हाजी हुसैन बहुत कम बोलते थे. कभी कभार वो जेल के बरामदे में किसी कैदी से यह ज़रूर पूछ लेते थे कि घर में सब राज़ी-खुशी तो हैं ना? इसका एक झूठा जवाब हर कैदी देता था – हाँ हाजी! इस झूठ से कैदी को थोड़ी सी राहत तो मिलती थी कि चलो कोई तो है जो उसके परिवार के बारे में चिंतित है. और फिर हाजी हुसैन तो जेलर थे. हाजी हुसैन इस जवाब की सच्चाई को भी जानते थे लेकिन ‘अल-हम्दुल्लिल्लाह’ [ईश्वर तेरा धन्यवाद] कहते हुए चले जाते थे.
यूँ तो मै जेल में उदास नहीं रहता था लेकिन १९९४ दिसंबर महीने की एक सुबह को बहुत उदास हुआ. दिसंबर महीने में ईरान की राजधानी तेहरान गच्च बर्फ से ढक जाती है. और एविन नाम की जेल जो कि पहाड़ियों के बीच बनी हुई है वहाँ तो और भी ठंडा मौसम हो जाता है. शायद केदारनाथ-बदरीनाथ जैसी ठण्ड, कुछ-कुछ मेरे ननिहाल खात्स्यूं सिरकोट [श्रीकोट] जैसी. मुझे तारीख तो ठीक याद नहीं है लेकिन दिन याद है – बृहस्पतिवार.क्योंकि कल ही परिवार के साथ मेरी मुलाक़ात का दिन था. हर बुधवार को मेरी पत्नी ही आया करती थी क्योंकि और रिश्तेदारों को मुलाक़ात की मंजूरी नहीं थी. मुलाक़ात के समय शीशे के आरपार हम एक दुसरे को देख सकते थे लेकिन बात दोनों तरफ रखे टेलीफोन के ज़रिये ही हो पाती थी. हम दोनों बहुत संयम से बातें करते थे क्योंकि यह बातें रिकार्ड होती थी. हमारी बातों का अक्सर केन्द्र हमारी बेटी ही हुआ करती थी – जिसकी शैतानियाँ का ज़िक्र जिंदगी की तल्खियों को भुलाने में कारगर होता था – भले ही मुलाक़ात सात मिनटों के लिए ही क्यों न हो. ठीक सात मिनट के बाद यह लाइन काट दी जाती थी. और इस ओर मै हेलो हेलो कहता था और उस ओर से वह, लेकिन शीशे की मोटी दीवार के कारण आवाज़ भले ही न जाती हो लेकिन जो सुना नही जा सका वह समझ में आ जाता था. रिश्तों के आगे भाषा की औकात बौनी पड़ जाती है, यह सुना ज़रूर था लेकिन देखा वहीँ पर. खैर! ज़िक्र उदासी का चल रहा था. हुआ यूँ कि सुबह की हाजरी के बाद मै नाश्ता करने लगा तो एक अन्य कैदी साथी जो अखबार पढ़ रहा था कहा कि एक खबर हिन्दुस्तान के बारे में भी छपी है. ईरान में हिन्दुस्तान को बहुत आदर और इज्जत के साथ देखा जाता है. मैंने सोचा शायद कोई इसी तरह की खबर होगी जिसमे अतिशयोक्तियों के साथ हिन्दुस्तान की तारीफ की गई होगी. मैंने अपनी जगह पर बैठ कर कहा कि खबर का शीर्षक पढ़ दो अभी – पूरी खबर बाद में पढूंगा. उसने खबर का शीर्षक पढ़ा – ‘तज्जवोज़ बा बानुवान-ए-जुम्बिश-ए-उत्तराखंड’ [उत्तराखंड आंदोलन की महिलाओं के साथ बलात्कार]. क्योंकि कमरे के सभी कैदियों ने यह खबर सुनी तो उनको विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि ईरानी लोग यह समझते हैं कि हिन्दुस्तान में महिलाओं की बहुत इज्ज़त होती है. मैंने अखबार लिया और खबर पढ़ी जो शायद चार या पांच पंक्तियों से बड़ी नहीं थी. जिसमे करीब दो महीना पुरानी घटना का संक्षिप्त वर्णन था कि हिंदुस्तान के मुज्ज़फरनगर शहर में पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर गोलियां चलाई जिसमे कुछ आंदोलनकारी शहीद हुए और पुलिस ने महिलाओं के साथ ज्यादती की. उस वक़्त न जाने और कोई क्यों याद नहीं आया. लेकिन अपना गाँव बहुत याद आया. बूढी दादी की लगाई हुई ‘पीपल चौंरी’, कांडा के मंदिर के रास्ते की ‘डूंडी कुलैं’ और गाँव का नागरजा. गाँव, पीपल, कुलैं और एक खामोश खुदा. मेरी याद में कहीं भी इंसान नहीं था.
कैदी ख़ामोशी की ज़बान को पहचानता है और इसीलिए किसी ने मुझ से इसके बारे में पूछा नहीं बल्कि मेरी ख़ामोशी को अपनी ख़ामोशी का सहारा दिया. मैं कुछ देर के बाद लाईब्रेरी चला गया. कुरान की हर उस आयत [श्लोक] को पढ़ने लगा जिसमे निर्दोष पर ज़ुल्म करने वालों की सजा के बारे में लिखा था. बहुत सी ऐसी आयतें थी लेकिन एक आयत मन को छू गई. कुरान के ५वें अध्याय की ३२वीं आयत – ‘यदि कोई किसी निर्दोष व्यक्ति का क़त्ल करता है तो समझो कि उसने समस्त मनुष्यता का क़त्ल किया है.’ शायद मन कुछ हल्का ज़रूर हुआ मगर उदास ही रहा. दिन के खाने पर भी नहीं गया और शायद लाइब्रेरी के बड़े से हॉल में मैं ही अकेला रह गया. अचानक देखा कि मेरे सामने हाजी हुसैन खड़े थे. मैंने उन्हें सलाम किया और उन्होंने भी वालैकुम अस्सलाम कह कर जवाब दिया. उन्होंने पूछा – हिंदी! [हिंदुस्तानियों को ईरान में हिंदी कहा जाता है] आज उदास दिख रहे हो. मैंने कहा - हाँ हाजी! उन्होंने मेरी उदासी का कारण पूछा तो मैंने कारण बता दिया. उन्होंने ढ़ाडस बंधाते हुए कुरान की एक आयत कही जिसका मतलब है कि – ‘जिनपर अत्याचार हुए हैं वे अब खुदा के अज़ीज़ बन चुके हैं और जो शहीद हुए हैं वे खुदा के पहलू में जिंदा हैं.’. फिर कुछ क्षणों के बाद कहा कि आज शाम की नमाज़ के वक़्त एक दुआ पढनी है तो मैं भी मौजूद रहूँ. मैंने कहा – ठीक है हाजी, आ जाऊंगा. मुझे लगा कि मुझसे नमाज़ के बाद की कोई दुआ पढ़वाना चाहते हैं. मेरे कुरान के प्रवचन और दुआ जेल में शायद काफी पसंद किये जाते थे.
शाम की नमाज़ पर मै मौजूद हुआ. हाजी हुसैन भी थे. इमाम ने नमाज़ पढाई और हाजी हुसैन को दुआ पढ़ने के लिए बुलाया. मुझे लगा कि हाजी हुसैन अब मेरा नाम पुकारेंगे और मुझ से दुआ पढ़ने के लिए कहेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने खुद दुआ पढ़ने शुरू करी जो लगभग बहुत बार मैंने पढ़ी और सुनी हुई थी लेकिन अचानक उन्होंने कहा – खुदाया! यहाँ जो लोग तेरी शरण में इक्कट्ठा हुए हैं उनमे तेरा एक बन्दा हिंद देश का वासी है, उसके देश में कुछ बहिनों पर अत्याचार हुआ है, तू तो सबसे बड़ा न्यायकर्ता है, उन अत्याचारियों का नाश कर, और जो मजलूम बहिने हैं उनके दुखों का अंत कर. आमीन! या रब्ब-अल-आलमीन! [ऐसा ही हो! हे समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी!]
फिर मेरा नाम पुकार कर मुझे बुलाया और कहा कि यदि मैं शहीदों और पीड़ित महिलाओं के नाम जानता हूँ तो एक एक नाम लेकर दुआ को दुहरा सकते हैं. मैंने कहा - मैं नाम नहीं जानता, आप सब का धन्यवाद.
रात को जब सोया तो मेरे एक पहलू में मेरा गाँव था, तो दुसरे पहलू गाँव का नागरजा, बूढी दादी की लगाई हुई ‘पीपल चौंरी’ और कांडा के मंदिर के रास्ते की ‘डूंडी कुलैं’.
और इस बार एक इंसान भी शामिल था इनमे – हाजी हुसैन!
गुरुवार, 10 नवंबर 2011
बुधवार, 10 अगस्त 2011
‘सम्मनों’ के देश में
आज ‘मोहल्ला लाइव’ के कार्यक्रम में सोचकर गया था, कुछ भी हो जाए सहमत होकर लौटना है। आजकल ई-मेल, एसएमएस और फोन पर लोगों की यही समझाइश सुन रहा हूं। नेगेटिव होते जा रहे हो। आज किसी बात पर आपत्ति नहीं। सभी बातों को सकारात्मक करके देखना है। माफ कीजिएगा, आमिर खान के ‘खाली चेक’ की वजह से यह हो नहीं पाया।
सारी बातें अच्छी हो रहीं थीं। कार्यक्रम के सूत्रधार पूरी तैयारी के साथ आए थे। हिन्दी के कार्यक्रम में सूत्रधार को इतनी सुन्दर तैयारी के साथ बहुत दिनों बाद सुना। इसलिए अच्छा लगा। एक वक्ता को छोड़कर तीन के पास अपनी बात रखने के लिए तैयारी नजर आई। जो एक वक्ता रह गए उनके लिए सूत्रधार ने बताया था कि आमिर खान ने उनकी लिखी फिल्म को अपना बनाने के लिए खाली चेक देकर कहा था, जो रकम भरनी है, भर लो, यह कहानी मुझे दे दो। चार वक्ताओं में रविकांत, महमूद फारूकी और रविश कुमार के नाम तो याद रहे लेकिन चौथे वक्ता का नाम याद करने की कोशिश करता हूं तो वह खाली चेक सामने आ जाता है। माफ कीजिएगा। इस विरोधाभास को समझना आसान नहीं है कि एक व्यक्ति जो फिल्म को नाच, गाने और मनोरंजन से ज्यादा कुछ नहीं समझता फिर वही आदमी खाली चेक वापस क्यों करता है? आमिर खान ने जिसके सामने खाली चेक रख दिया, उसमें कुछ तो बात होगी। वह आदमी इतना निराशावादी और अंदर से इतना खाली कैसे हो सकता है कि कह देः- ‘फिल्मों से आज तक कुछ बदला है क्या?’ इसी तरह की एक चालाकी मीडिया में भी आई है, जो कहती है, मीडिया ‘सेवा’ नहीं ‘धंधा’ है। रविश कुमार ने अपनी बातचीत में इस बात को स्वीकार किया लेकिन खाली चेक इस बात को फिल्म के परिपेक्ष में स्वीकार नहीं कर पाए। फिल्म बनाने वाला समाज भी उतना ही चालाक हुआ है, जितनी मीडिया हुई है। माध्यम पर गोबर लिप कर कहते हैं, यही असली रंग है। यदि फिल्म से कुछ बदलना नहीं था, देलही बेली की भाषा में कहूं तो कुछ उखड़ना नहीं था फिर उनकी अपनी फिल्म को ‘ए’ सर्टिफिकेट लेकर बाजार में क्यों आना पड़ा?
झारखंड के डॉक्यूमेनट्री फिल्म एक्टिविस्ट मेघनाथ, इसी बात को फिल्मकारों की नासमझी कहते हैं। फिल्म इकलौता ऐसा माध्यम है, जिसकी ताकत को सरकारें अधिक समझती हैं और इसे बरतने वाले कम करके आंकते हैं। वरना क्या वजह रही होगी कि देश के सीनेमेटोग्राफी के कानून को बाकि सूचना प्रसार के कानूनों से सख्त बनाने की। किसी समाचार चैनल या अखबार को प्रसारित या प्रकाशित होने से पहले किसी सेंसर बोर्ड से पास नहीं होना होता। किसी बात पर आपत्ति हो तो जनता के दरबार में आने के बाद उसपर चर्चा होती है। यह हक फिल्म को क्यों नहीं मिला साहब? एक बार रीलिज कीजिए, उसके बाद जनता की कोई आपत्ति आए तो वापस मंगा लो। हर्षद मेहता पर बनी 'घपला' जैसी बेहतरिन फिल्म आज तक आम जनता के बीच क्यों नहीं आ पाई? ‘आरक्षण’ फिल्म अभी रीलिज भी नहीं हुई है, सेंसर बोर्ड को फिल्म पर आपत्ति नहीं है। फिर हमारे समाज का एक वर्ग कैसे अपने पूर्वाग्रह के आधार पर फिल्म को प्रतिबंधित करवाने के नाम पर उसकी पब्लिसिटी कर रहा है। फिल्म से कुछ होना नहीं है तो प्रकाश झा की ही पिछली फिल्म राजनीति का प्रोमो देखकर लोगों को यदि कैटरिना कैफ में सोनिया गांधी के दर्शन हो गए तो क्या आफत आ गई? ‘फायर’ के साथ इस देश में क्या हुआ? किसी से छुपा है क्या? मराठी में कुछ समय पहले आई एक फिल्म को सेंसर बोर्ड के साथ-साथ शिव सेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से भी अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना पड़ा था।
खाली चेक यदि यह कहते कि मिथुन, गोविन्दा या सलमान की फिल्मों को सिर्फ सेंसर बोर्ड से पास होना होता है, यदि आप कुछ अलग हटकर करना चाहते हैं तो देश में हिन्दू सेना, अल्पसंख्यक सेना और दलित सेना इन तीनों से आपको अपनी फिल्म पास करानी होती है। घर-घर जाकर फिल्म दिखानी पड़ती है तो बात समझ आती। अब जब हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर ‘सम्मनों’ के देश में जी रहे हैं तो गंगा सहाय मीणा और राकेश कुमार सिंह सरिखी फिल्में कैसे बन सकती हैं? हो सकता है कि सम्मनों के मुल्क में जी रहे एक पटकथा लेखक की यह झल्लाहट हो कि ‘मुझसे नहीं होता, तुमसे जो बन पड़ता है कर लो।’
सारी बातें अच्छी हो रहीं थीं। कार्यक्रम के सूत्रधार पूरी तैयारी के साथ आए थे। हिन्दी के कार्यक्रम में सूत्रधार को इतनी सुन्दर तैयारी के साथ बहुत दिनों बाद सुना। इसलिए अच्छा लगा। एक वक्ता को छोड़कर तीन के पास अपनी बात रखने के लिए तैयारी नजर आई। जो एक वक्ता रह गए उनके लिए सूत्रधार ने बताया था कि आमिर खान ने उनकी लिखी फिल्म को अपना बनाने के लिए खाली चेक देकर कहा था, जो रकम भरनी है, भर लो, यह कहानी मुझे दे दो। चार वक्ताओं में रविकांत, महमूद फारूकी और रविश कुमार के नाम तो याद रहे लेकिन चौथे वक्ता का नाम याद करने की कोशिश करता हूं तो वह खाली चेक सामने आ जाता है। माफ कीजिएगा। इस विरोधाभास को समझना आसान नहीं है कि एक व्यक्ति जो फिल्म को नाच, गाने और मनोरंजन से ज्यादा कुछ नहीं समझता फिर वही आदमी खाली चेक वापस क्यों करता है? आमिर खान ने जिसके सामने खाली चेक रख दिया, उसमें कुछ तो बात होगी। वह आदमी इतना निराशावादी और अंदर से इतना खाली कैसे हो सकता है कि कह देः- ‘फिल्मों से आज तक कुछ बदला है क्या?’ इसी तरह की एक चालाकी मीडिया में भी आई है, जो कहती है, मीडिया ‘सेवा’ नहीं ‘धंधा’ है। रविश कुमार ने अपनी बातचीत में इस बात को स्वीकार किया लेकिन खाली चेक इस बात को फिल्म के परिपेक्ष में स्वीकार नहीं कर पाए। फिल्म बनाने वाला समाज भी उतना ही चालाक हुआ है, जितनी मीडिया हुई है। माध्यम पर गोबर लिप कर कहते हैं, यही असली रंग है। यदि फिल्म से कुछ बदलना नहीं था, देलही बेली की भाषा में कहूं तो कुछ उखड़ना नहीं था फिर उनकी अपनी फिल्म को ‘ए’ सर्टिफिकेट लेकर बाजार में क्यों आना पड़ा?

झारखंड के डॉक्यूमेनट्री फिल्म एक्टिविस्ट मेघनाथ, इसी बात को फिल्मकारों की नासमझी कहते हैं। फिल्म इकलौता ऐसा माध्यम है, जिसकी ताकत को सरकारें अधिक समझती हैं और इसे बरतने वाले कम करके आंकते हैं। वरना क्या वजह रही होगी कि देश के सीनेमेटोग्राफी के कानून को बाकि सूचना प्रसार के कानूनों से सख्त बनाने की। किसी समाचार चैनल या अखबार को प्रसारित या प्रकाशित होने से पहले किसी सेंसर बोर्ड से पास नहीं होना होता। किसी बात पर आपत्ति हो तो जनता के दरबार में आने के बाद उसपर चर्चा होती है। यह हक फिल्म को क्यों नहीं मिला साहब? एक बार रीलिज कीजिए, उसके बाद जनता की कोई आपत्ति आए तो वापस मंगा लो। हर्षद मेहता पर बनी 'घपला' जैसी बेहतरिन फिल्म आज तक आम जनता के बीच क्यों नहीं आ पाई? ‘आरक्षण’ फिल्म अभी रीलिज भी नहीं हुई है, सेंसर बोर्ड को फिल्म पर आपत्ति नहीं है। फिर हमारे समाज का एक वर्ग कैसे अपने पूर्वाग्रह के आधार पर फिल्म को प्रतिबंधित करवाने के नाम पर उसकी पब्लिसिटी कर रहा है। फिल्म से कुछ होना नहीं है तो प्रकाश झा की ही पिछली फिल्म राजनीति का प्रोमो देखकर लोगों को यदि कैटरिना कैफ में सोनिया गांधी के दर्शन हो गए तो क्या आफत आ गई? ‘फायर’ के साथ इस देश में क्या हुआ? किसी से छुपा है क्या? मराठी में कुछ समय पहले आई एक फिल्म को सेंसर बोर्ड के साथ-साथ शिव सेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से भी अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना पड़ा था।
खाली चेक यदि यह कहते कि मिथुन, गोविन्दा या सलमान की फिल्मों को सिर्फ सेंसर बोर्ड से पास होना होता है, यदि आप कुछ अलग हटकर करना चाहते हैं तो देश में हिन्दू सेना, अल्पसंख्यक सेना और दलित सेना इन तीनों से आपको अपनी फिल्म पास करानी होती है। घर-घर जाकर फिल्म दिखानी पड़ती है तो बात समझ आती। अब जब हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर ‘सम्मनों’ के देश में जी रहे हैं तो गंगा सहाय मीणा और राकेश कुमार सिंह सरिखी फिल्में कैसे बन सकती हैं? हो सकता है कि सम्मनों के मुल्क में जी रहे एक पटकथा लेखक की यह झल्लाहट हो कि ‘मुझसे नहीं होता, तुमसे जो बन पड़ता है कर लो।’
रविवार, 7 अगस्त 2011
आरक्षण से जुड़े कुछ सवाल, जवाब के लिए हैं आप तैयार...
इन दिनों प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण को लेकर 'आरक्षण' एक बार फिर चर्चा में है, इस चर्चा को पढ़ सुनकर कुछ दिनों पहले मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित अपने चंद सवालों को एक बार फिर से आप सबके सामने इस उम्मीद में रखता हूँ कि आप इस विषय पर सोचने विचारने वाले विद्वत जन इसका कुछ ठीक-ठीक समाधान सुझाएँगे...
1 बिहार से जब एक व्यक्ति असम, मुंबई कोलकाता जाता है तो उसकी पहचान जाति नहीं, उस क्षेत्र से होती है, जहां से वह आया है। कोई नहीं कहता कि आप भूमिहार हैं या राजपूत? सबकी एक पहचान है, बिहारी!
2. आप मेरी बात से बिल्कुल सहमत न हों, लेकिन जिन दलित परिवारों में मैंने समृद्धि देखी है, वहां यह भी देखा है कि उनके लिए जाति व्यवस्था बड़ा सवाल नहीं है। जाति व्यवस्था को खत्म करने की राह क्या उनके आर्थिक समृद्धि के साथ देखी जा सकती है?
3. अगर भेदभाव समाज में आज भी कायम है, तो इस भेदभाव को कम करने का या खत्म की राह क्या हो सकती है?
4. क्या आरक्षण छोड़ कर इसको दूर करने का कोई रास्ता नहीं है?
5. आरक्षण उन परिवारों को क्यों मिलना चाहिए, जिनके मुखिया की महीने की आमदनी आधिकारिक तौर पर 40 से 50 हजार रुपये हो?
6. आरक्षण को बीपीएल परिवारों तक सीमित क्यों नहीं किया जा सकता है?
7. आरक्षण की बात जोर शोर से इंटरनेट और फेसबुक पर उठाने वाला सक्रिय बड़ा वर्ग क्या अच्छी आमदनी वाला वर्ग नहीं है?
8. यदि वह वास्तव में अपने समाज को आगे कि तरफ बढ़ते देखना चाहते हैं, तो वह अपने समाज के पीछे छूट गये लोगों के लिए केंद्रित आरक्षण को लेकर मांग क्यों नहीं करते?
9. यदि किसी का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ, तो इसमें उसकी क्या भूमिका है? सिवाय इस बात के कि उसके मां बाप ब्राह्मण थे?
10. यदि बड़ी संख्या में ब्राह्मण जातिवादी हैं, यदि गिनती के कुछ गरीब ब्राह्मण परिवार के लोग ही इस जाति व्यवस्था में यकीन नहीं रखते, तो जातिवाद की सजा उनके लिए क्यों? बाबा साहब का संविधान ही कहता है कि सौ दोषी बच जाएं लेकिन एक बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए।
11. क्या जाति के आधार पर सुविधा देना आपको सामाजिक न्याय नजर आता है? क्या किसी गरीब और पिछड़े वर्मा, शर्मा, श्रीवास्तव, मिश्रा का गुनाह इतना भर है कि उन्होंने इस सरनेम वाले परिवार में जन्म लिया?
सवाल बहुत सारे हैं, वैसे क्या आप नहीं मानेंगे कि आरक्षण की लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वालों में दलित समाज के साथ-साथ गैर दलित समाज के लोग भी कंधे से कंधा मिला कर चले थे। इस तरह कोई दलित समाज की चिंता करने वाला व्यक्ति कैसे हर गैर दलित व्यक्ति की मंशा पर सवाल उठा सकते हैं?
उम्मीद है, इस संबंध में सोचने वाले विद्वतजनों का मार्गदर्शन मिलेगा।
इस सवाल पर मिले कुछ जवाब:-
manju said:
I am totally agree with your all questions.Reservation is creating frustration among general youth when their effort are wasted.It should be limited to only BPL family of any caste because even the BPL family of reserve caste are not able to utilise this facility as they are uncompetable to their own caste due to their low income.
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Anand said:
आज की सबसे बड़ी समस्या ये है राजनैतिक अवसरवादिता | जाति,धरम और क्षेत्र ऐसे मुद्दे है जिनके आधार पर लोगो को आराम से बल्गाराया जा सकता है और देश का एक बहुत बड़ा बुध्दिजीवी तबका ये ही काम कर रहा है | यदि हम बारीकी से देखे तो आरक्षण का लाभ एक बहुत बड़ा ऐसा तबका उठा रहा है जिसकी इसे कोई जरूरत ही नहीं है | दलित एवं पिछड़े वर्ग मे वो ही लोग इस बात का फायदा उठा पा रहे है जिनकी एक पीढ़ी इस का फायदा उठा चुकी है | आरक्षण का लाभ लेने वालो मे भी दो वर्ग बन गए है पहला जो बच्चे डीपीएस जैसी संस्थायो मे पढ़ते है और दुसरा जो आज भी गावो मे मजदूरी कर अपने बच्चो का पेट पाल रहे है और वंहा बच्चे की सबसे पहली जरूरत होती है परिवार का साथ देना जिसके लिए वो सिर्फ शब्द ज्ञान लेकर ही सिमित रह जाता है | मै पूछता हु यदि एक आदमी एक सरकारी जॉब करता है, एक छोटी से छोटी सरकारी नौकरी भी उस आदमी को उन 75 करोड़ लोगो से बेहतर जीवन एवं सामजिक अवसर देती है जिनकी प्रतिदिन की आय मात्र 20 रूपये है | आज हमें ये निर्धारित करना होगा की हमें समाज का उत्थान करना है या फिर अपना |
आज सामजिक न्याय के बारे मे सोचने की जरूरत है | और जो खामिया हमने अपनी पहली नीतियों मे देखी है उन्हें दूर करने की जरूरत है लेकिन इन सबसे पहले जरूरत है उस इच्छा शक्ति की जो ये फैसला ले सके | मौजूदा राजनीति तो सिर्फ इनका लाभ उठाने का काम कर रही है तो उनसे तो इस बात की उम्मीद करना ही गलत होगा |
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Mukesh Kumar said:
Dear Ashish,
You are thinking same as other people about reservation. when a person talk about reservation he/she centered only sc/st reservation. Is he /she do’nt know about obc reservation which is 27% (more than 12% compare to sc reservation). Nobody talk about this. one important thing is that 50% for general (it is not reservation but most probably 50% seats are filled by general category). But you have problem only with sc/st reservation. Do you know, in each village of the India only 15% sc/st are developed and 85% are very poor. Think this also….
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Satyendra said:
I am fully agree with these questions and not very socked if some comments come against this. this reservation on caste basis go towards polarization. After a time so-called general becomes minority and history repeat again and then politics are centered for general reservation. I think caste based reservation is full of stupidity. Because Jo garib tha wo aur Garib hua hai aur jo ameer tha wo aur ameer.
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Vibha Rani said:
ज्वलंत सवाल और सबका लब्बो लुआब यह कि जाति और आरक्षण के नाम पर सुविधाभोगी वर्ग ही इनका लाभ उठा रहे हैं. जानकीवल्लभ शास्त्री ने कहा था- ऊपर ऊपर ही पीते हैं जो पीनेवाले होते हैं, कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीनेवाले होते हैं. आरक्षण का लाभ उनको तो बिलकुल ही नहीं दिया जाना चाहिये जो इसका लाभ उठाकर आर्थिक सम्पन्नता तक पहुंच चुके हैं. उन्हें स्वयं इस लोभ से बाहर आना चाहिये. आरक्षण का आधार जातिगत कम और धनगत अधिक होना चाहिये. और सबसे बडी बात, अब आज के समय में यह मांग उठाई जानी चाहिये कि जाति- धर्म से ऊपर उठकर मानव जाति और धर्म के लिए काम करें. हालांकि यह अरण्य रोदन है, फिर भी…बात कुछ तक भी पहुंची तो बात बनेगी ही.
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वेद प्रकाश said:
आपने जो सवाल उठाए हैं, उनके जवाब काफी हद तक मंडल आयोग की रिपोर्ट में दिए गए हैं.
निश्चय ही जातिभेद को दूर करने का एकमात्र रास्ता आरक्षण नहीं है. इसके कई और भी रास्ते हैं जैसे–
1. सारी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण हो, यानी साम्यवाद हो और प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार उठाए.
2. सभी लोग जातिभेद पैदा करने वाले हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लें या नास्तिक हो जाएँ.
3. अपनी जाति में शादी करने वालों को सरकारी नौकरी और बैंक के कर्ज आदि सुविधाओं से वंचित किया जाए.
4. बाबा रामदेव, संत आशाराम जैसे बाबाओं पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाए क्योंकि ये लोग सरेआम ब्राह्मणों का गुणगान कर जातिभेद फैलाते हैं.
5. मध्यम वर्ग सभी मुसलमानों को देशद्रोही और सभी स्त्रियों और दलितों को अयोग्य मानता है. ऐसा मानने वालों को कड़ी सजा दी जाए.
6. किसी भी समुदाय या धर्म की बात करने वाले धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संगठन पर तुरंत प्रतिबंध लगाया जाए.
7. हिंदू धर्म का प्रचार करना प्रतिबंधित किया जाए.
अगर मेरे सुझाव बहुत कड़े लगें तो फिर आरक्षण का ही समर्थन किया जाए.
आरक्षण से निश्चित ही बहुत ही कम लोगों को नौकरी आदि मिलती है, बमुश्किल आधा प्रतिशत. लेकिन शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने इस देश के बहुसंख्यक समुदाय में गतिशीलता पैदा की है, तथा उनमें यह भाव पैदा किया है कि वे कोई कीडे़-मकोड़े नहीं, जैसा कि हिंदू धर्म मानता है,बल्कि मनुष्य हैं और इस देश के नागरिक हैं.
दरअसल आरक्षण विरोधियों को दलितों द्वारा चंद नौकरियाँ हासिल कर लेना बुरा नहीं लगता, उन्हें चुभता है किसी दलित कलक्टर या एसीपी के सामने अपने स्वार्थों के लिए गिड़गिडा़ना. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने जातिबंधुओं के सामने यह करने में उन्हें शर्म नहीं आती, बल्कि गर्व महसूस होता है.
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shubhranshu said:
there is only one solution n dat is- giv reservation on economic basis nt on caste basis.
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Ruchi said:
आशीष
आपने बहुत व्यवहारिक सवाल उठाये हैं. आरक्षण कि सुविधा पाने वाला वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि जातीय पहचान ख़त्म हो य यह व्यवस्था ख़त्म हो. उनके लिए जाति का होना सामाजिक नहीं आर्थिक कारणों से जरुरी है. जातीय अस्मिता का लगातार कट्टर हो जाना इसी का सबूत है.
आरक्षण पाने के लिए जो वर्ग रो रोकर खुद को पिछड़ा बताता है वही वर्ग सामाजिक रूप से उस जाति से अपनी अस्मिता नहीं जोड़ना चाहता. यह पहचान सिर्फ पढाई और नौकरी के लिए जाति प्रमाण पत्र और दस्तावेजों तक सीमित रहती है.
दलित विमर्श के पैरोकार जिस तरह से कट्टरपंथियों की तरह आरक्षण को लेकर आक्रामक रुख अपनाये रहते हैं उनकी नज़र में क्या योग्यता का कोई मूल्य नहीं ??
दलित विमर्श दरअसल चाहता ही नहीं कि जाति व्यवस्था ख़त्म हो और समाज से ये बंधन हटें. उनके विमर्श का असल मुद्दा है की आरक्षण की सुविधा कभी ख़त्म ना हो बस समाज में उन्हें उनकी जाति के साथ जोड़कर न देखा जाये. यह कितना बड़ा अंतर्विरोध है की जिस जाति के पिछड़ेपन पर वे आरक्षण का लाभ उठाते हैं उसी जाति से खुद को अलग भी रखना चाहते हैं.
कुछ सवर्ण जातियों को जातिवादी साबित करने वाले दलित विमर्शकार भूल जाते हैं की सबसे बड़े जातिवादी वही हैं. उनके भीतर जाति व्यवस्था को लेकर आक्रोश नहीं सवर्णों को लेकर आक्रोश है. उनके आक्रामक रवैये को देख कर लगता है उन्हें विमर्श करने की बजाय गुरिल्ला सेना बनानी चाहिए जो अल्पसंख्यक सवर्णों को ख़त्म कर दे. शायद वही अच्छा भी हो. जब कोई अगड़ा रहेगा नहीं तो कोई पिछड़ा भी नहीं रहेगा.
सच तो ये है कि अभी के दलित विमर्श के पास न तो कोई वैचारिक आधार है न परिवर्तन की इच्छा. वह एक राजनीतिक औजार से ज्यादा कुछ नहीं है. बेहतर हो अगर वे ‘विमर्श’ शब्द का और दुरूपयोग न करते हुए अपनी इस राजनीति को ‘आरक्षण समर्थक अभियान’ जैसा कुछ कहें.
पुनश्च : जातिवाद को मिटाने की राह में आरक्षण और दलित विमर्श रोड़ा बन कर अटक गए हैं. समाज में सकारात्मक रूप से खुली और उदार सोच के पनपने में दुर्भाग्य से वह बाधा बन गए हैं.
जरुरत है की हम उदार तरीके से इस पर सोचें और जातियों को लेकर कट्टरता का विरोध करें
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Ruchi said:
@ ved : आपकी समस्या क्या है ? ब्राह्मण जाति या जातिवाद ? हिन्दू धर्म को प्रतिबंधित करने का अनमोल विचार भी आपकी वैचारिक गम्भीता को प्रमाणित करता है.
जहाँ तक आपने या कहा कि सवर्णों को क्या चुभता है क्या नहीं तो जान लें कि दलित एक तो आरक्षण पाकर अयोग्य होते हुए भी नौकरी पाते हैं और फिर विनम्रता भूल कर सवर्णों को जलील करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते. ऐसी कुंठित मानसिकता के अलावा ऐसी सैकड़ो दलित जातियों के उदहारण हैं जिन्होंने सवर्ण उपनाम अपनाया है और अपनी जातिगत पहचान को लेकर भ्रम बनाये रखते हैं. वह असली पहचान सिर्फ आरक्षण पाने की कुंजी होती है.
दरअसल लोगों ने आरक्षण विरोध को दलित विरोध समझ लिया है. योग्यता और समानता की बात से अगर आप इतेफाक नहीं रखते तो ठीक है. जातियों का अस्तित्व बनाये रखें और आरक्षण के लिए योग्य बने रहें.
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jitendra yadav said:
आशीष जी दरअसल यह सवाल मात्र आपका ही नहीं है, इस देश दे सारे सवर्ण यही सवाल कर रहे हैं. उत्तर क्या दिया जाय . इसे दलित बैकवर्ड की तानाशाही समझ लीजिये. लोकतंत्र में जो वोट का सवाल महत्वपूर्ण है. आप लोगो के साथ अन्याय हो रहा है, सहानुभूति के सिवाय और क्या किया जा सकता है.
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RAJEEV said:
आरक्षण का आधार आर्थिक और जाति दोनों पर रखना गलत है .आर्थिक समृधि और सामाजिक हीनता का अवसरों की समानता से कोई लेना देना नहीं है.आरक्षण की मूल भावना वंचितों को सामान अवसर उपलब्ध करना था.मेरे विचार से आरक्षण का आधार क्षेत्र होना चाहिए .देश को विकसित ,अल्पविकसित तथा पिछड़ा तथा अतिपिछड़ा क्षेत्रों में बाँट कर आरक्षण देना उचित होगा .दिल्ली में रहने वालों की अपेक्षा ओडिसा के कालाहांडी में रहने वाला किसी जाती का इंसान अपने को हिन् महसूस करेगा.जब अकाल और बाढ़ आते है तो नहीं पहचानते की आप एक सौ बीघा जमीं के मालिक और ठाकुर है की भूमिहीन दलित.क्षेत्र के साथ आर्थिक और जाति इन तिन को आधार माना जाये तो शायद वर्तमान समस्याएं कम हो जाएँ
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mukesh manas said:
anshu pyare apne mass\oom savalon ke tarkik javab suno…………………..
1) bihar se jaane vala bihari hota hai lekin bihar,bangal ko chood kar aur kahin se aane vala pahale sc hota hai ya st ya obc.
2) AARTHIK SAMARIDDHI SE JAATIGAT UPEKSHA JAANE KII BAJAYE BADH JAATII HAI PYARE MARKSVAAD KI KAM SAMAJH RAKHANE VAALE DALIT MARKSVAADI.
3) BHEDBHV SIRF EK RAASHTRIYA NITI KE TAHAT HI SAMAPT HO SAKATA JO IS DESH KA SHASAK VARG KABHI NAHI CHAAHEGAA. TUMHAARE JAISAI KUCHH NA KUCHH BOLATE RAHENGE.
4) JARUR HAI. YAHI KI SAARE DALIT IS DESH MAI ATMHATYA KAR LEN.
5) KATAI NAHII MILANA CHAAHIYE. MAGAR UPPER CASTE KE LOGO KE ARAKASHAN KA ( SILENT ARAKSHAN KA ) KYA KAREN.
6)JARU KIYA JAANAA CHHAHIYE. MAGAR YE bpl KYA BLA HAI.
KAUN bpl HAI KAUN NAHI KAUN TAY KAREGA PYARA MASOOM BHAI?
7) JARUR HAI. MAGAR ARAKSHAN KE VIRODH ME AANE VALA VARG KITANA KAMA RAHA HAI ISAKA HISAB KAUN LAAYEGAA?
8)SAB BRAHAMANS KO AARAKSHAN DE DO VAHI BHOOKHE NANGE HAI. SAMASYA KHATAM. KYONKI IS DESH KA BHAMAAN KABHI SAMARIDDH HO NAHI SAKATA. SAALAA BAHUT HIPPOKRATE HAI.
9)SAHI HAI.KYONKI YAHAN BRAHAMAN KE GHAR PAIDA HONE SE KOI KOI KUTTA BHII MAHAN HO JAATA HAI( KUTTE MUJHE MAAF KAREN)
10)SAHI . TO EK INTELLEGENT DALIT KO DALIT HONE KI SAZA KYON MILE?
11) EKDAM SAHI. MAI SAHAMAT HUN….
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मुसाफिर बैठा said:
सनातनी मन सवर्णों के सवाल ऐसे ही मासूम होते हैं.वेदप्रकाश और मुकेश मानस से जो उत्तर बिंदु छूट गए हैं उन्हें मैं पूरा किए देता हूँ-
१.सबकी एक पहचान है,बिहारी, माना ठीक,पर बाहर भी क्या स्वर्ण वहाँ गए दलोतों-पिछड़े के प्रति अपना जातिवादी चुतिआपा भरा व्यवहार छोड़ता है?
२.बाबू जगजीवन राम ने जब बनारस में सम्पूर्णानन्द कि मूर्ति का अनावरण और माल्यार्पण किया तो उस मूर्ति का सवर्णों ने कथित शुद्धिकरण किया बाद में. स्थानांतरण के बाद कई महत्वपूर्ण पदों की कुर्सियों का(जिस पर दलित बैठते रहे थे) या तो मंत्रोच्चार आदि से पवित्र कर सवर्णों ने बैठना स्वीकार किया या कुर्सी ही बदल दी.
३.सवर्ण और अन्य जन भी अपना हिंदू अहंकार-संस्कार छोड़ दें. मसलन,अनिवार्य रूप से एक ही जाति में शादी न हो, अहंकार और अमुक शुद्ध जाति का होने का विकार तब स्वतः समाप्त समाप्त हो जायेगा.
४.सवाल तो यार खुद से पूछो. क्या यह आरक्षण नहीं है कि ब्राह्मण ही पूजा-पाठ करवाए? एक जाहिल और अशुद्ध संस्कृत जानने वाला भी अपनी जाति के बूते क्यों पंडित कहलाता है? मंदिरों में दलितों-पिछडों को उनकी जनसँख्या के अनुपात में हिस्सेदारी दो.
५. ज्यादा अच्छा हो कि सदियों से नानाविध सामाजिक आरक्षण भकोस रहे सवर्ण अपने से/अपनों से यह सवाल करे.
६.ऊपर ही इस सवाल का मनभरू जवाब दे दिया गया है.
७. जरूरी नहीं कि अच्छी आमदनी वाला हो पर हठी सवर्णों को पानी पिलाने वाले जरूर हैं वे लोग.
८. शक और यह सवाल क्यों है भाई,फरिया के तो बताइए साहब! और समाज को एकरस बनाने में अपनी जिम्मेदारी भी मत भूलिए.आपका यह सवाल आपके कारयित्री प्रतिभा का भी योग मांगता है.आप सवर्ण यदि दलितों के हक-हुकूक के लिए आगे आयेंगे तो ‘छुआ’नहीं जायेंगे, अतीत में तो अनेक सवर्ण वंचितों के हित में काम करते रहे हैं, बल्कि अभी भी. आप भी हमारे साथ हो लीजिए न, कहे दूर खड़े खड़े ज्ञान बघाड रहे हैं?
९.सबकी चिन्ता करिये भाईजान.केवल ब्राह्मणों की नहीं. बताइये न आप ही, अबके दलितों का क्या कुसूर. आपके बाप-दादा के नौकर-चाकर और जरखरीद गुलाम तो हमारे पूर्वज थे, पर अब तो नहीं हैं हम आपके अधीन पर क्यों अब भी अपनी हुकूमत हम पर चलाये जा रहे हैं, किस अधिकार से? क्यों हम एक समाजवादी-लोकतान्त्रिक देश में भी अपने मानवजन्य अधिकारों से वंचित रहें और आप हमारे हिस्से का भी भकोस जाये प्रतिभा के वाहयात नाम पर.
१०.सवाल को ब्राह्मणों से बाहर भी ले जाइये, सारभौमिक विस्तार दीजिए, जाके पांव न फटे बिवाई…. तक ले जाइये आपका दर्द अपना मात्र न रह जायेगा!बल्कि दूसरे मोर्चों पर अधिक दुखियारी जन के दर्शन होंगे!
११.इस सवाल और अपने आगे के शेष सवालों के लिए मेरे पिछले जवाबों में जाइये, प्रश्न शेष न रहेगा!
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rakesh said:
Musafirji ki baat se purn sahmati. Tamaam vargon aur jaatiyon ke log (‘upper castes’ khas kar) apne andar jhaanke aur inner self mein baithe jaativaad ko hilaane ki koshish karein. Saath men ek prastaav: National Reservation Policy nursery or play school se laagu kiya jaaye. Is pahal se aarthik baraabari ki raftar to tez hone mein madad milegi, ja aage chalkar samajik baraabri mein nirnayak sabit hoga.
चंद और सवाल:-
मुसाफिर बैठाजी क्या आपकी बातों से शब्दशः सहमत हो जाया जाए? मुझे लगता है, आपने यह सोचकर जवाब नहीं दिया होगा। वैसे भूमिका में आपने मेरे ‘सनातनी धर्म सवर्ण’ होने की लगभग घोषणा की है। मैं देर तक हंसता रहा इसे पढ़ने के बाद, अफसोस इतना भर रहा कि बिना मुझे जाने आप इतने बड़े निष्कर्ष पर सिर्फ चंद सवालों की वजह से पहुंच गए। जो आपके मन मुताबिक नहीं थे। अरे! साहब बाबा साहब ने भी आरक्षण से जो लोग बाहर हैं, उनसे इतनी दूरी नहीं बनाई। उन्हें अपने अखबार का संपादन करने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी दी। खैर, आपके जवाब के साथ अपने कुछ सवाल नत्थी कर रहा हूं, यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी है।01. आपके जवाब से यह पता चलता है कि जातिवाद को आप भी चुतियापा मानते हैं, साहब उसके बाद भी इसे ढोना चाहते हैं। क्यों इसका जवाब आप बेहतर तरिके से दे सकते हैं
02. बाबू जगजीवन राम की कहानी आपने सुनाई, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में जब मायावतिजी अपनी कुर्सी छोड़ेंगी तो क्या आपको संभव दिखता है कि पूरे प्रदेश में मायावतिजी के कार्यकाल में लगवाई गई मूर्तियों का शुद्धिकरण और उन सभी कुर्सियों का मत्रोच्चार से पवित्रीकरण की घटना दोहराई जाएगी?
03. धीरे धीरे यह अहंकार छूट रहा है। कुछ घटनाएं मेरी जानकारी में हैं।
04. मंदिरों में दलितों की भागीदारी की शुरुआत हो गई है। बनारस में ऐसे दर्जनों दलित पंडे आपको मिलेंगे और दलित पूजारियों की संख्या भी बढ़ रही है। नोएडा के एक दलित व्यावसायी ने बताया कि उनके अपार्टमेन्ट के मंदिर में जब वे जाते हैं, तो ब्राम्हण पंडित अपनी गद्दी उनके लिए छोड़कर नीचे बैठ जाता है। बैठाजी समय बदल रहा है, आप भी बदलिए!
05. बिल्कुल यह सवाल उन्हें अपने से करना चाहिए। जातिवादी लोगों के पक्ष में बात भी नहीं की जा सकती। बैठाजी कम से कम उनके लिए आपके मन में एक सॉफ्ट कॉर्नर होना ही चाहिए, जिनका जीवनचर्या बहूत मुश्किल से चल रही है। जिनके पूरे परिवार के महीने की आमदनी बेहद कम हो। वे गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हों। क्यों उनको यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए?
06. ‘मनभरु जवाब’ आपने दे दिया इसे कैसे समझा आपने?
07. इस बात से सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या ‘हठी’ से मुकाबला करते करते वे लोग खुद ‘हठी’ नहीं हो गए हैं। ब्राम्हणवादियों के मुकाबले मुसाफिर बैठा वादी!
08. ‘फरिया’ के बताने का क्या अर्थ है और आपके साथ खड़े होने का क्या अर्थ है? थोड़ा स्पष्ट कीजिए। वैसे आप जो लिख रहे हैं, उनसे कुछ असहतियों को छोड़कर मैं हमेशा सहमत हूं।
09. कौन कर रहा है आप पर हुकूमत। क्या लालूजी के पन्द्रह साल के राज के बाद भी क्या किसी सवर्ण की मजाल बची है कि वह किसी दलित पर अत्याचार करें? वैसे नीतिशजी भी सवर्ण नहीं है। उनके राज में नौकरियों से लेकर तमाम दूसरी सुविधाओं में दलित समाज के लोगों का पूरा ख्याल रखा गया है।
10. ब्राम्हण समाज तक इस बात को सीमित करने के लिए मुसाफिरजी क्षमा, आप इसे उन सभी वर्गो के लिए मानिए जिन्हें आरक्षण नहीं मिल रहा।
11. मैंने दूसरी और तीसरी बार भी जवाब पढ़ा लेकिन मेरे प्रश्न का जवाब स्पष्ट नहीं हुआ। कृप्या मुसाफिरजी विस्तार से लीखिए।
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इस सवाल पर मिले कुछ जवाब:-
manju said:
I am totally agree with your all questions.Reservation is creating frustration among general youth when their effort are wasted.It should be limited to only BPL family of any caste because even the BPL family of reserve caste are not able to utilise this facility as they are uncompetable to their own caste due to their low income.
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Anand said:
आज की सबसे बड़ी समस्या ये है राजनैतिक अवसरवादिता | जाति,धरम और क्षेत्र ऐसे मुद्दे है जिनके आधार पर लोगो को आराम से बल्गाराया जा सकता है और देश का एक बहुत बड़ा बुध्दिजीवी तबका ये ही काम कर रहा है | यदि हम बारीकी से देखे तो आरक्षण का लाभ एक बहुत बड़ा ऐसा तबका उठा रहा है जिसकी इसे कोई जरूरत ही नहीं है | दलित एवं पिछड़े वर्ग मे वो ही लोग इस बात का फायदा उठा पा रहे है जिनकी एक पीढ़ी इस का फायदा उठा चुकी है | आरक्षण का लाभ लेने वालो मे भी दो वर्ग बन गए है पहला जो बच्चे डीपीएस जैसी संस्थायो मे पढ़ते है और दुसरा जो आज भी गावो मे मजदूरी कर अपने बच्चो का पेट पाल रहे है और वंहा बच्चे की सबसे पहली जरूरत होती है परिवार का साथ देना जिसके लिए वो सिर्फ शब्द ज्ञान लेकर ही सिमित रह जाता है | मै पूछता हु यदि एक आदमी एक सरकारी जॉब करता है, एक छोटी से छोटी सरकारी नौकरी भी उस आदमी को उन 75 करोड़ लोगो से बेहतर जीवन एवं सामजिक अवसर देती है जिनकी प्रतिदिन की आय मात्र 20 रूपये है | आज हमें ये निर्धारित करना होगा की हमें समाज का उत्थान करना है या फिर अपना |
आज सामजिक न्याय के बारे मे सोचने की जरूरत है | और जो खामिया हमने अपनी पहली नीतियों मे देखी है उन्हें दूर करने की जरूरत है लेकिन इन सबसे पहले जरूरत है उस इच्छा शक्ति की जो ये फैसला ले सके | मौजूदा राजनीति तो सिर्फ इनका लाभ उठाने का काम कर रही है तो उनसे तो इस बात की उम्मीद करना ही गलत होगा |
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Mukesh Kumar said:
Dear Ashish,
You are thinking same as other people about reservation. when a person talk about reservation he/she centered only sc/st reservation. Is he /she do’nt know about obc reservation which is 27% (more than 12% compare to sc reservation). Nobody talk about this. one important thing is that 50% for general (it is not reservation but most probably 50% seats are filled by general category). But you have problem only with sc/st reservation. Do you know, in each village of the India only 15% sc/st are developed and 85% are very poor. Think this also….
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Satyendra said:
I am fully agree with these questions and not very socked if some comments come against this. this reservation on caste basis go towards polarization. After a time so-called general becomes minority and history repeat again and then politics are centered for general reservation. I think caste based reservation is full of stupidity. Because Jo garib tha wo aur Garib hua hai aur jo ameer tha wo aur ameer.
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Vibha Rani said:
ज्वलंत सवाल और सबका लब्बो लुआब यह कि जाति और आरक्षण के नाम पर सुविधाभोगी वर्ग ही इनका लाभ उठा रहे हैं. जानकीवल्लभ शास्त्री ने कहा था- ऊपर ऊपर ही पीते हैं जो पीनेवाले होते हैं, कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीनेवाले होते हैं. आरक्षण का लाभ उनको तो बिलकुल ही नहीं दिया जाना चाहिये जो इसका लाभ उठाकर आर्थिक सम्पन्नता तक पहुंच चुके हैं. उन्हें स्वयं इस लोभ से बाहर आना चाहिये. आरक्षण का आधार जातिगत कम और धनगत अधिक होना चाहिये. और सबसे बडी बात, अब आज के समय में यह मांग उठाई जानी चाहिये कि जाति- धर्म से ऊपर उठकर मानव जाति और धर्म के लिए काम करें. हालांकि यह अरण्य रोदन है, फिर भी…बात कुछ तक भी पहुंची तो बात बनेगी ही.
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वेद प्रकाश said:
आपने जो सवाल उठाए हैं, उनके जवाब काफी हद तक मंडल आयोग की रिपोर्ट में दिए गए हैं.
निश्चय ही जातिभेद को दूर करने का एकमात्र रास्ता आरक्षण नहीं है. इसके कई और भी रास्ते हैं जैसे–
1. सारी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण हो, यानी साम्यवाद हो और प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार उठाए.
2. सभी लोग जातिभेद पैदा करने वाले हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लें या नास्तिक हो जाएँ.
3. अपनी जाति में शादी करने वालों को सरकारी नौकरी और बैंक के कर्ज आदि सुविधाओं से वंचित किया जाए.
4. बाबा रामदेव, संत आशाराम जैसे बाबाओं पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाए क्योंकि ये लोग सरेआम ब्राह्मणों का गुणगान कर जातिभेद फैलाते हैं.
5. मध्यम वर्ग सभी मुसलमानों को देशद्रोही और सभी स्त्रियों और दलितों को अयोग्य मानता है. ऐसा मानने वालों को कड़ी सजा दी जाए.
6. किसी भी समुदाय या धर्म की बात करने वाले धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संगठन पर तुरंत प्रतिबंध लगाया जाए.
7. हिंदू धर्म का प्रचार करना प्रतिबंधित किया जाए.
अगर मेरे सुझाव बहुत कड़े लगें तो फिर आरक्षण का ही समर्थन किया जाए.
आरक्षण से निश्चित ही बहुत ही कम लोगों को नौकरी आदि मिलती है, बमुश्किल आधा प्रतिशत. लेकिन शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने इस देश के बहुसंख्यक समुदाय में गतिशीलता पैदा की है, तथा उनमें यह भाव पैदा किया है कि वे कोई कीडे़-मकोड़े नहीं, जैसा कि हिंदू धर्म मानता है,बल्कि मनुष्य हैं और इस देश के नागरिक हैं.
दरअसल आरक्षण विरोधियों को दलितों द्वारा चंद नौकरियाँ हासिल कर लेना बुरा नहीं लगता, उन्हें चुभता है किसी दलित कलक्टर या एसीपी के सामने अपने स्वार्थों के लिए गिड़गिडा़ना. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने जातिबंधुओं के सामने यह करने में उन्हें शर्म नहीं आती, बल्कि गर्व महसूस होता है.
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shubhranshu said:
there is only one solution n dat is- giv reservation on economic basis nt on caste basis.
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Ruchi said:
आशीष
आपने बहुत व्यवहारिक सवाल उठाये हैं. आरक्षण कि सुविधा पाने वाला वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि जातीय पहचान ख़त्म हो य यह व्यवस्था ख़त्म हो. उनके लिए जाति का होना सामाजिक नहीं आर्थिक कारणों से जरुरी है. जातीय अस्मिता का लगातार कट्टर हो जाना इसी का सबूत है.
आरक्षण पाने के लिए जो वर्ग रो रोकर खुद को पिछड़ा बताता है वही वर्ग सामाजिक रूप से उस जाति से अपनी अस्मिता नहीं जोड़ना चाहता. यह पहचान सिर्फ पढाई और नौकरी के लिए जाति प्रमाण पत्र और दस्तावेजों तक सीमित रहती है.
दलित विमर्श के पैरोकार जिस तरह से कट्टरपंथियों की तरह आरक्षण को लेकर आक्रामक रुख अपनाये रहते हैं उनकी नज़र में क्या योग्यता का कोई मूल्य नहीं ??
दलित विमर्श दरअसल चाहता ही नहीं कि जाति व्यवस्था ख़त्म हो और समाज से ये बंधन हटें. उनके विमर्श का असल मुद्दा है की आरक्षण की सुविधा कभी ख़त्म ना हो बस समाज में उन्हें उनकी जाति के साथ जोड़कर न देखा जाये. यह कितना बड़ा अंतर्विरोध है की जिस जाति के पिछड़ेपन पर वे आरक्षण का लाभ उठाते हैं उसी जाति से खुद को अलग भी रखना चाहते हैं.
कुछ सवर्ण जातियों को जातिवादी साबित करने वाले दलित विमर्शकार भूल जाते हैं की सबसे बड़े जातिवादी वही हैं. उनके भीतर जाति व्यवस्था को लेकर आक्रोश नहीं सवर्णों को लेकर आक्रोश है. उनके आक्रामक रवैये को देख कर लगता है उन्हें विमर्श करने की बजाय गुरिल्ला सेना बनानी चाहिए जो अल्पसंख्यक सवर्णों को ख़त्म कर दे. शायद वही अच्छा भी हो. जब कोई अगड़ा रहेगा नहीं तो कोई पिछड़ा भी नहीं रहेगा.
सच तो ये है कि अभी के दलित विमर्श के पास न तो कोई वैचारिक आधार है न परिवर्तन की इच्छा. वह एक राजनीतिक औजार से ज्यादा कुछ नहीं है. बेहतर हो अगर वे ‘विमर्श’ शब्द का और दुरूपयोग न करते हुए अपनी इस राजनीति को ‘आरक्षण समर्थक अभियान’ जैसा कुछ कहें.
पुनश्च : जातिवाद को मिटाने की राह में आरक्षण और दलित विमर्श रोड़ा बन कर अटक गए हैं. समाज में सकारात्मक रूप से खुली और उदार सोच के पनपने में दुर्भाग्य से वह बाधा बन गए हैं.
जरुरत है की हम उदार तरीके से इस पर सोचें और जातियों को लेकर कट्टरता का विरोध करें
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Ruchi said:
@ ved : आपकी समस्या क्या है ? ब्राह्मण जाति या जातिवाद ? हिन्दू धर्म को प्रतिबंधित करने का अनमोल विचार भी आपकी वैचारिक गम्भीता को प्रमाणित करता है.
जहाँ तक आपने या कहा कि सवर्णों को क्या चुभता है क्या नहीं तो जान लें कि दलित एक तो आरक्षण पाकर अयोग्य होते हुए भी नौकरी पाते हैं और फिर विनम्रता भूल कर सवर्णों को जलील करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते. ऐसी कुंठित मानसिकता के अलावा ऐसी सैकड़ो दलित जातियों के उदहारण हैं जिन्होंने सवर्ण उपनाम अपनाया है और अपनी जातिगत पहचान को लेकर भ्रम बनाये रखते हैं. वह असली पहचान सिर्फ आरक्षण पाने की कुंजी होती है.
दरअसल लोगों ने आरक्षण विरोध को दलित विरोध समझ लिया है. योग्यता और समानता की बात से अगर आप इतेफाक नहीं रखते तो ठीक है. जातियों का अस्तित्व बनाये रखें और आरक्षण के लिए योग्य बने रहें.
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jitendra yadav said:
आशीष जी दरअसल यह सवाल मात्र आपका ही नहीं है, इस देश दे सारे सवर्ण यही सवाल कर रहे हैं. उत्तर क्या दिया जाय . इसे दलित बैकवर्ड की तानाशाही समझ लीजिये. लोकतंत्र में जो वोट का सवाल महत्वपूर्ण है. आप लोगो के साथ अन्याय हो रहा है, सहानुभूति के सिवाय और क्या किया जा सकता है.
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RAJEEV said:
आरक्षण का आधार आर्थिक और जाति दोनों पर रखना गलत है .आर्थिक समृधि और सामाजिक हीनता का अवसरों की समानता से कोई लेना देना नहीं है.आरक्षण की मूल भावना वंचितों को सामान अवसर उपलब्ध करना था.मेरे विचार से आरक्षण का आधार क्षेत्र होना चाहिए .देश को विकसित ,अल्पविकसित तथा पिछड़ा तथा अतिपिछड़ा क्षेत्रों में बाँट कर आरक्षण देना उचित होगा .दिल्ली में रहने वालों की अपेक्षा ओडिसा के कालाहांडी में रहने वाला किसी जाती का इंसान अपने को हिन् महसूस करेगा.जब अकाल और बाढ़ आते है तो नहीं पहचानते की आप एक सौ बीघा जमीं के मालिक और ठाकुर है की भूमिहीन दलित.क्षेत्र के साथ आर्थिक और जाति इन तिन को आधार माना जाये तो शायद वर्तमान समस्याएं कम हो जाएँ
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mukesh manas said:
anshu pyare apne mass\oom savalon ke tarkik javab suno…………………..
1) bihar se jaane vala bihari hota hai lekin bihar,bangal ko chood kar aur kahin se aane vala pahale sc hota hai ya st ya obc.
2) AARTHIK SAMARIDDHI SE JAATIGAT UPEKSHA JAANE KII BAJAYE BADH JAATII HAI PYARE MARKSVAAD KI KAM SAMAJH RAKHANE VAALE DALIT MARKSVAADI.
3) BHEDBHV SIRF EK RAASHTRIYA NITI KE TAHAT HI SAMAPT HO SAKATA JO IS DESH KA SHASAK VARG KABHI NAHI CHAAHEGAA. TUMHAARE JAISAI KUCHH NA KUCHH BOLATE RAHENGE.
4) JARUR HAI. YAHI KI SAARE DALIT IS DESH MAI ATMHATYA KAR LEN.
5) KATAI NAHII MILANA CHAAHIYE. MAGAR UPPER CASTE KE LOGO KE ARAKASHAN KA ( SILENT ARAKSHAN KA ) KYA KAREN.
6)JARU KIYA JAANAA CHHAHIYE. MAGAR YE bpl KYA BLA HAI.
KAUN bpl HAI KAUN NAHI KAUN TAY KAREGA PYARA MASOOM BHAI?
7) JARUR HAI. MAGAR ARAKSHAN KE VIRODH ME AANE VALA VARG KITANA KAMA RAHA HAI ISAKA HISAB KAUN LAAYEGAA?
8)SAB BRAHAMANS KO AARAKSHAN DE DO VAHI BHOOKHE NANGE HAI. SAMASYA KHATAM. KYONKI IS DESH KA BHAMAAN KABHI SAMARIDDH HO NAHI SAKATA. SAALAA BAHUT HIPPOKRATE HAI.
9)SAHI HAI.KYONKI YAHAN BRAHAMAN KE GHAR PAIDA HONE SE KOI KOI KUTTA BHII MAHAN HO JAATA HAI( KUTTE MUJHE MAAF KAREN)
10)SAHI . TO EK INTELLEGENT DALIT KO DALIT HONE KI SAZA KYON MILE?
11) EKDAM SAHI. MAI SAHAMAT HUN….
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मुसाफिर बैठा said:
सनातनी मन सवर्णों के सवाल ऐसे ही मासूम होते हैं.वेदप्रकाश और मुकेश मानस से जो उत्तर बिंदु छूट गए हैं उन्हें मैं पूरा किए देता हूँ-
१.सबकी एक पहचान है,बिहारी, माना ठीक,पर बाहर भी क्या स्वर्ण वहाँ गए दलोतों-पिछड़े के प्रति अपना जातिवादी चुतिआपा भरा व्यवहार छोड़ता है?
२.बाबू जगजीवन राम ने जब बनारस में सम्पूर्णानन्द कि मूर्ति का अनावरण और माल्यार्पण किया तो उस मूर्ति का सवर्णों ने कथित शुद्धिकरण किया बाद में. स्थानांतरण के बाद कई महत्वपूर्ण पदों की कुर्सियों का(जिस पर दलित बैठते रहे थे) या तो मंत्रोच्चार आदि से पवित्र कर सवर्णों ने बैठना स्वीकार किया या कुर्सी ही बदल दी.
३.सवर्ण और अन्य जन भी अपना हिंदू अहंकार-संस्कार छोड़ दें. मसलन,अनिवार्य रूप से एक ही जाति में शादी न हो, अहंकार और अमुक शुद्ध जाति का होने का विकार तब स्वतः समाप्त समाप्त हो जायेगा.
४.सवाल तो यार खुद से पूछो. क्या यह आरक्षण नहीं है कि ब्राह्मण ही पूजा-पाठ करवाए? एक जाहिल और अशुद्ध संस्कृत जानने वाला भी अपनी जाति के बूते क्यों पंडित कहलाता है? मंदिरों में दलितों-पिछडों को उनकी जनसँख्या के अनुपात में हिस्सेदारी दो.
५. ज्यादा अच्छा हो कि सदियों से नानाविध सामाजिक आरक्षण भकोस रहे सवर्ण अपने से/अपनों से यह सवाल करे.
६.ऊपर ही इस सवाल का मनभरू जवाब दे दिया गया है.
७. जरूरी नहीं कि अच्छी आमदनी वाला हो पर हठी सवर्णों को पानी पिलाने वाले जरूर हैं वे लोग.
८. शक और यह सवाल क्यों है भाई,फरिया के तो बताइए साहब! और समाज को एकरस बनाने में अपनी जिम्मेदारी भी मत भूलिए.आपका यह सवाल आपके कारयित्री प्रतिभा का भी योग मांगता है.आप सवर्ण यदि दलितों के हक-हुकूक के लिए आगे आयेंगे तो ‘छुआ’नहीं जायेंगे, अतीत में तो अनेक सवर्ण वंचितों के हित में काम करते रहे हैं, बल्कि अभी भी. आप भी हमारे साथ हो लीजिए न, कहे दूर खड़े खड़े ज्ञान बघाड रहे हैं?
९.सबकी चिन्ता करिये भाईजान.केवल ब्राह्मणों की नहीं. बताइये न आप ही, अबके दलितों का क्या कुसूर. आपके बाप-दादा के नौकर-चाकर और जरखरीद गुलाम तो हमारे पूर्वज थे, पर अब तो नहीं हैं हम आपके अधीन पर क्यों अब भी अपनी हुकूमत हम पर चलाये जा रहे हैं, किस अधिकार से? क्यों हम एक समाजवादी-लोकतान्त्रिक देश में भी अपने मानवजन्य अधिकारों से वंचित रहें और आप हमारे हिस्से का भी भकोस जाये प्रतिभा के वाहयात नाम पर.
१०.सवाल को ब्राह्मणों से बाहर भी ले जाइये, सारभौमिक विस्तार दीजिए, जाके पांव न फटे बिवाई…. तक ले जाइये आपका दर्द अपना मात्र न रह जायेगा!बल्कि दूसरे मोर्चों पर अधिक दुखियारी जन के दर्शन होंगे!
११.इस सवाल और अपने आगे के शेष सवालों के लिए मेरे पिछले जवाबों में जाइये, प्रश्न शेष न रहेगा!
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rakesh said:
Musafirji ki baat se purn sahmati. Tamaam vargon aur jaatiyon ke log (‘upper castes’ khas kar) apne andar jhaanke aur inner self mein baithe jaativaad ko hilaane ki koshish karein. Saath men ek prastaav: National Reservation Policy nursery or play school se laagu kiya jaaye. Is pahal se aarthik baraabari ki raftar to tez hone mein madad milegi, ja aage chalkar samajik baraabri mein nirnayak sabit hoga.
चंद और सवाल:-
मुसाफिर बैठाजी क्या आपकी बातों से शब्दशः सहमत हो जाया जाए? मुझे लगता है, आपने यह सोचकर जवाब नहीं दिया होगा। वैसे भूमिका में आपने मेरे ‘सनातनी धर्म सवर्ण’ होने की लगभग घोषणा की है। मैं देर तक हंसता रहा इसे पढ़ने के बाद, अफसोस इतना भर रहा कि बिना मुझे जाने आप इतने बड़े निष्कर्ष पर सिर्फ चंद सवालों की वजह से पहुंच गए। जो आपके मन मुताबिक नहीं थे। अरे! साहब बाबा साहब ने भी आरक्षण से जो लोग बाहर हैं, उनसे इतनी दूरी नहीं बनाई। उन्हें अपने अखबार का संपादन करने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी दी। खैर, आपके जवाब के साथ अपने कुछ सवाल नत्थी कर रहा हूं, यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी है।01. आपके जवाब से यह पता चलता है कि जातिवाद को आप भी चुतियापा मानते हैं, साहब उसके बाद भी इसे ढोना चाहते हैं। क्यों इसका जवाब आप बेहतर तरिके से दे सकते हैं
02. बाबू जगजीवन राम की कहानी आपने सुनाई, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में जब मायावतिजी अपनी कुर्सी छोड़ेंगी तो क्या आपको संभव दिखता है कि पूरे प्रदेश में मायावतिजी के कार्यकाल में लगवाई गई मूर्तियों का शुद्धिकरण और उन सभी कुर्सियों का मत्रोच्चार से पवित्रीकरण की घटना दोहराई जाएगी?
03. धीरे धीरे यह अहंकार छूट रहा है। कुछ घटनाएं मेरी जानकारी में हैं।
04. मंदिरों में दलितों की भागीदारी की शुरुआत हो गई है। बनारस में ऐसे दर्जनों दलित पंडे आपको मिलेंगे और दलित पूजारियों की संख्या भी बढ़ रही है। नोएडा के एक दलित व्यावसायी ने बताया कि उनके अपार्टमेन्ट के मंदिर में जब वे जाते हैं, तो ब्राम्हण पंडित अपनी गद्दी उनके लिए छोड़कर नीचे बैठ जाता है। बैठाजी समय बदल रहा है, आप भी बदलिए!
05. बिल्कुल यह सवाल उन्हें अपने से करना चाहिए। जातिवादी लोगों के पक्ष में बात भी नहीं की जा सकती। बैठाजी कम से कम उनके लिए आपके मन में एक सॉफ्ट कॉर्नर होना ही चाहिए, जिनका जीवनचर्या बहूत मुश्किल से चल रही है। जिनके पूरे परिवार के महीने की आमदनी बेहद कम हो। वे गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हों। क्यों उनको यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए?
06. ‘मनभरु जवाब’ आपने दे दिया इसे कैसे समझा आपने?
07. इस बात से सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या ‘हठी’ से मुकाबला करते करते वे लोग खुद ‘हठी’ नहीं हो गए हैं। ब्राम्हणवादियों के मुकाबले मुसाफिर बैठा वादी!
08. ‘फरिया’ के बताने का क्या अर्थ है और आपके साथ खड़े होने का क्या अर्थ है? थोड़ा स्पष्ट कीजिए। वैसे आप जो लिख रहे हैं, उनसे कुछ असहतियों को छोड़कर मैं हमेशा सहमत हूं।
09. कौन कर रहा है आप पर हुकूमत। क्या लालूजी के पन्द्रह साल के राज के बाद भी क्या किसी सवर्ण की मजाल बची है कि वह किसी दलित पर अत्याचार करें? वैसे नीतिशजी भी सवर्ण नहीं है। उनके राज में नौकरियों से लेकर तमाम दूसरी सुविधाओं में दलित समाज के लोगों का पूरा ख्याल रखा गया है।
10. ब्राम्हण समाज तक इस बात को सीमित करने के लिए मुसाफिरजी क्षमा, आप इसे उन सभी वर्गो के लिए मानिए जिन्हें आरक्षण नहीं मिल रहा।
11. मैंने दूसरी और तीसरी बार भी जवाब पढ़ा लेकिन मेरे प्रश्न का जवाब स्पष्ट नहीं हुआ। कृप्या मुसाफिरजी विस्तार से लीखिए।
1 बिहार से जब एक व्यक्ति असम, मुंबई कोलकाता जाता है तो उसकी पहचान जाति नहीं, उस क्षेत्र से होती है, जहां से वह आया है। कोई नहीं कहता कि आप भूमिहार हैं या राजपूत? सबकी एक पहचान है, बिहारी!
2. आप मेरी बात से बिल्कुल सहमत न हों, लेकिन जिन दलित परिवारों में मैंने समृद्धि देखी है, वहां यह भी देखा है कि उनके लिए जाति व्यवस्था बड़ा सवाल नहीं है। जाति व्यवस्था को खत्म करने की राह क्या उनके आर्थिक समृद्धि के साथ देखी जा सकती है?
3. अगर भेदभाव समाज में आज भी कायम है, तो इस भेदभाव को कम करने का या खत्म की राह क्या हो सकती है?
4. क्या आरक्षण छोड़ कर इसको दूर करने का कोई रास्ता नहीं है?
5. आरक्षण उन परिवारों को क्यों मिलना चाहिए, जिनके मुखिया की महीने की आमदनी आधिकारिक तौर पर 40 से 50 हजार रुपये हो?
6. आरक्षण को बीपीएल परिवारों तक सीमित क्यों नहीं किया जा सकता है?
7. आरक्षण की बात जोर शोर से इंटरनेट और फेसबुक पर उठाने वाला सक्रिय बड़ा वर्ग क्या अच्छी आमदनी वाला वर्ग नहीं है?
8. यदि वह वास्तव में अपने समाज को आगे कि तरफ बढ़ते देखना चाहते हैं, तो वह अपने समाज के पीछे छूट गये लोगों के लिए केंद्रित आरक्षण को लेकर मांग क्यों नहीं करते?
9. यदि किसी का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ, तो इसमें उसकी क्या भूमिका है? सिवाय इस बात के कि उसके मां बाप ब्राह्मण थे?
10. यदि बड़ी संख्या में ब्राह्मण जातिवादी हैं, यदि गिनती के कुछ गरीब ब्राह्मण परिवार के लोग ही इस जाति व्यवस्था में यकीन नहीं रखते, तो जातिवाद की सजा उनके लिए क्यों? बाबा साहब का संविधान ही कहता है कि सौ दोषी बच जाएं लेकिन एक बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए।
11. क्या जाति के आधार पर सुविधा देना आपको सामाजिक न्याय नजर आता है? क्या किसी गरीब और पिछड़े वर्मा, शर्मा, श्रीवास्तव, मिश्रा का गुनाह इतना भर है कि उन्होंने इस सरनेम वाले परिवार में जन्म लिया?
सवाल बहुत सारे हैं, वैसे क्या आप नहीं मानेंगे कि आरक्षण की लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वालों में दलित समाज के साथ-साथ गैर दलित समाज के लोग भी कंधे से कंधा मिला कर चले थे। इस तरह कोई दलित समाज की चिंता करने वाला व्यक्ति कैसे हर गैर दलित व्यक्ति की मंशा पर सवाल उठा सकते हैं?
उम्मीद है, इस संबंध में सोचने वाले विद्वतजनों का मार्गदर्शन मिलेगा।
इस सवाल पर मिले कुछ जवाब:-
manju said:
I am totally agree with your all questions.Reservation is creating frustration among general youth when their effort are wasted.It should be limited to only BPL family of any caste because even the BPL family of reserve caste are not able to utilise this facility as they are uncompetable to their own caste due to their low income.
---------
Anand said:
आज की सबसे बड़ी समस्या ये है राजनैतिक अवसरवादिता | जाति,धरम और क्षेत्र ऐसे मुद्दे है जिनके आधार पर लोगो को आराम से बल्गाराया जा सकता है और देश का एक बहुत बड़ा बुध्दिजीवी तबका ये ही काम कर रहा है | यदि हम बारीकी से देखे तो आरक्षण का लाभ एक बहुत बड़ा ऐसा तबका उठा रहा है जिसकी इसे कोई जरूरत ही नहीं है | दलित एवं पिछड़े वर्ग मे वो ही लोग इस बात का फायदा उठा पा रहे है जिनकी एक पीढ़ी इस का फायदा उठा चुकी है | आरक्षण का लाभ लेने वालो मे भी दो वर्ग बन गए है पहला जो बच्चे डीपीएस जैसी संस्थायो मे पढ़ते है और दुसरा जो आज भी गावो मे मजदूरी कर अपने बच्चो का पेट पाल रहे है और वंहा बच्चे की सबसे पहली जरूरत होती है परिवार का साथ देना जिसके लिए वो सिर्फ शब्द ज्ञान लेकर ही सिमित रह जाता है | मै पूछता हु यदि एक आदमी एक सरकारी जॉब करता है, एक छोटी से छोटी सरकारी नौकरी भी उस आदमी को उन 75 करोड़ लोगो से बेहतर जीवन एवं सामजिक अवसर देती है जिनकी प्रतिदिन की आय मात्र 20 रूपये है | आज हमें ये निर्धारित करना होगा की हमें समाज का उत्थान करना है या फिर अपना |
आज सामजिक न्याय के बारे मे सोचने की जरूरत है | और जो खामिया हमने अपनी पहली नीतियों मे देखी है उन्हें दूर करने की जरूरत है लेकिन इन सबसे पहले जरूरत है उस इच्छा शक्ति की जो ये फैसला ले सके | मौजूदा राजनीति तो सिर्फ इनका लाभ उठाने का काम कर रही है तो उनसे तो इस बात की उम्मीद करना ही गलत होगा |
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Mukesh Kumar said:
Dear Ashish,
You are thinking same as other people about reservation. when a person talk about reservation he/she centered only sc/st reservation. Is he /she do’nt know about obc reservation which is 27% (more than 12% compare to sc reservation). Nobody talk about this. one important thing is that 50% for general (it is not reservation but most probably 50% seats are filled by general category). But you have problem only with sc/st reservation. Do you know, in each village of the India only 15% sc/st are developed and 85% are very poor. Think this also….
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Satyendra said:
I am fully agree with these questions and not very socked if some comments come against this. this reservation on caste basis go towards polarization. After a time so-called general becomes minority and history repeat again and then politics are centered for general reservation. I think caste based reservation is full of stupidity. Because Jo garib tha wo aur Garib hua hai aur jo ameer tha wo aur ameer.
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Vibha Rani said:
ज्वलंत सवाल और सबका लब्बो लुआब यह कि जाति और आरक्षण के नाम पर सुविधाभोगी वर्ग ही इनका लाभ उठा रहे हैं. जानकीवल्लभ शास्त्री ने कहा था- ऊपर ऊपर ही पीते हैं जो पीनेवाले होते हैं, कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीनेवाले होते हैं. आरक्षण का लाभ उनको तो बिलकुल ही नहीं दिया जाना चाहिये जो इसका लाभ उठाकर आर्थिक सम्पन्नता तक पहुंच चुके हैं. उन्हें स्वयं इस लोभ से बाहर आना चाहिये. आरक्षण का आधार जातिगत कम और धनगत अधिक होना चाहिये. और सबसे बडी बात, अब आज के समय में यह मांग उठाई जानी चाहिये कि जाति- धर्म से ऊपर उठकर मानव जाति और धर्म के लिए काम करें. हालांकि यह अरण्य रोदन है, फिर भी…बात कुछ तक भी पहुंची तो बात बनेगी ही.
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वेद प्रकाश said:
आपने जो सवाल उठाए हैं, उनके जवाब काफी हद तक मंडल आयोग की रिपोर्ट में दिए गए हैं.
निश्चय ही जातिभेद को दूर करने का एकमात्र रास्ता आरक्षण नहीं है. इसके कई और भी रास्ते हैं जैसे–
1. सारी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण हो, यानी साम्यवाद हो और प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार उठाए.
2. सभी लोग जातिभेद पैदा करने वाले हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लें या नास्तिक हो जाएँ.
3. अपनी जाति में शादी करने वालों को सरकारी नौकरी और बैंक के कर्ज आदि सुविधाओं से वंचित किया जाए.
4. बाबा रामदेव, संत आशाराम जैसे बाबाओं पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाए क्योंकि ये लोग सरेआम ब्राह्मणों का गुणगान कर जातिभेद फैलाते हैं.
5. मध्यम वर्ग सभी मुसलमानों को देशद्रोही और सभी स्त्रियों और दलितों को अयोग्य मानता है. ऐसा मानने वालों को कड़ी सजा दी जाए.
6. किसी भी समुदाय या धर्म की बात करने वाले धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संगठन पर तुरंत प्रतिबंध लगाया जाए.
7. हिंदू धर्म का प्रचार करना प्रतिबंधित किया जाए.
अगर मेरे सुझाव बहुत कड़े लगें तो फिर आरक्षण का ही समर्थन किया जाए.
आरक्षण से निश्चित ही बहुत ही कम लोगों को नौकरी आदि मिलती है, बमुश्किल आधा प्रतिशत. लेकिन शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने इस देश के बहुसंख्यक समुदाय में गतिशीलता पैदा की है, तथा उनमें यह भाव पैदा किया है कि वे कोई कीडे़-मकोड़े नहीं, जैसा कि हिंदू धर्म मानता है,बल्कि मनुष्य हैं और इस देश के नागरिक हैं.
दरअसल आरक्षण विरोधियों को दलितों द्वारा चंद नौकरियाँ हासिल कर लेना बुरा नहीं लगता, उन्हें चुभता है किसी दलित कलक्टर या एसीपी के सामने अपने स्वार्थों के लिए गिड़गिडा़ना. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने जातिबंधुओं के सामने यह करने में उन्हें शर्म नहीं आती, बल्कि गर्व महसूस होता है.
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shubhranshu said:
there is only one solution n dat is- giv reservation on economic basis nt on caste basis.
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Ruchi said:
आशीष
आपने बहुत व्यवहारिक सवाल उठाये हैं. आरक्षण कि सुविधा पाने वाला वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि जातीय पहचान ख़त्म हो य यह व्यवस्था ख़त्म हो. उनके लिए जाति का होना सामाजिक नहीं आर्थिक कारणों से जरुरी है. जातीय अस्मिता का लगातार कट्टर हो जाना इसी का सबूत है.
आरक्षण पाने के लिए जो वर्ग रो रोकर खुद को पिछड़ा बताता है वही वर्ग सामाजिक रूप से उस जाति से अपनी अस्मिता नहीं जोड़ना चाहता. यह पहचान सिर्फ पढाई और नौकरी के लिए जाति प्रमाण पत्र और दस्तावेजों तक सीमित रहती है.
दलित विमर्श के पैरोकार जिस तरह से कट्टरपंथियों की तरह आरक्षण को लेकर आक्रामक रुख अपनाये रहते हैं उनकी नज़र में क्या योग्यता का कोई मूल्य नहीं ??
दलित विमर्श दरअसल चाहता ही नहीं कि जाति व्यवस्था ख़त्म हो और समाज से ये बंधन हटें. उनके विमर्श का असल मुद्दा है की आरक्षण की सुविधा कभी ख़त्म ना हो बस समाज में उन्हें उनकी जाति के साथ जोड़कर न देखा जाये. यह कितना बड़ा अंतर्विरोध है की जिस जाति के पिछड़ेपन पर वे आरक्षण का लाभ उठाते हैं उसी जाति से खुद को अलग भी रखना चाहते हैं.
कुछ सवर्ण जातियों को जातिवादी साबित करने वाले दलित विमर्शकार भूल जाते हैं की सबसे बड़े जातिवादी वही हैं. उनके भीतर जाति व्यवस्था को लेकर आक्रोश नहीं सवर्णों को लेकर आक्रोश है. उनके आक्रामक रवैये को देख कर लगता है उन्हें विमर्श करने की बजाय गुरिल्ला सेना बनानी चाहिए जो अल्पसंख्यक सवर्णों को ख़त्म कर दे. शायद वही अच्छा भी हो. जब कोई अगड़ा रहेगा नहीं तो कोई पिछड़ा भी नहीं रहेगा.
सच तो ये है कि अभी के दलित विमर्श के पास न तो कोई वैचारिक आधार है न परिवर्तन की इच्छा. वह एक राजनीतिक औजार से ज्यादा कुछ नहीं है. बेहतर हो अगर वे ‘विमर्श’ शब्द का और दुरूपयोग न करते हुए अपनी इस राजनीति को ‘आरक्षण समर्थक अभियान’ जैसा कुछ कहें.
पुनश्च : जातिवाद को मिटाने की राह में आरक्षण और दलित विमर्श रोड़ा बन कर अटक गए हैं. समाज में सकारात्मक रूप से खुली और उदार सोच के पनपने में दुर्भाग्य से वह बाधा बन गए हैं.
जरुरत है की हम उदार तरीके से इस पर सोचें और जातियों को लेकर कट्टरता का विरोध करें
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Ruchi said:
@ ved : आपकी समस्या क्या है ? ब्राह्मण जाति या जातिवाद ? हिन्दू धर्म को प्रतिबंधित करने का अनमोल विचार भी आपकी वैचारिक गम्भीता को प्रमाणित करता है.
जहाँ तक आपने या कहा कि सवर्णों को क्या चुभता है क्या नहीं तो जान लें कि दलित एक तो आरक्षण पाकर अयोग्य होते हुए भी नौकरी पाते हैं और फिर विनम्रता भूल कर सवर्णों को जलील करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते. ऐसी कुंठित मानसिकता के अलावा ऐसी सैकड़ो दलित जातियों के उदहारण हैं जिन्होंने सवर्ण उपनाम अपनाया है और अपनी जातिगत पहचान को लेकर भ्रम बनाये रखते हैं. वह असली पहचान सिर्फ आरक्षण पाने की कुंजी होती है.
दरअसल लोगों ने आरक्षण विरोध को दलित विरोध समझ लिया है. योग्यता और समानता की बात से अगर आप इतेफाक नहीं रखते तो ठीक है. जातियों का अस्तित्व बनाये रखें और आरक्षण के लिए योग्य बने रहें.
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jitendra yadav said:
आशीष जी दरअसल यह सवाल मात्र आपका ही नहीं है, इस देश दे सारे सवर्ण यही सवाल कर रहे हैं. उत्तर क्या दिया जाय . इसे दलित बैकवर्ड की तानाशाही समझ लीजिये. लोकतंत्र में जो वोट का सवाल महत्वपूर्ण है. आप लोगो के साथ अन्याय हो रहा है, सहानुभूति के सिवाय और क्या किया जा सकता है.
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RAJEEV said:
आरक्षण का आधार आर्थिक और जाति दोनों पर रखना गलत है .आर्थिक समृधि और सामाजिक हीनता का अवसरों की समानता से कोई लेना देना नहीं है.आरक्षण की मूल भावना वंचितों को सामान अवसर उपलब्ध करना था.मेरे विचार से आरक्षण का आधार क्षेत्र होना चाहिए .देश को विकसित ,अल्पविकसित तथा पिछड़ा तथा अतिपिछड़ा क्षेत्रों में बाँट कर आरक्षण देना उचित होगा .दिल्ली में रहने वालों की अपेक्षा ओडिसा के कालाहांडी में रहने वाला किसी जाती का इंसान अपने को हिन् महसूस करेगा.जब अकाल और बाढ़ आते है तो नहीं पहचानते की आप एक सौ बीघा जमीं के मालिक और ठाकुर है की भूमिहीन दलित.क्षेत्र के साथ आर्थिक और जाति इन तिन को आधार माना जाये तो शायद वर्तमान समस्याएं कम हो जाएँ
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mukesh manas said:
anshu pyare apne mass\oom savalon ke tarkik javab suno…………………..
1) bihar se jaane vala bihari hota hai lekin bihar,bangal ko chood kar aur kahin se aane vala pahale sc hota hai ya st ya obc.
2) AARTHIK SAMARIDDHI SE JAATIGAT UPEKSHA JAANE KII BAJAYE BADH JAATII HAI PYARE MARKSVAAD KI KAM SAMAJH RAKHANE VAALE DALIT MARKSVAADI.
3) BHEDBHV SIRF EK RAASHTRIYA NITI KE TAHAT HI SAMAPT HO SAKATA JO IS DESH KA SHASAK VARG KABHI NAHI CHAAHEGAA. TUMHAARE JAISAI KUCHH NA KUCHH BOLATE RAHENGE.
4) JARUR HAI. YAHI KI SAARE DALIT IS DESH MAI ATMHATYA KAR LEN.
5) KATAI NAHII MILANA CHAAHIYE. MAGAR UPPER CASTE KE LOGO KE ARAKASHAN KA ( SILENT ARAKSHAN KA ) KYA KAREN.
6)JARU KIYA JAANAA CHHAHIYE. MAGAR YE bpl KYA BLA HAI.
KAUN bpl HAI KAUN NAHI KAUN TAY KAREGA PYARA MASOOM BHAI?
7) JARUR HAI. MAGAR ARAKSHAN KE VIRODH ME AANE VALA VARG KITANA KAMA RAHA HAI ISAKA HISAB KAUN LAAYEGAA?
8)SAB BRAHAMANS KO AARAKSHAN DE DO VAHI BHOOKHE NANGE HAI. SAMASYA KHATAM. KYONKI IS DESH KA BHAMAAN KABHI SAMARIDDH HO NAHI SAKATA. SAALAA BAHUT HIPPOKRATE HAI.
9)SAHI HAI.KYONKI YAHAN BRAHAMAN KE GHAR PAIDA HONE SE KOI KOI KUTTA BHII MAHAN HO JAATA HAI( KUTTE MUJHE MAAF KAREN)
10)SAHI . TO EK INTELLEGENT DALIT KO DALIT HONE KI SAZA KYON MILE?
11) EKDAM SAHI. MAI SAHAMAT HUN….
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मुसाफिर बैठा said:
सनातनी मन सवर्णों के सवाल ऐसे ही मासूम होते हैं.वेदप्रकाश और मुकेश मानस से जो उत्तर बिंदु छूट गए हैं उन्हें मैं पूरा किए देता हूँ-
१.सबकी एक पहचान है,बिहारी, माना ठीक,पर बाहर भी क्या स्वर्ण वहाँ गए दलोतों-पिछड़े के प्रति अपना जातिवादी चुतिआपा भरा व्यवहार छोड़ता है?
२.बाबू जगजीवन राम ने जब बनारस में सम्पूर्णानन्द कि मूर्ति का अनावरण और माल्यार्पण किया तो उस मूर्ति का सवर्णों ने कथित शुद्धिकरण किया बाद में. स्थानांतरण के बाद कई महत्वपूर्ण पदों की कुर्सियों का(जिस पर दलित बैठते रहे थे) या तो मंत्रोच्चार आदि से पवित्र कर सवर्णों ने बैठना स्वीकार किया या कुर्सी ही बदल दी.
३.सवर्ण और अन्य जन भी अपना हिंदू अहंकार-संस्कार छोड़ दें. मसलन,अनिवार्य रूप से एक ही जाति में शादी न हो, अहंकार और अमुक शुद्ध जाति का होने का विकार तब स्वतः समाप्त समाप्त हो जायेगा.
४.सवाल तो यार खुद से पूछो. क्या यह आरक्षण नहीं है कि ब्राह्मण ही पूजा-पाठ करवाए? एक जाहिल और अशुद्ध संस्कृत जानने वाला भी अपनी जाति के बूते क्यों पंडित कहलाता है? मंदिरों में दलितों-पिछडों को उनकी जनसँख्या के अनुपात में हिस्सेदारी दो.
५. ज्यादा अच्छा हो कि सदियों से नानाविध सामाजिक आरक्षण भकोस रहे सवर्ण अपने से/अपनों से यह सवाल करे.
६.ऊपर ही इस सवाल का मनभरू जवाब दे दिया गया है.
७. जरूरी नहीं कि अच्छी आमदनी वाला हो पर हठी सवर्णों को पानी पिलाने वाले जरूर हैं वे लोग.
८. शक और यह सवाल क्यों है भाई,फरिया के तो बताइए साहब! और समाज को एकरस बनाने में अपनी जिम्मेदारी भी मत भूलिए.आपका यह सवाल आपके कारयित्री प्रतिभा का भी योग मांगता है.आप सवर्ण यदि दलितों के हक-हुकूक के लिए आगे आयेंगे तो ‘छुआ’नहीं जायेंगे, अतीत में तो अनेक सवर्ण वंचितों के हित में काम करते रहे हैं, बल्कि अभी भी. आप भी हमारे साथ हो लीजिए न, कहे दूर खड़े खड़े ज्ञान बघाड रहे हैं?
९.सबकी चिन्ता करिये भाईजान.केवल ब्राह्मणों की नहीं. बताइये न आप ही, अबके दलितों का क्या कुसूर. आपके बाप-दादा के नौकर-चाकर और जरखरीद गुलाम तो हमारे पूर्वज थे, पर अब तो नहीं हैं हम आपके अधीन पर क्यों अब भी अपनी हुकूमत हम पर चलाये जा रहे हैं, किस अधिकार से? क्यों हम एक समाजवादी-लोकतान्त्रिक देश में भी अपने मानवजन्य अधिकारों से वंचित रहें और आप हमारे हिस्से का भी भकोस जाये प्रतिभा के वाहयात नाम पर.
१०.सवाल को ब्राह्मणों से बाहर भी ले जाइये, सारभौमिक विस्तार दीजिए, जाके पांव न फटे बिवाई…. तक ले जाइये आपका दर्द अपना मात्र न रह जायेगा!बल्कि दूसरे मोर्चों पर अधिक दुखियारी जन के दर्शन होंगे!
११.इस सवाल और अपने आगे के शेष सवालों के लिए मेरे पिछले जवाबों में जाइये, प्रश्न शेष न रहेगा!
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rakesh said:
Musafirji ki baat se purn sahmati. Tamaam vargon aur jaatiyon ke log (‘upper castes’ khas kar) apne andar jhaanke aur inner self mein baithe jaativaad ko hilaane ki koshish karein. Saath men ek prastaav: National Reservation Policy nursery or play school se laagu kiya jaaye. Is pahal se aarthik baraabari ki raftar to tez hone mein madad milegi, ja aage chalkar samajik baraabri mein nirnayak sabit hoga.
चंद और सवाल:-
मुसाफिर बैठाजी क्या आपकी बातों से शब्दशः सहमत हो जाया जाए? मुझे लगता है, आपने यह सोचकर जवाब नहीं दिया होगा। वैसे भूमिका में आपने मेरे ‘सनातनी धर्म सवर्ण’ होने की लगभग घोषणा की है। मैं देर तक हंसता रहा इसे पढ़ने के बाद, अफसोस इतना भर रहा कि बिना मुझे जाने आप इतने बड़े निष्कर्ष पर सिर्फ चंद सवालों की वजह से पहुंच गए। जो आपके मन मुताबिक नहीं थे। अरे! साहब बाबा साहब ने भी आरक्षण से जो लोग बाहर हैं, उनसे इतनी दूरी नहीं बनाई। उन्हें अपने अखबार का संपादन करने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी दी। खैर, आपके जवाब के साथ अपने कुछ सवाल नत्थी कर रहा हूं, यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी है।01. आपके जवाब से यह पता चलता है कि जातिवाद को आप भी चुतियापा मानते हैं, साहब उसके बाद भी इसे ढोना चाहते हैं। क्यों इसका जवाब आप बेहतर तरिके से दे सकते हैं
02. बाबू जगजीवन राम की कहानी आपने सुनाई, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में जब मायावतिजी अपनी कुर्सी छोड़ेंगी तो क्या आपको संभव दिखता है कि पूरे प्रदेश में मायावतिजी के कार्यकाल में लगवाई गई मूर्तियों का शुद्धिकरण और उन सभी कुर्सियों का मत्रोच्चार से पवित्रीकरण की घटना दोहराई जाएगी?
03. धीरे धीरे यह अहंकार छूट रहा है। कुछ घटनाएं मेरी जानकारी में हैं।
04. मंदिरों में दलितों की भागीदारी की शुरुआत हो गई है। बनारस में ऐसे दर्जनों दलित पंडे आपको मिलेंगे और दलित पूजारियों की संख्या भी बढ़ रही है। नोएडा के एक दलित व्यावसायी ने बताया कि उनके अपार्टमेन्ट के मंदिर में जब वे जाते हैं, तो ब्राम्हण पंडित अपनी गद्दी उनके लिए छोड़कर नीचे बैठ जाता है। बैठाजी समय बदल रहा है, आप भी बदलिए!
05. बिल्कुल यह सवाल उन्हें अपने से करना चाहिए। जातिवादी लोगों के पक्ष में बात भी नहीं की जा सकती। बैठाजी कम से कम उनके लिए आपके मन में एक सॉफ्ट कॉर्नर होना ही चाहिए, जिनका जीवनचर्या बहूत मुश्किल से चल रही है। जिनके पूरे परिवार के महीने की आमदनी बेहद कम हो। वे गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हों। क्यों उनको यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए?
06. ‘मनभरु जवाब’ आपने दे दिया इसे कैसे समझा आपने?
07. इस बात से सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या ‘हठी’ से मुकाबला करते करते वे लोग खुद ‘हठी’ नहीं हो गए हैं। ब्राम्हणवादियों के मुकाबले मुसाफिर बैठा वादी!
08. ‘फरिया’ के बताने का क्या अर्थ है और आपके साथ खड़े होने का क्या अर्थ है? थोड़ा स्पष्ट कीजिए। वैसे आप जो लिख रहे हैं, उनसे कुछ असहतियों को छोड़कर मैं हमेशा सहमत हूं।
09. कौन कर रहा है आप पर हुकूमत। क्या लालूजी के पन्द्रह साल के राज के बाद भी क्या किसी सवर्ण की मजाल बची है कि वह किसी दलित पर अत्याचार करें? वैसे नीतिशजी भी सवर्ण नहीं है। उनके राज में नौकरियों से लेकर तमाम दूसरी सुविधाओं में दलित समाज के लोगों का पूरा ख्याल रखा गया है।
10. ब्राम्हण समाज तक इस बात को सीमित करने के लिए मुसाफिरजी क्षमा, आप इसे उन सभी वर्गो के लिए मानिए जिन्हें आरक्षण नहीं मिल रहा।
11. मैंने दूसरी और तीसरी बार भी जवाब पढ़ा लेकिन मेरे प्रश्न का जवाब स्पष्ट नहीं हुआ। कृप्या मुसाफिरजी विस्तार से लीखिए।
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इस सवाल पर मिले कुछ जवाब:-
manju said:
I am totally agree with your all questions.Reservation is creating frustration among general youth when their effort are wasted.It should be limited to only BPL family of any caste because even the BPL family of reserve caste are not able to utilise this facility as they are uncompetable to their own caste due to their low income.
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Anand said:
आज की सबसे बड़ी समस्या ये है राजनैतिक अवसरवादिता | जाति,धरम और क्षेत्र ऐसे मुद्दे है जिनके आधार पर लोगो को आराम से बल्गाराया जा सकता है और देश का एक बहुत बड़ा बुध्दिजीवी तबका ये ही काम कर रहा है | यदि हम बारीकी से देखे तो आरक्षण का लाभ एक बहुत बड़ा ऐसा तबका उठा रहा है जिसकी इसे कोई जरूरत ही नहीं है | दलित एवं पिछड़े वर्ग मे वो ही लोग इस बात का फायदा उठा पा रहे है जिनकी एक पीढ़ी इस का फायदा उठा चुकी है | आरक्षण का लाभ लेने वालो मे भी दो वर्ग बन गए है पहला जो बच्चे डीपीएस जैसी संस्थायो मे पढ़ते है और दुसरा जो आज भी गावो मे मजदूरी कर अपने बच्चो का पेट पाल रहे है और वंहा बच्चे की सबसे पहली जरूरत होती है परिवार का साथ देना जिसके लिए वो सिर्फ शब्द ज्ञान लेकर ही सिमित रह जाता है | मै पूछता हु यदि एक आदमी एक सरकारी जॉब करता है, एक छोटी से छोटी सरकारी नौकरी भी उस आदमी को उन 75 करोड़ लोगो से बेहतर जीवन एवं सामजिक अवसर देती है जिनकी प्रतिदिन की आय मात्र 20 रूपये है | आज हमें ये निर्धारित करना होगा की हमें समाज का उत्थान करना है या फिर अपना |
आज सामजिक न्याय के बारे मे सोचने की जरूरत है | और जो खामिया हमने अपनी पहली नीतियों मे देखी है उन्हें दूर करने की जरूरत है लेकिन इन सबसे पहले जरूरत है उस इच्छा शक्ति की जो ये फैसला ले सके | मौजूदा राजनीति तो सिर्फ इनका लाभ उठाने का काम कर रही है तो उनसे तो इस बात की उम्मीद करना ही गलत होगा |
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Mukesh Kumar said:
Dear Ashish,
You are thinking same as other people about reservation. when a person talk about reservation he/she centered only sc/st reservation. Is he /she do’nt know about obc reservation which is 27% (more than 12% compare to sc reservation). Nobody talk about this. one important thing is that 50% for general (it is not reservation but most probably 50% seats are filled by general category). But you have problem only with sc/st reservation. Do you know, in each village of the India only 15% sc/st are developed and 85% are very poor. Think this also….
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Satyendra said:
I am fully agree with these questions and not very socked if some comments come against this. this reservation on caste basis go towards polarization. After a time so-called general becomes minority and history repeat again and then politics are centered for general reservation. I think caste based reservation is full of stupidity. Because Jo garib tha wo aur Garib hua hai aur jo ameer tha wo aur ameer.
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Vibha Rani said:
ज्वलंत सवाल और सबका लब्बो लुआब यह कि जाति और आरक्षण के नाम पर सुविधाभोगी वर्ग ही इनका लाभ उठा रहे हैं. जानकीवल्लभ शास्त्री ने कहा था- ऊपर ऊपर ही पीते हैं जो पीनेवाले होते हैं, कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीनेवाले होते हैं. आरक्षण का लाभ उनको तो बिलकुल ही नहीं दिया जाना चाहिये जो इसका लाभ उठाकर आर्थिक सम्पन्नता तक पहुंच चुके हैं. उन्हें स्वयं इस लोभ से बाहर आना चाहिये. आरक्षण का आधार जातिगत कम और धनगत अधिक होना चाहिये. और सबसे बडी बात, अब आज के समय में यह मांग उठाई जानी चाहिये कि जाति- धर्म से ऊपर उठकर मानव जाति और धर्म के लिए काम करें. हालांकि यह अरण्य रोदन है, फिर भी…बात कुछ तक भी पहुंची तो बात बनेगी ही.
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वेद प्रकाश said:
आपने जो सवाल उठाए हैं, उनके जवाब काफी हद तक मंडल आयोग की रिपोर्ट में दिए गए हैं.
निश्चय ही जातिभेद को दूर करने का एकमात्र रास्ता आरक्षण नहीं है. इसके कई और भी रास्ते हैं जैसे–
1. सारी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण हो, यानी साम्यवाद हो और प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार उठाए.
2. सभी लोग जातिभेद पैदा करने वाले हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लें या नास्तिक हो जाएँ.
3. अपनी जाति में शादी करने वालों को सरकारी नौकरी और बैंक के कर्ज आदि सुविधाओं से वंचित किया जाए.
4. बाबा रामदेव, संत आशाराम जैसे बाबाओं पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाए क्योंकि ये लोग सरेआम ब्राह्मणों का गुणगान कर जातिभेद फैलाते हैं.
5. मध्यम वर्ग सभी मुसलमानों को देशद्रोही और सभी स्त्रियों और दलितों को अयोग्य मानता है. ऐसा मानने वालों को कड़ी सजा दी जाए.
6. किसी भी समुदाय या धर्म की बात करने वाले धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संगठन पर तुरंत प्रतिबंध लगाया जाए.
7. हिंदू धर्म का प्रचार करना प्रतिबंधित किया जाए.
अगर मेरे सुझाव बहुत कड़े लगें तो फिर आरक्षण का ही समर्थन किया जाए.
आरक्षण से निश्चित ही बहुत ही कम लोगों को नौकरी आदि मिलती है, बमुश्किल आधा प्रतिशत. लेकिन शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने इस देश के बहुसंख्यक समुदाय में गतिशीलता पैदा की है, तथा उनमें यह भाव पैदा किया है कि वे कोई कीडे़-मकोड़े नहीं, जैसा कि हिंदू धर्म मानता है,बल्कि मनुष्य हैं और इस देश के नागरिक हैं.
दरअसल आरक्षण विरोधियों को दलितों द्वारा चंद नौकरियाँ हासिल कर लेना बुरा नहीं लगता, उन्हें चुभता है किसी दलित कलक्टर या एसीपी के सामने अपने स्वार्थों के लिए गिड़गिडा़ना. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने जातिबंधुओं के सामने यह करने में उन्हें शर्म नहीं आती, बल्कि गर्व महसूस होता है.
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shubhranshu said:
there is only one solution n dat is- giv reservation on economic basis nt on caste basis.
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Ruchi said:
आशीष
आपने बहुत व्यवहारिक सवाल उठाये हैं. आरक्षण कि सुविधा पाने वाला वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि जातीय पहचान ख़त्म हो य यह व्यवस्था ख़त्म हो. उनके लिए जाति का होना सामाजिक नहीं आर्थिक कारणों से जरुरी है. जातीय अस्मिता का लगातार कट्टर हो जाना इसी का सबूत है.
आरक्षण पाने के लिए जो वर्ग रो रोकर खुद को पिछड़ा बताता है वही वर्ग सामाजिक रूप से उस जाति से अपनी अस्मिता नहीं जोड़ना चाहता. यह पहचान सिर्फ पढाई और नौकरी के लिए जाति प्रमाण पत्र और दस्तावेजों तक सीमित रहती है.
दलित विमर्श के पैरोकार जिस तरह से कट्टरपंथियों की तरह आरक्षण को लेकर आक्रामक रुख अपनाये रहते हैं उनकी नज़र में क्या योग्यता का कोई मूल्य नहीं ??
दलित विमर्श दरअसल चाहता ही नहीं कि जाति व्यवस्था ख़त्म हो और समाज से ये बंधन हटें. उनके विमर्श का असल मुद्दा है की आरक्षण की सुविधा कभी ख़त्म ना हो बस समाज में उन्हें उनकी जाति के साथ जोड़कर न देखा जाये. यह कितना बड़ा अंतर्विरोध है की जिस जाति के पिछड़ेपन पर वे आरक्षण का लाभ उठाते हैं उसी जाति से खुद को अलग भी रखना चाहते हैं.
कुछ सवर्ण जातियों को जातिवादी साबित करने वाले दलित विमर्शकार भूल जाते हैं की सबसे बड़े जातिवादी वही हैं. उनके भीतर जाति व्यवस्था को लेकर आक्रोश नहीं सवर्णों को लेकर आक्रोश है. उनके आक्रामक रवैये को देख कर लगता है उन्हें विमर्श करने की बजाय गुरिल्ला सेना बनानी चाहिए जो अल्पसंख्यक सवर्णों को ख़त्म कर दे. शायद वही अच्छा भी हो. जब कोई अगड़ा रहेगा नहीं तो कोई पिछड़ा भी नहीं रहेगा.
सच तो ये है कि अभी के दलित विमर्श के पास न तो कोई वैचारिक आधार है न परिवर्तन की इच्छा. वह एक राजनीतिक औजार से ज्यादा कुछ नहीं है. बेहतर हो अगर वे ‘विमर्श’ शब्द का और दुरूपयोग न करते हुए अपनी इस राजनीति को ‘आरक्षण समर्थक अभियान’ जैसा कुछ कहें.
पुनश्च : जातिवाद को मिटाने की राह में आरक्षण और दलित विमर्श रोड़ा बन कर अटक गए हैं. समाज में सकारात्मक रूप से खुली और उदार सोच के पनपने में दुर्भाग्य से वह बाधा बन गए हैं.
जरुरत है की हम उदार तरीके से इस पर सोचें और जातियों को लेकर कट्टरता का विरोध करें
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Ruchi said:
@ ved : आपकी समस्या क्या है ? ब्राह्मण जाति या जातिवाद ? हिन्दू धर्म को प्रतिबंधित करने का अनमोल विचार भी आपकी वैचारिक गम्भीता को प्रमाणित करता है.
जहाँ तक आपने या कहा कि सवर्णों को क्या चुभता है क्या नहीं तो जान लें कि दलित एक तो आरक्षण पाकर अयोग्य होते हुए भी नौकरी पाते हैं और फिर विनम्रता भूल कर सवर्णों को जलील करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते. ऐसी कुंठित मानसिकता के अलावा ऐसी सैकड़ो दलित जातियों के उदहारण हैं जिन्होंने सवर्ण उपनाम अपनाया है और अपनी जातिगत पहचान को लेकर भ्रम बनाये रखते हैं. वह असली पहचान सिर्फ आरक्षण पाने की कुंजी होती है.
दरअसल लोगों ने आरक्षण विरोध को दलित विरोध समझ लिया है. योग्यता और समानता की बात से अगर आप इतेफाक नहीं रखते तो ठीक है. जातियों का अस्तित्व बनाये रखें और आरक्षण के लिए योग्य बने रहें.
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jitendra yadav said:
आशीष जी दरअसल यह सवाल मात्र आपका ही नहीं है, इस देश दे सारे सवर्ण यही सवाल कर रहे हैं. उत्तर क्या दिया जाय . इसे दलित बैकवर्ड की तानाशाही समझ लीजिये. लोकतंत्र में जो वोट का सवाल महत्वपूर्ण है. आप लोगो के साथ अन्याय हो रहा है, सहानुभूति के सिवाय और क्या किया जा सकता है.
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RAJEEV said:
आरक्षण का आधार आर्थिक और जाति दोनों पर रखना गलत है .आर्थिक समृधि और सामाजिक हीनता का अवसरों की समानता से कोई लेना देना नहीं है.आरक्षण की मूल भावना वंचितों को सामान अवसर उपलब्ध करना था.मेरे विचार से आरक्षण का आधार क्षेत्र होना चाहिए .देश को विकसित ,अल्पविकसित तथा पिछड़ा तथा अतिपिछड़ा क्षेत्रों में बाँट कर आरक्षण देना उचित होगा .दिल्ली में रहने वालों की अपेक्षा ओडिसा के कालाहांडी में रहने वाला किसी जाती का इंसान अपने को हिन् महसूस करेगा.जब अकाल और बाढ़ आते है तो नहीं पहचानते की आप एक सौ बीघा जमीं के मालिक और ठाकुर है की भूमिहीन दलित.क्षेत्र के साथ आर्थिक और जाति इन तिन को आधार माना जाये तो शायद वर्तमान समस्याएं कम हो जाएँ
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mukesh manas said:
anshu pyare apne mass\oom savalon ke tarkik javab suno…………………..
1) bihar se jaane vala bihari hota hai lekin bihar,bangal ko chood kar aur kahin se aane vala pahale sc hota hai ya st ya obc.
2) AARTHIK SAMARIDDHI SE JAATIGAT UPEKSHA JAANE KII BAJAYE BADH JAATII HAI PYARE MARKSVAAD KI KAM SAMAJH RAKHANE VAALE DALIT MARKSVAADI.
3) BHEDBHV SIRF EK RAASHTRIYA NITI KE TAHAT HI SAMAPT HO SAKATA JO IS DESH KA SHASAK VARG KABHI NAHI CHAAHEGAA. TUMHAARE JAISAI KUCHH NA KUCHH BOLATE RAHENGE.
4) JARUR HAI. YAHI KI SAARE DALIT IS DESH MAI ATMHATYA KAR LEN.
5) KATAI NAHII MILANA CHAAHIYE. MAGAR UPPER CASTE KE LOGO KE ARAKASHAN KA ( SILENT ARAKSHAN KA ) KYA KAREN.
6)JARU KIYA JAANAA CHHAHIYE. MAGAR YE bpl KYA BLA HAI.
KAUN bpl HAI KAUN NAHI KAUN TAY KAREGA PYARA MASOOM BHAI?
7) JARUR HAI. MAGAR ARAKSHAN KE VIRODH ME AANE VALA VARG KITANA KAMA RAHA HAI ISAKA HISAB KAUN LAAYEGAA?
8)SAB BRAHAMANS KO AARAKSHAN DE DO VAHI BHOOKHE NANGE HAI. SAMASYA KHATAM. KYONKI IS DESH KA BHAMAAN KABHI SAMARIDDH HO NAHI SAKATA. SAALAA BAHUT HIPPOKRATE HAI.
9)SAHI HAI.KYONKI YAHAN BRAHAMAN KE GHAR PAIDA HONE SE KOI KOI KUTTA BHII MAHAN HO JAATA HAI( KUTTE MUJHE MAAF KAREN)
10)SAHI . TO EK INTELLEGENT DALIT KO DALIT HONE KI SAZA KYON MILE?
11) EKDAM SAHI. MAI SAHAMAT HUN….
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मुसाफिर बैठा said:
सनातनी मन सवर्णों के सवाल ऐसे ही मासूम होते हैं.वेदप्रकाश और मुकेश मानस से जो उत्तर बिंदु छूट गए हैं उन्हें मैं पूरा किए देता हूँ-
१.सबकी एक पहचान है,बिहारी, माना ठीक,पर बाहर भी क्या स्वर्ण वहाँ गए दलोतों-पिछड़े के प्रति अपना जातिवादी चुतिआपा भरा व्यवहार छोड़ता है?
२.बाबू जगजीवन राम ने जब बनारस में सम्पूर्णानन्द कि मूर्ति का अनावरण और माल्यार्पण किया तो उस मूर्ति का सवर्णों ने कथित शुद्धिकरण किया बाद में. स्थानांतरण के बाद कई महत्वपूर्ण पदों की कुर्सियों का(जिस पर दलित बैठते रहे थे) या तो मंत्रोच्चार आदि से पवित्र कर सवर्णों ने बैठना स्वीकार किया या कुर्सी ही बदल दी.
३.सवर्ण और अन्य जन भी अपना हिंदू अहंकार-संस्कार छोड़ दें. मसलन,अनिवार्य रूप से एक ही जाति में शादी न हो, अहंकार और अमुक शुद्ध जाति का होने का विकार तब स्वतः समाप्त समाप्त हो जायेगा.
४.सवाल तो यार खुद से पूछो. क्या यह आरक्षण नहीं है कि ब्राह्मण ही पूजा-पाठ करवाए? एक जाहिल और अशुद्ध संस्कृत जानने वाला भी अपनी जाति के बूते क्यों पंडित कहलाता है? मंदिरों में दलितों-पिछडों को उनकी जनसँख्या के अनुपात में हिस्सेदारी दो.
५. ज्यादा अच्छा हो कि सदियों से नानाविध सामाजिक आरक्षण भकोस रहे सवर्ण अपने से/अपनों से यह सवाल करे.
६.ऊपर ही इस सवाल का मनभरू जवाब दे दिया गया है.
७. जरूरी नहीं कि अच्छी आमदनी वाला हो पर हठी सवर्णों को पानी पिलाने वाले जरूर हैं वे लोग.
८. शक और यह सवाल क्यों है भाई,फरिया के तो बताइए साहब! और समाज को एकरस बनाने में अपनी जिम्मेदारी भी मत भूलिए.आपका यह सवाल आपके कारयित्री प्रतिभा का भी योग मांगता है.आप सवर्ण यदि दलितों के हक-हुकूक के लिए आगे आयेंगे तो ‘छुआ’नहीं जायेंगे, अतीत में तो अनेक सवर्ण वंचितों के हित में काम करते रहे हैं, बल्कि अभी भी. आप भी हमारे साथ हो लीजिए न, कहे दूर खड़े खड़े ज्ञान बघाड रहे हैं?
९.सबकी चिन्ता करिये भाईजान.केवल ब्राह्मणों की नहीं. बताइये न आप ही, अबके दलितों का क्या कुसूर. आपके बाप-दादा के नौकर-चाकर और जरखरीद गुलाम तो हमारे पूर्वज थे, पर अब तो नहीं हैं हम आपके अधीन पर क्यों अब भी अपनी हुकूमत हम पर चलाये जा रहे हैं, किस अधिकार से? क्यों हम एक समाजवादी-लोकतान्त्रिक देश में भी अपने मानवजन्य अधिकारों से वंचित रहें और आप हमारे हिस्से का भी भकोस जाये प्रतिभा के वाहयात नाम पर.
१०.सवाल को ब्राह्मणों से बाहर भी ले जाइये, सारभौमिक विस्तार दीजिए, जाके पांव न फटे बिवाई…. तक ले जाइये आपका दर्द अपना मात्र न रह जायेगा!बल्कि दूसरे मोर्चों पर अधिक दुखियारी जन के दर्शन होंगे!
११.इस सवाल और अपने आगे के शेष सवालों के लिए मेरे पिछले जवाबों में जाइये, प्रश्न शेष न रहेगा!
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rakesh said:
Musafirji ki baat se purn sahmati. Tamaam vargon aur jaatiyon ke log (‘upper castes’ khas kar) apne andar jhaanke aur inner self mein baithe jaativaad ko hilaane ki koshish karein. Saath men ek prastaav: National Reservation Policy nursery or play school se laagu kiya jaaye. Is pahal se aarthik baraabari ki raftar to tez hone mein madad milegi, ja aage chalkar samajik baraabri mein nirnayak sabit hoga.
चंद और सवाल:-
मुसाफिर बैठाजी क्या आपकी बातों से शब्दशः सहमत हो जाया जाए? मुझे लगता है, आपने यह सोचकर जवाब नहीं दिया होगा। वैसे भूमिका में आपने मेरे ‘सनातनी धर्म सवर्ण’ होने की लगभग घोषणा की है। मैं देर तक हंसता रहा इसे पढ़ने के बाद, अफसोस इतना भर रहा कि बिना मुझे जाने आप इतने बड़े निष्कर्ष पर सिर्फ चंद सवालों की वजह से पहुंच गए। जो आपके मन मुताबिक नहीं थे। अरे! साहब बाबा साहब ने भी आरक्षण से जो लोग बाहर हैं, उनसे इतनी दूरी नहीं बनाई। उन्हें अपने अखबार का संपादन करने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी दी। खैर, आपके जवाब के साथ अपने कुछ सवाल नत्थी कर रहा हूं, यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी है।01. आपके जवाब से यह पता चलता है कि जातिवाद को आप भी चुतियापा मानते हैं, साहब उसके बाद भी इसे ढोना चाहते हैं। क्यों इसका जवाब आप बेहतर तरिके से दे सकते हैं
02. बाबू जगजीवन राम की कहानी आपने सुनाई, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में जब मायावतिजी अपनी कुर्सी छोड़ेंगी तो क्या आपको संभव दिखता है कि पूरे प्रदेश में मायावतिजी के कार्यकाल में लगवाई गई मूर्तियों का शुद्धिकरण और उन सभी कुर्सियों का मत्रोच्चार से पवित्रीकरण की घटना दोहराई जाएगी?
03. धीरे धीरे यह अहंकार छूट रहा है। कुछ घटनाएं मेरी जानकारी में हैं।
04. मंदिरों में दलितों की भागीदारी की शुरुआत हो गई है। बनारस में ऐसे दर्जनों दलित पंडे आपको मिलेंगे और दलित पूजारियों की संख्या भी बढ़ रही है। नोएडा के एक दलित व्यावसायी ने बताया कि उनके अपार्टमेन्ट के मंदिर में जब वे जाते हैं, तो ब्राम्हण पंडित अपनी गद्दी उनके लिए छोड़कर नीचे बैठ जाता है। बैठाजी समय बदल रहा है, आप भी बदलिए!
05. बिल्कुल यह सवाल उन्हें अपने से करना चाहिए। जातिवादी लोगों के पक्ष में बात भी नहीं की जा सकती। बैठाजी कम से कम उनके लिए आपके मन में एक सॉफ्ट कॉर्नर होना ही चाहिए, जिनका जीवनचर्या बहूत मुश्किल से चल रही है। जिनके पूरे परिवार के महीने की आमदनी बेहद कम हो। वे गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हों। क्यों उनको यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए?
06. ‘मनभरु जवाब’ आपने दे दिया इसे कैसे समझा आपने?
07. इस बात से सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या ‘हठी’ से मुकाबला करते करते वे लोग खुद ‘हठी’ नहीं हो गए हैं। ब्राम्हणवादियों के मुकाबले मुसाफिर बैठा वादी!
08. ‘फरिया’ के बताने का क्या अर्थ है और आपके साथ खड़े होने का क्या अर्थ है? थोड़ा स्पष्ट कीजिए। वैसे आप जो लिख रहे हैं, उनसे कुछ असहतियों को छोड़कर मैं हमेशा सहमत हूं।
09. कौन कर रहा है आप पर हुकूमत। क्या लालूजी के पन्द्रह साल के राज के बाद भी क्या किसी सवर्ण की मजाल बची है कि वह किसी दलित पर अत्याचार करें? वैसे नीतिशजी भी सवर्ण नहीं है। उनके राज में नौकरियों से लेकर तमाम दूसरी सुविधाओं में दलित समाज के लोगों का पूरा ख्याल रखा गया है।
10. ब्राम्हण समाज तक इस बात को सीमित करने के लिए मुसाफिरजी क्षमा, आप इसे उन सभी वर्गो के लिए मानिए जिन्हें आरक्षण नहीं मिल रहा।
11. मैंने दूसरी और तीसरी बार भी जवाब पढ़ा लेकिन मेरे प्रश्न का जवाब स्पष्ट नहीं हुआ। कृप्या मुसाफिरजी विस्तार से लीखिए।
शुक्रवार, 29 जुलाई 2011
जल, जंगल, खनिज और आजीविका के सवाल पर 3-5 अगस्त 2011 जन्तर मन्तर पर सत्याग्रह
ब्रिटिश काल से ही सरकार द्वारा ज़बरन किन्ही भी ज़मीनों पर कब्ज़ा लेना और विस्थापन देश के करोड़ो लोगों के लिए एक अभिशाप बना हुआ है। देश की आज़ादी के बाद भी यह सिलसिला बादस्तूर ज़ारी है। क्योंकि ब्रिटिश हुकू़मत का बनाया गया भूमि अधिग्रहण कानून-1894 आज भी देश में लागू है। आज इस काले कानून का इस्तेमाल करके बड़ी-बड़ी कम्पनियों, राष्ट्रीय और राज्य सरकारों के तालमेल ने पूरे देश को एक गृहयुद्ध की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। जगह-जगह पर इस मुददे पर सरकार और आम जनता की सीधी टक्कर चल रही है। यह बड़े शर्म की बात है कि जनवादी तरीके से चुनी हुई हमारी सरकारें भी जानबूझ कर बेखबर हो रही हैं कि इस काले कानून का भयंकर असर हमारी आम जनता के जीवन को किस दुर्दशा में ले गया है। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चल रहे आन्दोलन बहुत समय से यह मांग कर रहे हैं, कि प्राकृतिक संपदा के ऊपर निर्भरशील समुदायों का सामुदायिक नियंत्रण और आजीविका के अधिकार सुनिश्चित हों। कुछ हद तक तो पेसा कानून-1996 और वनाधिकार कानून-2006 जैसे प्रगतिशील विधेयकों द्वारा यह अधिकार हासिल हुए हैं, लेकिन ये कानून भी कभी प्रभावी ढ़ंग से लागू नहीं किये गये। केवल इन कानूनों को इनके ज़रिये पटटे बांटने की बात तक ही सीमित किया जा रहा है। इसलिए आज इन कानूनों का आस्तित्व भी ख़तरे में है। शासन और संसद गूंगे बहरों की तरह करोड़ों लोगों की बर्बादी का तमाशा आराम से चुपचाप देख रहे हैं।
संघर्ष ने जो कि तमाम आंदोलनों का समूह है, इस काले कानून को खारिज करके एक जनोन्मुखी समग्र कानून बनाने की मांग को लेकर संसद के सामने जन्तर मन्तर पर करने के लिये एक राष्ट्रीय एक्शन कार्यक्रम बनाया है। इस कार्यक्रम में इन मुद्दों के साथ जनता के अन्य प्रमुख मुददे भी शामिल होंगे। इस धरने में देश के अलग-अलग कोने से संघर्षशील आदिवासी, दलित व अन्य वंचित तबके जैसेः खेतीहर मज़दूर और ग़रीब किसान, वन-जन और अन्य वनाश्रित समुदाय, मछुआरे तथा अन्य ग्रामीण श्रमजीवी समुदाय शामिल होंगे। असम, उड़ीसा, बंगाल, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडू, केरल, कर्नाटक, मध्यप्रेदश, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड़, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, गोआ तथा अन्य प्रदेशों से हज़ारों की संख्या में लोग इस ऐतिहासिक धरने में पूरे जोश-ओ-ख़रोश के साथ शामिल होने के लिए आ रहे हैं। इसके साथ-साथ मुम्बई व दिल्ली के बड़े शहरों का मज़दूर वर्ग जो कि शहरी विकास के नाम पर विस्थापन का सामना कर रहा है, वे भी इस धरने में शामिल हो रहे हैं। शहरीकरण के नाम पर जिन किसानों की जमीनें छीनी जा रही हैं, वे भी इस धरने में शामिल होंगे। देश की 80 फ़ीसदी आबादी तमाम गरीब मज़दूर वर्गों के प्रतिनिधी अपने-अपने जनसंगठनों के बैनर के साथ संघर्ष के बैनर तले इस ऐतिहासिक मंच में शामिल होंगे।
हम सभी लोग संसद के मानसून सत्र के दौरान आयोजित किये जा रहे इस धरने में 3-5 अगस्त 2011 को जन्तर मन्तर पर एकत्रित होंगे। इस मांग के साथ कि विदेशी शासन काल में बने भूमि अधिग्रहण कानून को पूरी तरह से खारिज किया जाए और एक ऐसा समग्र कानून बनाया जाए, जिसमें भूमि की कृषि उत्पादन जैसी प्राथमिक जरूरत को ध्यान में रखा जाए। इसमें सही सार्वजनिक ज़रूरत और भूमि सुधार के लिए भूमि की मिल्कियत की वैकल्पिक व्यवस्था को भी देखा जाना ज़रूरी है। एक ऐसा कानून जिसमें समुदाय और ग्राम समाज की व्यापक सहमति हो। इस राष्ट्रीय एक्शन कार्यक्रम की रणनीति विभिन्न स्तरों पर और आंदोलनों के बीच व्यापक चर्चाओं के बाद तय की गई है। इस प्रक्रिया में आखि़री कार्यक्रम राष्ट्रीय परिसंवाद 6 मई 2011 को दिल्ली में आयोजित किया गया था।
साथियो, संघर्ष की प्रक्रिया सन् 2006-2007 में शुरू की गई थी। बहुत सारे जनआंदोलनकारी संगठन जो कि भूमि अधिकार और भूमि अधिग्रहण के खि़लाफ आंदोलनरत थे, उनके द्वारा यह शुरुआत की गयी थी। संघर्ष 2007 में एक अधिकार पत्र के आधार पर हम सब इकट्ठा हुए थे। यह शायद देश का पहला ऐसा सामूहिक कार्यक्रम था, जिसमें सैकड़ो आंदोलनकारी संगठनों ने इकट्ठा होकर संसद के सामने अपने समग्र राजनैतिक परिप्रेक्ष्य को लेागों के बीच रखा था। तब से लेकर संघर्ष समूह लगातार यह मांग कर रहा है किः-
1. आज़ादी के बाद जितनी भी जमीनों का अधिग्रहण हुआ है और उनसे विस्थापित लोगों की मौजूदा स्थिति पर सरकार द्वारा एक श्वेत पत्र ज़ारी किया जाए।
2. जब तक संसदीय समिति द्वारा इसकी समीक्षा न हो तब तक समस्त भूमि अधिग्रहण को स्थगित कर दिया जाए।
3. भूमि अधिकार व प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के लिए एक समग्र कानून बनाया जाए।
पिछले एक दशक में देश के विभिन्न क्षेत्रों में जनांदोलन सफलतापूवर्क ज़मीन की लूट के खिलाफ अपने प्रतिरोध आंदोलन चला रहे हैं। कलिंगनगर, नियमागिरी, सिंगुर, नंदीग्राम, समपेटा, जशपुर, लातेहार, चंद्रपुर, हरिपुर, रायगढ़, कारला, कुल्लु वैली, नर्मदा घाटी, जगतसिंहपुर, मुम्बई शहर और ऐसी सैंकड़ों प्रमुख जगहों में आंदोलन चले व कामयाब हुए। भू-स्वामी, खेतीहर और ग़रीब किसान, खे़तमज़दूर तथा अन्य श्रमजीवी तबका भी साथ मिल कर अपनी ज़मीन और अधिकार की सुरक्षा के लिए संघर्षरत है। इसी के साथ-साथ सदियों से जंगल में रहने वाले समुदायों ने अपने खोए हुए ज़मीन और जंगल के अधिकारों के दावे को पुनस्र्थापित करने के संघर्ष को तेज किया है। जैसे कैमूर (उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड), तराई क्षेत्र (उत्तर प्रदेश) चेंगेरा, मातुंगा (केरल), रीवा (मध्यप्रदेश), काकी (असम), उमरपाड़ा-सूरत, सोनगढ़-तापी, डांग (गुजरात), खम्माम (आंध्रप्रदेश) व निंदूरबड़, चोपड़ा (महाराष्ट्र) में अपनी खोई हुई ज़मीनों पर पुनर्दख़ल क़़ायम किया है। इन किसान, आदिवासी, दलित और श्रमजीवी वर्गों ने प्राकृतिक संपदा के ऊपर अपने जन्मसिद्ध अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए अपनी जान तक कुर्बान करते हुए राज्य और अभिजात वर्गों को गंभीर चुनौती दी। जो कि इन तमाम प्राकृतिक संपदाओं पर अपना एकाधिकार जमाए हुए हैं। हाल ही में ग्रेटर नोएडा की घटनाओं के आधार पर एक ऐसा माहौल बनाया गया है, जिसमें लगभग सभी राजनैतिक दल पुराने भूमि अधिग्रहण कानून के संशोधन के लिए एक रास्ता बना रहे हैं। जो कि यूपीए सरकार इस मानसून सत्र में लाना चाहती है। लेकिन यूपीए सरकार के नेतृत्वकारीगण चाहे वो मनमोहन सिहं हों या राहुल गांधी इस बात को स्पष्ट नहीं कर रहंें हैं, कि इन ऊपरी तौर पर किए गये संशोधनों से इस जनविरोधी औपनिवेशिक कानून का ढंाचा और रुख कैसे बदलेगा। वे राजनैतिक पार्टियों की इस विषय पर स्पष्ट धारणा न होने का फायदा उठा रहे हैं और जनांदोलनों द्वारा उठायी गई मांगों की अनदेखी कर रहे हैं। वे विश्वबैंक, डीएफआईडी, यूएस ऐड जैसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा प्रायोजित उस भूमिनीति के दस्तावेज़ का भी समर्थन कर रहे हैं, जिसे तथाकथित नागरिक समाज का एक हिस्सा भी समर्थन दे रहा है। हालांकि वे भी इस काले भूमि अधिग्रहण कानून को खारिज करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन साथ-साथ भूमि के बाजारीकरण को मदद करने वाली नीति की भी बात कर रहे हैं। यही वजह है कि यह धरना एक ऐसे महत्वपूर्ण समय में आयोजित किया जा रहा है, जब सरकार के लिए ज़रूरी हो गया है कि वो आंदोलनों की आवाज़ की तरफ ध्यान दे। अभी हाल ही में नए ग्रामीण विकास मंत्री श्री जयराम रमेश द्वारा एक समग्र कानून बनाने की घोषणा की गई है, जो एक स्वागत योग्य कदम है। लेकिन यह पहला कदम है, अभी आगे और भी कई जटिल समस्याओं को सुलझाना बाकी है।
भूमि अधिग्रहण कानून को खारिज करने और उसके खिलाफ एक समग्र कानून बनाने की मांग को मुख्य रूप से रखते हुए यह धरना कुछ अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को भी उठायेगा। जैसे बड़े बांध (नर्मदा घाटी, उत्तरपूर्वी भारत, हिमाचल प्रदेश और मध्य भारत ), कोयला व परमाणु आधारित उर्जा परियोजना, शहरी विस्थापन, वनाधिकार व सामुदायिक स्वशासन, बड़ी कम्पनियों (पास्को, वेदांत, जेपी, अडानी, टाटा, कोकाकोला, मित्तल, रिलाईन्स, आरपीजी, जिंदल, एस कुमार आदि) के खिलाफ संघर्ष, ग्रामीण एवं शहरी समुदायों की आजीविका के अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए कानूनी सरकारी हक़दारी और सभी के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली, बीपीएल सदस्यों के लिए संपूर्ण अधिकार व इसके बदले में नकदी भुगतान के खिलाफ विरोध शामिल है।
इस सफर में संघर्ष समूह को शुरू करने वाले संगठनों के अलावा पिछले वर्ष कृषक मुक्ति संग्राम समिति-असम व कुछ नए संगठनों ने इस सामूहिक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण योगदान किया। इस साल 15 राज्यों से भी अधिक राज्यों से प्रतिनिधी आ रहे हैं और इसके साथ-साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन-खंड़वा, लोक संघर्ष मंच-गुजरात व महाराष्ट्र, जनसंघर्ष समन्वय समिति, किसान संघर्ष समिति-उत्तरप्रदेश, पास्को प्रतिरोध समिति, समाजवादी जनपरिषद्, एकता परिषद्, जनकल्याण उपभोक्ता समिति, स्लम जन आंदोलन,कर्नाटक और दिल्ली व आसपास के क्षेत्र के कुछ भू-स्वामियों के संगठन संघर्ष की मांगों से सहमत होते हुए इस धरने में शामिल होंगे। संघर्ष 2011 के लिए यह सभी संगठन समुदायों को इकट्ठा करेंगे। हम तहेदिल से इन सभी संगठनों का स्वागत करते हैं और उम्मीद करते हैं कि इनकी भागीदारी से यह प्रक्रिया और भी मजबूत होगी और सही मायने में एक राष्ट्रीय आंदोलन को खड़ा करने में सहायक होगी।
हम आप सभी को दिल्ली में जन्तर मन्तर पर 3-5 अगस्त 2011 को आयोजित किये जा रहे इस धरने में सादर आमं़ित्रत करते हैं। आईये हम सब मिल कर इस ज़बरन किये जा रहे भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष करंे और एक नए समग्र कानून के लिए मांग करंे। ताकि यह विस्थापन हमेशा के लिए खत्म हो। आप से अनुरोध है, कि इसमें शामिल होने के लिये आप अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें व समय से हमें इसकी सूचना देने का कष्ट करें। साथ ही हर तरीके से इस प्रयास को सफल करने के लिये अपना अमूल्य योगदान दें। इस कार्यक्रम को पूरा करने के लिए आर्थिक सहयोग, अन्य संसाधनों व वालंटियरस् की भी ज़रूरत है, इसलिए आप सबसे अनुरोध है कि इस कार्यक्रम को सफल करने के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दंे। अभियान से सम्बंधित सभी दस्तावेज़ इस वेबसाइट दंचउ.पदकपंण्वतह पर उपलब्ध हैं -
हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे
इक बाग़ नहीं इक ख़ेत नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे
-फै़ज
एकजुटता के साथ
अखिल गोगोई - के0एम0एस0एस, असम।
अरूंधती धुरू, संदीप पांडे, जेपी सिंह, मनीष गुप्ता - एन0ए0पी0एम, उत्तरप्रदेश।
अशोक चैधरी, रोमा, मुन्नीलाल - राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच।
भूपिंदर सिंह रावत, नानू प्रसाद - जनसंघर्ष वाहिनी, एन0ए0पी0एम दिल्ली।
बिलास भोनगाडे - घोसी खुर्द प्रकल्प ग्रस्त संघर्ष समिति एवं एन0ए0पी0एम महाराष्ट्र।
चितरंजन सिंह - इंसाफ।
दयामणि बरला - आदिवासी मूलनिवासी आस्तित्व रक्षा मंच, झाड़खंड़।
डा0 सुनीलम, अराधना भागर्व अधि0 - किसान संघर्ष समिति, म0प्र0।
गैबरील डायट्रिच, गीता रामकृष्णन-पेन्नयूरूयईमई आययक्कम, एन0ए0पी0एम तमिलनाडु।
गौतम बंद्धोपाध्याय - नदी घाटी मोर्चा, छत्तीसगढ़।
गुमान सिंह, के उपमन्यु - हिम नीति अभियान, हिमाचल प्रदेश।
रजनीश, रामचंद्र राणा - थारू आदिवासी महिला-मजदूर-किसान मंच एवं राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच, लखीमपुर खीरी, उत्तरप्रदेश।
मंजू गार्डिया - नवा छत्तीसगढ़ महिला संगठन एवं पी0एस0ए छत्तीसगढ़।
मातादयाल, रानी - बिरसा मुंडा भू-अधिकार मंच एवं राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच, म0प्र0।
मेधा पाटकर - नर्मदा बचाओ आंदोलन, एन0ए0पी0एम।
प्रफुल्ल समंत्रा - लेाकशक्ति अभियान एवं एन0ए0पी0एम उड़ीसा।
पी चैनैयया, अजय कुमार, रामकृष्ण राजू, सरस्वथी कावूला - ए.पी.वी.वी.यू एवं एन0ए0पी0एम आंध्र प्रदेश।
राजेन्द्र रवि - एन0ए0पी0एम, दिल्ली।
शांता भटटाचार्य, राजकुमारी भुइयां - कैमूर क्षेत्र महिला मज़दूर किसान संघर्ष समिति एवं राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच, उत्तर प्रदेश।
शक्तिमान घोष - नेशनल हाकर्स फेडरेशन।
सिमप्रीत सिंह - घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन, एन0ए0पी0एम महाराष्ट्र।
सिस्टर सिल्विया - डोमेस्टिक वर्करस यूनियन, एन0ए0पी0एम कर्नाटक।
सुनीता रानी, अनिता कपूर - नेशनल डोमेस्टिक वर्करस यूनियन, एन0ए0पी0एम, दिल्ली।
उल्का महाजन, सुनिति, प्रसाद भगावे - एस.ई.जेड विरोधी मंच, एन0ए0पी0एम, महाराष्ट्र।
विमलभाई - माटू जनसंगठन व एन0ए0पी0एम, उत्तराखंड़।
(अधिक जानकारी के लिए सम्पर्क कीजिए : शीला महापात्र : 9212587159, मधुरेश कुमार: 9818905316, विजयम: 9582862682)
संघर्ष ने जो कि तमाम आंदोलनों का समूह है, इस काले कानून को खारिज करके एक जनोन्मुखी समग्र कानून बनाने की मांग को लेकर संसद के सामने जन्तर मन्तर पर करने के लिये एक राष्ट्रीय एक्शन कार्यक्रम बनाया है। इस कार्यक्रम में इन मुद्दों के साथ जनता के अन्य प्रमुख मुददे भी शामिल होंगे। इस धरने में देश के अलग-अलग कोने से संघर्षशील आदिवासी, दलित व अन्य वंचित तबके जैसेः खेतीहर मज़दूर और ग़रीब किसान, वन-जन और अन्य वनाश्रित समुदाय, मछुआरे तथा अन्य ग्रामीण श्रमजीवी समुदाय शामिल होंगे। असम, उड़ीसा, बंगाल, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडू, केरल, कर्नाटक, मध्यप्रेदश, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड़, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, गोआ तथा अन्य प्रदेशों से हज़ारों की संख्या में लोग इस ऐतिहासिक धरने में पूरे जोश-ओ-ख़रोश के साथ शामिल होने के लिए आ रहे हैं। इसके साथ-साथ मुम्बई व दिल्ली के बड़े शहरों का मज़दूर वर्ग जो कि शहरी विकास के नाम पर विस्थापन का सामना कर रहा है, वे भी इस धरने में शामिल हो रहे हैं। शहरीकरण के नाम पर जिन किसानों की जमीनें छीनी जा रही हैं, वे भी इस धरने में शामिल होंगे। देश की 80 फ़ीसदी आबादी तमाम गरीब मज़दूर वर्गों के प्रतिनिधी अपने-अपने जनसंगठनों के बैनर के साथ संघर्ष के बैनर तले इस ऐतिहासिक मंच में शामिल होंगे।
हम सभी लोग संसद के मानसून सत्र के दौरान आयोजित किये जा रहे इस धरने में 3-5 अगस्त 2011 को जन्तर मन्तर पर एकत्रित होंगे। इस मांग के साथ कि विदेशी शासन काल में बने भूमि अधिग्रहण कानून को पूरी तरह से खारिज किया जाए और एक ऐसा समग्र कानून बनाया जाए, जिसमें भूमि की कृषि उत्पादन जैसी प्राथमिक जरूरत को ध्यान में रखा जाए। इसमें सही सार्वजनिक ज़रूरत और भूमि सुधार के लिए भूमि की मिल्कियत की वैकल्पिक व्यवस्था को भी देखा जाना ज़रूरी है। एक ऐसा कानून जिसमें समुदाय और ग्राम समाज की व्यापक सहमति हो। इस राष्ट्रीय एक्शन कार्यक्रम की रणनीति विभिन्न स्तरों पर और आंदोलनों के बीच व्यापक चर्चाओं के बाद तय की गई है। इस प्रक्रिया में आखि़री कार्यक्रम राष्ट्रीय परिसंवाद 6 मई 2011 को दिल्ली में आयोजित किया गया था।
साथियो, संघर्ष की प्रक्रिया सन् 2006-2007 में शुरू की गई थी। बहुत सारे जनआंदोलनकारी संगठन जो कि भूमि अधिकार और भूमि अधिग्रहण के खि़लाफ आंदोलनरत थे, उनके द्वारा यह शुरुआत की गयी थी। संघर्ष 2007 में एक अधिकार पत्र के आधार पर हम सब इकट्ठा हुए थे। यह शायद देश का पहला ऐसा सामूहिक कार्यक्रम था, जिसमें सैकड़ो आंदोलनकारी संगठनों ने इकट्ठा होकर संसद के सामने अपने समग्र राजनैतिक परिप्रेक्ष्य को लेागों के बीच रखा था। तब से लेकर संघर्ष समूह लगातार यह मांग कर रहा है किः-
1. आज़ादी के बाद जितनी भी जमीनों का अधिग्रहण हुआ है और उनसे विस्थापित लोगों की मौजूदा स्थिति पर सरकार द्वारा एक श्वेत पत्र ज़ारी किया जाए।
2. जब तक संसदीय समिति द्वारा इसकी समीक्षा न हो तब तक समस्त भूमि अधिग्रहण को स्थगित कर दिया जाए।
3. भूमि अधिकार व प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के लिए एक समग्र कानून बनाया जाए।
पिछले एक दशक में देश के विभिन्न क्षेत्रों में जनांदोलन सफलतापूवर्क ज़मीन की लूट के खिलाफ अपने प्रतिरोध आंदोलन चला रहे हैं। कलिंगनगर, नियमागिरी, सिंगुर, नंदीग्राम, समपेटा, जशपुर, लातेहार, चंद्रपुर, हरिपुर, रायगढ़, कारला, कुल्लु वैली, नर्मदा घाटी, जगतसिंहपुर, मुम्बई शहर और ऐसी सैंकड़ों प्रमुख जगहों में आंदोलन चले व कामयाब हुए। भू-स्वामी, खेतीहर और ग़रीब किसान, खे़तमज़दूर तथा अन्य श्रमजीवी तबका भी साथ मिल कर अपनी ज़मीन और अधिकार की सुरक्षा के लिए संघर्षरत है। इसी के साथ-साथ सदियों से जंगल में रहने वाले समुदायों ने अपने खोए हुए ज़मीन और जंगल के अधिकारों के दावे को पुनस्र्थापित करने के संघर्ष को तेज किया है। जैसे कैमूर (उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड), तराई क्षेत्र (उत्तर प्रदेश) चेंगेरा, मातुंगा (केरल), रीवा (मध्यप्रदेश), काकी (असम), उमरपाड़ा-सूरत, सोनगढ़-तापी, डांग (गुजरात), खम्माम (आंध्रप्रदेश) व निंदूरबड़, चोपड़ा (महाराष्ट्र) में अपनी खोई हुई ज़मीनों पर पुनर्दख़ल क़़ायम किया है। इन किसान, आदिवासी, दलित और श्रमजीवी वर्गों ने प्राकृतिक संपदा के ऊपर अपने जन्मसिद्ध अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए अपनी जान तक कुर्बान करते हुए राज्य और अभिजात वर्गों को गंभीर चुनौती दी। जो कि इन तमाम प्राकृतिक संपदाओं पर अपना एकाधिकार जमाए हुए हैं। हाल ही में ग्रेटर नोएडा की घटनाओं के आधार पर एक ऐसा माहौल बनाया गया है, जिसमें लगभग सभी राजनैतिक दल पुराने भूमि अधिग्रहण कानून के संशोधन के लिए एक रास्ता बना रहे हैं। जो कि यूपीए सरकार इस मानसून सत्र में लाना चाहती है। लेकिन यूपीए सरकार के नेतृत्वकारीगण चाहे वो मनमोहन सिहं हों या राहुल गांधी इस बात को स्पष्ट नहीं कर रहंें हैं, कि इन ऊपरी तौर पर किए गये संशोधनों से इस जनविरोधी औपनिवेशिक कानून का ढंाचा और रुख कैसे बदलेगा। वे राजनैतिक पार्टियों की इस विषय पर स्पष्ट धारणा न होने का फायदा उठा रहे हैं और जनांदोलनों द्वारा उठायी गई मांगों की अनदेखी कर रहे हैं। वे विश्वबैंक, डीएफआईडी, यूएस ऐड जैसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा प्रायोजित उस भूमिनीति के दस्तावेज़ का भी समर्थन कर रहे हैं, जिसे तथाकथित नागरिक समाज का एक हिस्सा भी समर्थन दे रहा है। हालांकि वे भी इस काले भूमि अधिग्रहण कानून को खारिज करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन साथ-साथ भूमि के बाजारीकरण को मदद करने वाली नीति की भी बात कर रहे हैं। यही वजह है कि यह धरना एक ऐसे महत्वपूर्ण समय में आयोजित किया जा रहा है, जब सरकार के लिए ज़रूरी हो गया है कि वो आंदोलनों की आवाज़ की तरफ ध्यान दे। अभी हाल ही में नए ग्रामीण विकास मंत्री श्री जयराम रमेश द्वारा एक समग्र कानून बनाने की घोषणा की गई है, जो एक स्वागत योग्य कदम है। लेकिन यह पहला कदम है, अभी आगे और भी कई जटिल समस्याओं को सुलझाना बाकी है।
भूमि अधिग्रहण कानून को खारिज करने और उसके खिलाफ एक समग्र कानून बनाने की मांग को मुख्य रूप से रखते हुए यह धरना कुछ अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को भी उठायेगा। जैसे बड़े बांध (नर्मदा घाटी, उत्तरपूर्वी भारत, हिमाचल प्रदेश और मध्य भारत ), कोयला व परमाणु आधारित उर्जा परियोजना, शहरी विस्थापन, वनाधिकार व सामुदायिक स्वशासन, बड़ी कम्पनियों (पास्को, वेदांत, जेपी, अडानी, टाटा, कोकाकोला, मित्तल, रिलाईन्स, आरपीजी, जिंदल, एस कुमार आदि) के खिलाफ संघर्ष, ग्रामीण एवं शहरी समुदायों की आजीविका के अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए कानूनी सरकारी हक़दारी और सभी के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली, बीपीएल सदस्यों के लिए संपूर्ण अधिकार व इसके बदले में नकदी भुगतान के खिलाफ विरोध शामिल है।
इस सफर में संघर्ष समूह को शुरू करने वाले संगठनों के अलावा पिछले वर्ष कृषक मुक्ति संग्राम समिति-असम व कुछ नए संगठनों ने इस सामूहिक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण योगदान किया। इस साल 15 राज्यों से भी अधिक राज्यों से प्रतिनिधी आ रहे हैं और इसके साथ-साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन-खंड़वा, लोक संघर्ष मंच-गुजरात व महाराष्ट्र, जनसंघर्ष समन्वय समिति, किसान संघर्ष समिति-उत्तरप्रदेश, पास्को प्रतिरोध समिति, समाजवादी जनपरिषद्, एकता परिषद्, जनकल्याण उपभोक्ता समिति, स्लम जन आंदोलन,कर्नाटक और दिल्ली व आसपास के क्षेत्र के कुछ भू-स्वामियों के संगठन संघर्ष की मांगों से सहमत होते हुए इस धरने में शामिल होंगे। संघर्ष 2011 के लिए यह सभी संगठन समुदायों को इकट्ठा करेंगे। हम तहेदिल से इन सभी संगठनों का स्वागत करते हैं और उम्मीद करते हैं कि इनकी भागीदारी से यह प्रक्रिया और भी मजबूत होगी और सही मायने में एक राष्ट्रीय आंदोलन को खड़ा करने में सहायक होगी।
हम आप सभी को दिल्ली में जन्तर मन्तर पर 3-5 अगस्त 2011 को आयोजित किये जा रहे इस धरने में सादर आमं़ित्रत करते हैं। आईये हम सब मिल कर इस ज़बरन किये जा रहे भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष करंे और एक नए समग्र कानून के लिए मांग करंे। ताकि यह विस्थापन हमेशा के लिए खत्म हो। आप से अनुरोध है, कि इसमें शामिल होने के लिये आप अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें व समय से हमें इसकी सूचना देने का कष्ट करें। साथ ही हर तरीके से इस प्रयास को सफल करने के लिये अपना अमूल्य योगदान दें। इस कार्यक्रम को पूरा करने के लिए आर्थिक सहयोग, अन्य संसाधनों व वालंटियरस् की भी ज़रूरत है, इसलिए आप सबसे अनुरोध है कि इस कार्यक्रम को सफल करने के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दंे। अभियान से सम्बंधित सभी दस्तावेज़ इस वेबसाइट दंचउ.पदकपंण्वतह पर उपलब्ध हैं -
हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे
इक बाग़ नहीं इक ख़ेत नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे
-फै़ज
एकजुटता के साथ
अखिल गोगोई - के0एम0एस0एस, असम।
अरूंधती धुरू, संदीप पांडे, जेपी सिंह, मनीष गुप्ता - एन0ए0पी0एम, उत्तरप्रदेश।
अशोक चैधरी, रोमा, मुन्नीलाल - राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच।
भूपिंदर सिंह रावत, नानू प्रसाद - जनसंघर्ष वाहिनी, एन0ए0पी0एम दिल्ली।
बिलास भोनगाडे - घोसी खुर्द प्रकल्प ग्रस्त संघर्ष समिति एवं एन0ए0पी0एम महाराष्ट्र।
चितरंजन सिंह - इंसाफ।
दयामणि बरला - आदिवासी मूलनिवासी आस्तित्व रक्षा मंच, झाड़खंड़।
डा0 सुनीलम, अराधना भागर्व अधि0 - किसान संघर्ष समिति, म0प्र0।
गैबरील डायट्रिच, गीता रामकृष्णन-पेन्नयूरूयईमई आययक्कम, एन0ए0पी0एम तमिलनाडु।
गौतम बंद्धोपाध्याय - नदी घाटी मोर्चा, छत्तीसगढ़।
गुमान सिंह, के उपमन्यु - हिम नीति अभियान, हिमाचल प्रदेश।
रजनीश, रामचंद्र राणा - थारू आदिवासी महिला-मजदूर-किसान मंच एवं राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच, लखीमपुर खीरी, उत्तरप्रदेश।
मंजू गार्डिया - नवा छत्तीसगढ़ महिला संगठन एवं पी0एस0ए छत्तीसगढ़।
मातादयाल, रानी - बिरसा मुंडा भू-अधिकार मंच एवं राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच, म0प्र0।
मेधा पाटकर - नर्मदा बचाओ आंदोलन, एन0ए0पी0एम।
प्रफुल्ल समंत्रा - लेाकशक्ति अभियान एवं एन0ए0पी0एम उड़ीसा।
पी चैनैयया, अजय कुमार, रामकृष्ण राजू, सरस्वथी कावूला - ए.पी.वी.वी.यू एवं एन0ए0पी0एम आंध्र प्रदेश।
राजेन्द्र रवि - एन0ए0पी0एम, दिल्ली।
शांता भटटाचार्य, राजकुमारी भुइयां - कैमूर क्षेत्र महिला मज़दूर किसान संघर्ष समिति एवं राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच, उत्तर प्रदेश।
शक्तिमान घोष - नेशनल हाकर्स फेडरेशन।
सिमप्रीत सिंह - घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन, एन0ए0पी0एम महाराष्ट्र।
सिस्टर सिल्विया - डोमेस्टिक वर्करस यूनियन, एन0ए0पी0एम कर्नाटक।
सुनीता रानी, अनिता कपूर - नेशनल डोमेस्टिक वर्करस यूनियन, एन0ए0पी0एम, दिल्ली।
उल्का महाजन, सुनिति, प्रसाद भगावे - एस.ई.जेड विरोधी मंच, एन0ए0पी0एम, महाराष्ट्र।
विमलभाई - माटू जनसंगठन व एन0ए0पी0एम, उत्तराखंड़।
(अधिक जानकारी के लिए सम्पर्क कीजिए : शीला महापात्र : 9212587159, मधुरेश कुमार: 9818905316, विजयम: 9582862682)
शुक्रवार, 10 जून 2011
बाबा रामदेवः पटरी से उतरता भ्रष्टाचार का मुद्दा
ईश्वर इन्द्र की कहानी कहीं ना कहीं सबने पढ़ी होगी। टेलीविजन पर देखी होगी। उनकी राजा की गद्दी हमेशा खतरे में रहती थी। कई बार लगता है, सरकार केन्द्र की हो या राज्य की, जो राजा है, उनकी कुर्सी भी राजा इन्द्र की तरह की ही होती है, हमेशा खतरे में।
बाबा रामदेव की बात करें तो चंद महीने पहले तक वे सभी पार्टियों को स्वीकार थे। कांग्रेस के बड़े बड़े नेता उनके सामने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर खड़े होते थे। अभी एक केन्द्रीय मंत्री का वीडियो जारी हुआ है, जिसमें वे बाबा के पांव धो रहे हैं। अरुणाचल प्रदेश में हुए एक विवाद में माफी मांगते हुए प्रदेश के एक मंत्री ने उन्हें अपने पिता की तरह बताया। आज कांग्रेस और सेवा दल ही नहीं, उनकी छात्र इकाई एनएसयूआई तक के कार्यकर्ता बाबा रामदेव को आंख दिखाने को तैयार हैं। एक और बात गौर करने वाली है, हमेशा बाबा कहलाने वाले रामदेवजी बाबा छोड़िए अब ठग रामदेव हो गए। महज पन्द्रह दिनों में ऐसा क्या बदल गया?

उनके ट्रस्ट से लेकर कंपनी तक के रिकॉर्ड खंगाले जा रहे हैं। उन सब लोगों का पता लगाया जा रहा है, जिन्होंने बाबा को पैसे दिए। यह दूसरी बात है कि मदद करने वालों की सूचि में कांग्रेस के कई बड़े-छोटे-मंझौले नेता भी शामिल हैं। भारत की सरकार की बाबा रामदेव के प्रति आक्रामक हो गई है, क्या इस पूरी बहस में, आरोप प्रत्यारोप के बीच भ्रष्टाचार जो मूल मुद्दा था, वह कहीं गायब नहीं हो गया। काले धन के वापसी की मांग कहीं पिछे नहीं छूट गई। यहां बहस को बनाए रखने की मांग का अर्थ बिल्कुल ना लगाया जाए कि बाबा के ट्रस्ट, कंपनियों और दूसरे श्रोतों से होने वाली आय की जांच नहीं करनी चाहिए। बिल्कुल करनी चाहिए। लेकिन जांच की आड़ में दोहरा खेल नहीं करना चाहिए। सरकार इस देश में यह कानून ही क्यों नहीं बना देती कि देश भर में जितनी एनजीओ, ट्रस्ट हैं उन्हें अपनी आय-व्यय का ब्योरा अपनी वेब साईट पर डालना होगा। इसी तरह देश में जितने भी राजनेता हैं, वे अपना और अपने परिवार की आय व्यय तो जगजाहिर करें ही, साथ साथ अपनी पार्टी फंड मंे आने वाली रकम, और अपनी रैली और दूसरे आयोजना पर होने वाले खर्च का ब्योरा भी जगजाहिर करें।

सरकार की उन निजी स्कूलों, अस्पतालों, सामुदायिक भवनों, ऑडिटोरियमों पर कितनी नजर है, जिसके लिए उसने जमीन कौड़ियों के दाम पर दिया है। अपोलो जैसे सेवन स्टार अस्पताल से जुड़े अनुपम सिब्बल को सरकार अपनी समिति में रख सकती है लेकिन कभी उनसे पूछ सकती है कि क्या जरुरत मंदों को तुम अपने अस्पताल में कानून के मुताबिक निशुल्क ईलाज की सुविधा देते हो? आप किसी भी सरकार के लिए बाबा रामदेव की तरह उस समय तक अच्छे हैं, सहज और सरल हैं। जब तक आप उसके सामने प्रश्न खड़े ना करें। बाबा बड़े मजे से उस दिन जब चार केन्द्रिय मंत्री उनसे मिलने एयर पोर्ट पर आए थे, उनसे हाथ मिलाकर अपनी जय जय कार करा सकते थे। कांग्रेसी भी खुश और अनुयायी भी खुश। अगले दो चार सालों में सरकार को खुश करके वे अपने 1177 करोड़ के ट्रस्ट को 2354 करोड़ तक पहुंचा सकते थे। उनके अपने कंपनियों से होने वाली आमदनी अलग से होती। क्या कभी आपने सुना है, मूर्ति, टाटा, अंबानी, बिरलाजी को काले धन के ऊपर बात करते हुए। बाबा विशुद्ध व्यावसायी नहीं है, इसलिए बात कर दी। विशुद्ध राजनेता भी नहीं है, इसलिए प्रेस के सामने दिए जाने वाले बयानों में योजना नजर नहीं आती है। जो एक परिपक्व राजनेता में होनी चाहिए। विशुद्ध सन्यासी भी नहीं हैं, जिसकी वजह से वे राम राज्यम पार्टी बनाने की मंशा जताकर चर्चा में रहे।

यदि आप पूरी कहानी पर गौर करें तो इसमें बाबा की भूमिका जो भी रही हो लेकिन सरकार इन्द्र की भूमिका में साफ नजर आती है। इसलिए बाबा के अनशनाशन (अनशन ़ आशन) को चौबीस घंटे भी नहीं हुए थे, सरकार की कुर्सी हिलने लगी। इसी भय में सरकार ने पांच तारिख की सुबह को अपने अलोकतांत्रिक कार्यवाही से कलंकित किया। उस घटना के बाद सरकारी विमान से बाबा को हरिद्वार पहुंचा दिया गया और एक नई कहानी शुरू हो गई। अब प्रतिदिन सरकार आरोप दर आरोप लगा रही है और बाबा के दिन उनके सभी सवालों के जवाब देते देते गुजर रहे हैं। लेकिन इन सवाल जवाब में जो मूल प्रश्न भ्रष्टाचार का था। वह कहीं पिछे छूटता जा रहा है। बाबा के व्यक्तिगत चरित्र की परीक्षा तो बाद में भी हो सकती है। उनके लिए कैरेक्टर सर्टिफिकेट तो बाद में भी जारी किया जा सकता है। लेकिन क्या अभी हम लोग इस बात पर केन्द्रित चर्चा नहीं कर सकते कि उनकी मांग सही है, या गलत?
बाबा रामदेव की बात करें तो चंद महीने पहले तक वे सभी पार्टियों को स्वीकार थे। कांग्रेस के बड़े बड़े नेता उनके सामने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर खड़े होते थे। अभी एक केन्द्रीय मंत्री का वीडियो जारी हुआ है, जिसमें वे बाबा के पांव धो रहे हैं। अरुणाचल प्रदेश में हुए एक विवाद में माफी मांगते हुए प्रदेश के एक मंत्री ने उन्हें अपने पिता की तरह बताया। आज कांग्रेस और सेवा दल ही नहीं, उनकी छात्र इकाई एनएसयूआई तक के कार्यकर्ता बाबा रामदेव को आंख दिखाने को तैयार हैं। एक और बात गौर करने वाली है, हमेशा बाबा कहलाने वाले रामदेवजी बाबा छोड़िए अब ठग रामदेव हो गए। महज पन्द्रह दिनों में ऐसा क्या बदल गया?

उनके ट्रस्ट से लेकर कंपनी तक के रिकॉर्ड खंगाले जा रहे हैं। उन सब लोगों का पता लगाया जा रहा है, जिन्होंने बाबा को पैसे दिए। यह दूसरी बात है कि मदद करने वालों की सूचि में कांग्रेस के कई बड़े-छोटे-मंझौले नेता भी शामिल हैं। भारत की सरकार की बाबा रामदेव के प्रति आक्रामक हो गई है, क्या इस पूरी बहस में, आरोप प्रत्यारोप के बीच भ्रष्टाचार जो मूल मुद्दा था, वह कहीं गायब नहीं हो गया। काले धन के वापसी की मांग कहीं पिछे नहीं छूट गई। यहां बहस को बनाए रखने की मांग का अर्थ बिल्कुल ना लगाया जाए कि बाबा के ट्रस्ट, कंपनियों और दूसरे श्रोतों से होने वाली आय की जांच नहीं करनी चाहिए। बिल्कुल करनी चाहिए। लेकिन जांच की आड़ में दोहरा खेल नहीं करना चाहिए। सरकार इस देश में यह कानून ही क्यों नहीं बना देती कि देश भर में जितनी एनजीओ, ट्रस्ट हैं उन्हें अपनी आय-व्यय का ब्योरा अपनी वेब साईट पर डालना होगा। इसी तरह देश में जितने भी राजनेता हैं, वे अपना और अपने परिवार की आय व्यय तो जगजाहिर करें ही, साथ साथ अपनी पार्टी फंड मंे आने वाली रकम, और अपनी रैली और दूसरे आयोजना पर होने वाले खर्च का ब्योरा भी जगजाहिर करें।

सरकार की उन निजी स्कूलों, अस्पतालों, सामुदायिक भवनों, ऑडिटोरियमों पर कितनी नजर है, जिसके लिए उसने जमीन कौड़ियों के दाम पर दिया है। अपोलो जैसे सेवन स्टार अस्पताल से जुड़े अनुपम सिब्बल को सरकार अपनी समिति में रख सकती है लेकिन कभी उनसे पूछ सकती है कि क्या जरुरत मंदों को तुम अपने अस्पताल में कानून के मुताबिक निशुल्क ईलाज की सुविधा देते हो? आप किसी भी सरकार के लिए बाबा रामदेव की तरह उस समय तक अच्छे हैं, सहज और सरल हैं। जब तक आप उसके सामने प्रश्न खड़े ना करें। बाबा बड़े मजे से उस दिन जब चार केन्द्रिय मंत्री उनसे मिलने एयर पोर्ट पर आए थे, उनसे हाथ मिलाकर अपनी जय जय कार करा सकते थे। कांग्रेसी भी खुश और अनुयायी भी खुश। अगले दो चार सालों में सरकार को खुश करके वे अपने 1177 करोड़ के ट्रस्ट को 2354 करोड़ तक पहुंचा सकते थे। उनके अपने कंपनियों से होने वाली आमदनी अलग से होती। क्या कभी आपने सुना है, मूर्ति, टाटा, अंबानी, बिरलाजी को काले धन के ऊपर बात करते हुए। बाबा विशुद्ध व्यावसायी नहीं है, इसलिए बात कर दी। विशुद्ध राजनेता भी नहीं है, इसलिए प्रेस के सामने दिए जाने वाले बयानों में योजना नजर नहीं आती है। जो एक परिपक्व राजनेता में होनी चाहिए। विशुद्ध सन्यासी भी नहीं हैं, जिसकी वजह से वे राम राज्यम पार्टी बनाने की मंशा जताकर चर्चा में रहे।

यदि आप पूरी कहानी पर गौर करें तो इसमें बाबा की भूमिका जो भी रही हो लेकिन सरकार इन्द्र की भूमिका में साफ नजर आती है। इसलिए बाबा के अनशनाशन (अनशन ़ आशन) को चौबीस घंटे भी नहीं हुए थे, सरकार की कुर्सी हिलने लगी। इसी भय में सरकार ने पांच तारिख की सुबह को अपने अलोकतांत्रिक कार्यवाही से कलंकित किया। उस घटना के बाद सरकारी विमान से बाबा को हरिद्वार पहुंचा दिया गया और एक नई कहानी शुरू हो गई। अब प्रतिदिन सरकार आरोप दर आरोप लगा रही है और बाबा के दिन उनके सभी सवालों के जवाब देते देते गुजर रहे हैं। लेकिन इन सवाल जवाब में जो मूल प्रश्न भ्रष्टाचार का था। वह कहीं पिछे छूटता जा रहा है। बाबा के व्यक्तिगत चरित्र की परीक्षा तो बाद में भी हो सकती है। उनके लिए कैरेक्टर सर्टिफिकेट तो बाद में भी जारी किया जा सकता है। लेकिन क्या अभी हम लोग इस बात पर केन्द्रित चर्चा नहीं कर सकते कि उनकी मांग सही है, या गलत?
सोमवार, 6 जून 2011
एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष (ख़ास तस्वीर)
मैंने आज सुबह (सोमवार, 06 जून 2011) 2:45 बजे अपने दोस्तों के लिए यह एक्सक्लूसिव फोटो राजघाट से उतारी। वास्तव में किसी राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष को एक आम आदमी की तरह सड़क के किनारे अपने कार्यकर्ताओं के साथ सोता हुआ देखकर सलाम करने को दिल करता है। क्या हम यूपीए की पार्टी अध्यक्ष से अपने कार्यकर्ताओं के लिए इस अपने पन की उम्मीद कर सकते हैं?
सोमवार, 30 मई 2011
हर सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है : डॉ विनायक सेन
जब विनायक सेन से बातचीत हुई थी, वे पीयूसीएल के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए दिल्ली आये थे। उस वक्त तक योजना आयोग के स्वास्थ संबंधी समिति में उनके सदस्य बनने की घोषणा नहीं हुई थी। इसलिए उस मुद्दे पर कोई सवाल यहां शामिल नहीं है। उनसे चितरंजन पार्क स्थित एक घर में लंबी बातचीत हुई। बातचीत के कुछ अंश:-
विनायक सेन को लेकर मीडिया और समाज में दो तरह की छवि है। एक विनायक सेन, जिन्हें हमेशा देश के दुश्मन के तौर पर पेश किया जाता है, दूसरे विनायक सेन वे जो आदिवासियों के शुभचिंतक हैं और गरीब समाज के मसीहा हैं। दोनों विचार अतिवादी हैं। इस तरह एक आम भारतीय असमंजस की स्थिति में है कि वह इन दोनों में से किसे सच माने और किसे झूठ! यदि हम मीडिया की नजर से इस मसले को न समझें और आपसे जानना चाहें कि कौन है ‘विनायक सेन’, तो आपका जवाब क्या होगा?
इस तरह के सवालों को मैं वाजिब नहीं मानता। मेरे लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं रहा कि कौन मेरे लिए क्या सोचता है? लोग मुझे लेकर क्या बात करते हैं? मैं हमेशा इस बात को महत्व देता हूं कि मैं क्या करता हूं। हो सकता है कि यही वजह हो कि मैं अपने लिए कही गयी किसी बात को अधिक महत्व नहीं देता।
वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई की। आप वहां गोल्ड मेडलिस्ट रहे। एक शिशु रोग विशेषज्ञ के नाते आप देश में देश के बाहर वह जिंदगी चुन सकते थे, जहां पांच सितारा अस्पताल के वातानुकूलित कमरे होते और बड़ी-बड़ी गाड़ियों से आने वाले मरीज। आपने तीस साल छत्तीसगढ़ में क्यों लगाया? कोई खास वजह?
छत्तीसगढ़ 1981 में आ गया था। उसी साल मैंने छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संगठन के साथ काम करना शुरू किया। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश एक ही हुआ करते थे। उससे पहले कुछ दिनों मैं होशंगाबाद भी रहा था। मैने हमेशा एक डॉक्टर और एक पीयूसीएल के कार्यकर्ता की हैसियत से ही काम किया है। शंकर गुहा नियोगी से प्रभावित था, उनसे प्रभावित होकर ही होशंगाबाद से रायपुर का रुख किया था। अपने तीस साल के सामाजिक जीवन में मैं महसूस कर रहा हूं, देश में एक तरफ तरक्की की बात की जा रही है और दूसरी तरफ देश के एक बड़े हिस्से में स्थायी अकाल की परिस्थितियां व्याप्त है, जिसे किसी भी सभ्य समाज के लिए अभिशाप समझा जा सकता है।
आपने अपने एक वक्तव्य में अंग्रेजी के एक शब्द जीनोसाइड (जन संहार) को एक नये अर्थ में परिभाषित किया, जिसमें आप मानते हैं कि भूख से हो रही लगातार मौतों को भी उसी श्रेणी में रखना चाहिए। क्या देश भर में कुपोषण से हो रही लगातार मौतें भी एक प्रकार का जन संहार है?
शरीर के वजन और लंबाई के आधार पर व्यक्ति का बॉडी मास इंडेक्स तय होता है। जिन व्यक्तियों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम है, इसे वयस्क व्यक्ति में स्थायी कुपोषण का स्वरूप माना जाएगा। हैदराबाद स्थित नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के अनुसार देश के 37 प्रतिशत व्यक्तियों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम है। 05 साल से कम उम्र के 45 प्रतिशत से अधिक बच्चे अपनी उम्र और वजन के हिसाब से कुपोषण के शिकार हैं। कुपोषित बच्चों की हमारे देश में संख्या, दुनिया भर के कुपोषित बच्चों की आधी बैठती है। हमारे देश में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत पर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की एक वरिष्ठ प्रोफेसर उत्सा पटनायक का अध्ययन है। उन्होंने अपने 2005 तक के अध्ययन के आधार पर कहा कि पिछले दस सालों में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत अपने देश में कम हुई है। दस साल पहले पांच लोगों का एक परिवार जो 880 किलोग्राम औसत अनाज साल भर में खर्च करता था। उस परिवार में वर्ष 2005 आते-आते यह खपत घटकर 770 किलोग्राम पर आ गयी है। यह गिरावट 110 किलोग्राम की है। पूरे देश में 37 प्रतिशत लोगों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम है। यदि सिर्फ सीड्यूल ट्राइव्स की बात की जाए, तो यह आंकड़ा 50 फीसदी से भी अधिक है। 18.5 से कम बॉडी मास इंडेक्स वाले लोगों की संख्या सीड्यूल कास्ट में 60 फीसदी से भी अधिक है। सच्चर समिति की रिपोर्ट कुछ इसी तरह की तस्वीर अल्पसंख्यकों की भी बताती है। विश्व स्वास्थ संगठन कहता है कि किसी समुदाय में 40 फीसदी से अधिक लोगों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम हो तो उस पूरे समुदाय को अकालग्रस्त माना जाना चाहिए। यदि हम विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा तय मानकों को अपने आंकड़े में लागू करें, तो यह देखने को मिलेगा कि कई समुदाय ऐसे हैं जो अकाल की स्थिति में जी रहे हैं। साल दर साल इतिहास का रास्ता तय कर रहे हैं और अकाल उनके जीवन का साथी है।
देश में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार आम आदमी के हितों का वादा करके सत्ता में आती है। जितनी भी सरकारी योजनाएं बनती हैं, वह सभी आम आदमी के हित में बनती है। फिर यह कहना कितना ठीक होगा कि सरकार आम आदमी विरोधी है?
सरकार का मुद्दा बेहद अहम है। आज सरकार उन्हीं सब चीजों को अपने निशाने पर ले रही है, जिन पर कई समुदाय जी रहे हैं। इनकी पहुंच में जो सामुदायिक संपदा है, उनसे इन्हें महरूम किया जा रहा है। पानी, जंगल, जमीन जिनके आधार पर ये जी रहे हैं, उन्हें योजना के साथ इनसे अलग किया जा रहा है। उन वंचित समुदायों को बताया जा रहा है कि जिस जमीन पर तुम रहते हो, जिस नदी का पानी पीते हो, जिस जंगल से जीवन यापन करते हो – वह सब तुम्हारा नहीं, सरकार का है। सरकार गरीब लोगों से सारे संसाधन छीन कर निजी कंपनियों को सौंप रही है। 1991 के बाद शासन के जो भी कार्यक्रम चल रहे हैं, वे सभी प्राइवेट कॉरपोरेट हित में ही हैं। गरीब से छीन कर जमीन बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों को देना अपने देश की तरक्की के लिए है। अत्याचार पहले भी गरीबों पर हुए हैं। लेकिन पहले उस अत्याचार के साथ एक शर्म होती थी। लोग अत्याचार को अत्याचार स्वीकार करते थे। लेकिन अब इन सभी अत्याचारों को तरक्की की तरकीब के रूप में देखा जा रहा है।
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यदि यह स्थिति बनी है कि सरकारें जन विरोधी काम कर रहीं हैं, तो आदिवासी समाज के लोग सरकार के खिलाफ अपना विरोध कैसे दर्ज करें?
उत्तरी अमेरिका में, ऑस्ट्रेलिया में आदिवासी समाज को खत्म किया गया। दुनिया भर में इस बात के उदाहरण हैं कि किस प्रकार पूंजीपति वर्ग ने आदिवासियों का शोषण किया है। इस देश की सरकार और पूंजीपतियों का गठजोड़ आदिवासियों से उनका हक छीनना चाहता है। सरकार और पूंजीपतियों के इस दोस्ती को पहले पहचानना जरूरी है, उसके बाद हम इस सरकारी रणनीति के खिलाफ रणनीति ईजाद कर सकते हैं।
एक तरफ हमारे पास नंदीग्राम और सिंगुर का उदाहरण है, जहां लड़कर किसानों ने अपन हक वापस लिया और दूसरी तरफ अहिंसा के साथ पिछले 25 सालों से चल रहा नर्मदा बचाओ आंदोलन का उदाहरण है, फिर क्या अपना अधिकार पाने के लिए समाज को सिंगुर वाला मॉडल ही अपनाना होगा?
एक मानवाधिकार संगठन के साथ काम करने के नाते कभी अपनी तरफ से मैं हिंसा की पैरवी नहीं कर सकता। चाहे वह किसी की भी हिंसा हो, सरकार की या किसी और की। इस वक्त देश भर में जो संपदा की लूट चल रही है, उसके खिलाफ खड़े हुए आंदोलनों को हिंसा के तौर पर निरूपति किया जा रहा है। जब तक प्राकृतिक संपदा की इस खुली लूट को सरकार समाप्त नहीं करेगी, देश में शांति का माहौल तैयार होना संभव नहीं है। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के नाते हम चाहते हैं कि देश में बराबरी का माहौल बने, सबके लिए न्याय हो और शांति हो।
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यदि इन तमाम शांति प्रक्रियाओं के बाद भी एक आदिवासी को उसका हक न मिले और उलटे उसे उसकी ही जमीन से बेदखल कर दिया जाए, तो क्या उसके बाद भी भूख से मर जाने तक उसे सत्याग्रह का दामन नहीं छोड़ना चाहिए?
देखिए हम भी एक प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। हमारे पास भी हर सवाल का जवाब नहीं है। हमें इस सवाल का जवाब तलाशना होगा, मैं उस खोज का साथी हूं। मैं मानता हूं सवाल महत्वपूर्ण है, रास्ता नहीं है। हम एक लोकतांत्रिक संरचना वाले देश में जी रहे हैं। इसके लिए कोई राह समाज को ही निकालना होगा। हमारे देश का सर्वोच्च न्यायालय कहता है, देश में गैर बराबरी बहुत अधिक है। एक ही देश में दो तरह के लोग स्वीकार्य नहीं हैं। पीयूसीएल की तरफ से जो हमारी बैठक थी, उसमें हमने तय किया है, राजद्रोह जैसे कानून को रद्द करने की मांग रखेंगे। पीयूसीएल और अन्य मानवाधिकार से जुड़े संगठन देश भर से दस लाख लोगों के हस्ताक्षर इस कानून के खिलाफ इकट्ठा करेंगे।
कल को यदि सर्वोच्च न्यायालय में आप पर लगे सारे आरोप गलत साबित होते हैं, तो आपके जो साल जेल के अंदर-बाहर होते बीते हैं, उसकी वापसी की कोई राह न्यायालय से निकलेगी?>
इन सालों में मेरा बहुत नुकसान हुआ। मेरे बहुत सारे काम अधूरे रह गये। अब तो खुद को व्यवस्थित कर पाना ही मेरे लिए बड़ी चुनौती है। वैसे सच्चाई तो यह है कि हर सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है।
विनायक सेन को लेकर मीडिया और समाज में दो तरह की छवि है। एक विनायक सेन, जिन्हें हमेशा देश के दुश्मन के तौर पर पेश किया जाता है, दूसरे विनायक सेन वे जो आदिवासियों के शुभचिंतक हैं और गरीब समाज के मसीहा हैं। दोनों विचार अतिवादी हैं। इस तरह एक आम भारतीय असमंजस की स्थिति में है कि वह इन दोनों में से किसे सच माने और किसे झूठ! यदि हम मीडिया की नजर से इस मसले को न समझें और आपसे जानना चाहें कि कौन है ‘विनायक सेन’, तो आपका जवाब क्या होगा?
इस तरह के सवालों को मैं वाजिब नहीं मानता। मेरे लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं रहा कि कौन मेरे लिए क्या सोचता है? लोग मुझे लेकर क्या बात करते हैं? मैं हमेशा इस बात को महत्व देता हूं कि मैं क्या करता हूं। हो सकता है कि यही वजह हो कि मैं अपने लिए कही गयी किसी बात को अधिक महत्व नहीं देता।
वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई की। आप वहां गोल्ड मेडलिस्ट रहे। एक शिशु रोग विशेषज्ञ के नाते आप देश में देश के बाहर वह जिंदगी चुन सकते थे, जहां पांच सितारा अस्पताल के वातानुकूलित कमरे होते और बड़ी-बड़ी गाड़ियों से आने वाले मरीज। आपने तीस साल छत्तीसगढ़ में क्यों लगाया? कोई खास वजह?
छत्तीसगढ़ 1981 में आ गया था। उसी साल मैंने छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संगठन के साथ काम करना शुरू किया। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश एक ही हुआ करते थे। उससे पहले कुछ दिनों मैं होशंगाबाद भी रहा था। मैने हमेशा एक डॉक्टर और एक पीयूसीएल के कार्यकर्ता की हैसियत से ही काम किया है। शंकर गुहा नियोगी से प्रभावित था, उनसे प्रभावित होकर ही होशंगाबाद से रायपुर का रुख किया था। अपने तीस साल के सामाजिक जीवन में मैं महसूस कर रहा हूं, देश में एक तरफ तरक्की की बात की जा रही है और दूसरी तरफ देश के एक बड़े हिस्से में स्थायी अकाल की परिस्थितियां व्याप्त है, जिसे किसी भी सभ्य समाज के लिए अभिशाप समझा जा सकता है।
आपने अपने एक वक्तव्य में अंग्रेजी के एक शब्द जीनोसाइड (जन संहार) को एक नये अर्थ में परिभाषित किया, जिसमें आप मानते हैं कि भूख से हो रही लगातार मौतों को भी उसी श्रेणी में रखना चाहिए। क्या देश भर में कुपोषण से हो रही लगातार मौतें भी एक प्रकार का जन संहार है?
शरीर के वजन और लंबाई के आधार पर व्यक्ति का बॉडी मास इंडेक्स तय होता है। जिन व्यक्तियों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम है, इसे वयस्क व्यक्ति में स्थायी कुपोषण का स्वरूप माना जाएगा। हैदराबाद स्थित नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के अनुसार देश के 37 प्रतिशत व्यक्तियों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम है। 05 साल से कम उम्र के 45 प्रतिशत से अधिक बच्चे अपनी उम्र और वजन के हिसाब से कुपोषण के शिकार हैं। कुपोषित बच्चों की हमारे देश में संख्या, दुनिया भर के कुपोषित बच्चों की आधी बैठती है। हमारे देश में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत पर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की एक वरिष्ठ प्रोफेसर उत्सा पटनायक का अध्ययन है। उन्होंने अपने 2005 तक के अध्ययन के आधार पर कहा कि पिछले दस सालों में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत अपने देश में कम हुई है। दस साल पहले पांच लोगों का एक परिवार जो 880 किलोग्राम औसत अनाज साल भर में खर्च करता था। उस परिवार में वर्ष 2005 आते-आते यह खपत घटकर 770 किलोग्राम पर आ गयी है। यह गिरावट 110 किलोग्राम की है। पूरे देश में 37 प्रतिशत लोगों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम है। यदि सिर्फ सीड्यूल ट्राइव्स की बात की जाए, तो यह आंकड़ा 50 फीसदी से भी अधिक है। 18.5 से कम बॉडी मास इंडेक्स वाले लोगों की संख्या सीड्यूल कास्ट में 60 फीसदी से भी अधिक है। सच्चर समिति की रिपोर्ट कुछ इसी तरह की तस्वीर अल्पसंख्यकों की भी बताती है। विश्व स्वास्थ संगठन कहता है कि किसी समुदाय में 40 फीसदी से अधिक लोगों का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम हो तो उस पूरे समुदाय को अकालग्रस्त माना जाना चाहिए। यदि हम विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा तय मानकों को अपने आंकड़े में लागू करें, तो यह देखने को मिलेगा कि कई समुदाय ऐसे हैं जो अकाल की स्थिति में जी रहे हैं। साल दर साल इतिहास का रास्ता तय कर रहे हैं और अकाल उनके जीवन का साथी है।
देश में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार आम आदमी के हितों का वादा करके सत्ता में आती है। जितनी भी सरकारी योजनाएं बनती हैं, वह सभी आम आदमी के हित में बनती है। फिर यह कहना कितना ठीक होगा कि सरकार आम आदमी विरोधी है?
सरकार का मुद्दा बेहद अहम है। आज सरकार उन्हीं सब चीजों को अपने निशाने पर ले रही है, जिन पर कई समुदाय जी रहे हैं। इनकी पहुंच में जो सामुदायिक संपदा है, उनसे इन्हें महरूम किया जा रहा है। पानी, जंगल, जमीन जिनके आधार पर ये जी रहे हैं, उन्हें योजना के साथ इनसे अलग किया जा रहा है। उन वंचित समुदायों को बताया जा रहा है कि जिस जमीन पर तुम रहते हो, जिस नदी का पानी पीते हो, जिस जंगल से जीवन यापन करते हो – वह सब तुम्हारा नहीं, सरकार का है। सरकार गरीब लोगों से सारे संसाधन छीन कर निजी कंपनियों को सौंप रही है। 1991 के बाद शासन के जो भी कार्यक्रम चल रहे हैं, वे सभी प्राइवेट कॉरपोरेट हित में ही हैं। गरीब से छीन कर जमीन बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों को देना अपने देश की तरक्की के लिए है। अत्याचार पहले भी गरीबों पर हुए हैं। लेकिन पहले उस अत्याचार के साथ एक शर्म होती थी। लोग अत्याचार को अत्याचार स्वीकार करते थे। लेकिन अब इन सभी अत्याचारों को तरक्की की तरकीब के रूप में देखा जा रहा है।
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यदि यह स्थिति बनी है कि सरकारें जन विरोधी काम कर रहीं हैं, तो आदिवासी समाज के लोग सरकार के खिलाफ अपना विरोध कैसे दर्ज करें?
उत्तरी अमेरिका में, ऑस्ट्रेलिया में आदिवासी समाज को खत्म किया गया। दुनिया भर में इस बात के उदाहरण हैं कि किस प्रकार पूंजीपति वर्ग ने आदिवासियों का शोषण किया है। इस देश की सरकार और पूंजीपतियों का गठजोड़ आदिवासियों से उनका हक छीनना चाहता है। सरकार और पूंजीपतियों के इस दोस्ती को पहले पहचानना जरूरी है, उसके बाद हम इस सरकारी रणनीति के खिलाफ रणनीति ईजाद कर सकते हैं।
एक तरफ हमारे पास नंदीग्राम और सिंगुर का उदाहरण है, जहां लड़कर किसानों ने अपन हक वापस लिया और दूसरी तरफ अहिंसा के साथ पिछले 25 सालों से चल रहा नर्मदा बचाओ आंदोलन का उदाहरण है, फिर क्या अपना अधिकार पाने के लिए समाज को सिंगुर वाला मॉडल ही अपनाना होगा?
एक मानवाधिकार संगठन के साथ काम करने के नाते कभी अपनी तरफ से मैं हिंसा की पैरवी नहीं कर सकता। चाहे वह किसी की भी हिंसा हो, सरकार की या किसी और की। इस वक्त देश भर में जो संपदा की लूट चल रही है, उसके खिलाफ खड़े हुए आंदोलनों को हिंसा के तौर पर निरूपति किया जा रहा है। जब तक प्राकृतिक संपदा की इस खुली लूट को सरकार समाप्त नहीं करेगी, देश में शांति का माहौल तैयार होना संभव नहीं है। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के नाते हम चाहते हैं कि देश में बराबरी का माहौल बने, सबके लिए न्याय हो और शांति हो।
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यदि इन तमाम शांति प्रक्रियाओं के बाद भी एक आदिवासी को उसका हक न मिले और उलटे उसे उसकी ही जमीन से बेदखल कर दिया जाए, तो क्या उसके बाद भी भूख से मर जाने तक उसे सत्याग्रह का दामन नहीं छोड़ना चाहिए?
देखिए हम भी एक प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। हमारे पास भी हर सवाल का जवाब नहीं है। हमें इस सवाल का जवाब तलाशना होगा, मैं उस खोज का साथी हूं। मैं मानता हूं सवाल महत्वपूर्ण है, रास्ता नहीं है। हम एक लोकतांत्रिक संरचना वाले देश में जी रहे हैं। इसके लिए कोई राह समाज को ही निकालना होगा। हमारे देश का सर्वोच्च न्यायालय कहता है, देश में गैर बराबरी बहुत अधिक है। एक ही देश में दो तरह के लोग स्वीकार्य नहीं हैं। पीयूसीएल की तरफ से जो हमारी बैठक थी, उसमें हमने तय किया है, राजद्रोह जैसे कानून को रद्द करने की मांग रखेंगे। पीयूसीएल और अन्य मानवाधिकार से जुड़े संगठन देश भर से दस लाख लोगों के हस्ताक्षर इस कानून के खिलाफ इकट्ठा करेंगे।
कल को यदि सर्वोच्च न्यायालय में आप पर लगे सारे आरोप गलत साबित होते हैं, तो आपके जो साल जेल के अंदर-बाहर होते बीते हैं, उसकी वापसी की कोई राह न्यायालय से निकलेगी?>
इन सालों में मेरा बहुत नुकसान हुआ। मेरे बहुत सारे काम अधूरे रह गये। अब तो खुद को व्यवस्थित कर पाना ही मेरे लिए बड़ी चुनौती है। वैसे सच्चाई तो यह है कि हर सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है।
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आशीष कुमार 'अंशु'

वंदे मातरम