गुरुवार, 10 नवंबर 2011

राकेश (भट्ट) भाई की यह कहानी समय निकल कर जरूर पढ़ें ...

हाजी हुसैन बहुत कम बोलते थे. कभी कभार वो जेल के बरामदे में किसी कैदी से यह ज़रूर पूछ लेते थे कि घर में सब राज़ी-खुशी तो हैं ना? इसका एक झूठा जवाब हर कैदी देता था – हाँ हाजी! इस झूठ से कैदी को थोड़ी सी राहत तो मिलती थी कि चलो कोई तो है जो उसके परिवार के बारे में चिंतित है. और फिर हाजी हुसैन तो जेलर थे. हाजी हुसैन इस जवाब की सच्चाई को भी जानते थे लेकिन ‘अल-हम्दुल्लिल्लाह’ [ईश्वर तेरा धन्यवाद] कहते हुए चले जाते थे.

यूँ तो मै जेल में उदास नहीं रहता था लेकिन १९९४ दिसंबर महीने की एक सुबह को बहुत उदास हुआ. दिसंबर महीने में ईरान की राजधानी तेहरान गच्च बर्फ से ढक जाती है. और एविन नाम की जेल जो कि पहाड़ियों के बीच बनी हुई है वहाँ तो और भी ठंडा मौसम हो जाता है. शायद केदारनाथ-बदरीनाथ जैसी ठण्ड, कुछ-कुछ मेरे ननिहाल खात्स्यूं सिरकोट [श्रीकोट] जैसी. मुझे तारीख तो ठीक याद नहीं है लेकिन दिन याद है – बृहस्पतिवार.क्योंकि कल ही परिवार के साथ मेरी मुलाक़ात का दिन था. हर बुधवार को मेरी पत्नी ही आया करती थी क्योंकि और रिश्तेदारों को मुलाक़ात की मंजूरी नहीं थी. मुलाक़ात के समय शीशे के आरपार हम एक दुसरे को देख सकते थे लेकिन बात दोनों तरफ रखे टेलीफोन के ज़रिये ही हो पाती थी. हम दोनों बहुत संयम से बातें करते थे क्योंकि यह बातें रिकार्ड होती थी. हमारी बातों का अक्सर केन्द्र हमारी बेटी ही हुआ करती थी – जिसकी शैतानियाँ का ज़िक्र जिंदगी की तल्खियों को भुलाने में कारगर होता था – भले ही मुलाक़ात सात मिनटों के लिए ही क्यों न हो. ठीक सात मिनट के बाद यह लाइन काट दी जाती थी. और इस ओर मै हेलो हेलो कहता था और उस ओर से वह, लेकिन शीशे की मोटी दीवार के कारण आवाज़ भले ही न जाती हो लेकिन जो सुना नही जा सका वह समझ में आ जाता था. रिश्तों के आगे भाषा की औकात बौनी पड़ जाती है, यह सुना ज़रूर था लेकिन देखा वहीँ पर. खैर! ज़िक्र उदासी का चल रहा था. हुआ यूँ कि सुबह की हाजरी के बाद मै नाश्ता करने लगा तो एक अन्य कैदी साथी जो अखबार पढ़ रहा था कहा कि एक खबर हिन्दुस्तान के बारे में भी छपी है. ईरान में हिन्दुस्तान को बहुत आदर और इज्जत के साथ देखा जाता है. मैंने सोचा शायद कोई इसी तरह की खबर होगी जिसमे अतिशयोक्तियों के साथ हिन्दुस्तान की तारीफ की गई होगी. मैंने अपनी जगह पर बैठ कर कहा कि खबर का शीर्षक पढ़ दो अभी – पूरी खबर बाद में पढूंगा. उसने खबर का शीर्षक पढ़ा – ‘तज्जवोज़ बा बानुवान-ए-जुम्बिश-ए-उत्तराखंड’ [उत्तराखंड आंदोलन की महिलाओं के साथ बलात्कार]. क्योंकि कमरे के सभी कैदियों ने यह खबर सुनी तो उनको विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि ईरानी लोग यह समझते हैं कि हिन्दुस्तान में महिलाओं की बहुत इज्ज़त होती है. मैंने अखबार लिया और खबर पढ़ी जो शायद चार या पांच पंक्तियों से बड़ी नहीं थी. जिसमे करीब दो महीना पुरानी घटना का संक्षिप्त वर्णन था कि हिंदुस्तान के मुज्ज़फरनगर शहर में पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर गोलियां चलाई जिसमे कुछ आंदोलनकारी शहीद हुए और पुलिस ने महिलाओं के साथ ज्यादती की. उस वक़्त न जाने और कोई क्यों याद नहीं आया. लेकिन अपना गाँव बहुत याद आया. बूढी दादी की लगाई हुई ‘पीपल चौंरी’, कांडा के मंदिर के रास्ते की ‘डूंडी कुलैं’ और गाँव का नागरजा. गाँव, पीपल, कुलैं और एक खामोश खुदा. मेरी याद में कहीं भी इंसान नहीं था.

कैदी ख़ामोशी की ज़बान को पहचानता है और इसीलिए किसी ने मुझ से इसके बारे में पूछा नहीं बल्कि मेरी ख़ामोशी को अपनी ख़ामोशी का सहारा दिया. मैं कुछ देर के बाद लाईब्रेरी चला गया. कुरान की हर उस आयत [श्लोक] को पढ़ने लगा जिसमे निर्दोष पर ज़ुल्म करने वालों की सजा के बारे में लिखा था. बहुत सी ऐसी आयतें थी लेकिन एक आयत मन को छू गई. कुरान के ५वें अध्याय की ३२वीं आयत – ‘यदि कोई किसी निर्दोष व्यक्ति का क़त्ल करता है तो समझो कि उसने समस्त मनुष्यता का क़त्ल किया है.’ शायद मन कुछ हल्का ज़रूर हुआ मगर उदास ही रहा. दिन के खाने पर भी नहीं गया और शायद लाइब्रेरी के बड़े से हॉल में मैं ही अकेला रह गया. अचानक देखा कि मेरे सामने हाजी हुसैन खड़े थे. मैंने उन्हें सलाम किया और उन्होंने भी वालैकुम अस्सलाम कह कर जवाब दिया. उन्होंने पूछा – हिंदी! [हिंदुस्तानियों को ईरान में हिंदी कहा जाता है] आज उदास दिख रहे हो. मैंने कहा - हाँ हाजी! उन्होंने मेरी उदासी का कारण पूछा तो मैंने कारण बता दिया. उन्होंने ढ़ाडस बंधाते हुए कुरान की एक आयत कही जिसका मतलब है कि – ‘जिनपर अत्याचार हुए हैं वे अब खुदा के अज़ीज़ बन चुके हैं और जो शहीद हुए हैं वे खुदा के पहलू में जिंदा हैं.’. फिर कुछ क्षणों के बाद कहा कि आज शाम की नमाज़ के वक़्त एक दुआ पढनी है तो मैं भी मौजूद रहूँ. मैंने कहा – ठीक है हाजी, आ जाऊंगा. मुझे लगा कि मुझसे नमाज़ के बाद की कोई दुआ पढ़वाना चाहते हैं. मेरे कुरान के प्रवचन और दुआ जेल में शायद काफी पसंद किये जाते थे.

शाम की नमाज़ पर मै मौजूद हुआ. हाजी हुसैन भी थे. इमाम ने नमाज़ पढाई और हाजी हुसैन को दुआ पढ़ने के लिए बुलाया. मुझे लगा कि हाजी हुसैन अब मेरा नाम पुकारेंगे और मुझ से दुआ पढ़ने के लिए कहेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने खुद दुआ पढ़ने शुरू करी जो लगभग बहुत बार मैंने पढ़ी और सुनी हुई थी लेकिन अचानक उन्होंने कहा – खुदाया! यहाँ जो लोग तेरी शरण में इक्कट्ठा हुए हैं उनमे तेरा एक बन्दा हिंद देश का वासी है, उसके देश में कुछ बहिनों पर अत्याचार हुआ है, तू तो सबसे बड़ा न्यायकर्ता है, उन अत्याचारियों का नाश कर, और जो मजलूम बहिने हैं उनके दुखों का अंत कर. आमीन! या रब्ब-अल-आलमीन! [ऐसा ही हो! हे समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी!]

फिर मेरा नाम पुकार कर मुझे बुलाया और कहा कि यदि मैं शहीदों और पीड़ित महिलाओं के नाम जानता हूँ तो एक एक नाम लेकर दुआ को दुहरा सकते हैं. मैंने कहा - मैं नाम नहीं जानता, आप सब का धन्यवाद.

रात को जब सोया तो मेरे एक पहलू में मेरा गाँव था, तो दुसरे पहलू गाँव का नागरजा, बूढी दादी की लगाई हुई ‘पीपल चौंरी’ और कांडा के मंदिर के रास्ते की ‘डूंडी कुलैं’.

और इस बार एक इंसान भी शामिल था इनमे – हाजी हुसैन!

5 टिप्‍पणियां:

Sumit Pratap Singh ने कहा…

bahut khoob...

Sumit Pratap Singh ने कहा…

bahut khoob...

Sumit Pratap Singh ने कहा…

bahut khoob...

Rakesh Kumar Singh ने कहा…

इस बेहतरीन कहानी को साझा करने के लिए धन्‍यवाद जैसी अभिव्‍यक्ति बहुत छोटी है अंशु भाई. उम्‍दा !

Praveen RAIPUR ने कहा…

lafj kam pad rahe hai sayad kuch aise hi logo ki vajah se hi ye jahan baki hai nahi to kab se iska aant ho chuka hota

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम