तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था,
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था।
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था।
वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था।
न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था।
हमेशा बात वो करता था घर बनाने की,
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था।
मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था।
शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2007
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आशीष कुमार 'अंशु'

वंदे मातरम
4 टिप्पणियां:
bahut khoob
http://bolhalla.blogspot.com
बढ़िया है, खासतौर पर आखिरी दो पंक्तियाँ।
अच्छी ग़ज़ल है. #1, 2, और 6 मुझे ख़ास पसंद आए. #3 में 'यारों' को 'यारो' कर लें.
its nice....but can be made better...
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