मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

जी बी रोड कथा - 02

कल तरुणा की जी बी रोड कथा आपने पढ़ी। उसी कड़ी में http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan डाले गए लेख पर आई दो प्रतिक्रिया विषय को विस्तार देती है। उन दोनों प्रतिक्रियाओं को आप ब्लॉग पाठकों तक रख रहा हूँ, जिससे बात आगे बढे-
01

मेरा अनुभव कुछ दूसरा है। 1996 की बात है, तब मैं शावक पत्रकार था, अमर उजाला ग्रुप के आर्थिक अखबार अमर उजाला कारोबार में मेरी नई-नई नौकरी लगी थी। तब के संपादक ने नौकरी देते वक्त मुझसे ट्रेड यूनियन और साहित्यिक-सांस्कृतिक रिपोर्टिंग कराने का वादा किया था। लेकिन बाद में उन्होंने मंडी रिपोर्टिंग में काम पर लगा दिया। मेरे तत्कालीन बॉस ने एक दिन मुझसे कहा कि आप जाकर एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट पर स्टोरी करके
उमेश चतुर्वेदी
मैंने पता लगाया कि वह मार्केट नई दिल्ली स्टेशन के पास स्वामी श्रद्धानंद मार्ग पर है। अजमेरी गेट की तरफ से मैंने आगे बढ़कर स्वामी श्रद्धानंद मार्ग का रास्ता वहां तैनात एक सिपाही से पूछा। सिपाही ने मुझे ऐसे घूरा- जैसे मुझे खा जाएगा। मैं माजरा नहीं समझ पाया तो छूटते ही बता दिया कि मैं पत्रकार हूं। सिपाही का रवैया बदल गया। उसने मुझे आंख के इशारे से रास्ता बता दिया। उसके बताए रास्ते पर आगे बढ़ने के पहले तक मुझे उसकी हकीकत पता नहीं थी। लेकिन वहां जाते ही मेरी हैरत का ठिकाना नहीं था। श्रद्धानंद जैसे क्रांतिकारी संन्यासी के नाम पर बनी सड़क के ग्राउंड फ्लोर पर सचमुच एशिया का सबसे बड़ा हार्डवेयर मार्केट फैला पड़ा है। इसी रास्ते से घर-परिवार वाले वे लोग जो आसपास के इलाके में रहते हैं - रिक्शे और पैदल वैसे ही गुजरते हैं – जैसे दूसरे इलाके के लोग गुजरते हैं। बाजार की चमक के बीच अंधेरी सीढ़ियां भी दिख रही थीं और उनसे होकर उपर जो रास्ता जाता है, वहां कोई और ही दुनिया थी। छतों पर खड़ी लड़कियां और महिलाएं बार-बार कुछ वैसे ही बुला रही थीं – जैसे सब्जी बाजार में सब्जी वाले तरकारी और जिंस का भाव लगाते हुए ग्राहकों को बुलाते हैं। तब जाकर मुझे पता चला कि एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर बाजार के छत पर देह का बाजार लगता है। मेरे लिए ये नया अनुभव था। मेरा मन घृणा और बिछोभ से भर गया। रोटी के लिए अपनी अस्मत की बोली लगाते हुए देखना मेरे लिए ये पहला अनुभव था। उस रात मैं सो नहीं पाया। सारी रात मनुष्य जीवन की मजबूरियां मुझे बेधती रहीं।
बहरहाल मैं रिपोर्टर की हैसियत से गया था और मुझे हार्डवेयर बाजार पर स्टोरी करनी ही थी। लिहाजा मैं मार्केट एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष के पास पहुंचा, लेकिन उनके किसी रिश्तेदार की मौत हो गई थी। लिहाजा उनसे मुलाकात नहीं हुई। तब मैं पूर्व अध्यक्ष के पास पहुंचा। वहां पहुंचा तो श्रद्धानंद मार्ग पुलिस चौकी का हेडकांस्टेबल उनकी चंपूगिरी में मसरूफ था। मैंने पूर्व अध्यक्ष जी को अपना परिचय बताया और मार्केट के बारे में जानकारी मांगी। जानकारी देने की बजाय अपनी दुकान से बाहर लेकर वे निकल पड़े। वे मुझे लेकर नई दिल्ली से सदर जाने वाली रेलवे लाइन और हार्डवेयर मार्केट के बीच वाले इलाके की ओर लेकर चले। ये वाकया नवंबर महीने का है। लेकिन उस खाली जगह में पतझड़ जैसा माहौल था। वहां प्रयोग किए जा चुके कंडोम ऐसे बिखरे पड़े थे, जैसे पतझड़ के दिनों में पेड़ों के नीचे पत्तियां बिखरी होती हैं। एक साथ इतने यूज्ड कंडोम देखकर मुझे उबकाई आने लगी। मैं उल्टे पांव लौट पड़ा। पीछे-पीछे मार्केट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष की आवाज थी, पहले हमारी इस समस्या पर लिखो तब जाकर कोई दूसरी खबर दूंगा।
एशिया का सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट की चमक-दमक के पीछे कितना कचरा है और उसके छत पर कितना स्याह अंधेरा है। ये मैंने तभी जाना। उसी दिन मुझे हेड कांस्टेबल ने बताया कि वहां आनेवाले ज्यादातर ग्राहक रिक्शे-ठेले वाले या फिर स्कूलों के जवान होते छात्र होते हैं। ये भी पता चला कि सेना के जवान भी अच्छी-खासी संख्या में यहां दिल बहलाने आते हैं। आप उन्हें रोकते नहीं – मेरे इस सवाल के जवाब में हेड कांस्टेबल ने बताया कि उनकी यानी पुलिस वालों की कोशिश होती है कि छात्र कोठों पर जा नहीं पाएं। लेकिन लगे हाथों वह ये भी जोड़ने से नहीं चूका कि यहां आने वाले को कोई रोक पाया है भला।
मैं गांव का हूं...वह भी एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार से ..पारिवारिक संस्कारों ने कोठों के अंधेरे कोने की तहकीकात से रोक दिया। लिहाजा वहां नहीं जा पाया, लेकिन स्याह अंधेरे के पीछे की दुनिया का दर्द समझने में कोई चूक नहीं हुई। दर्द समझने में संस्कार भी कभी बाधक बनते हैं भला .......
02
12 बजे के बाद कोठे बंद हो जाते हैं,ऐसा कहकर पुलिसवाले ने या तो झूठ कहा या फिर सरकारी समय बताया।
एक बार करीब डेढ़ बजे रात को पार्किंग के ठेके को लेकर गोली चली। मैं वहां स्टोरी कवर करने गया। डेढ़ घंटे तक
उस इलाके का चक्कर लगाया। पहाड़गंज पुलिस थाने में किसी ने नहीं बताया कि यहां कुछ ऐसा हुआ है। जीबी रोड़ में
दो बजे रात,कैमरामैन आगे औऱ मैं पीछे, बुकिंग करनेवाले हम उम्र

विनीत कुमार

लौंड़ों ने मुझे पकड़ लिया- कैसा चाहिए,एक बार
आओ तो साहब,खुश कर देंगे। बड़ी मुश्किल से मैं बचकर निकला, बाद में गाड़ी तक आने पर उन्हें पता चल गया कि
हमलोग किसी दूसरे मकसद से आए हैं तो किसी और ग्राहक की तलाश में जुट गया। एसटीडी बूथ के सामने खड़े एक लड़के को किसी तरह पटाया जिसने मुझे गोली लगनेवाले शख्स तक पहुंचाया। कहना सिर्फ इतना चाहता हूं कि दर्द भरी इन गलियों की चीख को दफन करने में दुर्भाग्य से आसपास की मशीनरी मजबूती से शामिल है। मेरा प्रसंग शायद इस पोस्ट से अलग हो लेकिन कोठे रातभर चलते हैं....अगर आनेवालों का आना जारी रहे।

2 टिप्‍पणियां:

मुनीश ( munish ) ने कहा…

shaavak patrakaar! a nice word!

anndesaa ने कहा…

अगर यह कह दे के मुंगेरी लाल पार्ट २ जीबी रोड और ३ हमारे बिना मिले दोस्तों को जीबी रोड मैं जो हो रहा है उसकी समझ नहीं है तो आश्चर्य नहीं होनी चाहिए. दोनों भाई अपनी बातें बनाने मैं तुले है एक अपने ब्राहमण होने और सनस्कार की रट लगा रहे है तो दुसरे अपनी पत्र्कातिता के आरम्भ के दिनों की गुणगान गा रहे है. साहब जरूरत है सकारात्मक सोच बनाने की जीबी रोड मैं रहने वाली महिलाओ को मुख्या धरा से कैसे जोड़े इसकी चर्चा करे, उनके रोजगार उनके पेठ भरते है उशी से घर भी चलते है वे महिलाये पुरे सम्मान से जी रही है. नजरे तो हमरी खोटी है अपने नजरो को ठीक करे. आशा करते है आशीष भाई और आपलोग कुछ बेहतर लिखे. धन्यवाद

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम