था। बिना कोई फीस लिए उन्होंने हमारे लिएकाफी कुछ करने की कोशिश की थी। लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। लड़ाई जारी थी और हमारे हथियार खत्म हो चुके थे। अक्टूबर आते-आते हमग्रेटर कैलाश स्थित अपने आफिस में जस्टिस वेंकटस्वामी अपनी अंतरिमरिपोर्ट तैयार कर चुके थे। डरी हुई सरकार ने जस्टिस वेंकटस्वामी कोबदलकर जांच की कमान जस्टिस फूकन को थमा दी। खबरें आ रहीं थीं कि जांच एकबार फिर से शुरू होगी। लेकिन हमारे लिए अब और बर्दाश्त करना मुमकिन नहींथा।आ गए। दलदल में गहरे धंसने के बावजूद हमें आगे बढ़ना था। इसलिए कि हमेंअपने वादों की लाज रखनी थी। कुछ अच्छे पत्रकार हमारे साथ जुड़े। फाउंडरसब्सक्राइबर्स से अब भी कुछ पैसा आ रहा था। लेकिन ज्यादातर पैसा कैंपेनमें खर्च हो चुका था। 15 अक्टूबर को तरुण ने हम सबको बुलाया और कहा किहम 15 नवंबर को अखबार निकालेंगे। तब ये मानना मुश्किल था लेकिन अब लगताहै कि ये हताशा में उठाया गया हिम्मत भरा कदम था। हमें लग रहा था कि अबइस लड़ाई का अंत निकट है। लेकिन हमारे लिए और उन सभी लोगों के लिएजिन्होंने हम पर भरोसा जताया था, अखबार का एक इश्यू निकालना तो कम से कमजरूरी था। दिल के किसी कोने में ये उम्मीद भी थी कि किसी तरह अगर हमअखबार निकालने में कामयाब हो जाएं तो शायद कोई चमत्कार हो जाए।आशावाद को हमने जीवन का मंत्र बना लिया। एरवोन ने प्लान बी का सुझाव दियालेकिन तब तक हम बंद कमरे में लैपटाप पर बनाए गए प्लान के नाम से ही डरनेलगे थे। हमारे पास सिर्फ योजनाओं के बूते अच्छे सपने देखने की ऊर्जाखत्म हो गई थी। हम 15 नवंबर की तरफ बढते गए। अचानक तरुण के एक दोस्तसत्या शील का हमारी जिंदगी में आगमन हुआ। दिल्ली के इस व्यवसायी ने बुरेवक्त के दौरान कई बार तरुण की मदद की थी। सत्या को ये जानकर धक्का लगाकि हम कहां पहुंच गए थे। उन्होंने तरुण को को सुझाव दिया कि तीन साल कीमेहनत और मुसीबतों को यूं ही हवा में उड़ाना ठीक नहीं और बेहतर है कि एकनए प्लान पर काम किया जाए। हमने सभी पार्टनर्स के साथ एक मीटिंग की।सत्या इसमें मौजूद थे। ये शोरशराबे से भरी मीटिंग थी जिसके बाद हमारेकुछ दिन बेकार की दौड़धूप में बीते। हालांकि इसका एक फायदा ये हुआ किहमारी अफरातफरी और डर खत्म हो गया। एक बार फिर हमारा ध्यान बड़े लक्ष्यपर केंद्रित हो गया।तहलका के अनुभव इससे जुड़े हर एक शख्स के लिए कई मायनों में कायापलट कीतरह रहे। इन अनुभवों ने हमें कई चीजें सिखाईं। तहलका-2 से सबसेमहत्वपूर्ण बात जो हमने सीखी वो ये थी कि बड़े सपनों को साकार करने केलिए अच्छी योजनाओं के साथ-साथ काम करने वाले लोग भी चाहिए। हमने इसी दिशामें काम शुरू किया।अक्टूबर के आखिर तक हम अपने बिखरे सपनों के टुकड़े समेटने में लगे थे।एरवोन भी अब तक जा चुकी थी। हमने फिर से लांच की एक नई तारीख तय की-30जनवरी 2004। धीरे-धीरे, कदम दर कदम काम शुरू होने लगा। अफरातफरी का दौरअब पीछे छूट चुका था। संसाधन बहुत ज्यादा नहीं थे लेकिन अब हमारे साथ कईलोगों की किस्मत भी जुड़ी थी। तरुण ने एक बार फिर हमें बिना थके आगे बढनेका संकल्प याद दिलाया। हम सब ने फिर कंधे मिला लिए। पत्रकारों,डिजाइनर्स, प्रोडक्शन-प्रिंटिंग-सरकुलेशन एक्सपर्ट्स, एड सेल्समैन आदि कीएक टीम तैयार की गई। ये एक जुआ था। लेकिन इसमें जीत की अगर थोड़ी सी भीसंभावना थी तो वो तभी थी जब हम मैदान छोड़े नहीं। हमें लग रहा था कि अबइस लड़ाई का अंत निकट है। लेकिन हमारे लिए और उन सभी लोगों के लिएजिन्होंने हम पर भरोसा जताया था, अखबार का एक इश्यू निकालना तो कम से कमजरूरी था। दिल के किसी कोने में ये उम्मीद भी थी कि किसी तरह अगर हमअखबार निकालने में कामयाब हो जाएं तो शायद कोई चमत्कार हो जाए।फाउंडर सब्सक्राइबर्स का सिलसिला बना हुआ था। ये सचमुच किसी ऎतिहासिकघटना की तरह हो रहा था। अक्सर हमें तहलका में भरोसा जताती चिट्ठियांमिलती थीं। एक रिटायर कर्नल ने तो फाउंडर सब्सक्राइबर बनने के लिए अपनेपेंशन फंड से एक लाख रुपये दे दिये। दूसरी तरफ चांदनी नाम की एक बीस सालकी लड़की ने सब्सक्रिप्शंस कमीशन से मिलने वाली रकम से फाउंडरसब्सक्राइबर बनने जैसा अनूठा कारनामा कर दिखाया। इन अनुभवों ने हमें आगेबढने की ताकत दी। हमें महसूस हुआ कि हम अकेले नहीं हैं।नए साल की शुरुआत के साथ ही हमारी किस्मत के सितारे भी फिरने लगे। अब कामज्यादा कुशलता से होने लगा था। 17 जनवरी यानी पहला एडिशन लॉंच होने सेठीक बारह दिन पहले हमें एक युवा जोड़ा मिला जो तहलका के विचारों सेप्रभावित होकर इसमें पैसा लगाना चाहता था। कुछ दूसरे निवेशकों की भीचर्चा चल रही थी। लगने लगा था कि बुरे दिन बीत चुके हैं।कल तहलका का विचार एक अखबार की शक्ल अख्तियार कर लेगा। कौन जाने वक्त केसाथ ये कमजोर पड़ जाए या फिर धीरे-धीरे, खबर दर खबर, इश्यू दर इश्यू इसकीताकत बढ़ती जाए। हालांकि अभी ये ठीक वैसा नहीं है जैसा हमने सोचा था,लेकिन ये काफी कुछ वैसा ही है जैसा इसे होना चाहिए। हम फिर एक नए सफर कीशुरुआत कर रहे हैं और अंधेरी सुरंग पीछे छूट चुकी है। फिलहाल हमारे लिएउम्मीद का ये हल्का उजाला ही किसी बड़ी जीत से कम नहीं .....
मंगलवार, 16 अक्तूबर 2007
बब्बर शेर - 02
चांद सा खूबसूरत है चेहरा तेरा
चांद सा खूबसूरत है चेहरा तेरा,
और तेरे चेहरे का पिम्पल
चान्द का दाग है।
ना हो सका उसके क़द का अंदाजा
ना हो सका उसके क़द का अंदाजा,
वह नाटी थी, मगर हिल का सैंडल
पहनती थी।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही मेरा मकसद है,
मेरी कोशिश है कि पुरी कवरेज मिलनी चाहिय ,
टीवी एफेम पर नहीं तो अखबारों मे ही सही
हो कैसे भी नाम लेकिन नाम होना चाहिय।
चांद सा खूबसूरत है चेहरा तेरा,
और तेरे चेहरे का पिम्पल
चान्द का दाग है।
ना हो सका उसके क़द का अंदाजा
ना हो सका उसके क़द का अंदाजा,
वह नाटी थी, मगर हिल का सैंडल
पहनती थी।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही मेरा मकसद है,
मेरी कोशिश है कि पुरी कवरेज मिलनी चाहिय ,
टीवी एफेम पर नहीं तो अखबारों मे ही सही
हो कैसे भी नाम लेकिन नाम होना चाहिय।
रविवार, 14 अक्तूबर 2007
पागलखाना
रूम नंबर १७ बी
राम प्रसाद सिंह
सन ऑफ़ दशरथ प्रसाद सिंह
यस सर
तुमसे कोई मिलने आया है।
हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा ...
एक पागल के साथ ऎसी दिल्लगी,
इश्वर तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेगा।
दिल्लगी नहीं सच कोई आया था,
तुम आ गई तान्या
मुझे पुरा विश्वास था,
एक दिन तुम यहाँ जरुर भेज दी जाओगी।
तान्या यहाँ पागल नहीं रहते,
ये वे लोग हैं, जो समाज से पैन्तरों से वाकीफ नहीं थे।
सच को सच झूठ को झूठ बताते रहे
मन में मैल, चेहरे पर मुस्कान इनके नहीं था,
ये किसी की भावनाओ से नहीं खेलते थे,
किसी को इमोशनल ब्लैक मेल नहीं करते थे।
तान्या यहाँ ठहरे लोग पागल नहीं हैं,
पागल है इस पागलखाने के बहार की सारी दुनियां।
यहाँ हम घंटों-घंटों बतिया सकते हैं
एक दुसरे का दुःख-दर्द बाँट सकते हैं,
गलबहियां डाल कर घंटों रो सकते हैं
घंटों हँस सकते हैं।
यहाँ समाज की कोई पाबन्दी नहीं है
यहाँ कोई आयेगा कहने
तुम पागलों की तरह क्यों हँस रहे हो।
यहाँ हर उस बात की इजाजत है,
जिसकी इजाजत तुम्हारा सभ्य समाज कभी नहीं देगा,
रात को दो बजे तुम चीख-चीख कर रो सकती हो।
दुश्मन को दुश्मन, दोस्त को दोस्त कह सकती हो।
यहाँ चेहरे पर छद्म मुस्कान और
कलेजे पर पत्थर रखने की जरुरत नहीं है।
क्योंकि यहाँ दिखावा नहीं चलता सच्चाई चलती है।
आज तुम्हारी आंखों में मेरे लिय प्रेम नहीं था,
दया, तरस, सहानुभूति के मिश्रित भाव थे,
सभ्य समाज की एक विदुषी, एक पागल के लिय
मन में इसी तरह के भाव रख सकती है,
मुझे दुःख नहीं इस बात का
दुःख सिर्फ इतना है
तुमने भी औरों की तरह सोचा।
जा रही हो तान्या
तुमने साथ जीने मरने की कसमें खाई थी,
भूल गई!
शायद अब मैं तुम्हारे काबिल नहीं रहा
मैं भूल गया था
तुम भी उसी समाज का अंग हो
एक हिस्सा हो,
जीसे हम पागलखाना कहते हैं।
अगर तुम्हे हमारे जैसा होने में शर्म आती है
अय सभ्य समाज की विदुषी,
तो सुन ले
हम भी तुम्हारी तरह नहीं होना चाहते।
राम प्रसाद सिंह
सन ऑफ़ दशरथ प्रसाद सिंह
यस सर
तुमसे कोई मिलने आया है।
हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा ...
एक पागल के साथ ऎसी दिल्लगी,
इश्वर तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेगा।
दिल्लगी नहीं सच कोई आया था,
तुम आ गई तान्या
मुझे पुरा विश्वास था,
एक दिन तुम यहाँ जरुर भेज दी जाओगी।
तान्या यहाँ पागल नहीं रहते,
ये वे लोग हैं, जो समाज से पैन्तरों से वाकीफ नहीं थे।
सच को सच झूठ को झूठ बताते रहे
मन में मैल, चेहरे पर मुस्कान इनके नहीं था,
ये किसी की भावनाओ से नहीं खेलते थे,
किसी को इमोशनल ब्लैक मेल नहीं करते थे।
तान्या यहाँ ठहरे लोग पागल नहीं हैं,
पागल है इस पागलखाने के बहार की सारी दुनियां।
यहाँ हम घंटों-घंटों बतिया सकते हैं
एक दुसरे का दुःख-दर्द बाँट सकते हैं,
गलबहियां डाल कर घंटों रो सकते हैं
घंटों हँस सकते हैं।
यहाँ समाज की कोई पाबन्दी नहीं है
यहाँ कोई आयेगा कहने
तुम पागलों की तरह क्यों हँस रहे हो।
यहाँ हर उस बात की इजाजत है,
जिसकी इजाजत तुम्हारा सभ्य समाज कभी नहीं देगा,
रात को दो बजे तुम चीख-चीख कर रो सकती हो।
दुश्मन को दुश्मन, दोस्त को दोस्त कह सकती हो।
यहाँ चेहरे पर छद्म मुस्कान और
कलेजे पर पत्थर रखने की जरुरत नहीं है।
क्योंकि यहाँ दिखावा नहीं चलता सच्चाई चलती है।
आज तुम्हारी आंखों में मेरे लिय प्रेम नहीं था,
दया, तरस, सहानुभूति के मिश्रित भाव थे,
सभ्य समाज की एक विदुषी, एक पागल के लिय
मन में इसी तरह के भाव रख सकती है,
मुझे दुःख नहीं इस बात का
दुःख सिर्फ इतना है
तुमने भी औरों की तरह सोचा।
जा रही हो तान्या
तुमने साथ जीने मरने की कसमें खाई थी,
भूल गई!
शायद अब मैं तुम्हारे काबिल नहीं रहा
मैं भूल गया था
तुम भी उसी समाज का अंग हो
एक हिस्सा हो,
जीसे हम पागलखाना कहते हैं।
अगर तुम्हे हमारे जैसा होने में शर्म आती है
अय सभ्य समाज की विदुषी,
तो सुन ले
हम भी तुम्हारी तरह नहीं होना चाहते।
भूख
भूख को बेचकर कुछ लोग
रोटी कमा रहे हैं,
और भूख है खड़ी,
सरे राह
हमेशा की तरह,
भूखी, अधनंगी, क्षत-विक्षत।
रोटी कमा रहे हैं,
और भूख है खड़ी,
सरे राह
हमेशा की तरह,
भूखी, अधनंगी, क्षत-विक्षत।
पत्रकारिता के संबंध में जैसा शरद यादव ने कहा
आज पत्रकारिता का चेहरा बदल गया है, आज जो सबसे अधीक लूटता है, दो नम्बर का माल जिसके पास अधीक है, वह सबसे पहले अपना चैनल खोलता है। ऐसा नहीं है आज पत्रकार काम नहीं करना चाहता। वह काम करना चाहता है। लेकिन वह ज्यादा प्रतिबद्धता दिखाता है तो उसे मालिक बाहर का रास्ता दिखा देता है।मैं कई पत्रकारों को जानता हूँ जो नेक हैं, मुद्दों को ठीक तरीके से समझते हैं, लेकिन कोई चैनल या अखबार उन्हें लेने को तैयार नहीं है। आज के मीडिया को सिर्फ समझदार नहीं तीकरमी समझदार पत्रकार चाहिय।
आज का पत्रकार हमारे सामने तो आकर ताल ठोकता है, और मालिक के सामने जाकर दुम हिलाता है। (दैनिक भास्कर के समूह सम्पादक श्रवण गर्ग ने इस बात का विरोध किया। उन्होने कहा कि पत्रकार मलिक के सामने भी अपनी बात उतनी ही हिम्मत से कहते हैं, जीतनी और जगह।)
(यह वक्तव्य एक व्याख्यान माला में श्री यादव के दिय विचारों का संपादित अंश है।)
आज का पत्रकार हमारे सामने तो आकर ताल ठोकता है, और मालिक के सामने जाकर दुम हिलाता है। (दैनिक भास्कर के समूह सम्पादक श्रवण गर्ग ने इस बात का विरोध किया। उन्होने कहा कि पत्रकार मलिक के सामने भी अपनी बात उतनी ही हिम्मत से कहते हैं, जीतनी और जगह।)
(यह वक्तव्य एक व्याख्यान माला में श्री यादव के दिय विचारों का संपादित अंश है।)
बुधवार, 10 अक्तूबर 2007
मोबाइल
काश मन एक मोबाइल होता
और इसमे एक ऑप्शन होता
इरेज!
तो दुनियां के बहुत सारे लोग,
अपनी बहुत सारी परेशानियों से
'निजात'
पा जाते।
और इसमे एक ऑप्शन होता
इरेज!
तो दुनियां के बहुत सारे लोग,
अपनी बहुत सारी परेशानियों से
'निजात'
पा जाते।
शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007
बब्बर शेर
जालिम तेरे रोने की अदा से लगता है,
तुने सीने में मगरमच्छ का दिल लगा रखा है।
तुझसे गिला नहीं है, प्रिया के छोटे भाई,
मुझसे ही तुझको बीस का नोट देते नहीं बना।
आसमान में तारें हैं, जमीं पर आदमी है,
आसमान में तारें हैं, जमीं पर आदमी है,
जमीन के अन्दर जाकर देखो
वहाँ पानी ही पानी है,
वहाँ पानी ही पानी है।
चोर से नेता हुआ, चोर में गया बीलाय,
जो कुछ था सोई भया,
अब कुछ कहा ना जाय
प्रेम गली अति संकरी, तामें दो ना समाय,
जब वो था तब पति नहीं, पति आय वह जाय।
खुदा के बाद मुझे बस तू ही डराता है,
जब भी मुझसे मिलता है,
उधार मांग लेता है।
अधा पीया, पउआ पीया
फिर भी रहा अधूरापन,
चलो मेनका, उर्वशी वाला
सोमरस कहीं ढूंढे हम।
हर इम्तिहान के बाद दिल को यह हौसला चाहिय,
इस इम्तिमान का रिजल्ट नहीं आएगा।
हल्का हूँ तो क्या हुआ, जैसे सैन्ड़्ल एक,
बेहद तीखा स्वाद है, तू चख कर तो देख।
हमारे पैसों से हमीं को खिलाकर, हमीं से पुचाते है वे,
हमारे अंशु बतलाओ यह पार्टी कैसी थी।
तुने सीने में मगरमच्छ का दिल लगा रखा है।
तुझसे गिला नहीं है, प्रिया के छोटे भाई,
मुझसे ही तुझको बीस का नोट देते नहीं बना।
आसमान में तारें हैं, जमीं पर आदमी है,
आसमान में तारें हैं, जमीं पर आदमी है,
जमीन के अन्दर जाकर देखो
वहाँ पानी ही पानी है,
वहाँ पानी ही पानी है।
चोर से नेता हुआ, चोर में गया बीलाय,
जो कुछ था सोई भया,
अब कुछ कहा ना जाय
प्रेम गली अति संकरी, तामें दो ना समाय,
जब वो था तब पति नहीं, पति आय वह जाय।
खुदा के बाद मुझे बस तू ही डराता है,
जब भी मुझसे मिलता है,
उधार मांग लेता है।
अधा पीया, पउआ पीया
फिर भी रहा अधूरापन,
चलो मेनका, उर्वशी वाला
सोमरस कहीं ढूंढे हम।
हर इम्तिहान के बाद दिल को यह हौसला चाहिय,
इस इम्तिमान का रिजल्ट नहीं आएगा।
हल्का हूँ तो क्या हुआ, जैसे सैन्ड़्ल एक,
बेहद तीखा स्वाद है, तू चख कर तो देख।
हमारे पैसों से हमीं को खिलाकर, हमीं से पुचाते है वे,
हमारे अंशु बतलाओ यह पार्टी कैसी थी।
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