शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

अस्मिता से जुड़ते भाषा के सवाल


 धूमिल की एक कविता है, ‘जो असली कसाई है, उसकी निगाह में तुम्हारा यह तमिल दुख, मेरी भोजपुरी पीड़ा का भाई है। भाषा उस तिकड़मी दरिन्दे का कौर है, जो सड़क पर और है, संसद में और है।’
भाषा को लेकर होने वाली बहस सामाजिक भी है और राजनीतिक भी। इस बात में अब विमर्श की गुंजाइश नजर नहीं आती लेकिन भाषा का प्रश्न महत्वपूर्ण है, इसके महत्व को हमें स्वीकारना होगा। यूनेस्को की माने तो दुनिया भर में बोली जाने वाली 6900 भाषाओं में पचास फीसदी भाषाएं खतरे में हैं, और एक अनुमान के अनुसार प्रत्येक दो सप्ताह में एक भाषा औसतन खत्म हो रही है। मात्र अस्सी भाषाएं हैं, जैसे अंग्रेजी, हिन्दी, मंडेरिन, रसियन जिसे विश्व भर के अस्सी प्रतिशत लोग बोल रहे हैं। दुनिया भर में 96 प्रतिशत भाषाआंे को सिर्फ चार फीसदी लोग बोल रहे हैं और 90 प्रतिशत भाषाओं का प्रतिनिधित्व इंटरनेट पर मौजूद नहीं है।
आज से लगभग अस्सी साल पहले भारत मंे एक भाषायी सर्वेक्षण सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने किया था। आज भी भाषायी सर्वेक्षण पर जब बात आती है तो लोग संदर्भ के तौर पर ग्रियर्सन को ही उद्धृत करते हैं। ग्रियर्सन के बाद देश में भाषा को लेकर उस तरह का कोई दूसरा सर्वेक्षण नजर नहीं आता।
अब पिछले ढाई-तीन सालों से बिना किसी सरकारी मदद के और बिना किसी विदेशी मदद के देश भर में भारतीय जन भाषा सर्वेक्षण का काम नागरिक समाज की तरफ से हो रहा है। इसी जन भाषा सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट बताती है कि देश मंे तीन सौ से अधिक भाषाएं लापता हैं। इन्हें बोलने वाले कहां हैं, इसकी जानकारी सर्वेक्षण टीम को नहीं मिल पाई है। भाषा सर्वेक्षण का काम जारी है, आने वाले समय में हो सकता है, इस सर्वेक्षण से और भी चौकाने वाले तथ्य सामने आएं।
21-22-23 सितम्बर को दिल्ली में जनभाषा सर्वेक्षण के नेशनल कलेक्टिव में जैसे-जैसे सवाल एक के बाद एक विमर्श के लिए सामने आए, भाषा को लेकर समाज की संवेदना और लगाव की बात भी स्पष्ट होती गई। यह ‘जन भाषा सर्वेक्षण’ का अंतिम ‘नेशनल एडिटोरियल कलेक्टिव’ था। देश भर के अलग-अलग राज्यों से भाषा सर्वेक्षण के संयोजक इस आयोजन में शामिल होने के लिए दिल्ली आए थे।  अंतिम चरण की तरफ बढ़ रहे भाषा सर्वेक्षण की एक रूप रेखा उम्मीद है कि अगले साल अंतरराष्ट्रीय भाषा दिवस के अवसर पर 21 फरवरी तक सामने आ जाएगी।
भारतीय जन भाषा सर्वेक्षण की तरफ से डा. जी एन देवी ने विश्वास दिलाया, ‘21 फरवरी को हम यह घोषणा कर देंगे कि बच्चे का जन्म हो गया है। भारतीय जन भाषा सर्वेक्षण की एक रूप रेखा हमारे सामने उस वक्त तक आ जाएगी।’
भारतीय जन भाषा सर्वेक्षण पिछले ढाई-तीन सालों में लगे 3500 लोगों के श्रम का नाम है, जिन्होंने 68 वर्कशॉप से 631 भाषा/बोली पर काम पूरा किया। इन भाषाओं पर अब तक लगभग 9500 पृष्ठ लिखा गया है और अभी देश भर के भाषा प्रतिनिधि अपने-अपने राज्य के सर्वेक्षण को पूरा करने में और लिखने का काम पूरा करने में लगे हुए हैं।
631 प्रविष्टियों में एक प्रविष्टि को जन भाषा सर्वेक्षण ने अब मंजूरी दी है, यह भाषा उन पचास लाख लोगों की भाषा है, जो खुद को बोलकर अभिव्यक्त नहीं करते। वे संकेत के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त करते है। उनके लिए अभिव्यक्ति माध्यम संकेत है। इस भाषा का इस्तेमाल देश भर के बोल और सुन ना पाने वाले करते हैं।


तीन दिन की बातचीत में एक-एक करके कई मुद्दों पर चर्चा हुई। बंगाल से आए मित्रों ने बेदिया समाज की भाषा की बात की, जिन्होंने अपनी भाषा को गुप्त भाषा के तौर पर इस्तेमाल किया और आज भी बेदिया समाज के लोग अपनी भाषा के संबंध में अधिक बात नहीं करना चाहते, इसलिए उनके समाज के बाहर के लोगों को इस भाषा के संबंध में अधिक जानकारी नहीं है। बंगाल की बेदिया समाज की भाषा अकेली ऐसी भाषा नहीं है, इस देश में दर्जनों ऐसी भाषाएं हैं, जिनकी लिपी और साहित्य के संबंध में कोेई जानकारी नहीं मिलती। अंग्रेजों ने कई जातियों को अपराधी जाति घोषित किया था, अंग्रेजों से बचने के लिए कई अपराधी कही जाने वाली जातियों ने अपनी गुप्त बोली ईजाद की, अंग्रेज चले गए लेकिन वे बोलियां आज भी समाज के बाहर के लोगों के लिए गुप्त ही हैं।
भाषा और बोली का मामला बेहद संवेदनशील है, कोंकणी को लेकर लिपी की लड़ाई है। कुछ इसे रोमन में लिखना चाहते हैं और कुछ देवनागरी के तरफदार हैं। इसी प्रकार कई बोलियों को मिलाकर इस्तेमाल की जा रही राजस्थानी बोली को लेकर राजस्थान में कुछ लोग संघर्ष कर रहे हैं।
दूसरी तरफ दस हजार से कम बोली जाने वाली बोलियों का कोई रिकॉर्ड सरकारी फाइलों में भी दर्ज नहीं होता। बड़ी संख्या में भाषाएं खत्म हुई और किसी को कानों कान खबर भी नहीं हुई।
ऐसे समय में जन भाषा सर्वेक्षण की यह पहल, भाषाओं और बोलियों को पहचानने और उनकी पहचान को और पुख्ता करने का ही काम कर रही है।




सोमवार, 11 जून 2012

हिन्दी अकादमी: क्यों इतना सन्नाटा है भाई


इस बात को अब कुछ साल हो गए जब कवि अशोक चक्रधर को हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया था। उस वक्त उनके नाम को लेकर काफी शोर शराबा हुआ था। साहित्यकारों का एक समूह उन्हें हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष के पद पर नहीं देखना चाहता था। अब अशोक चक्रधर हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष नहीं हैं। हिन्दी अकादमी की यह नई जिम्मेवारी भाषाविद विमलेश कांति वर्मा के पास है। वैसे हिन्दी अकादमी जैसे महत्वपूर्ण संस्थान में जब उपाध्यक्ष का चयन किया जाता है, उस वक्त संस्थान को यह बातें जरूर सार्वजनिक करनी चाहिए कि उपाध्यक्ष के नाम के लिए किन किन बुद्धिजीवियों के नाम पर विचार किया गया। उपाध्यक्ष के नाम के चयन के लिए चयन समिति में कौन-कौन शामिल थे? सबसे महत्वपूर्ण पिछले उपाध्यक्ष की अपने कार्यकाल में उपलब्ध्यिां क्या-क्या रहीं? सार्वजनिक करते हुए यह बातें भी जोड़ी जा सकती हैं कि पिछले उपाध्यक्ष ने अकादमी के खर्चे से कितनी विदेश यात्राएं की और उन यात्राओं की उपलब्धि क्या-क्या रहीं? अर्थात उनकी यात्रा से अकादमी को और हिन्दी को क्या लाभ मिला? यह सारी जानकारी दिल्ली सरकार अपनी वेवसाइट पर डाल सकती है या फिर अकादमियां अपनी? बीते महीने नए उपाध्यक्ष का चुनाव हिन्दी अकादमी में हो गया और संचालन समिति भी कम महत्वपूर्ण नामों से भर दिया गया। कमाल की बात यह रही कि इस बार आकदमी की नई बहाली को लेकर कहीं से एक शब्द सुनने को नहीं मिला। इस बार अकादमी के संचालन समिति में एच बालासुब्रमण्यम, विभास चंद्र वर्मा, भानु भारती, गोरखनाथ, सुरजीत सिंह जोबन, बीएल गौड़, उमा मिश्रा, रंजना अग्रवाल, रीता सिन्हा, अरुण कुमार श्रीवास्तव, ममता सिंगला, दुर्गा प्रसाद गुप्त, सुषमा भटनागर, नारायण सिंह समीर, सत्यप्रिय पांडेय आदि आदि हैं। ना जाने इस समिति में हिन्दी साहित्य का कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति क्यांे नहीं रखा गया? संचालन समिति के एक सदस्य डा हरनेक सिंह गिल कहते हैं- महत्वपूर्ण व्यक्तियों को विदेश घूमने, सेमिनारों में जाने से फूर्सत कहां है कि वे हिन्दी अकादमी के लिए समय निकालेंगे। श्री गिल के अनुसार यह सच्चाई है कि अशोकजी के समय कोई मीटिंग नहीं हो पाई लेकिन अब यह समय पर हुआ करेंगी। हिन्दी अकादमी के वर्तमान उपाध्यक्ष इस समय विदेश दौरे पर हैं, उनके लौटते ही पहली मीटिंग तय की जाएगी। यह जानकारी भी डा गिल से मिली। इस वक्त हिन्दी का बुद्धिजीवी वर्ग बिल्कुल शांत है। इसकी वजह हिन्दी जगत में अकादमियों और हिन्दी संस्थानों को छाया गहरा निराशा का भाव है। या फिर साहित्यकारों को लगता है कि उनके लिखने-पढ़ने से कुछ होने वाला नहीं है। अच्छा है कि अच्छे से सबसे निभाई जाए। चूंकि एक समय लेखकों के एक बड़े वर्ग ने अशोक चक्रधर का जमकर विरोध किया था और आज जब उनके काम काज से असंतुष्ट होकर अकादमी से उनकी विदाई हुई है, ऐसे में वे सभी साहित्यकार चुप हैं, जो कल तक अशोकजी को लेकर मुखर थे तो यह बात अचरज में जरूर डालती है। बताया यही जा रहा है कि अकादमी से उनकी विदाई उनके काम काज से असंतुष्ट होकर की गई है। यह भी कहा जा रहा है कि अशोकजी ने अकादमी के संचालन समिति को बिल्कुल निष्क्रिय बनाकर रखा। अपने कार्यकाल के दौरान संचालन समिति की एक भी बैठक अशोकजी ने नहीं कराई। जबकि अकादमी के सूत्रों के अनुसार कायदे से अकादमी का सारा खर्च और आने वाले समय की सारी योजनाएं समिति की सहमति की मुहर के बाद ही पास होनी चाहिए। लेकिन पिछले तीन सालों में जो कुछ अकादमी में हुआ है, उसमें संचालन समिति के अनुमोदन जैसा कुछ भी नहीं है। मई में जब विभिन्न अकादमियों के संचालन समिति के पुनर्गठन को लेकर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बैठक ली थी। बताया जाता है कि उसमें अशोकजी शामिल नहीं हो पाए थे। वहां पंजाबी अकादमी और उर्दू अकादमी से मुख्यमंत्री दीक्षित संतुष्ट नजर आईं लेकिन हिन्दी अकादमी के काम काज की शैली से वे निराश थीं। वैसे अब हिन्दी अकादमी को नया उपाध्यक्ष मिल गया। बेदाग छवि वाला। साथ-साथ संचालन समिति का पुनर्गठन भी हो गया है। फिर भी सवाल बनता ही है कि इसके बाद साहित्य जगत में क्यों इतनी शान्ति शान्ति है। क्या डा गिल सही कहते हैं- वरिष्ठों को विदेश यात्राओं और सेमिनारों से फूर्सत नहीं है, जो इन मसलों पर विचार करें?

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

उंगलबाज का पहला प्रकाशीत लेख, स्वागत करें

उंगलबाज.कॉम


मुझे नहीं पता, आपने उंगलबाज का नाम पहले कभी सुना है या नहीं सुना। यह भारतीय मीडिया उद्योग का सबसे अविश्वनीय नाम है। इंडिया टीवी से भी अधिक अविश्वनीय। पंजाब केसरी से भी अधिक अविश्वनीय। डर्टी पिक्चर की सिल्क की तरह, जिसका नाम बदनाम होकर हुआ।



हमारी विश्वसनीयता इतनी संदिग्ध है कि हमने दुनिया के एक मुल्क में उनके प्रधान की मौत की जानकारी उनके जीते जी छाप दी। हमारी वेवसाइट पर हिट्स एकदम से बढ़ गया। खबर आते ही पूरे देश में मारपीट, आगजनी शुरू हो गई। मानों वे सभी लोग इस खबर के वेवसाइट पर लगने के इंतजार में ही थे। कोई भी हमारा तो कुछ ना बिगाड़ पाया लेकिन अपने देश के करोड़ों रुपए की संपति की ऐसी कम तैसी जरूर कर दी। यहां बताता चलूं कि हमारा डॉट कॉम इतना अधिक अविश्वसनीय है कि हम आज तक पता नहीं लगा पाए कि यह खबर वेवसाइट के लिए भेजी किसने थी? और वेवसाइट पर लगाई किसने? इसके बावजूद हमें गर्व है कि पूरे मीडिया जगत में हम अविश्वसनीयता का काम पूरी विश्वसनीयता के साथ करते हैं। हम किसी ईमानदारी का दावा नहीं करते और आपको आगे रखने का वादा नहीं करते।



वैसे जिस मुल्क के प्रमुख की बात मैं कर रहा था, वहां से हमारी विदाई हो चुकी है। हमें बाहर निकाल दिया गया है। अब सीआईए और केजीबी मिलकर उन सूत्रों को तलाशने की केाशिश में लगी है, जिसके इशारे पर ऐसा किए जाने का उन्हें अनुमान है।
वैसे सच कहूं तो भारत हमारे लिए एक मुफीद ठीकाना साबित हुआ है। यहां उंगलबाजी की पर्याप्त गुंजाइश नजर आ रही है क्योंकि यहां किसी के मरने की परवाह किसी को नहीं है। यहां के लोग की याद्दाश्त बेहद कमजोर है। मुझे नहीं लगता कि कोलकाता में कुछ होता है तो हावड़ा के लोग उसकी परवाह करते हैं। बड़ोदरा की चिन्ता अहमदाबाद वालों को रहती होगी। इसी तरह भोपाल के हक के लिए सिहोर सामने नहीं आता। बेतिया की चिन्ता मोतिहारी को नहीं है। बिलासपुर वाले दुर्ग की घटनाओं से नावाकिफ हैं। गुमला वालों को गाड़ी लोहरदगा मेल की जानकारी नहीं है। दिल्ली, मुम्बई और कोलकाता मे एमएनसी की नौकरी करने वाले वेदान्ता और पॉस्को में अपने लिए रोजगार के अच्छे अवसर ही देख पाते हैं। इससे अधिक जानने की उन्हें जरूरत नहीं है। अधिकांश अखबार और चैनलों को अपने लिए पत्रकार कम दलाल चाहिए जो वसूली एजेन्ट के तौर पर काम कर सके। उसके बाद भी दावा यह कि सच को रखे आगे और अंदर सच का सामना करने की कुव्वत नहीं। सच कहें तो पड़ोस की चिन्ता नहीं है लेकिन सारा भारत एक है।
यदि इस देश की जनता एक होती। इस देश के लोगों को कुव्वत होता तो क्या भोपाल गैस कांड हो जाता, नन्दीग्राम करने का कोई साहस करता, गुजरात के दंगे इतनी सहजता से ऑपरेट हो पाते। यह सब शर्मनाक था, जो उसके बाद हुआ, वह उससे भी अधिक शर्मनाक। इतना कुछ हो गया, और हम आज तक उसके लिए जिम्मेवारी तय नहीं कर पाए। सभी हत्यारे खुलेआम घुम रहे। हत्या में शामिल लोगों को हम चुन-चुन कर अपना नेतृत्व सौप रहें हैं। लाखों की संख्या में इकट्ठे होकर उनको सुनने जा रहे हैं। उन एक-एक चेहरों की हमारी अदालतें ठीक-ठीक अब तक पहचान भी नहीं कर पाई है, जिनके गुनाहों की कोई माफी नहीं है। यह स्वीकार करने में क्या परेशानी है कि इस देश में लोकशाही नहीं अफसरशाही मान्य है और लोकतंत्र नहीं नेतृत्व तंत्र चलता है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, जब नन्दीग्राम पर विदर्भ चुप है, विदर्भ के मसले पर बुंदेलखंड बोलने को राजी नहीं। बस्तर का दर्द सिर्फ बस्तर वालों का है। इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारी एकता सिर्फ किताबी है।



गोधरा में जब रेलगाड़ी मंे हिन्दू सन्यासियों को जलाया गया, किसी मुस्लिम नेता ने इसका विरोध नहीं किया। किया भी हो तो मीडिया ने इसे दिखाने की जरूरत नहीं समझी। इससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि विभिन्न राजनीतिक दल जो बयानबाजी से अधिक जो कुछ कर सकते थे, उन्होंने नहीं किया। बात-बात पर हजारों की संख्या में भीड़ इकट्ठी करने वाली राजनीतिक पार्टियां, टीवी पर आकर अपने दल के कार्यकर्ताओं से अपील कर सकती थीं कि वे आस-पास की मुस्लिम बस्तियों पर पहरा दें। अपने पड़ोसियों की रक्षा करें। गुजरात के पड़ोस के राज्यों से कार्यकर्ता अपने मुस्लिम भाइयों की मदद के लिए आ सकते थे। लेकिन भावनगर का दर्द सूरत का नहीं है, सूरत की चिन्ता दाहोद को नहीं, दाहोद में क्या हो रहा है बड़ोदरा वालों को पता नहीं, और अहमदाबाद से तो पहले ही बड़ी आबादी का विश्वास उठ गया था। गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों के लिए उन सभी लोगों को जिम्मेवारी लेनी चाहिए, जो गुजरात में थे और जो गुजरात में नहीं थे। क्या किया उस दौर में आपने भाषणबाजी से अधिक। क्या गुजरात के सारे हिन्दू दंगों में शामिल थे, जिनके हाथ दंगों में नहीं थे, वे हाथ अपने पड़ोसी को बचाने के लिए क्योें नहीं उठे? हर तरफ सिर्फ बयानबाजी। रैलियों मंे तो लाखों की भीड़ जुटा लेते हैं, नेता। क्या एक नेता ने अपने समर्थकों से अपील की कि वे मुस्लिम बस्तियों की सुरक्षा के लिए स्वयं पहरे पर बैठेंगे और समर्थक भी अपने आस-पास के मुस्लिम बस्तियों की पहरेदारी करें। दूसरे राज्यों से कितने नेता गुजरात गए, उनकी सुरक्षा की चिन्ता लेकर। इस देश में रैलियों के लिए लोग निकलते है, राम मन्दिर बनाने और बाबरी मस्जिद ध्वंस के लिए निकलते हैं, नक्सलियों द्वारा किए गए हत्या के समर्थन में निकलते हैं और कश्मीर को भारत से अलग करने का मंसूबा पाले आतंकवादियों के समर्थन में निकलते हैं। उसके बाद भी आप जोर दे-देकर यह मुझे विश्वास दिलाना चाहते हैं कि बचाने वाले के हाथ, मारने वाले से अधिक बड़े होते हैं। इतना कुछ हो जाने के बाद भी अपने दिल पर हाथ रखकर कहिए, क्या आप सच में इन बातों पर यकिन करते हैं?



इस देश की एक अरब जनता, चंद हजार नेताओं, चंद हजार अफसरशाह और चंद लाख बाबूओं को गाली देते हुए उठती है और गाली देते हुए सो जाती है। इन एक अरब लोगों को किसी सरकारी अस्पताल में इस बात की जांच अवश्य करानी चाहिए कि इनकी रीढ़ की हड्डी अब तक सही सलामत बची भी है या नहीं? मेरी चिन्ता इतनी भर है कि कब तक इस मुल्क के लोग खुद को झूठे दिलासे देते रहेंगे, एक अरब की संख्या में होकर रोते, गिड़गिड़ाते और रीरियाते रहेंगे। कब तक यह झूठ चलता रहेगा कि देश एक है और इस मुल्क की मालिक यहां की जनता है। जबकि सच्चाई यह है कि जनता बाबूराज में अफसरशाही के जूते की नोक पर है और नेताओं के ठेंगे पर है। यदि उंगलबाज की बातों से सहमत हैं तो इस भाषण के अंत में अपने ठेंगे का निशान लगाएं क्यांेकि उंगलबाज जानता है कि आपके बस की इससे अधिक कुछ नहीं है।

(उंगलबाज.कॉम, हमारी विश्वसनीयता संदिग्ध है)

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

पेड न्यूज, पेड न्यूज, पेड न्यूज, पेड न्यूज, पेड न्यूज ....''सोचिए जरा!''

देश में सबसे तेजी से बढ़ने वाले अखबार का दावा करने वाले उत्तर प्रदेश में अच्छी प्रसार संख्या वाला एक अखबार अपने पाठकों के साथ किस कदर छलावा, धोखा कर रहा है उसे उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की कवरेज में देखा जा सकता है। विधानसभा चुनाव के पहले इस अखबार ने आओ राजनीति करें नाम से एक बड़े कैम्पेन की शुरूआत की। अखबार ने पहले पेज पर एक संकल्प छापा कि वह चुनाव को निष्पक्ष तरिके से कवरेज और पेड न्यूज से दूर रखेेगा लेकिन इस संकल्प की कैसे ऐसी-तैसी हो रही है पाठकों को तो जानना ही चाहिए, प्रेस काउन्सिल और चुनाव आयोग को भी इसका संज्ञान लेना चाहिए।



अखबार में एक तरफ यह संकल्प छापा गया तो दूसरी तरफ विज्ञापन विभाग ने उम्मीदवारों से विज्ञापन का पैसा वसूलने की नई तरकीब निकाली। उसने सवा लाख, सवा दो लाख, पांच लाख और छह लाख का एक पैकेज तैयार किया। इसके अनुसार जो उम्मीदवार यह पैकेज स्वीकार कर लेगा उसके विज्ञापन तो क्रमशः छपेंगे ही, नामांकन, जनसम्पर्क आदि में उसकी खबरों को वरीयता दी जाएगी। साथ ही उसका इंटरव्यू छपेगा और अखबार में इन्सर्ट कर उसके पक्ष में पांच हजार पर्चे बांटे जाएंगे। प्रत्याशियों पर इस पैकेज को स्वीकार करने के लिए दबाव बनाने के उद्देश्य से प्रत्याशियों और उनकी खबरें सेंसर की जाने लगीं। जनसम्पर्क, नुक्कड़ सभाएं आदि की खबरें पूरी तरह सेंसर कर दी गई या इस तरह दी जाने लगीं कि उसका कोई मतलब ही न हो। केवल बड़े नेताओं की कवरेज की गई। प्रत्याशियों को विज्ञापन देने पर यह सुविधा भी दी गई कि उनसे भले 90 रुपए प्रति सेंटीमीटर कालम का दर लिया जाएगा लेकिन उसकी रसीद दस रूपया प्रति सेंटीमीटर कालम दिया जाएगा ताकि वह चुनावी खर्च में कम धन का खर्च होना दिखा सकें। इसके अलावा स्ट्रिंगरों को यह लालच दिया गया कि प्रत्याशियों से पैकेज दिलाने में सफल होने पर उन्हें तयशुदा 15 प्रतिशत कमीशन के अलावा अतिरिक्त कमीशन तुरन्त प्रदान किया जाएगा।



इतनी कोशिश के बावजूद प्रत्याशियों ने बहुत कम विज्ञापन उस अखबार को दिए। पैकेज तो इक्का-दुक्का लोगों ने ही स्वीकार किए। इसके पीछे कारण यह था कि प्रत्याशी चुनाव आयोग के डंडे से बहुत डरे हुए हैं। एक दूसरा कारण यह भी है कि उन्हें अखबार में विज्ञापन छपने से कुछ ज्यादा फायदा न होने की बात ठीक से मालूम हैं। उन्होंने पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में देखा है कि लाखों रूपए खर्च कर रोज विज्ञापन देने वाले प्रत्याशियों को भी बहुत कम वोट मिले और जिनके बारे में अखबारों खबर छपी, न विज्ञापन वे बहुत वोट पाए और कई तो चुनाव भी जीत गए। चुनाव में करोड़ों की वसूली का सपना देखने वाले उस अखबार का मंसूबा जब पूरी तरह ध्वस्त हो गया तो उसने एक हैरतअंगेज काम कर डाला। चार फरवरी के अंक में पहले पन्ने पर उसने एक खबर प्रमुखता से प्रकाशित की। यह खबर कथित सर्वे के आधार पर थी। इसमें कहा गया था कि 35 फीसदी मतदाता अपने प्रत्याशियों को नहीं जानते। यह पूरी तरह अखबार द्वारा प्रायोजित खबर थी। एक जिले में 200 लोगों को फोन कर यह सर्वे कर लिया गया। अब आप ही अंदाजा लगाइए कि अमूमन एक विधानसभा क्षेत्र में तीन लाख से अधिक वोटर होते हैं। ऐसे में कथित रूप से 200 लोगों से फोन पर बात कर यह निष्कर्ष निकाल लेना कि वोटर अपने प्रत्याशियों को नहीं जानते कितना उचित है। लेकिन इस अखबार ने उत्तर प्रदेश में ऐसा किया। इसके पीछे उसका मकसद प्रत्याशियों में यह संदेश देना था कि उनके बारे में मतदाताओं को पता नहीं है, इसलिए उन्हें खूब विज्ञापन देना चाहिए।



लगता नहीं कि इस अखबार की इस गंदी हरकत के प्रभाव में कोई प्रत्याशी आने वाला है। पूरे चुनाव में इसने ऐसी कई प्रायोजित खबरें छापीं जिनका मकसद प्रत्याशियों को विज्ञापन और पेड न्यूज के लिए उकसाना था। बसपा और मायावती के दो पेज के दो बड़े खबर नुमा विज्ञापन छापना एक तरह का पेड न्यूज ही तो था। इस दो पेज के कथित विज्ञापन में कहीं नहीं लिखा था कि यह किसके द्वारा जारी किया गया है। इसके पर दाहिने कोने पर मीडिया मार्केटिंग इनिशिएटिव लिखा गया था। इस अखबार के संपादक और उनकी मंडली को बताना चाहिए कि क्या हिन्दी अखबार का पाठक इतना सचेत और जागरूक हैे जो उनके इस खबरनुमा विज्ञापन को विज्ञापन ही समझेगा ?
एक सवाल और- पूरे चुनावी कवरेज में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की सभाओं की फोटो एक खास एंगिल से क्यों खींची गई और इसे ही क्यों छापा गया जिससे दोनों की सभाओं में अपार भीड़ दिखाई देती है । कोई भी पाठक इस अखबार के किसी भी एडिशन के अंक में यह कलाबाजी देख सकता है। क्या यह पेड न्यूज नहीं है ? सवाल और भी हैं। सोचिए जरा!

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

पेड न्यूज का खेल चलता रहेगा...

अधिक दिन नहीं हुए, जब दिल्ली के एक राष्ट्रीय अखबार के एमडी पत्रकारों को संबोधित करते हुए कह रहे थे कि इस बार चुनाव में पेड न्यूज ना छापने के संकल्प की वजह से कंपनी को चालिस लाख रुपए का नुक्सान होगा। यह तो उस समय जब यह राष्ट्रीय कहा जाने वाला अखबार उन राज्यों में बिल्कुल नहीं बिकता या फिर कुछ जगह जाता भी है तो छीट-पुट संख्या में।
ऐसे मे उन अखबारों के नुक्सान का हिसाब लगाइए जो इन राज्यों मे खुब बिकती है। ऐसे तीन-चार अखबार जरूर हैं। इसके बाद इनके नुक्सान का भी अंदाजा लगाइए। क्या यह करोड़ो में नहीं बैठेगा?


इस बार कुछ राष्ट्रीय अखबारों ने कुछ नई योजनाओं पर काम करना शुरू किया है। चुनाव आयोग को हमेशा प्रमाण चाहिए। प्रबंधकों ने पेड न्यूज के लिए बिल्कुल नई योजनाओं पर काम करना प्रारंभ कर दिया है। जिससे माल भी आ जाए और पेड न्यूज ना छापने की कसम भी ना टूटे। उतर प्रदेश के बड़े हिस्से में एक राष्ट्रीय अखबार ने दो पृष्ठों में मीडिया इनीसिएटिव के नाम से दो पेज का विज्ञापन छापा। वास्तव में मीडिया इनीसिएटिव ऊपर लिखा हो तो नीचे जो खबर छपी है, वह विज्ञापन बन जाता है, इस बात की समझ क्या इस अखबार ने अपने पाठकों में विकसित की है? वास्तव में विज्ञापन के नाम पर नीचे खबर ही छपी थी। सिर्फ मीडिया इनीसिएटिव लिख देने से अब अखबार पर पेड न्यूज का आरोप नहीं लगा सकते। यह तो प्रबंधन का एक छोटा सा खेल है।
यदि एक एक विधानसभा में खड़े होने वाले बीस प्रत्याशियों में सिर्फ चार या तीन या दो की ही खबरें अखबार में छप रहीं हैं तो इसका मतलब है कि वह अखबार बाकि के प्रत्याशियों को पहले से ही हारा हुआ मान रहा है। एक विधानसभा में अच्छे प्रसार संख्या वाले तीन से चार अखबार होते हैं। चुनाव के समय में विज्ञापन और प्रबंधन वाले छोटी-छोटी बातों के लिए चुनाव में खड़े होने वाले नेताओं से पैसे वसूलते हैं।
इस बार सुनने में आ रहा है कि कुछ बड़े अखबार अपने प्रबंधकों और मीडिया मैनेजरों की मदद से पेड न्यूज की आमदनी को विज्ञापन में तब्दील करने की जुगत में हैं। इसलिए अपनी पॉलिसी के तहत तस्वीरें वे कम से कम छाप रहे हैं। विज्ञापन में भी रसीद का कम का दिया जा रहा है, पैसे अधिक वसूले जा रहे हैं। लेकिन इसकी शिकायत कोई चुनाव आयोग से करे तो करे कैसे? इसके लिए पुख्ता सबूत जुटा पाना मुश्किल है और दूसरा समाज में रहकर कोई भी मीडिया से बैर नहीं लेना चाहता। चुनाव के विधानसभाओं में इस बार पर्चो की भी कीमत अखबार वाले लगा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में चुनाव वाले दिन अखबार में अमुकजी का छपा हुआ पर्चा ही जाएगा। उत्तर प्रदेश के कुछ विधानसभाओं में इसके लिए भी मोटी रकम ली गई है। इसके माने साफ हैं कि मैदान में अखबारों के अपने-अपने प्रतिनिधि होंगे। अ का पर्चा अमुक अखबार में डालकर बंटेगा और ब का पर्चा अमुक अखबार में। अब इसको तो चुनाव आयोग भी पेड न्यूज नहीं कह सकता क्योंकि जिनसे पैसे लिए गए हैं, अखबार उनके खिलाफ तो कम से कम नैतिकता के नाते चुनाव सम्पन्न होने तक कुछ नहीं छापेगा। क्या पैसे लेकर किसी खबर को नहीं छापना पेड न्यूज नहीं है? लेकिन चुनाव आयोग छपे पर सवाल कर सकता है, कि क्यों छापा, यह छापा तो कहीं यह पेड न्यूज तो नहीं है लेकिन जो छपा ही नहीं किसी अखबार में, उसपर आयोग कैसे कार्यवाही करेगा?




एक और उदाहरण, एक विधानसभा क्षेत्र से एबीसीडी ने अपना नामांकन एक ही दिन भरा, चारों महत्वपूर्ण नाम है अपने विधान सभा क्षेत्र के। किसी अखबार में यदि इस खबर का शीर्षक छपता है, ए के साथ तीन अन्य लोगों ने नामांकन दाखिल किया। इसका सीधा सा अर्थ है कि अखबार किसी एक व्यक्ति को प्रमुखता दे रहा है। इस प्रमुखता में पैसों का खेल नहीं है, यह कैसे साबित होगा?
यह सब उत्तर प्रदेश के अखबारों में काम कर रहे लगभग एक दर्जन पत्रकारों से बातचीत के बाद लिख रहा हूं। वे सभी पत्रकार पेड न्यूज के इस नए रंग से खुश नहीं है लेकिन नौकरी के बीच कुछ कर भी नहीं सकते। कमाल यह है कि पेड न्यूज के इस नए खेल को समझने के बाद भी साबित करना चुनाव आयोग के लिए भी टेढा काम होगा। इसका मतलब साफ है, पेड न्यूज का खेल चलता रहेगा, और हमारी भूमिका मूकदर्शक से अधिक कुछ भी नहीं होगी। ऐसे समय में अंतिम भरोसा पाठकों का ही है, वे अखबार की खबर को आंख बंद करके अंतिम सत्य समझ कर ना पढ़े और वह भी जानने की कोशिश करें जो अखबार में छपा नहीं है। उन प्रत्याशियों के नाम पर भी चर्चा करें, जिनका जिक्र अखबारों में नहीं है।

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

शुभम श्री की एक कविता ....


'मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है'-
''ये कोई नई बात नहीं
लंबी परंपरा है
मासिक चक्र से घृणा करने की
'अपवित्रता' की इस लक्ष्मण रेखा में
... कैद है आधी आबादी
अक्सर
रहस्य-सा खड़ा करते हुए सेनिटरी नैपकिन के विज्ञापन
दुविधा में डाल देते हैं संस्कारों को...

झेंपती हुई टेढ़ी मुस्कराहटों के साथ खरीदा बेचा जाता है इन्हें
और इस्तेमाल के बाद
संसार की सबसे घृणित वस्तु बन जाती हैं
सेनिटरी नैपकिन ही नहीं, उनकी समानधर्माएँ भी
पुराने कपड़ों के टुकड़े
आँचल का कोर
दुपट्टे का टुकड़ा

रास्ते में पड़े हों तो
मुस्करा उठते हैं लड़के
झेंप जाती हैं लड़कियाँ

हमारी इन बहिष्कृत दोस्तों को
घर का कूड़ेदान भी नसीब नहीं
अभिशप्त हैं वे सबकी नजरों से दूर
निर्वासित होने को

अगर कभी आ जाती हैं सामने
तो ऐसे घूरा जाता है
जिसकी तीव्रता नापने का यंत्र अब तक नहीं बना...

इनका कसूर शायद ये है
कि सोख लेती हैं चुपचाप
एक नष्ट हो चुके गर्भ बीज को

या फिर ये कि
मासिक धर्म की स्तुति में
पूर्वजों ने श्लोक नहीं बनाए
वीर्य की प्रशस्ति की तरह

मुझे पता है ये बेहद कमजोर कविता है
मासिक चक्र से गुजरती औरत की तरह
पर क्या करूँ

मुझे समझ नहीं आता कि
वीर्य को धारण करनेवाले अंतर्वस्त्र
क्यों शान से अलगनी पर जगह पाते हैं
धुलते ही 'पवित्र' हो जाते हैं
और किसी गुमनाम कोने में
फेंक दिए जाते हैं

उस खून से सने कपड़े
जो बेहद पीड़ा, तनाव और कष्ट के साथ
किसी योनि से बाहर आया है

मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अखबार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं जरा भी उनकी सूरत

करीने से डाला जाए कूड़ेदान में
न कि छोड़ दिया जाए

'जहाँ तहाँ' अनावृत ...
पता नहीं क्यों

मुझे सुनाई नहीं दे रहा
उस सफाई कर्मचारी का इनकार

गूँज रहे हैं कानों में वीर्य की स्तुति में लिखे श्लोक...''

क्‍यों किसी गाड़ी पर प्रेस लिखा होना चाहिए!


यदि देश भर में यह सर्वेक्षण किया जाए कि दो चक्कों और चार चक्कों वाली गाड़ियों पर सबसे अधिक कौन सा स्टीकर चिपकाया गया होता है? मेरा विश्वास है कि सबसे आगे ‘प्रेस’ ही होगा। गांवों, कस्बो, शहर और महानगर तक में आपकों बड़ी छोटी गाड़ियों पर प्रेस लिखी गाड़ियां आसानी से मिल जाएंगी। कुछ लोग अपनी गाड़ी पर प्रेस लिखवाने के लिए और प्रेस लिखा परिचय पत्र पाने के लिए पैसा खर्च करने को भी तैयार होते हैं। मैंने सुना था, दिल्ली के गुरु तेग बहादुर नगर में कोई संस्था पांच सौ-हजार रुपए लेकर छह महीने-साल भर के लिए प्रेस परिचय पत्र जारी करती थी। यदि महीने में उसने पच्चीस-तीस लोगों का परिचय पत्र भी बनाया तो उसके महीने की आमदनी हो गई पन्द्रह से तीस हजार रुपए की। खैर, यहां मेरा उद्देश्य उनकी आमदनी पर बात करना नहीं है। मैं सिर्फ इतना समझना चाहता हूं कि अपनी गाड़ी पर प्रेस लिखने की ऐसी कौन सी अनिवार्यता है, जो प्रेस लिखे बिना पूरी नहीं होती।
क्यों किसी गाड़ी पर ‘प्रेस’ लिखा होना चाहिए? क्या आज किसी गाड़ी पर आपने पलम्बर, हेयर डिजायनर, एक्टर, सिंगर लिखा देखा है? सिर्फ प्रेस और पुलिस जैसे कुछ पेशे वाले ही अपनी गाड़ी पर अपना परिचय लिखवाते हैं। कुछ सालों से विधायक, सांसद, जिला पार्षद लिखने की परंपरा भी शुरु हुई है। क्या यह स्टीकर सिर्फ रोड़ पर मौजूद दूसरे लोगों पर धौंस जमाने के लिए होता है। या इसकी दूसरी भी कोई उपयोगिता है। किसी गाड़ी पर एम्बुलेन्स लिखा हो तो समझ में आता है। चूंकि एम्बुलेन्स के साथ कई लोगों की जिन्दगी और मौत जुड़ी होती है। यह मामला फायर ब्रिगेड की गाड़ियों के साथ भी जुड़ा है।
वैसे कुछ पत्रकार मित्र यह भी कहेंगे कि रिपोर्टिंग के लिए जाते समय वे किसी बेवजह के पचड़े में ना पड़ें इसलिए वे अपनी गाड़ी पर प्रेस का स्टीकर लगाते हैं। वरना रिपोर्टिंग के दौरान वे बेवजह देर होंगे। यह सच भी है कि एक पत्रकार अपने पाठकों और दर्शकों के प्रति जिम्मेवार होता है। उस तक खबर सही समय पर पहुंचे यह उसकी जिम्मेवारी होती है। वास्तव में विरोध प्रेस के स्टीकर से नहीं है। विरोध है, उसके दुरुपयोग से। जो लोग इस स्टीकर का बेजा इस्तेमाल करते हैं उनसे।
वास्तव में प्रेस के स्टीकर के साथ यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि व्यक्ति उस संस्था का नाम भी साथ में जरुर लिखे, जहां से वह ताल्लुक रखता है। या फिर इस तरह के नियम बनने चाहिए कि प्रेस लिखा स्टीकर अपने पत्रकारों के लिए संस्थान ही जारी करें। इससे सड़क पर प्रेस स्टीकर की अराजकता कम होगी। इसी प्रकार अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए खरीदी गई गाड़ी पर कोई व्यक्ति पुलिस का स्टीकर लगा रहा है? तो यह समझने की बात है कि इसके पीछे उसका क्या उद्देश्य हो सकता है? इस तरह की स्टीकर बाजी पर वास्तव में कुछ नीति बननी चाहिए।

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम