मंगलवार, 27 अगस्त 2013

विकास बनाम मन्दिर-मस्जिद...

यदि बात मस्जिद की करें तो जिस स्थान के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में इतना विवाद हुआ, उसके डेढ़-दो सौ मीटर की दूरी पर एक दूसरी बड़ी मस्जिद है। गांव से ही पता चला कि जुमे की नमाज ना हो तो आम तौर पर बड़ी मस्जिद में दस लोगों को जुटना भी मुश्किल होता है...


ग्रेटर नोएडा के सोए हुए गांव कादलपुर की तारिफ इस बात के लिए पूरे मुल्क को करनी चाहिए कि उसने प्रदेश की सोई हुई अखिलेश सरकार को जगा दिया। वर्ना चालिस-पैंतालिस मीनट में किसी सरकारी अधिकारी का निलंबन किस राज्य में होता है? इसका संदेश जनता में तो यही जाता है कि समाजवादी पार्टी आवश्यकता समझे तो किसी बड़े से बड़े अधिकारी को आधे घंटे में सस्पेन्शन ऑर्डर दे सकती है।
अधिकारी पार्टी की हां में हां मिलाने वाला हैै तो सिर्फ जांच बिठाई जाएगी। जांच तो सालों साल चलती है और एक दिन उसकी रिपोर्ट भी आ जाती है, उस वक्त तक लोगों में रिपोर्ट के परिणामों को जानने में कोई रूचि नहीं होती। वैसे अखिलेश सरकार में सिर्फ सस्पेन्शन नहीं हुआ, उनके एक बड़े नेता सार्वजनिक सभा में स्वीकार किया कि उसकी वजह से यह निलंबन हुआ। उसके बाद भी अखिलेश सरकार इस बात से पिछे हटने को तैयार नहीं है कि गांव में साम्प्रदायिक हिंसा का माहौल था, जबकि गांव के लोग खुद स्वीकार कर रहे हैं कि मस्जिद के लिए हिन्दूओं में भी सभी जातियों के लोगों ने अपने-अपने सामर्थ से चंदा दिया था। जिस गांव में इतने सहयोग रखने वाले हिन्दू-मुस्लिम हो, वहां तो सिर्फ नेता ही दंगा करवा सकते हैं। इसलिए जनता ही तय करें कि वास्तव में सस्पेन्ड कौन होना चाहिए और हुआ कौन?
मन्दिर-मस्जिद जिसे समाज को जोड़ने का केन्द्र होना चाहिए था, वह इस देश में समाज को तोड़ने का हथियार बन कर रह गई है। इस देश के नेता जानते हैं कि यह एक मात्र फार्मूला है, जिससे एक मुश्त वोट लिया जा सकता है। कादलपुर के एक एक बच्चे को सरकार पढ़ाने की जिम्मेवारी ले ले या फिर गांव के एक एक बेरोजगार युवक को नौकरी देने के काम पर लग जाए तो दूसरे गांव-मोहल्लों के लोग भी रोजगार और शिक्षा के लिए सड़क पर उतर आएंगे। लेकिन कादलपुर में मस्जिद की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी जानती है कि एक मस्जिद के नाम पर पूरे उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के दिल में अपने लिए एक सॉफ्ट कॉर्नर बनाया जा सकता है। बेहतर तो यह हो कि पूरे उत्तर प्रदेश में जितनी मस्जिदें उनके मौलाना नरेन्द्र भाटी को मिले और उनसे मस्जिद मरम्मत के नाम पर इकावन हजार रूपए की मांग करें। वैसे भाटी जी ने अब तक कादलपुर वालों को इकावन हजार रुपए के आश्वासन पर ही रखा हुआ है। मस्जिद निर्माण के लिए अभी भाटीजी के पैसे गांव वालों को मिले नहीं हैं।  वे आश्वासन पर ही मीडिया में इतनी फूटेज ले चुके हैं, जितनी लाखों खर्च करके भी लोग नहीं ले पाते।
गांव के ही एक सज्जन ने कहा- जो सरकार चालिस मीनट में एक बड़े अधिकारी को निलंबित कर सकती है, वह सात दिन में मस्जिद भी बना सकती थी लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।
अब उस मस्जिद की बात जहां उत्तर प्रदेश पुलिस के दो सिपाही इसलिए बैठे हैं क्योंकि निर्माण कार्य आगे ना बढ़े। यहां नमाज अदा हो इसके लिए धीरेन्द्र सिंह नाम के एक स्थानीय कांग्रेसी नेता ने यहां तक कह दिया कि नमाज यहीं पढ़ी जाएगी और पुलिस गोली चलाती है तो पहली गोली वे खाएंगे। ‘शर्म की बात यह है कि निर्मानाधीन मस्जिद के स्थान के बराबर जो सड़क निकलती है, वहां नाले और सड़क का अंतर मिट गया है। नाले में सड़क है या फिर सड़क पर नाला है, यह अंतर कर पाना मुश्किल है। गांव में दर्जनों बच्चे बीमार हैं, बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जाते। गोली खाने को तैयार सिंह साहब ने यह नहीं कहा कि एक महीने के अंदर यदि गांव के अंदर की सड़क दुरूस्त नहीं करवा पाया, गांव के एक-एक बच्चे को अच्छा ईलाज नहीं दिलवा पाया और गांव के एक एक बच्चे के लिए अच्छी शिक्षा बंदोबस्त नहीं कर पाया तो गोली खाने का हकदार बनूंगा।
इस देश में अस्सी कोसी यात्रा के नाम पर और मस्जिद के नाम पर गोली खाने वाले बहुत हैं, लेकिन रोजी-रोटी, शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर कितने लोग हैं, जो गोली खाने को तैयार हैं?
यदि बात मस्जिद की करें तो जिस स्थान के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में इतना विवाद हुआ, उसके डेढ़-दो सौ मीटर की दूरी पर एक दूसरी बड़ी मस्जिद है। गांव से ही पता चला कि जुमे की नमाज ना हो तो आम तौर पर बड़ी मस्जिद में दस लोगों का जुटना भी मुश्किल होता है।
अब तो कहा यह भी जा रहा है कि दुर्गा को योजना बनाकर तो कादलपुर नहीं भेजा गया था क्योंकि इतनी छोटी बात पर, बड़े अधिकारियों का इतनी जल्दी निलंबन नहीं होता। अभी तक उत्तर प्रदेश में वे अधिकारी भी अपने पदों पर बने हुए हैं, जिनके ‘शासन में साम्प्रदायिक दंगे हुए। यह कहीं समाजवादी पार्टी का रेत माफियाओं को लूट की खुली छुट देने के साथ-साथ, उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के बीच अपनी छवि सुधारने की कवायद भी तो नहीं है।


1 टिप्पणी:

अजय कुमार झा ने कहा…

आपने तो पूरी पोल हीखोल कर रख दी सियासत की अंशु भाई । हैरानी तब ज्यादा होती है जब हम सब कुछ जानते हैं समझते हैं फ़िर भी राजनेता इस तरह की बातें कर लेते हैं । सामयिक आलेख

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम