शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2007

पलायन के लिए मजबूर महिलाएं

  • आशीष कुमार ‘अंशु’
आमतौर जब हम राज्य से पलायन की बात करते हैं तो हमारी आंखों के सामने जिन एक-दो राज्यों की छवि उभरती है, वह बिहार होता है या फिर उत्तर प्रदेश। यह सच भी है, इन राज्यों से बड़ी संख्या में पलायन हुआ है, मगर झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों से भी बड़ी संख्या में स्त्री-पुरूष और बच्चों का पलायन शहरों और महानगरों की तरफ हो रहा है। पलायन करने वालों में युवा लड़कियों की संख्या सबसे अधिक है। पलायन करने वाले ये आदिवासी बड़ी संख्या में घरेलू नौकर का काम अथवा इसी तरह के दूसरे काम करने के लिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य राज्यों में जाते हैं। इन बातों का खुलासा हाल में ही ‘दृष्टि-स्त्री अध्ययन प्रबोधिनी केन्द्र’ द्वारा झारखंड (सीमडेगा, गुमला और रांची), छत्तीसगढ़ (जसपुर, सरगुजा (अम्बिकापुर) और रायगढ़) और उड़ीसा (राउरकेला) के आदिवासी इलाकों से घरेलू काम के लिए ले जाई जाने वाली महिलाओं की आर्थिक-सामाजिक स्थिति संबंधी एक अध्ययन से हुआ। दृष्टि द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार इन इलाकों से जाने वाली अधिकांश युवा लड़कियां, औरतें और बच्चे बड़े शहरों में घरेलू नौकर बनकर काम करते हैं। इन राज्यों से आकर घर में काम करने वाली लड़कियों की सबसे अधिक संख्या दिल्ली में है। आदिवासी इलाकों से सस्ते में महिलाओं-बच्चों को दूसरे राज्यों में ले जाने का काम ‘प्लेसमेन्ट एजेन्सियां’ करती हैं। आदिवासी इलाकों में ऐसी प्लेसमेन्ट एजेंसियों, प्लेसमेन्ट ब्यूरो और दलालों की बड़ी संख्या है जो उन महिलाओं/लड़कियों की तलाश में होते हैं, जिन्हें पैसों की जरूरत हो। ऐसे जरूरतमंद परिवारों की जरूरत का नाजायज फायदा ये प्लेसमेन्ट एजेंसियां और दलाल उठाते हैं। ये दलाल जरूरतमंद परिवारों को थोड़ी-बहुत अग्रिम राशि भी देते हैं और बदले में उस परिवार के एक सदस्य को शहर में नौकरी के लिए भेज देते हैं। कई आदिवासी इलाकों में प्लेसमेन्ट एजेंसियों की भूमिका चर्च अदा कर रहा है। चूंकि चर्च पर लोगों की आस्था है, इसलिए बड़ी संख्या में बेरोजगार युवक-युवतियां यहां रोजगार की आशा लिए आती हैं जिनमें अधिकांश जरूरतमंदों के लिए चर्च बड़े शहर या किसी महानगर में रोजगार की व्यवस्था करते भी हंै। बताया जाता है, यदि इन आदिवासियों के लिए कोई सरकार उनके अपने गृह राज्य में रोजी-रोटी की व्यवस्था करा दे तो उन्हें इसके लिए दर-दर भटकना नहीं पड़ेगा। कई लड़कियों ने दृष्टि के साथ बातचीत के क्रम में शिकायत की कि उन्हें गांव से ले जाते समय, बहुत सारे वादे किए जाते हैं। मगर वे वादे पूरे नहीं होते। बाद में शिकायत करने पर कोई सुनने वाला नहीं होता है। कुछ लड़कियों को तो जबर्दस्ती उनके घर से ले जाया गया। जबर्दस्ती का यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता है। जहां इन्हें काम के लिए भेजा जाता है, वहां भी अत्याचार, उत्पीड़न और शोषण आम बात है। इन सारे अत्याचारों के बावजूद आदिवासी इलाकों से लड़कियों/महिलाओं/पुरूषों का पलायन जारी है, क्योंकि इनके पास विकल्प नहीं है, क्योंकि हर हाथ को काम देने में इनकी सरकार असमर्थ है। रोजगार और रोटी की तलाश में यायावरों की जिन्दगी काटने को विवश इन महिलाओं का दो वक्त की रोटी की कीमत पर महानगरों की तरफ पलायन विवशता की अलग ही कहानी कहता है। उन्हें पता है कि दलाल के हाथों उनका शोषण होना तय है, उसके बावजूद वह उसके साथ निकल पड़ती हैं क्योंकि उनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है। वे असहाय लोग हैं, और उनकी सहायता करने के लिए उनके साथ कोई खड़ा होने को तैयार नहीं है। आदिवासी इलाकांें से निकलकर आई महिलाओं के लिए अपने शोषण की बात समझने-बूझने के बाद भी नौकरी न छोड़ने की सबसे बड़ी वजह यह है कि वे सोचती हैं कि यह नौकरी छोड़ दी तो दूसरी नौकरी कौन देगा? अब ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसकर कुछ आदिवासी महिलाएं यदि अनैतिक गतिविधियों में लिप्त हो जाएं, ऐसे में आश्चर्य कैसा? एक अनुमान के अनुसार पिछले एक साल छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड के आदिवासी इलाकों से लगभग 20-30 हजार युवा लड़कियां पलायन कर गई हैं। वैसे आधिकारिक तौर पर ऐसी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। मांग और पूर्ति का एक बहुत पुराना सिद्धांत है, वही सिद्धांत यहां काम कर रहा है। नौकरों द्वारा मालिकों की हत्या की कहानी अखबारों और टीवी चैनलों द्वारा लगातार छापी और दिखाई जा रही है, ऐसी स्थिति में नौकर की तलाश करने वाले मालिकों की पहली पसन्द छोटी बच्चियां ही होती हैं। घर में काम करने वाली ऐसी बच्चियों के लिए मालिक अच्छा पैसा खर्च करने को तैयार हैं। बिना इस बात की परवाह किए कि यह कानूनन जुर्म है। जो प्लेसमेन्ट एजेन्सियां हैं, वह इस तरह की मांग की पूर्ति में अधिक पैसा कमाती है। एक तरफ तो वह बच्ची के परिवार वालों से अच्छा पैसा वसूलती हंै रोजगार दिलवाने के नाम पर और मनचाहा नौकर दिलवाने के नाम पर मालिकों से जो वसूली होती है, वह अलग है। ऊपर से घरेलू काम करने वालियों को जो पारिश्रमिक मिलता है, वह भी प्रत्येक महीने पूरा का पूरा उनके परिवार तक नहीं पहुंचता। इसमें भी प्लेसमेंट एजेंसी वालों का कमीशन होता है। दरअसल, आदिवासी क्षेत्रों की महिलाओं के शोषण की एक वजह अशिक्षा और जागरूकता की कमी भी है।
(मेरा यह लेख राष्ट्रिय सहारा में प्रकाशीत हो चुका है। वहीं से साभार लिया है।)

2 टिप्‍पणियां:

36solutions ने कहा…

आशीष भाई धन्‍यवाद इतनी अच्‍छी जानकारी यहां लाने के लिए । हमें छत्‍तीसगढ से पलायन कर रहे लोगों के संबंध में संक्षिप्‍त जानकारी तो है एवं नोएडा आदि स्‍थानों में चल रहे प्‍लेसमेंट व्‍यूरो के क्रियाकलापों की भी संक्षिप्‍त जानकारी है, यदि आप उक्‍त संपूर्ण रिपोर्ट यहां प्रस्‍तुत कर सकें तो हम छ.ग. सरकार से इस संबंध में पत्रोत्‍तर तो कर ही सकते हैं संभव हो तो प्रदान कीजिएगा ।

'आरंभ' छत्‍तीसगढ का स्‍पंदन

Udan Tashtari ने कहा…

जानकारी भरा आलेख.

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम