शनिवार, 20 अक्टूबर 2007

मेरे बारे में कोई राय ना कायम करना

  • राज नाथ सिंह सूर्य
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बयासी साल का हो गया है। संस्थापक डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार के समय का अब शायद ही कोई स्वयंसेवक शेष हो, लेकिन उनसे प्रेरणा लेकर आज भी संघ के पास स्वयंसेवकों की बड़ी फौज है। संघ कार्य का विस्तार देश की सीमाओं को लांघ चुका है और विश्व का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां हिंदुओं की पर्याप्त संख्या में आबादी हो और वह संघ कार्य से अछूती रह गई हो। डाक्टर हेडगेवार ने जिस संघ को शाखा के रूप में मूर्तमान किया था, अब उसके बहुविधि स्वरूप हो गए हैं। जीवन का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो जिसको स्पर्श करने के लिए संघ के स्वयंसेवक कार्यरत न हों। डॉ। हेडगेवार ने संघ का गठन हिंदुओं को संगठित करने के लिए किया था, लेकिन अब गैर हिंदू यानी ईसाइयों और मुसलमानों के बीच भी संघ का विस्तार हो चुका है। संघ संस्कारों के फलस्वरूप राष्ट्रीय चेतना के लिए इतने संगठन क्रियाशील हैं, जिनकी गणना के लिए संघ को एक अलग विभाग सृजित करना पड़ सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संसार का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन तो है ही, उसके स्वयंसेवकों द्वारा संचालित भारतीय शिक्षा परिषद दुनिया की सबसे बड़ा शिक्षण संस्थान बन चुकी है। वनवासी कल्याण आश्रम, विवेकानंद केंद्र आदि के माध्यम से उसने उपेक्षित क्षेत्रों में अपेक्षित राष्ट्रीय चेतना का संचार किया है। शिक्षा के साथ-साथ कृषि, व्यापार, उद्योग आदि क्षेत्रों में उसके स्वयंसेवक महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। धर्म जागरण मंच कर्मकांड के वास्तविक महत्व को समझाने में लगा हुआ है, वहीं संस्कृत भारती अत्यंत सरलतापूर्वक संस्कृत के पठन-पाठन और उसमें अभिव्यक्ति के लिए क्रियाशील है। इतना अधिक विस्तारित होने के कारण कभी-कभी उसकी शाखाओं को ही मूल संगठन समझने का भ्रम हो जाता है और कुछ लोग यह मानकर चलते भी हैं कि संघ स्वयं में मूल संगठन न होकर विश्व हिंदू परिषद या भारतीय जनता पार्टी का सहायक संगठन है। इसका मुख्य कारण यह हो सकता है कि जहां संघ प्रेरित शेष संस्थाएं सेवा और संस्कार के कार्यो में लगी रहने के कारण संवाद और विवाद से परे रहने से चर्चा का विषय नहीं बनतीं वहीं राजनीति में रहने के कारण भाजपा और आंदोलित रहने के कारण विश्व हिंदू परिषद के बारे में निरंतर संवाद और विवाद का क्रम बना रहता है। संघ कभी इन विवादों का समाधान करने के लिए चर्चित होता है तो कभी उनकी क्षमता बढ़ाने में योगदान देने के लिए। इन दोनों ही चर्चाओं में संघ का मूल्यांकन सीमित हो जाने के कारण डाक्टर हेडगेवार ने जिस सामाजिक चेतना के लिए संघ की स्थापना की थी वह गौण हो जाती है। संघ की कार्यपद्धति संस्कार की है। इसलिए संघ एक संगठनात्मक आधार की संस्था है, आंदोलनात्मक आधार की नहीं। संघ संगठन में आज भी जितनी संख्या में स्वयंसेवक निस्वार्थ भाव से योगदान कर रहे हैं, वैसे निष्ठा से काम करने वाले दुर्लभ हैं। संघ के द्वितीय सरसंघ चालक श्री गुरुजी ने ऐसे कार्यकर्ताओं को देव दुर्लभ की संज्ञा प्रदान की थी। जिस संस्था के पास ऐसे कार्यकर्ताओं की निरंतरता बनी हुई हो, उसका प्रभाव घटने लगे तो यह आश्चर्य की बात है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सक्रिय लोगों को भले ही प्रभाव कम होने का आभास न होता हो लेकिन जो आम धारणा है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। विस्तार के अनुरूप संघ का प्रभाव न होने के कारणों में जाना चाहिए। संघ को यह भी समझना होगा कि उसके संस्थापक ने क्यों राजनीति से परे ऐसे संगठन की आवश्यकता महसूस की। संभवत: यह घटना साठ के दशक की है। कानपुर के संघ शिक्षा वर्ग में द्वितीय सरसंघ चालक गुरुजी ने तमाम वरिष्ठ प्रचारकों और पंडित दीनदयाल उपाध्याय सहित तमाम जनसंघ नेताओं की उपस्थिति में एक सवाल किया था। उन्होंने अपने भाषण के दौरान जानना चाहा कि संघ हिंदुओं का संगठित करने में लगा है तो क्या हिंदू सिर्फ जनसंघ में हैं? आज जब संघ गैर हिंदुओं में भी कार्य कर रहा है तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या हिंदू सिर्फ भारतीय जनता पार्टी में ही हैं? संघ शक्ति का जितना अपव्यय भाजपा को संवारने और विश्व हिंदू परिषद को संभालने में हो रहा है उतना ही उसका प्रभाव सीमित होता जा रहा है। श्री गुरुजी के जन्मशताब्दी वर्ष में इतने व्यापक और विशाल समरसता आयोजन उसी प्रकार विफल हो गए, जैसे दूध से भरे पात्र में नींबू की एक बूंद निचोड़ दी जाए। क्या कारण है कि संघ के सभी आयोजनों का आकलन भाजपा के साथ जोड़कर देखा जाना आम बात हो गई है। संघ की जिन बैठकों में भाजपा के पदाधिकारियों की उपस्थिति नहीं होती उनका भी आकलन भाजपा को केंद्र बिंदु मानकर किया जाता है। इसके लिए मीडिया में सनसनी की भावना को दोष देना स्थिति के सही आकलन से मुंह मोड़ना होगा। एक अन्य संगठन विश्व हिंदू परिषद के क्रियाकलाप को संघ का क्रियाकलाप मानकर चलाया जा रहा है। यह ठीक है कि संघ के संस्थापक हेडगेवार ने 1930 के असहयोग आंदोलन में भाग लिया और जेल भी गए, लेकिन उन्होंने संघ को सदैव आंदोलन से अलग रखा। यही नहीं, सत्याग्रह में जाने पर सरसंघ चालक का दायित्व भी छोड़ दिया था। उसके पीछे उनका उद्देश्य था, संघ कार्य की दिशा को ठीक रखना। आज संघ विश्व हिंदू परिषद के प्रत्येक आंदोलन में भाग लेने लगा है। जब कोई संगठन आंदोलनों की श्रृंखला में उलझ जाता है, उसका संगठनात्मक ढांचा ध्वस्त हो जाता है। महात्मा गांधी ने 1920 के बाद 1930 में और फिर 1942 में ही व्यापक जन आंदोलन का आह्वान किया था। विश्व हिंदू परिषद को आकार देने वाले श्री गुरुजी ने तो 1948 में संघ स्वयंसेवकों पर अत्याचार करने वालों को भी दांत के बीच जीभ आ जाने, पर कोई दांत नहीं तोड़ डालता कहकर संयमित आचरण के लिए प्रेरित किया था लेकिन उनके प्रति आस्थावान जब किसी के लिए अशालीन भाषा का प्रयोग करें या सिर काट लाने पर संतों द्वारा सोने की भाषा बोलने लगें तो यह विचार उठना स्वाभाविक है कि मूल संगठन की दिशा और दृष्टि उसके पदाधिकारियों व स्वयंसेवकों की भी है या नहीं? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भले ही बयासी वर्ष का संगठन हो गया हो, लेकिन वह बूढ़ा नहीं हुआ। इसमें नूतनता का क्रम बना हुआ है, लेकिन जैसे पावर हाउस में उत्पादन ठप हो जाने के कारण विस्तारित लाइन में बिजली के संचार में कमी आ जाती है, संघ भी वैसी स्थिति में पहुंच रहा है। उसके विस्तार के प्रभाव पर राजनीतिक छाया गहराने के कारण अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहा है। संघ के प्रथम और द्वितीय सरसंघ चालक ने संघ के दैनंदिन कार्य को ही सर्वोपरि समझा था। संघ आर्यसमाज के समान संस्थाओं पर अधिकार के झमेले में फंसकर अपनी पहचान न खो दे, इसके लिए आवश्यक है कि दो प्रथम सरसंघ चालकों द्वारा निर्धारित दिशा और दृष्टि उसके संगठन का आधार बनी रहे। संघ की स्थापना न तो किसी तात्कालिक समस्या के समाधान के लिए हुई थी और न ही किसी व्यक्ति की महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए। संघ समाज का ही दूसरा स्वरूप है उससे पृथक कुछ भी नहीं। इस सोच के साथ राष्ट्रीय चैतन्यता के लिए संघ की स्थापना का उद्देश्य आज भी उतना ही सार्थक है, जितना उसकी स्थापना के समय था। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)
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4 टिप्‍पणियां:

संजीव कुमार सिन्‍हा ने कहा…

विचारोत्‍तेजक लेख प्रस्‍तुत किया है आपने। राजनीति से बहुत उम्‍मीद करना गफलत में ही रहना है। समाज परिवर्तन से ही भारत आगे बढेगा।

विनीत कुमार ने कहा…

क्या भाई दिल दिमाग और सम. के साथ-साथ अपना ब्लॉग भी संघ को समर्पिथ कर दिए। कुछ तो पर्सनल रखो यार, मेरा मतलब है संघठन से हटकर, और सुनो मेरा पोस्ट भी उसी फ्लेवर में मत छाप देना जिस फलेवर में यहां ज्ञान दिए। इतिहास पढ़ो भइया

आशीष कुमार 'अंशु' ने कहा…

Vineet Bhai Namaskaar,
Tamaam Lekho ko nazarandaaj kar ke aapakee najar jis ek lekh par gai vah SanGH se sambandheet thaa. usake baad pataa nahee aapane us lekh ko padha bhee yaa nahee lekin apanee upasthiti darj karaanee jaruri samajhi. kyoki lagataa hai aap bhee tathakathit DHARMNIRPEKSH kahe jaane walo me bane rahanaa chahate hai. isake bade fayde hai. shayad iseeliy aapakee SULAG gai, mafee chahugaa... FEELHAAL yahee shabd sulabh hai. Hindi kaa vidvaan naheen hu. naa mujhe aapakee tarah JRF mil rahaa hai,

lekin itanaa jarur kahanaa chahuga, bhai ki MERE BARE ME KOI RAY NAA KAYAM KARANAA. or tippanee karane se pahale LEKH ko puraa padhane kee adat dale, accha rahega or apane DIMAG kee khirkiyaa sabake liy khooli rahiy, mujhe isame bhee koi burai nazar nahee aatee.

आशीष कुमार 'अंशु' ने कहा…

VINEET BHAI,

is lekh ko PURA padhane ke baad, kripayaa niche MAJHADAAR SE AKHABAAAR TAK shirshak se ek lekh hai use bhee padhane kee kripaa kare.

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम