सोमवार, 5 मई 2008

मीडिया स्कैन : भावी पत्रकारों का अखबार

-रवि टांक
जनता को जागरूक करने और जनमत का निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ 'मीडिया' के द्वारा किया जाता है। परन्तु आज मीडिया का स्वरूप बदल चुका है और इसी बदलते स्वरूप के चलते जो पत्रकारिता कभी एक मिशन समझी जाती थी, आज वही एक बड़े व्यवसाय में तब्दील हो चुकी है जिसका प्राथमिक उद्देश्य अधिक से अधिक लाभ कमाना हो गया है। इस प्रवृत्ति से बुजुर्ग पत्रकार चिंतित हैं। लेकिन वे बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं।
ऐसे माहौल में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे कुछ विद्यार्थियों ने अपने भावी पेशे को विशुध्द 'बाजारू' बनने से रोकने के लिए कुछ करने का मन बनाया। उन्होंने पत्रकारिता के छात्रों को मीडिया जगत की हकीकत बताने और साथ ही इसके सामाजिक सरोकारों के बारे में सचेत करने के लिए काफी विचार-विमर्श के बाद एक पहल की है। उनकी यह पहल है 'मीडिया स्कैन' नामक चार पृष्ठ वाला मासिक अखबार जिसके द्वारा वे अपनी बात पत्रकारिता के छात्रों तक पहुंचाते हैं। जुलाई 2007 से प्रकाशित होने वाला मीडिया स्कैन दिल्ली विश्वविद्यालय, भारतीय जनसंचार संस्थान, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया, भारतीय विद्या भवन आदि संस्थानों के छात्रों की मेहनत का परिणाम है।
अखबार हाथ में आते ही उफपर दृष्टि जाती है जहां लिखा है - 'जुबान नरम, तासीर गरम'। इससे अखबार से जुड़े लोगों का तेवर साफ समझ में आ जाता है। मीडिया स्कैन का मूल्य रखा गया है सवा रुपया जो वास्तव में बाजार के नियमों का एक तरह से मजाक उड़ाता है। लाभ कमाने की बात अखबार से जुड़े छात्रों के दिमाग में दूर-दूर तक नहीं है। कोई स्पान्सर मिल जाए तो ठीक अन्यथा अपने पैसे लगाकर उन्होंने अखबार को चलाए रखने का निश्चय किया है। विज्ञापन लेने से उन्हें एतराज नहीं लेकिन अपनी शर्तों पर। विज्ञापन जुटाने के लिए अखबार निकालना उनका उद्देश्य नहीं है। छात्र जीवन की आर्थिक मुश्किलों के बीच उनका यह निश्चय हमें आज की युवा पीढ़ी के उस वर्ग से परिचय करवाता है जिसके लिए 'अर्थ' जरूरी है, लेकिन सब कुछ नहीं है।
मीडिया स्कैन में भावी पत्रकारों के साथ-साथ प्रतिष्ठित पत्रकार भी विभिन्न विषयों पर लिखते हैं। छोटी सी अवधि में ही इस अखबार ने कई प्रतिष्ठित लोगों का धयान अपनी ओर खींचा है। प्रख्यात पर्यावरणविद अनुपम मिश्र के अनुसार पत्र का प्रकाशन सराहनीय है। भावी पत्रकारों का मानस निर्माण करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। पत्रकारिता के कुछ जुझारू छात्रों द्वारा संचालित यह पत्र आज केवल दिल्ली में ही नहीं बल्कि विभिन्न प्रदेशों में भी छात्रों के माध्यम से ही पहुंच चुका है। इसके अतिरिक्त इसे इन्टरनेट पर ई-मेल के माध्यम से लगभग साढ़े तीन हजार लोगों तक पहुंचाया जा रहा है। शीघ्र ही इसकी वेबसाइट भी शुरू करने की योजना है। जिस प्रकार छात्रों एवं वरिष्ठ पत्रकारों के साथ-साथ समाज के गणमान्य लोगों ने इस प्रयास को सराहा है, उससे पत्र के संचालकों का आत्मविश्वास बढ़ा है।
अपनी आगे की रणनीति को लेकर मीडिया स्कैन से जुड़े छात्र बहुत स्पष्ट हैं। वे इसे एक सहकारी उद्यम मानते हैं और चाहते हैं कि इस पत्र की पहचान एक ऐसे अखबार के रूप में बने जो मीडिया छात्रों द्वारा मीडिया छात्रों के लिए निकाला जा रहा है, लाभ कमाने के लिए नहीं बल्कि उन्हें यह बताने के लिए कि पत्रकारिता केवल आजीविका का साधन भर नहीं, बल्कि एक मिशन भी है।
- भारतीय पक्ष में छपा

7 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

हिन्दी पत्रकारिता का स्तर सुधारेंगे, और अपने प्रकाशन का नाम इंग्लिश में रखा है! जो एक अच्छा सा हिन्दी नाम भी न खोज पाए उनसे इतने बड़े दावे सुनना मजाक लगता है. इन्होने अपने सी.वी. जोरदार बनने के लिए अखबार निकला है, और बड़े-बड़े दावे करना तो मार्केटिंग फंडा है ही.

बेनामी ने कहा…

हिन्दी पत्रकारिता का स्तर सुधारेंगे,

यह बात तो रवि ने लिखी भी नहीं, आपने कहां पढ लिया?

बेनामी ने कहा…

"जुबान नरम, तासीर गरम"
यह टैगलाइन किसी इंग्लिश पत्रिका की तो होगी नहीं

बेनामी ने कहा…

"जुबान नरम, तासीर गरम"

यह हिन्दी हो यह भी जरूरी नहीं,

जनाब लेकिन आप उंगली करने वाले समाज का एक हिस्सा हैं, यह तय है

ab inconvenienti ने कहा…

वैसे तो अंगुली नहीं कर रहा था, पर आपको लगता है तो कर ही रहा होऊंगा. वैसे जब मीडिया में करियर बनाना है तो हर सही या ग़लत बात पर गहरे से विचार करने की आदत डालो, क्योंकि यह गंभीर पत्रकारिता का पहला नियम है (ग़लत बात यानि अंगुली भी कभी कभी काफी कुछ सिखाती है). गंभीर पत्रकारिता की भाषा भी गंभीर होनी चाहिए नहीं तो कोई भी आपकी बात गंभीरता से नहीं लेगा. और यह पत्रिका तो आधी हिन्दी आधी इंग्लिश होगी या खिचड़ी होगी. अब खिचड़ी से 'टाइम' 'न्यूज़वीक' या 'इकोनोमिस्ट' के जैसा प्रभाव और स्तर तो पैदा नहीं कर सकते न.
जैसे की,
'इंडिया के यंगस्टरस को करप्शन के इल इफेक्ट्स के बारे में अवेअर करने के लिए सिविल ग्रुप्स एक सीरियस नेशन वाइड केम्पैन की प्रिपरेशन कर रहे हैं.'

ab inconvenienti ने कहा…

और हाँ, मैं पत्रकार नहीं हूँ, न बनने का विचार है. तो मेरी खिचड़ी भाषा को बारह-तेरह सालों की खिचड़ी की खुराक का नतीजा ही समझो. क्या ये 'अच्छी पत्रकारिता' करने वाले छात्र समाचारों के स्तर के साथ उसकी भाषा को भी वापस लायेंगे? देखते हैं एक ब्रेक के बाद .........................

बेनामी ने कहा…

किसी विषय में बिना देखे भाले राय कायम करने वाले जनाब आपके लिय क्या कहा जाय्.

यदि आप दिल्ली में हैं तो मिल सकते हैं, यदि आप दिल्ली के बाहर हैं तो हम आपसे मिलने की कोशिश करेंगे.

आप चाहे तो बात कर सकते हैं - 09891323387 (संपादक),
09868573612, 09310621099
(कला संपादक)

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम