शुक्रवार, 28 मई 2010

बुधवार, 26 मई 2010

बुधवार, 12 मई 2010

दो पेंटिंग्स



राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता के जी नरेन्द्र बाबू की दो पेंटिंग्स यहाँ दे रहे हैं. बताइएगा कैसी है?

ऐसे कैसे बचेगी लाडली


मनोज कुमार

रूढ़िवादी भारतीय समाज की पहली पसंद हमेशा से बेटा रहा है। बेटियों को
दूसरे दर्जे पर रखा गया। यही नहीं, पालन पोषण में भी उनके साथ भेदभाव
जगजाहिर है। बेटियों को जन्म से माने के पहले मार देने की निर्मम खबरें
अब बासी हो गयी है। बेटियों के साथ इस सौतेलेपन का दुष्परिणाम यह हुआ कि
आहिस्ता आहिस्ता बेटियों की तादाद घटती गयी। यह स्थिति किसी भी समाज अथवा
देश के लिये ठीक नहीं कहा जा सकता और भारत के स्तर पर तो यह बेहद चिंता
का विषय रहा है। इस स्थिति से उबरने के लिये सरकार और समाज लगातार सक्रिय
है। पिछले एक दशक में इस दिशा में खासा प्रयास किया गया। इन प्रयासों में
करोड़ों के बजट का प्रावधान किया गया नतीजतन परिणाम सौ प्रतिशत भले ही न
रहा हो लेकिन एक कदम तो आगे बढ़ा गया। कहना न होगा कि इन प्रयासों का
परिणाम आने वाले समय में और भी व्यापक स्तर पर देखने को मिलता किन्तु एक
साजिश के साथ न केवल लाड़ली पर खतरा मंडरा रहा है, सरकारी और निजी
प्रयासों पर पानी फेरा जा रहा है बल्कि समाज में अनैतिकता को खामोशी के
साथ बढ़ाया जा रहा है।
टेलीविजन के पर्दे पर और समाचार पत्रों में सेक्स को लेकर अनेक किस्म के
विज्ञापन दिये जा रहे हैं। हर कंपनी के अपने दावे हैं और इन दावों की
सच्चाई केवल इतनी है कि इससे सेक्स सफल हो या न हो, समाज में अनैतिकता बढ़
रही है। मुझे और मेरी उम्र्र के उन तमाम लोगों को याद होगा कि सामाजिक
बंधन के चलते महिलायें माहवारी के समय रसोई से दूर रहती थीं। इन दिनांे
में वे अलग-थलग बैठी रहती थीं। बचपन और किशोरावस्था का मन उनके इस
अकेलेपन के कारण को समझने की कोशिश में लगा रहता था। जवाब नहीं मिलता था।
थोड़ा डर और थोड़े लिहाज के बाद मन में आ रहे सवालों को झटक दिया जाता था।
समय बदला और इस बदले समय में सारे मायने बदल गये। अब यह सवाल पांच साल की
नन्हीं उम्र के बच्चों को जिज्ञासु नहीं बनाते हैं बल्कि वे इस उम्र में
इस मामले के शिक्षक बन गये हैं। उन्हें महिलाओं की निजता के बारे में
पूरा ज्ञान है। यह ज्ञान उन्हें परिवार से नहीं मिला। टेलीविजन के पर्दे
पर कंडेाम और गर्भनिरोधक दवाआंें के सेक्सी विज्ञापनांे ने उन्हें बता
दिया है कि उनकी निजता अब निजता नहीं रही। अभी कुछ समय से बाजार में
प्रीगनेंसी टेस्ट करने की एक साधारण विधि आ गयी है जिसमें किसी युवती या
स्त्री को किसी से कुछ बताने अथवा किसी अस्पताल में जाने की कोई जरूरत
नहीं रह गयी है। वह मनचाहे ढंग से जांच कर सकती है। इसी तरह बाजार में
ऐसी गोलियां और दूसरी चीजें उपलब्ध हैं जिसके उपयोग के बाद गर्भवती होने
की संभावना लगभग क्षीण हो जाती हैं। अब तक प्रीगनेंसी टेस्ट के लिये
पेथोलॉजी लेब का सहारा लिया जा जाता था जिससे कई बार यह सवाल उठता था ऐसा
क्यों कराया जा रहा है। और जब रिपोर्ट पॉजिटिव आ जाए तो वह स्त्री या
युवती सवालों के घेरे में कैद हो जाया करती थी। पचास रूप्ये के मामूली
खर्च पर स्त्री को संदेह से परे कर दिया गया है। समाज में जिस तरह
वर्जनाएं टूट रही हैं, उसमें उपर लिखी गयी बातें कोई अर्थ नहीं रखती हैं
लेकिन मैं इसे दूसरे रूप में ले रहा हूं और इसके खतरे को दूसरी तरह से
देख रहा हूं। गोलियों के सेवन के बाद गर्भवती न होने से किसी अनचाहे
बच्चे की जान जाने का खतरा तो नहीं होता है लेकिन प्रीगनेंसी टेस्ट करने
वाली पचास रूप्ये की टेस्ट पट््टी का अर्थ एक अजन्मे बच्चे को गर्भ में
ही मार देेने का सबसे आसान तरीका निकाल लिया गया है।
इसे थोड़ा और विस्तार से समझेंं। एक तरफ पूरी दुनिया में बेटी बचाओ अभियान
चल रहा है और दूसरी तरफ इस तरह टेस्ट की सुविधाएं तो खतरे को और भी बढ़ा
रही हैं क्यांेकि प्रीगनेंसी का पता चलने के बाद चरित्रहीनता के दाग से
बचने के लिये गर्भ गिराने का आनन-फानन में इंतजाम कर लिया जाता है। इसमें
इतना भी वक्त नहीं होता है कि वे यह जान सकें कि आने वाली जान बेटा था या
बिटिया। मान लीजिये एक समय में सौ ऐसी स्त्री प्रीगनेंसी की जांच कराती
हैं और मेरा मानना है कि इसमें 98 लोग वे हैं जिन्होंने विवाहत्तेर संबंध
कायम कर लिये हैं और वे बेटे या बिटिया के फेर में न पड़कर समस्या मानकर
मुक्ति पाना चाहती हैं। इस स्थिति में सरकार और निजी प्रयास निरर्थक
साबित होते जाएंगे क्योंकि अजन्मे जान को मारने वालों को यह पता ही नहीं
है िकवह लाड़ली थी या लाडला। इस पूरे मामले में दुर्भाग्य की बात है कि
टेलीविजन के पर्दे पर लोकप्रिय हो चुकी अभिनेत्री इस प्रोडक्ट के प्रचार
प्रसा में जुड़ी हैं। शायद उन्हें इस बात का इल्म नहीं है कि वे किस तरह
के विज्ञापनों का साथ दे रही हैं। इस मुद्दे पर हैरत और तकलीफ देेने वाली
बात यह है कि समाज के दूसरे लोग भी बहुत जागरूक नहीं हैं। वे इसे
रोजमर्रा की चीज बता कर किनारा कर लते हैं। कुछ लोग इस मुद्दे को उतना
गंभीर नहीं मानते हैं बल्कि उनका सोचना है कि जब समाज में अनैतिकता बढ़
रही है तो इस पर चर्चा करने का लाभ क्या? कुछ लोग इसे सेक्स का विषय
समझकर मानसिक जुगाली करने लगते हैं।
मेरी अपनी निजी राय है कि ऐसे विज्ञापनों के खिलाफ, ऐसी दवाईंया और
प्रोडेक्ट के खिलाफ स्वयंसेवर संस्थाओं को, बुद्विजीवियों को और सामाजिक
सरोकार से नाता रखने वालों को आगे आना चाहिए क्योंकि यह महज समाज में
अनैतिकता को विस्तार नहीं दे रहे हैं बल्कि लाड़ली को बचाने के एक महायज्ञ
के सफल होने के पहले उसमें व्यवधान उपस्थित करने के प्रयास में हैं।
मीडिया की भूमिका इसमें कारगर हो सकती है और यह उसका दायित्व भी है िकवह
ऐसे किसी भी प्रयासों के खिलाफ समाज को जागृत करे।
(मनोज भाई गोरखपुर से हैं, एक राष्ट्रीय अखबार से जुड़े हैं. सरोकारों की पत्रकारिता में विश्वास रखते हैं.
)

सोमवार, 10 मई 2010

निरुपमा : मौत पर पत्रकारिता

कोडरमा में निरुपमा की मौत की खबर उसके दोस्तों की वजह से इस मुकाम तक पहुंची
कि प्रशासन को भी इसे गंभीरता से लेना पड़ा। वरना रोज कितनी ही निरुपमाएं मरती
हैं, किसी को परवाह नहीं होती, सिवाय उन पत्राकारों के जो सिंगल कॉलम की खबर
लिखकर अपनी जिम्मेवारी खत्म मानते हैं या इलैक्ट्रानिक मीडिया के वे बाइट
कलेक्टर जो इस मौत की अच्छी पैकेजिंग करके ‘सनसनी’ बनाते हैं।*

प्रियभांषु लगातार निरुपमा के प्रेमी के तौर पर प्रचारित हो रहा है, प्रचार पा
रहा है। यह बात प्रियभांषु कभी नहीं कहता। वह सिर्फ इतना ही कहता है- ‘हम अच्छे
दोस्त थे।’ क्या दोस्त होने और प्रेमी होने का अंतर मीडिया नहीं समझती? या
मीडिया प्रियभांषु के ऊपर निरुपमा का प्रेम थोप रही है और प्रियभांषु के प्रेम
को प्रचारित कर रही है। चूंकि प्रियभांषु का प्रेम जुड़ने मात्र से निरुपमा और
प्रियभांषु की कहानी को एक एंगल मिलेगा। खबरों की दुनिया में हर स्टोरी को एक
एंगल चाहिए। यहां एंगल विहीन खबरों के लिए कोई जगह नहीं है। वरना ओलम्पिक
खिलवाड़ के नाम पर दिल्ली से जो हजारों लोग बेघर हुए वे खबर क्यों नहीं बनते?
क्योंकि इसमें खबर क्या है?



दिल्ली की सरकार ब्लू लाइन बसों को सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था से अलग करने की योजना बनाती है। उस बीच में पूरा एक दौर चलता है, जब दिल्ली की हर ब्लू लाइन बस ब्लू लाईन बस नहीं बल्कि किलर बस के नाम से पुकारी जाने लगती है। आतंक का माहौल इतना गहरा जाता है कि परिवार वाले फोन पर कहते हैं, सड़क पर ठीक से चलो। मतलब ब्लू लाईन
बसों से बचकर चलो। आज भी दिल्ली में ब्लू लाईन बसें हैं। एक्सीडेंट भी कम नहीं हुए। फिर भी खबरों से यह किलर बसें पूरी तरह गायब हैं।

खैर हम निरुपमा-प्रियभांषु की बात कर रहे थे। प्रियभांषु तो बेहद मासूम है- उसे
तो यह भी पता नहीं था कि निरुपमा के गर्भ में तीन महीने का गर्भ पल रहा था.
प्रेम हमारे समाज में बेहद फिल्मी हो गया है। नायक, नायिका से कहता है- अब मैं
तुमसे प्यार करने लगा हूं? मानों प्रेम कोई टेप रिकॉर्डर है। जिसे जब चाहो ऑन,
जब चाहो ऑफ कर दो। जबकि हमारे समाज में ऐसे जोड़े भी हैं। जो पिछले दस-दस सालों
से रिश्ते मे पति-पत्नी हैं। एक ही बिस्तर पर सोते हैं, लेकिन उनके बीच प्रेम
नहीं है। क्या प्रेम से हमारा मतलब सेक्स है। दो लोगों के बीच शारीरिक संबंध है
तो प्रेम होगा ही। क्या यह जरुरी है? यह थोड़ी स्टिरियो टाईप अप्रोच नहीं है।

प्रियभांषु को प्रेमी-प्रेमी कहने की जगह निरुपमा को प्रेमिका कहना अधिक न्याय
संगत होगा। सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि निरुपमा हमारे बीच नहीं है, ना ही यह बात
किसी सहानुभूमि में कही जा रही है। बल्कि इसलिए क्योंकि उसने अपने गर्भ में तीन
महीने तक एक नए जीवन को संभाल कर रखने का साहस दिखाया। जबकि आज के समय में कम
पढ़े लिखे लड़के लड़कियों को भी पता है, किस तरह की सावधनी बरत कर गर्भ से बचा जा
सकता है। और गर्भ ठहर जाए तो किस प्रकार उससे निजात पाई जा सकती है। इन तमाम
रास्तों के बावजूद कोई लड़की मां बनने का साहसी निर्णय लेती है तो इसके पीछे
प्रेम छोड़कर और क्या वजह होगी?



प्रियभांषु मीडिया के सामने इतना बताता है कि निरुपमा उसकी अच्छी दोस्त थी, उसे
बिल्कुल पता नहीं था कि वह गर्भवति है। तीन महीने के गर्भ की अवधि छोटी अवधि
नहीं होती। दूसरा यदि निरुपमा ने अपने जीवन की इतनी बड़ी घटना प्रियभांषु के साथ
शेयर नहीं की तो इसके पीछे की वजह क्या होगी? जबसे कोडरमा पुलिस ने प्रियभांषु
को तलब किया है। डर सिर्फ इतना है कि तमाम मीडिया हाईप के वावजूद दोनों
परिवारों में समझौता हो जाएगा और निरुपमा की कहानी इस समझौते की बलि चढ़ जाएगी।

उसके बाद, प्रियभांषु अपनी नौकरी में मस्त, निरुपमा के परिवार वाले अपने धंधे
में मस्त और मीडिया संस्थान/ समूह अन्य खबरों में व्यस्त हो जाएंगे। सबको फिर
उस दिन निरुपमा की याद आएगी, जब कोई और निरुपमा तीन महीने के गर्भ के साथ घर
बुलाई जाएगी और उसके बेडरुम में पंखे से लटकी उसकी लाश मिलेगी।

शनिवार, 8 मई 2010

शुक्रवार, 7 मई 2010

सबसे खतरनाक होता है: मुर्दा शांति से भर जाना



सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
काम से लौटकर घर आना
सबसे खतरनाक होता है
सपनों का मर जाना
सबसे खतरनाक वह घडी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी निगाह में रुकी होती है
सबसे खतनाक वह चाँद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आंगनों में चढ़ता है
पर आपकी आँखों को मिर्ची की तरह नहीं गड़ता है
सबसे खतनाक वह गीत होता है
आपके कानों तक पहूँचने के लिए
जो मरसिए पढ़ता है
आतंकित लोगों के दरवाजों पर
जो गुंडे की तरह अकड़ता है
सबसे खतरनाक वह दिन होती है
जिसमे आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धुप का टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए
-अवतार सिंह पाश






बुधवार, 5 मई 2010

ओबामा: बॉस हो तो ऐसा


ओबामा: बॉस हो तो ऐसा, आपत्ति हो या सहमति दर्ज तो कराओ बाबा







































आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम