29 जनवरी 2004 को तहलका के अखबारी अवतार से ठीक एक दिन पहले शोमा चौधरी द्वारा लिखा गया ये लेख तहलका के संघर्षों की कहानी है...
तहलका के पहले अंक तक का इंतजार हमारे लिए बहुत लंबा रहा। इंतजार के इससफर में काफी मुश्किलें भी आईं। दो बार तो ऐसा हुआ कि पूरी तैयारी केबावजूद हम शुरुआत में ही लड़खड़ा गए। महीने गुजरते गए और मुश्किलों काअंधेरा कम होने के बजाय और घना होता गया। लेकिन अब तीस जनवरी को हम फिरएक नई शुरुआत कर रहे हैं। नये आफिस में टाइपिंग की खटखट शुरू हो चुकी है।खिड़की से नजर आ रहा अमलतास का पेड़ मुझे पुराने और बंद हो चुके आफिस कीयाद दिला रहा है। हर किसी को बेसब्री से कल का इंतजार है। कल सुबह लोग जबतहलका अखबार पढ़ रहे होंगे तो यह केवल हमारी जीत नहीं होगी, ये उन हजारोंभारतीयों की भी जीत होगी जिन्होंने हम पर भरोसा किया। इस जीत के मायनेमहज एक अखबार निकाल लेने की सफलता से कहीं ज्यादा गहरे होंगे।शायद इस जीत का मतलब उस सफर से भी निकलता है जो हमने तय किया। तहलका अबसिर्फ एक अखबार की कहानी नहीं रही। जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया, तहलका केसाथ हुई घटनाओं ने तहलका शब्द को लोगों के दिल में बसा दिया। तहलका कासफर गुस्सा, निराशा, ऊर्जा और सपनों के मेल से बना है। ये सिर्फ हमारीकहानी नहीं है। ये उम्मीद, आत्मविश्वास और आदर्शवाद की ताकत की कहानी है।उससे भी ज्यादा ये एकता और सकारात्मक सोच की ताकत का सबूत है। तहलका काअखबार के रूप में लोगों तक पहुंचना कोई छोटी बात नहीं है। इससे यह साबितहोता है कि आम लोग सही चीजों के लिए लड़ सकते हैं, और न केवल लड़ सकतेहैं बल्कि जीत भी सकते हैं। तहलका का अखबार के रूप में लोगों तक पहुंचनाकोई छोटी बात नहीं है। इससे यह साबित होता है कि आम लोग सही चीजों के लिएलड़ सकते हैं, और न केवल लड़ सकते हैं बल्कि जीत भी सकते हैं।पिछले दो साल के दरम्यान ऐसे कई ऐसे लम्हे आए जब तहलका का नामोनिशां मिटसकता था। रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार को उजागर करते स्टिंग आपरेशन सेहमें सुर्खियां तो मिलीं पर दूसरी तरफ हमें सरकार से दुश्मनी की कीमत भीचुकानी पड़ी। जान से मारने की धमकियां, छापे, गिरफ्तारियां और पूछताछ केउस भयावह सिलसिले की याद आज भी रूह में सिहरन पैदा कर देती है। बढ़तेकर्ज के बोझ के बाद ऑफिस भी बस किसी तरह चल पा रहा था। लेकिन जिस चीज नेहमें सबसे ज्यादा तोड़कर रख दिया वो थी 'बड़े' लोगों का डर और हमारे मकसदके प्रति उनकी शंका।हमें बधाइयां और तारीफें तो मिलीं लेकिन ऎसे कम ही लोग मिले जिन्हें यकीनथा कि हमने ये काम देश और जनता की भलाई के लिए किया। लोग पूछते थे किहमने इस स्टिंग आपरेशन से कितना मुनाफा बटोरा। कइयों ने ये भी पूछा कितहलका में किस बड़े आदमी का पैसा लगा है। कोई ये यकीन करने को तैयार नहींथा कि ये काम केवल पत्रकारिता की मूल भावना के तहत किया गया जिसका मकसदहै सच दिखाना। सरकार ने हम पर सीधा हमला तो नहीं किया लेकिन हमेंकानूनी कार्रवाई के एक ऎसे जाल में उलझा दिया जिससे हमारा सांस लेनामुश्किल हो जाए। तहलका में पैसा निवेश करने वाले शंकर शर्मा को बगैर कसूरजेल में डाल दिया गया और कानूनी कार्रवाई की आड़ में उनका धंधा चौपट करनेकी हरमुमकिन कोशिश की गई।हमने कई बार खुद से पूछा कि तहलका और उसके अंजाम को कौन सी चीज खास बनातीहै। जवाब बहुत सीधा है- शायद इसका असाधारण साहस। भ्रष्टाचार को इस कदरनिडरता से उजागर करने की कोशिश ने ही शायद तहलका को तहलका जैसा बना दिया।तहलका लोगों के जेहन में रचबस गया। अरुणाचल की यात्रा कर रहे एक दोस्तने हमें बताया कि उसने एक गांव की दुकान में कुछ साड़ियां देखीं जिन परतहलका का लेबल लगा हुआ था। एक और मित्र ने हमें बीड़ी के एक विज्ञापन केबारे में बताया जिसमें तहलका शब्द का प्रमुखता से इस्तेमाल किया गया था।हमें ऎसा लगा कि लोग अब हमें कम से कम जानने तो लगे हैं। तहलका नैतिकताकी लड़ाई की एक कहानी बन चुका था। हमें लगा कि बिना लड़े और बगैरप्रतिरोध हारने का कोई मतलब नहीं। इसी विचार ने हमें ताकत दी।हालांकि ये काम आसान नहीं था। सरकार के हमारे खिलाफ रुख के चलते लोगहमसे कतराते थे। थोड़े शुभचिंतक-जिनमें कुछ वकील और कुछ दोस्त शामिलथे-हमारे साथ खड़े रहे लेकिन ज्यादातर प्रभावशाली लोग तहलका का नाम सुनतेही किनारा कर लेते थे। उद्योगपति, बैंक, बड़े लोग.....हमने सब जगह कोशिशकी लेकिन चाय के लिए पूछने से ज्यादा तकलीफ हमारे लिए कोई नहीं उठानाचाहता था। तहलका का नाम अगर लोगों को खींचता था तो उसका अंजाम हमारे लिएअभिशाप भी बन जाता था। इस बात पर सब एकराय थे कि तहलका एक तूफानी ब्रांडहै लेकिन तूफान से दोस्ती कर कौन मुसीबत मोल ले। लगातार मिल रहीनाकामयाबी ने हमारे भीतर कहीं न कहीं फिर से वापसी का जज्बा पैदा करदिया। मुझमें, सबमें, लेकिन खासकर तरुण में। तरुण फिर से वापसी के लिएइरादा पक्का कर चुके थे।लेकिन इस काम में कोई थोड़ी सी भी मदद के लिए तैयार नहीं था।हमें बधाइयां और तारीफें तो मिलीं लेकिन ऎसे कम ही लोग मिले जिन्हें यकीनथा कि हमने ये काम देश और जनता की भलाई के लिए किया। लोग पूछते थे किहमने इस स्टिंग आपरेशन से कितना मुनाफा बटोरा।फिर से वापसी के बुलंद इरादे और इसमें आ रही मुसीबतों ने हमारे भीतर कुछबदलाव ला दिए। मुश्किलें जैसे-जैसे बढती गईं, गुस्से और हताशा की जगहउम्मीद लेने लगी। हर एक मुश्किल को पार कर हम हैरानी से खुद को देखते थेऔर सोचते थे "अरे ये तो हो गया, हम ऎसा कर सकते हैं।"कहानी आगे बढ रही थी। तरुण जमकर यात्रा कर रहे थे। त्रिवेंद्रम, उज्जैन,नागपुर, भोपाल, गुवाहाटी, कोच्चि, राजकोट, भिवानी, इंदौर में वो लोगों सेमिलकर समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे। तरुण के जोश की बदौलत तहलका कोलोगों की ऊर्जा मिलती गई। यह एक कैमिकल रिएक्शन की तरह हुआ। लोगों कीऊर्जा और उम्मीदों ने हमारे इरादे को ताकत दी। ये अब केवल हमारी लड़ाईनहीं रह गई थी। इसने एक बड़ी शक्ल अख्तियार कर ली थी।मुझे आज भी वो दिन अच्छी तरह याद है जब तरुण ने हमें बुलाया और कहा कि हमअखबार निकालने वाले हैं। ये काफी हिम्मत का काम था। पैसे तो बहुत पहले हीखत्म हो गए थे। जनवरी 2002 तक तो ऎसा कोई भी दोस्त नहीं था जिससे हम उधारन ले चुके हों। मई आते-आते आफिस भी बंद हो गया। उसके बाद कई महीने पैसेजुटाने की भागादौड़ी और जांच कमीशन से निपटने के लिए कानूनी रणनीति बनानेमें निकल गए। अब हम केवल छह लोग रह गए थे। तरुण, उनकी बहन नीना, मैं,हमारे एकाउंटेंट बृज, डेस्कटाप आपरेटर प्रवाल और स्टेनोग्राफर अरुण नायर।सबका मकसद एक ही था। तहलका का वजूद अब हमारे जेहन में ही सही, पर काफीमजबूत हो चुका था। तब तक हम पुराने वाले आफिस में ही थे यानी D-1,स्वामीनगर। लेकिन हमारे पास दो छोटे से कमरे ही बचे थे और पेट्रोल काखर्चा चुकाने के लिए हमें कुर्सियां बेचनी पड़ रही थीं। मकान मालिक केभले स्वभाव का हम काफी इम्तहान ले चुके थे। हमें जगह बदलनी थी और कोईहमें रखने के लिए तैयार नहीं था।लेकिन हमारा उत्साह कम नहीं हुआ। हम एक महत्वपूर्ण मोड़ के पार निकल चुकेथे। एक हफ्ता पहले हमने जांच कमीशन से अपना पल्ला झाड़ लिया था।रामजेठमलानी ने बड़ी ही कुशलता से तहलका और इसकी निवेशक कंपनी फर्स्टग्लोबल के खिलाफ सरकारी केस के परखच्चे उड़ा दिए थे। जस्टिस वेंकटस्वामीअपनी अंतरिम रिपोर्ट तैयार कर चुके थे। डरी हुई सरकार ने जस्टिसवेंकटस्वामी को बदलकर जांच की कमान जस्टिस फूकन को थमा दी। खबरें आ रहींथीं कि जांच एक बार फिर से शुरू होगी। लेकिन हमारे लिए अब और बर्दाश्तकरना मुमकिन नहीं था। हमने जांच में पूरा सहयोग किया था। लेकिन सरकारये गतिरोध खत्म करने के मूड में ही नहीं थी। हमने फैसला किया कि बहुत होचुका, अब इस अन्याय को बर्दाश्त करने का कोई मतलब नहीं। हमने नये कमीशनसे हाथ पीछे खींच लिए। ये तहलका की कहानी के पहले अध्याय या कहें कितहलका-1 का अंत था। इसने एक तरह से हमें बड़ी राहत दी। हम मानो मौत केचंगुल से आजाद हो गए। बचाव के लिए दौड़धूप करने में ऊर्जा बरबाद करने कीबजाय हम अब अपने मकसद पर ध्यान दे सकते थे।पैसा जुटाने के लिए एक साल की दौड़धूप के बाद तरुण को दो आफर मिले जिसमेंसे हर एक में दस करोड़ रुपये की पेशकश की गई थी। लेकिन तरुण ने उन्हेंठुकरा दिया क्योंकि वे तहलका की मूल भावना के खिलाफ जाते थे। अब तरुण नेकुछ नया करने की सोची। उन्होंने सुझाव दिया कि लोगों के पास जाया जाए औरएक राष्ट्रीय अभियान चलाकर आम लोगों से तहलका शुरू करने के लिए पैसाजुटाया जाए। मैंने कमरे में एक नजर डाली। हम सब लोग तो लगान की टीम जितनेभी नहीं थे।वो एक अजीब सा दौर था। कुछ समय पहले हमारी जिंदगी में गुजरात के एकव्यापारी और राजनीतिक कार्यकर्ता निरंजन तोलिया का आगमन हुआ था।( तहलकाकी कहानी में ऎसे कई सुखद पल आए जब अलग-अलग लोगों ने इस लड़ाई में हमारेसाथ अपना कंधा लगाया। इससे हमें कम से कम ये आभास हुआ कि हम अकेले नहींहैं। ) तोलियाजी ने साउथ एक्सटेंशन स्थित अपने आफिस में हमें दो कमरे देदिए। तहलका को फिर से शुरुआत के लिए थोड़ी सी जमीन मिली। हम रोज आफिस मेंजमा होते, चर्चा करते और योजनाएं बनाते। हमें यकीन था कि अखबार शुरूकरने के लिए लाखों लोग पैसा देने के लिए तैयार हो जाएंगे। अब सवाल था किउन तक पहुंचा कैसे जाए। कई आइडिये सामने आए-स्कूलों, पान की दुकानों,एसटीडी बूथ्स और एसएमएस के जरिये कैंपेन, मानव श्रंखला अभियान आदि। रोजएक नया आइडिया सामने आता था। इनमें से कुछ तो अजीबोगरीब भी होते थे,मिसाल के तौर पर गुब्बारे और स्माइली बटन जिन पर तहलका लिखा हो। हमने उनलोगों की सूची बनाना शुरू किया जिनसे मदद मिल सकती थी। रोज होती बहस केसाथ हमारा प्लान भी बनता जाता था। आखिरकार एक दिन हमारा मास्टर प्लानतैयार हो गया। जोश की हममें कोई कमी नहीं थी। दिल्ली में सब्सक्रिप्शनका टारगेट रखा गया 75,000 कापियां। तहलका का नाम अगर लोगों को खींचता थातो उसका अंजाम हमारे लिए अभिशाप भी बन जाता था। इस बात पर सब एकराय थेकि तहलका एक तूफानी ब्रांड है लेकिन तूफान से दोस्ती कर कौन मुसीबत मोलले।लेकिन असली इम्तहान तो इसके बाद होना था। हमारे पास न पैसा था और न हीसंसाधन। यहां तक कि आफिस में एक एसटीडी लाइन भी नहीं थी। इसके बगैर योजनाको अमली जामा पहनाने के बारे में सोचना भी मुश्किल था। कल जब अखबारनिकलेगा तो डेढ़ लाख एडवांस कापियों का आर्डर चार महानगरों के जरिये पूरेदेश के पाठकों तक पहुंचेगा। तहलका का पुनर्जन्म बिना थके आगे बढ़ने कीभावना की जीत है।देखा जाए तो कर्ज में डूबे चंद लोगों द्वारा दो कमरों से एक राष्ट्रीयअखबार निकालने की बात किसी सपने जैसी ही लगती है। लेकिन हमारे भीतर एकअजीब सा उत्साह भरा हुआ था। कभी भी ऎसा नहीं लगा कि ये नहीं हो पाएगा।इसका कुछ श्रेय तरुण के बुलंद इरादों को भी जाता है और कुछ हमारे जोश को।कभी-कभार हम अपनी इस हिमाकत पर खूब हंसते भी थे। सच्चाई यही थी कि हमेंआने वाले कल का जरा भी अंदाजा नहीं था। तरुण ने एक मंत्र अपना लिया था।वे अक्सर कहते थे- ये होगा, जरूर होगा, शायद उन्होंने सकारात्मक रहने कीकला विकसित कर ली थी।लेकिन 26 जनवरी 2003 की तारीख हमारे लिए एक बड़ा झटका लेकर आई। हमारेस्टेनोग्राफर अरुण नायर की एक सड़क हादसे में मौत हो गई। दुख का एकसाथी, जिसने तहलका के भविष्य के लिए हमारे साथ ही सपने देखे थे, महजसत्ताईस साल की उम्र में हमारा साथ छोड़ गया। इस घटना ने हमें तोड़कर रखदिया। अखबार निकालने की तैयारी कर रहे हम लोगों को उस समय पहली बार लगाकि शायद अब ये नहीं हो पाएगा। हमें महसूस हुआ मानो कोई अभिशाप तहलका कापीछा कर रहा है।तहलका की कहानी के कई मोड़ हैं। इनमें एक वो मोड़ भी है जब जनवरी केदौरान बैंगलोर की एक मार्केटिंग कंपनी एरवोन ने हमसे संपर्क किया। कंपनीके पार्टनर्स में से एक राजीव नारंग तरुण के कालेज के दिनों के दोस्त थे।तरुण के इरादों से प्रभावित होकर उन्होंने तहलका को अपनी सेवाएं देने काप्रस्ताव रखा। हमारी उम्मीद को कुछ और ताकत मिली। राजीव ने जब हमाराप्लान देखा तो उन्होंने कहा कि इसे फिर से बनाने की जरूरत है। उन्होंनेसुझाव दिया कि हम बैंगलोर जाएं और उनके पार्टनर्स को तहलका कैंपेन कीजिम्मेदारी लेने के लिए राजी करें।अब कमान एरवोन के प्रोफेशनल्स के हाथ में थी। ये हमारे साथ तब हुआ जबहमें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। एरवोन के काम करने के तरीके ने हममेंनया जोश भर दिया। योजना बनी कि पूरे देश में एक जबर्दस्त सब्सक्रिप्शनअभियान शुरू किया जाए। मार्केटिंग के मामले में अनुभवी एरवोन की टीम नेअनुमान लगाया कि तहलका के नाम पर ही कम से कम तीन लाख एडवांससब्सक्रिप्शंस मिल जाएंगे। लेकिन कैंपेन चलाने के लिए भी तो पैसे कीजरूरत थी। ऎसे में हमारे दोस्त और शुभचिंतक अलिक़ पदमसी ने हमें एकरास्ता सुझाया। ये था- फाउंडर सब्सक्राइबर्स का, यानी ऎसे लोग जो इस कामके लिए एक लाख रुपये का योगदान कर सकें।एक बार फिर तरुण की देशव्यापी यात्रा शुरू हुई। महीने में 25 दिन तरुण नेलोगों से बात करते हुए बिताए। नाइट क्लबों, आफिसों और ऎसी तमाम जगहोंमें, जहां कुछ फाउंडर सब्सक्राइबर्स मिल सकते थे, बैठकें रखी गईं।हालांकि उस वक्त तक भी सरकार से पंगा लेने का डर लोगों के दिलों में तैररहा था। अप्रैल में हमें विक्रम नायर के रूप में पहला फाउंडरसब्सक्राइबर मिला। इसके बाद दूसरा फाउंडर सब्सक्राइबर मिलने में तीनहफ्ते लग गए। फिर धीरे-धीरे ये सिलसिला बढने लगा। हालांकि इस दौरान तरुणलगभग अकेले ही थे। मां बनने की वजह से मैं घर पर ही रहती थी। तोलिया जीजगह बदलकर पंचशील आ गए थे इसलिए हमें भी आफिस बदलना पड़ा था। येजिम्मेदारी नीना के कंधों पर आ गई थी। तरुण की पत्नी गीतन घर संभालने कीपूरी कोशिश कर रही थीं। बृज और प्रवाल भी अपनी जिम्मेदारी संभाल रहे थे।इसके बाद मोर्चा संभालने का काम एरवोन का था।हम केवल छह लोग रह गए थे। तरुण, उनकी बहन नीना, मैं, हमारे एकाउंटेंटबृज, डेस्कटाप आपरेटर प्रवाल और स्टेनोग्राफर अरुण नायर। सबका मकसद एकही था। तहलका का वजूद अब हमारे जेहन में ही सही, पर काफी मजबूत हो चुकाथा।धीरे-धीरे एरवोन की योजना रंग लाने लगी। मई के आखिर में जब मैंने फिर सेज्वाइन किया तब तक चौदह अच्छी खासी कंपनियों ने तहलका कैंपेन के लिएमचबूती से मोर्चा संभाल लिया था। इनमें O&M, Bill Junction, Encompassजैसे बड़े नाम शामिल थे। एडवरटाइजिंग कंपनियां, कॉल सेंटर्स, SMS सेवाएं,साफ्टवेयर कंपनियां हमारे इस अभियान को सफल बनाने के लिए तैयार थीं। औरइसके लिए उन्हें सफलता में अपना हिस्सा चाहिए था। जिस अंधेरी सुरंग सेहम गुजर कर आए थे उसे देखते हुए ये उम्मीद की किरण नहीं बल्कि आशाओं कीबड़ी दीवाली थी। मैंने थोड़ा राहत की सांस ली। हमने अपनी नियति को कुशलप्रोफेशनल्स के हाथ में सौंप दिया था। आखिरकार हम उस अंधेरी सुरंग केबाहर निकल आए थे।कैंपेन की तारीख 15 अगस्त 2003 तय की गई। फिर शुरू हुआ तैयारी का दौर।प्लान बना कि इस मिशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए चार हजार जागरूकनागरिकों की फौज तैयार की जाए। इन लोगों को हमने 'क्रूसेडर' नाम दियायानी अच्छाई के लिए लड़ने वाले लोग। क्रूसेडर्स को ट्रेनिंग दी जानी थीऔर तहलका के प्रचार के साथ उन्हें सब्सक्रिप्शन जुटाने का काम भी करनाथा जिसके लिए कमीशन दिया जाना तय हुआ। अभियान सात शहरों में चलाया जानाथा। हवा बनने लगी। ट्रेनिंग मैन्युअल्स, प्रोडक्ट ब्राशर, टीशर्ट जैसीप्रचार सामग्रियां तैयार की गईं। उधर फाउंडर सब्सक्राइबर्स अभियान भीठीकठाक चल रहा था। यानी अभियान को सफल बनाने के लिए कोई कोर कसर नहींछोड़ी गई।तारीख कुछ आगे खिसकाकर 22 अगस्त कर दी गई। अखबार 30 अक्टूबर को आना था।21 अगस्त को दिल्ली में कुछ होर्डिंग्स लगाए गए। उन पर लिखा था कि तहलकाएक अखबार के रूप में वापस आ रहा है। हम पूरी रात शहर में घूमे और इनहोर्डिंग्स को देखकर बच्चों की तरह खुश होते रहे। अगले दिन प्रेसकांफ्रेंस के बाद हम एक स्कूल आडिटोरियम में इकट्ठा हुए। जोशोखरोश के साथ1200 क्रूसेडर्स की टीम को संबोधित किया गया। अगले दो दिन तक हमेंसब्सक्रिप्शंस का इंतजार करना था।लेकिन हमारी सारी उम्मीदें औंधे मुंह गिरीं। 1200 क्रूसेडर्स की जिस टीमको बनाने में छह महीने लगे थे वह जल्द ही गायब हो गई। किसी भी कंपनी काप्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा। आने वाले हफ्तों में हम लांचअभियान के तहत चंडीगढ़, मुंबई, पुणे, बेंगलौर, चेन्नई गए मगर सब जगह वहीकहानी देखने को मिली। आशाओं का महल भरभराकर गिर गया। इससे बुरा हमारे साथकुछ नहीं हो सकता था। हर एक ने अपना हिस्सा मांगा और अलग हो गया।हालांकि एरवोन हमारे साथ खड़ी रही। लेकिन तहलका का दूसरा अध्याय पहले सेज्यादा कष्टकारी था। एक साल बीत चुका था और हमारा आत्मविश्वास लगभग टूटचुका था। हमें लगा कि हम और भी अंधेरी सुरंग में फंस गए हैं। ये सुरंगपहली वाली से कहीं ज्यादा लंबी थी।तहलका-3, यानी अखबार शुरू होने की कहानी के तीसरे भाग की अवधि सिर्फ तीनमहीने है। किसी को भी पूरी तरह ये अंदाजा नहीं था कि हार कितनी पास आ गईथी।मंझधार से अखबार तक भाग-3ये सितंबर का आखिर था। और हम सभी अब भी यकीन नहीं कर पा रहे थे कि हमाराकैंपेन नाकामयाब हो चुका है। सच्चाई तो ये थी कि कैंपने ढंग से शुरू हीनहीं हो पाया था। तहलका में पहली बार ऎसा दौर आया था कि जी हल्का करने केलिए हंसना भी बड़ी हिम्मत का काम था। हमें मालूम था कि अब हमारे पास कोईमौका नहीं है। धीरे-धीरे हमारी ताकत खत्म हो रही थी। हालात काफी अजीब होगए थे। अब ऎसा कोई नहीं था जिसका दरवाजा खटखटाया जाए। एरवोन ने दिल सेहमारे लिए काम किया था। वे ऎसे वक्त में हमसे जुड़े थे जब कोई भी हमारेपास आने की हिम्मत नहीं कर रहा था। बिना कोई फीस लिए उन्होंने हमारे लिएकाफी कुछ करने की कोशिश की थी। लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। लड़ाई जारी थी और हमारे हथियार खत्म हो चुके थे। अक्टूबर आते-आते हमग्रेटर कैलाश स्थित अपने आफिस में जस्टिस वेंकटस्वामी अपनी अंतरिमरिपोर्ट तैयार कर चुके थे। डरी हुई सरकार ने जस्टिस वेंकटस्वामी कोबदलकर जांच की कमान जस्टिस फूकन को थमा दी। खबरें आ रहीं थीं कि जांच एकबार फिर से शुरू होगी। लेकिन हमारे लिए अब और बर्दाश्त करना मुमकिन नहींथा।आ गए। दलदल में गहरे धंसने के बावजूद हमें आगे बढ़ना था। इसलिए कि हमेंअपने वादों की लाज रखनी थी। कुछ अच्छे पत्रकार हमारे साथ जुड़े। फाउंडरसब्सक्राइबर्स से अब भी कुछ पैसा आ रहा था। लेकिन ज्यादातर पैसा कैंपेनमें खर्च हो चुका था। 15 अक्टूबर को तरुण ने हम सबको बुलाया और कहा किहम 15 नवंबर को अखबार निकालेंगे। तब ये मानना मुश्किल था लेकिन अब लगताहै कि ये हताशा में उठाया गया हिम्मत भरा कदम था। हमें लग रहा था कि अबइस लड़ाई का अंत निकट है। लेकिन हमारे लिए और उन सभी लोगों के लिएजिन्होंने हम पर भरोसा जताया था, अखबार का एक इश्यू निकालना तो कम से कमजरूरी था। दिल के किसी कोने में ये उम्मीद भी थी कि किसी तरह अगर हमअखबार निकालने में कामयाब हो जाएं तो शायद कोई चमत्कार हो जाए।आशावाद को हमने जीवन का मंत्र बना लिया। एरवोन ने प्लान बी का सुझाव दियालेकिन तब तक हम बंद कमरे में लैपटाप पर बनाए गए प्लान के नाम से ही डरनेलगे थे। हमारे पास सिर्फ योजनाओं के बूते अच्छे सपने देखने की ऊर्जाखत्म हो गई थी। हम 15 नवंबर की तरफ बढते गए। अचानक तरुण के एक दोस्तसत्या शील का हमारी जिंदगी में आगमन हुआ। दिल्ली के इस व्यवसायी ने बुरेवक्त के दौरान कई बार तरुण की मदद की थी। सत्या को ये जानकर धक्का लगाकि हम कहां पहुंच गए थे। उन्होंने तरुण को को सुझाव दिया कि तीन साल कीमेहनत और मुसीबतों को यूं ही हवा में उड़ाना ठीक नहीं और बेहतर है कि एकनए प्लान पर काम किया जाए। हमने सभी पार्टनर्स के साथ एक मीटिंग की।सत्या इसमें मौजूद थे। ये शोरशराबे से भरी मीटिंग थी जिसके बाद हमारेकुछ दिन बेकार की दौड़धूप में बीते। हालांकि इसका एक फायदा ये हुआ किहमारी अफरातफरी और डर खत्म हो गया। एक बार फिर हमारा ध्यान बड़े लक्ष्यपर केंद्रित हो गया।तहलका के अनुभव इससे जुड़े हर एक शख्स के लिए कई मायनों में कायापलट कीतरह रहे। इन अनुभवों ने हमें कई चीजें सिखाईं। तहलका-2 से सबसेमहत्वपूर्ण बात जो हमने सीखी वो ये थी कि बड़े सपनों को साकार करने केलिए अच्छी योजनाओं के साथ-साथ काम करने वाले लोग भी चाहिए। हमने इसी दिशामें काम शुरू किया।अक्टूबर के आखिर तक हम अपने बिखरे सपनों के टुकड़े समेटने में लगे थे।एरवोन भी अब तक जा चुकी थी। हमने फिर से लांच की एक नई तारीख तय की-30जनवरी 2004। धीरे-धीरे, कदम दर कदम काम शुरू होने लगा। अफरातफरी का दौरअब पीछे छूट चुका था। संसाधन बहुत ज्यादा नहीं थे लेकिन अब हमारे साथ कईलोगों की किस्मत भी जुड़ी थी। तरुण ने एक बार फिर हमें बिना थके आगे बढनेका संकल्प याद दिलाया। हम सब ने फिर कंधे मिला लिए। पत्रकारों,डिजाइनर्स, प्रोडक्शन-प्रिंटिंग-सरकुलेशन एक्सपर्ट्स, एड सेल्समैन आदि कीएक टीम तैयार की गई। ये एक जुआ था। लेकिन इसमें जीत की अगर थोड़ी सी भीसंभावना थी तो वो तभी थी जब हम मैदान छोड़े नहीं। हमें लग रहा था कि अबइस लड़ाई का अंत निकट है। लेकिन हमारे लिए और उन सभी लोगों के लिएजिन्होंने हम पर भरोसा जताया था, अखबार का एक इश्यू निकालना तो कम से कमजरूरी था। दिल के किसी कोने में ये उम्मीद भी थी कि किसी तरह अगर हमअखबार निकालने में कामयाब हो जाएं तो शायद कोई चमत्कार हो जाए।फाउंडर सब्सक्राइबर्स का सिलसिला बना हुआ था। ये सचमुच किसी ऎतिहासिकघटना की तरह हो रहा था। अक्सर हमें तहलका में भरोसा जताती चिट्ठियांमिलती थीं। एक रिटायर कर्नल ने तो फाउंडर सब्सक्राइबर बनने के लिए अपनेपेंशन फंड से एक लाख रुपये दे दिये। दूसरी तरफ चांदनी नाम की एक बीस सालकी लड़की ने सब्सक्रिप्शंस कमीशन से मिलने वाली रकम से फाउंडरसब्सक्राइबर बनने जैसा अनूठा कारनामा कर दिखाया। इन अनुभवों ने हमें आगेबढने की ताकत दी। हमें महसूस हुआ कि हम अकेले नहीं हैं।नए साल की शुरुआत के साथ ही हमारी किस्मत के सितारे भी फिरने लगे। अब कामज्यादा कुशलता से होने लगा था। 17 जनवरी यानी पहला एडिशन लॉंच होने सेठीक बारह दिन पहले हमें एक युवा जोड़ा मिला जो तहलका के विचारों सेप्रभावित होकर इसमें पैसा लगाना चाहता था। कुछ दूसरे निवेशकों की भीचर्चा चल रही थी। लगने लगा था कि बुरे दिन बीत चुके हैं।कल तहलका का विचार एक अखबार की शक्ल अख्तियार कर लेगा। कौन जाने वक्त केसाथ ये कमजोर पड़ जाए या फिर धीरे-धीरे, खबर दर खबर, इश्यू दर इश्यू इसकीताकत बढ़ती जाए। हालांकि अभी ये ठीक वैसा नहीं है जैसा हमने सोचा था,लेकिन ये काफी कुछ वैसा ही है जैसा इसे होना चाहिए। हम फिर एक नए सफर कीशुरुआत कर रहे हैं और अंधेरी सुरंग पीछे छूट चुकी है। फिलहाल हमारे लिएउम्मीद का ये हल्का उजाला ही किसी बड़ी जीत से कम नहीं .....
बुधवार, 17 अक्टूबर 2007
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1 टिप्पणी:
आशीष, ब्लॉग की सक्रियता निरंतर बनी हुई है,अच्छी बात है। सामग्री भी बेहतर है। लेकिन तकनीकी पक्ष में सुधार की जरूरत है। एक तो मैटर को ब्लैक एंड व्हाइट ही रखा करो और दूसरा अपना फोटो छोटा करो। यह महज निवेदन है।
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